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स्वामिनारायण

स्वामिनारायण

भगवान स्वामीनारायण
धर्महिन्दू
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ
जन्म घनश्याम
३ अप्रैल १७८९
छपिया, उत्तर प्रदेश, भारत
निधन १८३०
गढ़डा, गुजरात, भारत
शांतचित्त स्थान अक्षरधाम
पिता धर्मदेव
माता भक्ति माता
पद तैनाती
पूर्वाधिकारीरामानंद स्वामी
उत्तराधिकारीगुणातीतानंद स्वामी

स्वामिनारायण या सहजानन्द स्वामी (२ अप्रैल १७८१ - १ जून १८३०), हिंदू धर्म के स्वामिनारायण संप्रदाय के संस्थापक और इष्ट देवता है।[2] इन्हें नीलकंठ वर्णी के नाम से भी जाना जाता है।

उनका जन्म राम नवमी के अयोध्या के पास ही छपिया नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता पिता का नाम धर्मदेव और भक्ती माता था। बाल्य काल में विद्या ग्रहण कर के उन्हों ने गृह त्याग किया था। नीलकंठ वर्णी नाम धारण करके उन्होंने हिमालय में कठिन तपस्या और भारत के समस्त तीर्थो की यात्रा की थी। बाद में उन्होंने गुजरात के रामानंद स्वामी से दीक्षा धारण कर उन्हे अपना गुरु बनाया। रामानंद स्वामी के देहांत के बाद उन्हों ने स्वामीनारायण सम्प्रदाय की स्थापना और प्रचार किया। उन्होंने अस्पृश्यता, अंधविश्वास, सती प्रथा, बलि प्रथा का अंत किया था। तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य सदाचार जैसे वैदिक मूल्यों को समाज में पुनः स्थापित किया। उनके ऐसे ही महान कार्यों के कारण जन समुदाय में वे श्रीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। [3]

जन्म

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स्वामीनारायण का जन्म

श्री स्वामीनारायण का जन्म सोमवार , 3 अप्रैल, 1781 को रात्रि 10:00 बजे चैत्र सुद 9 को अयोध्या के पास छपैया गाँव में पिता हरिप्रसाद पांडे (जिन्हें धर्मदेव के नाम से भी जाना जाता है) और माता प्रेमवती (जिन्हें भक्तिमाता या मूर्तिदेवी के नाम से भी जाना जाता है) के घर में हुआ था। , संवत् 1837. हुआ संयोगवश उस दिनरामनवमी भी थी । इसलिए इस दिन को स्वामीनारायण संप्रदाय के लोगों द्वारा स्वामिनारायण जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। उनके बचपन का नाम घनश्याम था। उनके दो भाई थे, बड़े भाई का नाम रामप्रताप पांडे और छोटे भाई का नाम इच्छाराम पांडे था।

जब स्वामीनारायण पांच वर्ष के थे, तब उनके पिता धर्मदेव ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। अपने पिता से बाल घनश्याम को चार वेद, रामायण,महाभारत, श्रीमद्भागवत,पुराण, श्री रामानुजाचार्य प्रणीत श्री भाष्य, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि की शिक्षा मिली। उन्होंने इन सभी ग्रंथों का सार संग्रहित किया, अपने लिए एक संग्रह बनाया।

नीलकंठ वर्णी रूप में तपस्या

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निलकंढ वर्णी रूप में स्वामीनारायण

अपनी माता और पिता के अंतिम संस्कार के बाद ग्यारह वर्षीय बालक स्वामीनारायण घर छोड़कर जंगल में घूमने चले गए। चूँकि स्वामीनारायण ने अपनी यात्रा के दौरान स्वयं को एक तपस्वी के रूप में प्रच्छन्न किया था, इसलिए उन्हें नीलकंठ वर्णी के नाम से जाना जाने लगा। नीलकंठवर्णी ने सात वर्षों तक देश के विभिन्न हिस्सों में पैदल यात्रा की। सबसे पहले वह हिमालय में पुलहश्रम गये। उसके बाद बुटोलपट्टन से आगे बढ़ते हुए नेपाल में गोपाल योगी से मुलाकात हुई । एक वर्ष तक उनके साथ रहकर अष्टांग योग सीखा। उसके बाद उन्होंने फिर से विभिन्न क्षेत्रों में अनुयायी बनाए और अंततः रामानंद स्वामी से मिले , अपना घर त्यागकर, उन्होंने पूरे भारत में जंगलों और तीर्थयात्राओं में लगभग १२०० किमी की पैदल यात्रा की और २८ अक्टूबर १८०० को कार्तक रामानंद स्वामी से पीपलाना मुकाम प्राप्त किया। . रामानंद स्वामी ने सहजानंद स्वामी और नारायणमुनि दो नाम दिये और उन्हें अपनी सेवा में रखा।

रामानंद स्वामी से दीक्षा

गुरु रामानंद स्वामी ने नीलकंठवर्णी को भागवदी दीक्षा दी। 1857 कार्तिक सुदी एकादशी के दिन (28-10-1800) को महादीक्षा दी और उनका नाम सहजानंद स्वामी और नारायण मुनि रखा। महादीक्षा देने के बाद गुरु रामानंद स्वामी वि.स. 1858 कार्तिक सुदी एकादशी (दिनांक 16-11-1801) को अपने आश्रितों-अनुयायियों के समक्ष सहजानंद स्वामी को उद्धव संप्रदाय की प्रधानता सौंपकर जेतपुर में अपना आसन दिया । जब सहजानंद स्वामी ने गुरु को प्रणाम किया तो रामानंद स्वामी प्रसन्न हुए और सहजानंद स्वामी से ये दो वरदान मांगे।

  • यदि आपका भक्त बिच्छू के समान कष्ट सहना चाहता है तो उसके बदले मुझे तो कष्ट हो सकता है परंतु भक्त को नहीं।
  • यदि आपके भक्त के कर्म में रामपत्र (भीख मांगना) आना लिखा है तो उस रामपत्र को मेरे पास आने दो, परंतु उस भक्त को भोजन और वस्त्र से दुःखी नहीं होना चाहिए।

सम्प्रदाय के आचार्य के रूप में स्वामीनारायण

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शिक्षापत्री लिखते हुए स्वामीनारायण भगवान

रामानन्द स्वामी का निधन संवत् १८५८ (ई.स. 1801) में मागशर सूद-13 को हुआ। तब सहजानंद स्वामी ने फ़रेनी में अपनी पहली बैठक की और अपने अनुयायियों से "स्वामीनारायण" मंत्र का जाप करने को कहा। तब से उद्धव संप्रदाय को स्वामीनारायण संप्रदाय के नाम से जाना जाने लगा । तब से, स्वामी सहजानंद भगवान स्वामीनारायण के रूप में प्रसिद्ध हो गए। जब स्वामी काठिया दरबार में रहते थे, तब उन्हें काठिया भगवान के नाम से भी जाना जाता था, उस समय स्वामीनारायण ने वडताल के जोबन पगी , उपलेटा के वेराभाई जैसे भयानक लुटेरों को अपना अनुयायी बनाया । श्री स्वामीनारायण ने लड़कियों को दूध देने की प्रथा के खिलाफ लाल बत्ती उठाई और कई लोगों को समाज से इस प्रथा को खत्म करने के लिए एक आंदोलन शुरू करने के लिए राजी किया। उन्होंने सती प्रथा, पशु बलि, तांत्रिक अनुष्ठान, छुआछूत और व्यसनों का भी विरोध किया। उन्होंने १२०० से अधिक संतों को दीक्षा दी और अनेक अनुयायी बनाये। अपने अनुयायीओ को नियम में रखने के शिक्षापत्री संस्कृत में लिखी। स्वामीनारायण संप्रदाय का पहला मंदिर अहमदाबाद में स्थापित किया गया था । इस मंदिर में नरनारायण देव की स्थापना की गई थी । बाद में वडताल , धोलेरा ,भुज , जूनागढ़ और गढ़डामें भी शिखर वाले मंदिर बनाये गये । [4] उनके प्रयासों सेगुजरात में स्वामीनारायण संप्रदाय का बहुत विकास हुआ।

देहांत

सम्प्रदाय ग्रंथों के अनुसार, जब भगवान स्वामीनारायण को लगा कि उनके अवतार के सभी उद्देश्य पूरे हो गए हैं, तो उन्होंने भोजन और पानी त्याग दिया और भटकना भी बंद कर दिया। अंतिम दिनों में, उन्होंने केवल अपने आचार्यों और संतों जैसे गुणातीतानंद स्वामी , गोपालानंद स्वामी से प्रार्थना की आदि उनसे मिलना और उपदेश देना।

संवत 1883, जेठ सुद दशम (1 जून, 1830) के दिन उन्होंने यौगिक कलाओं के माध्यम से अपने भौतिक शरीर का त्याग किया। उनका अंतिम संस्कार गढ़डा में दरबार श्री दादा बापू खाचर के लक्ष्मीवाड़ी में रघुवीरजी और अयोध्या प्रसाद द्वारा किया गया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, भगवान स्वामीनारायण ने धाम गमन से पहले संप्रदाय के प्रबंधन की जिम्मेदारी धर्मवंशी आचार्यों को सौंपी थी, जबकि गुणातीतानंद स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक विरासत गोपालानंद स्वामी को दी थी।[5] हालाँकि, इस विषय पर विद्वानों की अलग-अलग राय है।

परिचय

ब्राह्मण संत श्री घनश्याम पांडे जिन्हें अनुयायियों ने स्वामिनारायण नाम दिया का जन्म 3 अप्रैल 1781 (चैत्र शुक्ल 9, वि.संवत 1837) को परब्रम्ह भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के पास गोण्डा जिले के छपिया ग्राम में हुआथा।[6] रामनवमी होने से सम्पूर्ण क्षेत्र में पर्व का माहौल था। उनके माता-पितधर्म देव और भक्ति ने घनश्याम पांडे रखा था बाद में उन्हें निलकंठवर्णी और स्वामीनारायण विगेरे नामों से लोग भक्तिभाव से बुलाते थे। अनुयाय के अनुसार हाथ में पद्म और पैर्ध्व रेखा कमल जैसे दिखने वाले चिन्ह देखकर ज्योतिषियों को लगा कि यह बालक धर्म प्रचारक ह समाज को दिशा देगा।

पांच वर्ष की अवस्था में बालक को अक्षरज्ञान दिया गया। आठ वर्ष का होने पर उसका जनेऊ संस्कार हुआ। छोटी अवस्था में ही उसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। जब वह केवल 11 वर्ष का था, तो माता व पिताजी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद लोगो के कल्याण के हेतु उन्होंने घर छोड़ दिया और अगले सात साल तक पूरे देश की परिक्रमा की। अब लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे। इस दौरान उन्होंने गोपालयोगी से अष्टांग योग सीखा। वे उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम तीर्थआदि तक गये। इसके बाद पंढरपुर व नासिक होते हुए वे गुजरात आ गये।[7]

एक दिन भगवान स्वामीनारायण अर्थात नीलकंठवर्णी मांगरोल के पास 'लोज' गांव में पहुंचे। वहां उनका परिचय स्वामी मुक्तानंद में हुआ, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे। नीलकंठवर्णी स्वामी रामानंद के दर्शन को उत्सुक थे। भेंट के बाद रामांनद जी ने उन्हें स्वामी मुक्तानंद के साथ ही रहने को कहा। नीलकंठवर्णी ने उनका आदेश शिरोधार्य किया।

उन दिनों स्वामी मुक्तानंद कथा करते थे। उसमें स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आते थे। नीलकंठवर्णी ने देखा और अनेक श्रोताओं और साधुओं का ध्यान कथा की ओर न होकर महिलाओं की ओर होता है। अतः उन्होंने पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए अलग कथा की व्यवस्था की तथा प्रयासपूर्वक महिला कथावाचकों को भी तैयार किया। उनका मत था कि संन्यासी को उसके लिए बनाये गये सभी नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।

कुछ समय बाद स्वामी रामानंद ने नीलकंठवर्णी को पीपलाणा गांव में दीक्षा देकर उनका नाम 'सहजानंद' रख दिया। एक साल बाद जेतपुर में उन्होंने सहजानंद को अपने सम्प्रदाय का आचार्य पद भी दे दिया। इसके कुछ समय बाद स्वामी रामानंद जी का शरीरांत हो गया। अब सहजानंद स्वामी ने गांव-गांव घूमकर सबको स्वामिनारायण मंत्र जपने को कहा। उन्होंने निर्धन सेवा को लक्ष्य बनाकर सब वर्गों को अपने साथ जोड़ा। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। वे अपने शिष्यों को पांच व्रत लेने को कहते थे। इनमें मांस, मदिरा, चोरी, व्यभिचार का त्याग तथा स्वधर्म के पालन की बात होती थी। सहजानंद अर्थात स्वामिनारायण जी ने जो नियम बनाये, वे स्वयं भी उनका कठोरता से पालन करते थे। उन्होंने यज्ञ में हिंसा, बलिप्रथा, सतीप्रथा, कन्या हत्या, भूत बाधा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः गुजरात रहा। प्राकृतिक आपदा आने पर वे बिना भेदभाव के सबकी सहायता करते थे। इस सेवाभाव को देखकर लोग उन्हें भगवान के अवतारी मानने लगे। आचार्य सहजानंद उर्फ स्वामिनारायण जी ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया, इनके निर्माण के समय वे स्वयं सबके साथ श्रमदान करते थे। भगवान स्वामीनारायण ने अपने कार्यकाल में अहमदाबाद (गुजरात), मूली, भूज, जेतलपुर, धोलका, वडताल, गढ़डा, धोलेरा तथा जुनागढ़ में भव्य शिखरबध्द मंदिरों का निर्माण किया। यह मंदिरों स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है।

धर्म के प्रति इसी प्रकार श्रद्धाभाव जगाते हुए भगवान स्वामीनारायण ने संप्रदाय के संचालन के लिए अपने दोनो भतीजों को आचार्य बनाया, और अपना आध्यात्मिक ज्ञान गोपालानंद स्वामी तथा गुणतितानंद स्वामी को प्रदान करके उन्होंने १ जून १८३० के दिन अपने भौतिक देह का त्याग किया। आज भी उनके अनुयायी विश्व भर में फैले हैं।




सन्दर्भ

  1. https://www.hinduismtoday.com/magazine/educational-insight-akshar-purushottam-school-of-vedanta/
  2. Malabari, Behramji Merwanji (1997). Gujarat and the Gujaratis: Pictures of Men and Manners Taken from Life (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-206-0651-7.
  3. "Swaminarayan Jayanti 2024: कैसे घनश्याम नाम का बालक बन गया भगवान स्वामीनारायण? जिनका दुनियाभर में है मंदिर". Amar Ujala. अभिगमन तिथि 2024-06-09.
  4. "સર્વાવતારી ભગવાન શ્રી સ્વામિનારાયણ – જીવન ચરિત્ર – શ્રી સ્વામિનારાયણ મંદિર વઢવાણ ધામ" (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-06-24.
  5. "Gunatitanand Swami's Life - "I Dwell in you Eternally"". www.swaminarayan.org. अभिगमन तिथि 2023-06-25.
  6. "Times Music cassette on Swaminarayan serial launched". The Times of India. 2002-01-19. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0971-8257. अभिगमन तिथि 2023-05-13.
  7. Kurien, Prema A. (2007). A Place at the Multicultural Table: The Development of an American Hinduism (अंग्रेज़ी में). Rutgers University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8135-4056-6.

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