स्वभाव
स्वभाव या स्वलक्षण (पालि : सभाव ; चीनी: 自性; पिनयिन: zìxìng; तिब्बती: རང་བཞིན; वायली: rang-bzhin)[1] हिन्दू एवं बौद्ध दर्शन में प्रायः आने वाला शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है, 'अपना होना' या 'अपना बनना' । स्वभाव से आशय प्राणि की 'मूल प्रकृति' या 'वास्तविक प्रकृति' से है। पाश्चात्य दर्शन में इसके संगत 'सबस्टैन्स थिअरी' है।
'स्वभाव' शब्द, हिन्दू और बौद्ध ग्रन्थों में बार-बार आया है। अद्वैत वेदान्त (अवधूत गीता में), महायान बौद्ध ग्रन्थों (जैसे रत्नगोत्रविभाग में), वैष्णव (जैसे रामानुजकृत ग्रन्थों में ) और जोगछेन (Dzogchen) (१७ तन्त्र) में 'स्वभाव' शब्द बर-बार आया है।
अवधूत गीता में 'स्वभाव को ही 'ब्रह्म' कहा गया है।
महयान बौद्ध परम्परा में 'स्वभाव' शब्द का उपयोग बुद्धप्रकृति (जैसे गोत्र) के लिए हुआ है। [2]
सुश्रुतसंहिता और चरकसंहिता में भी स्वभाव शब्द आया है, देखिए-
- वैद्यके तु
- स्वभावं ईश्वरं कालं यदृच्छां नियतिं तथा।
- परिणामं च मन्यन्ते प्रकृतिं पृथुदर्शिनः॥ (सुश्रुतसंहिता, शास्त्री संस्करण, पृष्ठ ३४०)
सन्दर्भ
- ↑ Dharma Dictionary (2008). rang bzhin. Source: [1] (accessed: January 29, 2008)
- ↑ Ruegg, D. Seyfort (1976). 'The Meanings of the Term "Gotra" and the Textual History of the "Ratnagotravibhāga"'. Bulletin of the School of Oriental and African Studies, University of London, Vol. 39, No. 2 (1976), pp. 341–363