स्वरूपानंद सरस्वती
शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती महाराज (जन्म: 2 सितम्बर 1924 – ब्रह्मलीन: 11 सितम्बर 2022) एक हिन्दू अध्यात्मिक गुरु, शंकराचार्य और स्वतन्त्रता सेनानी थे।[1] स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती और स्वामी सदानंद सरस्वती ज्योतिष्पीठ और द्वारकापीठ में उनके उत्तराधिकारी हैं।
स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती | |
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स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती, जनता के बीच (मध्य प्रदेश) | |
जन्म | पोथीराम उपाध्याय 2 सितम्बर 1924 सिवनी, मध्य प्रदेश, (भारत) |
मृत्यु | 11 सितम्बर 2022 नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश, (भारत) | (उम्र 98)
धर्म | हिन्दू |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
जीवन परिचय
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और मां श्रीमती गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा।
नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली।
1950 में ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये।
योगदान और कार्य
शंकराचार्य का पद हिन्दू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण है, हिंदुओं का मार्गदर्शन एवं भगवत् प्राप्ति के साधन आदि विषयों में हिंदुओं को आदेश देने के विशेष अधिकार शंकराचार्यों को प्राप्त होते हैं। सभी हिंदूओं को शंकराचार्यों के आदेशों का पालन करना चाहिये। वर्तमान युग में अंग्रेजों की कूटनीति के कारण धर्म का क्षय, जो कि हमारी शिक्षा पद्धति के दूषित होने एवं गुरुकुल परंपरा के नष्ट होने से हुआ है, हिंदूओं को संगठित कर पुनः धर्मोत्थान के लिये चारों मठों के शंकराचार्य एवं सभी वैष्णवाचार्य महाभाग सक्रिय हैं।
हिंदुओं को संगठित करने की भावना से आदिगुरु भगवान शंकराचार्य ने 1300 वर्ष पूर्व भारत के चारों दिशाओं में चार धार्मिक राजधानियां (गोवर्धन मठ, श्रृंगेरी मठ, द्वारका मठ एवं ज्योतिर्मठ) मठ स्थापित किये। जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी 1982 से 2022 तक द्वारकापीठ एवं 1973 से 2022 तक ज्योतिष पीठ के अद्वितीय शंकराचार्य थे।[2]
स्वतंत्रता संग्राम मे योगदान
जब स्वामी जी ने छोड़ दिया, यह वह समय था, जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा, तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह "क्रांतिकारी साधु" के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे।
विचार और जागरुकता
स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती जी, सांई बाबा (या चांद मिया) की पूजा करने के विरोध में रहे, क्योंकि कुछ हिंदू दिशाहीन हो कर अज्ञानवश असत् की पूजा करने में लगे हुए हैं। जिससे हिंदुत्व में विकृति पैदा हो रही है। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी के अनुसार इस्कॉन भारत में आकर कृष्ण भक्ति की आड़ में धर्म परिवर्तन कर रहा है, ये अंग्रेजों की कूटनीति है कि हिंदुओं का ज्ञान ले कर हिंदुओं को ही दीक्षा दे कर ईसाई बना रहे हैं।
उन्होंने कांग्रेस पर जबरदस्ती हिंदू धर्मांतरण का भी आरोप लगाया। उन्होंने जम्मू और कश्मीर में हिंदुओं की घटती आबादी और उनकी हत्या के बारे में भी हिंदुओं को जागरूक किया। श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का 95 वां जन्मदिवस वृंदावन में बर्ष 2018 में मनाया गया एवं यहीं उनका 72वां चातुर्मास समपन्न हुआ।[3]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "स्वरूपानंद सरस्वती: सारांश". मूल से 29 अगस्त 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2014.
- ↑ "Thumbnail sketch biography of Swami Swaroopanand Saraswati". Paul Mason. n.d. अभिगमन तिथि 26 January 2015.
- ↑ "Shri Jagat Guru Swaroopanand". jagadgurushankaracharya.org. मूल से पुरालेखित 12 May 2015.सीएस1 रखरखाव: अयोग्य यूआरएल (link)