स्वप्न
एक स्वप्न छवियों, विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं का एक क्रम है जो आमतौर पर निद्रा के कुछ चरणों के दौरान मन में अनैच्छिक रूप से होता है। मनुष्य प्रति रात लगभग दो घंटे स्वप्न देखने में व्यतीत करता है, और प्रत्येक स्वप्न लगभग 5 से 20 मिनट तक रहता है, यद्यपि स्वप्न देखने वाले को यह स्वप्न इससे कहीं अधिक लंबा लग सकता है।
स्वप्नों की सामग्री और कार्य पूरे लिपिबद्ध इतिहास में वैज्ञानिक, दार्शनिक और धार्मिक रुचि के विषय रहे हैं। तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में बेबीलोनियों द्वारा और प्राचीन सुमेरियों द्वारा पहले भी प्रचलित स्वप्न व्याख्या, कई परंपराओं में धार्मिक ग्रंथों में प्रमुखता से आती है, और मनोचिकित्सा में प्रमुख भूमिका निभाई है। स्वप्नों के वैज्ञानिक अध्ययन को ओनेइरोलोजी कहा जाता है। अधिकांश आधुनिक स्वप्नाध्ययन स्वप्नों के तंत्रिका-क्रियाविज्ञान और स्वप्न कार्य के संबंध में परिकल्पनाओं के प्रस्ताव और परीक्षण पर केंद्रित होते हैं। यह ज्ञात नहीं है कि मस्तिष्क में स्वप्नों की उत्पत्ति कहाँ से होती है, यदि स्वप्नों की एक ही उत्पत्ति है या यदि मस्तिष्क के कई क्षेत्र शामिल हैं, या शरीर या मन के लिए सपने देखने का उद्देश्य क्या है।
स्वप्न देखना और निद्रा आपस में जुड़े हुए हैं। स्वप्न मुख्य रूप से नींद के तीव्र नेत्र संचलन (REM) चरण में होते हैं - जब मस्तिष्क की गतिविधि अधिक होती है और जाग्रत होने के समान होती है। क्योंकि कई प्रजातियों में REM निद्रा का पता लगाया जा सकता है, और क्योंकि शोध से पता चलता है कि सभी स्तनधारी REM का अनुभव करते हैं, स्वप्नों को REM निद्रा से जोड़ने से यह अनुमान लगाया जाता है कि जानवर सपने देखते हैं। यद्यपि, मनुष्य गैर-REM निद्रा के दौरान भी स्वप्न देखते हैं, और सभी REM जागरण स्वप्न की संदेश नहीं देते हैं। अध्ययन करने के लिए, एक स्वप्न को पहले एक मौखिक विवरण में ही किया जाना चाहिए, जो कि विषय की स्वप्न की स्मृति का एक खाता है, न कि विषय के स्वप्न के अनुभव का। इसलिए, गैर-मनुष्यों द्वारा स्वप्न देखना वर्तमान में अप्राप्य है, जैसा कि मानव भ्रूण और पूर्व-मौखिक शिशुओं द्वारा स्वप्न देखा जा रहा है।
स्वप्नों का अध्ययन
स्वप्नों का अध्ययन मनोविज्ञान के लिए एक नया विषय है। साधारणत: स्वप्न का अनुभव ऐसा अनुभव है जो हमारे सामान्य तर्क के अनुसार सर्वथा निरर्थक दिखाई देता है। अतएव साधारणत: मनावैज्ञानिक स्वप्न के विषय में चर्चा करनेवालों को निकम्मा व्यक्ति मानते हैं। प्राचीन काल में साधारण अनपढ़ लोग स्वप्न की चर्चा इसलिए किया करते थे कि वे समझते थे कि स्वप्न के द्वारा इस भावी घटनाओं का अंदाज लगा सकते हैं। यह विश्वास सामान्य जनता में आज भी है। आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन इस प्रकार की धारणा को निराधार मानता है और इसे अंधविश्वास समझता है।
स्वप्नों के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा यह जानने की चेष्टा की गई है कि बाहरी उत्तेजनाओं के प्रभाव से किस प्रकार के स्वप्न हो सकते हैं। सोए हुए किसी मनुष्य के पैर पर ठंढा पानी डालने से उसे प्राय: नदी में चलने का स्वप्न होता है। इसी प्रकार सोते समय शीत लगने से नदी में नहाने अथवा तैरने का स्वप्न हो सकता है। शरीर पर होनेवाले विभिन्न प्रकार के प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वप्नों को उत्पन्न करते हैं। स्वप्नों का अध्ययन चिकित्सा दृष्टि से भी किया गया है। साधारणत: रोग की बढ़ी चढ़ी अवस्था में रोगी भयानक स्वप्न देखता है और जब वह अच्छा होने लगता है तो वह स्वप्नों में सौम्य दृश्य देखता है।
स्वप्नों के अध्ययन के लिए मनोवैज्ञानिक कभी-कभी सम्मोहन का प्रयोग करते हैं। विशेष प्रकार के सम्मोहन देकर जब रोगी को सुला दिया जाता है तो उसे उन सम्मोहनों के अनुसार स्वप्न दिखाई देते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक सोते समय रोगी को स्वप्नों को याद रखने का निर्देश दे देते हैं। तब रोगी अपने स्वप्नों को नहीं भूलता। मानसिक रोगी को प्रारंभ में स्वप्न याद ही नहीं रहते। ऐसी रोगी को सम्मोहित करके उसके स्वप्न याद कराए जा सकते हैं।
साधारणत: हम स्वप्नों में उन्हीं बातों को देखते हैं जिनके संस्कार हमारे मस्तिष्क पर बन जाते हैं। हम प्राय: देखते हैं कि हमारे स्वप्नों का जाग्रत अवस्था से कोई संबंध नहीं होता। कभी कभी हम स्वप्न के उन भागों को भूल जाते हैं जो हमारे जीवन के लिए विशेष अर्थ रखते हैं। ऐसे स्वप्नों को कुशल मनोवैज्ञानिक सम्मोहन द्वारा प्राप्त कर लेते हैं। देखा गया है कि जिन स्वप्नों को मनुष्य भूल जाता है वे उसके जीवन की ऐसी बातों को चेतना के समक्ष लाते हैं जो उसे अत्यंत अप्रिय होती हैं और जिनका भूल जाना ही उसके लिए श्रेयस्कर होता है। ऐसी बातों को विशेष प्रकार के सम्मोहन द्वारा व्यक्ति को याद कराया जा सकता है। इन स्वप्नों का मानसिक चिकित्सा में विशेष महत्व रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जिस पहर और पक्ष(शुक्ल या कृष्ण) में स्वप्न देखा गया हैं उसके अनुसार ही स्वप्न का फल निश्चित किया जाता हैं।
स्वप्न पर मनोवैज्ञानिक विचार
सिगमंड फ्रायड
स्वप्न के विषय में सबसे महत्व की खोजें डाक्टर सिगमंड फ्रायड ने की हैं। इन्होंने अपने अध्ययन से यह निर्धारित किया कि मनुष्य के भीतरी मन को जानने के लिए उसके स्वप्नों को जानना नितांत आवश्यक है। "इंटरप्रिटेशन ऑव ड्रीम्स ऑव ड्रीम्स" नामक अपने ग्रंथ में इन्होंने यह बताने की चेष्टा की है कि जिन स्वप्नों को हम निरर्थक समझते हैं उनके विशेष अर्थ होते हैं। इन्होंने स्वप्नों के संकेतों के अर्थ बताने और उनकी रचना को स्पष्ट करने की चेष्टा की है। इनके कथनानुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती। पिता की डाँट के डर से जब बालक मिठाई और खिलौने खरीदने की अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करता तो उसकी दमित इच्छा स्वप्न के द्वारा अपनी तृप्ति पा लेती है। जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जात है उसका समाज का भय जटिल होता जाता है। इस भय के कारण वह अपनी अनुचित इच्छाओं को न केवल दूसरों से छिपाने की चेष्टा करता है वरन् वह स्वयं से भी छिपाता है। डाक्टर फ्रायड के अनुसार मनुष्य के मन के तीन भाग हैं। पहला भाग वह है जिसमें सभी इच्छाएँ आकर अपनी तृप्ति पाती हैं। इनकी तृप्ति के लिए मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति से काम लेना पड़ता है। मन का यह भाग चेतन मन कहलाता है। यह भाग बाहरी जगत् से व्यक्ति का समन्वय स्थापित करता है। मनुष्य के मन का दूसरा भाग अचेतन मन कहलाता है। यह भाग उसकी सभी प्रकार की भोगेच्छाओं का आश्रय है। इसी में उसकी सभी दमित इच्छाएँ रहती हैं। उसके मन का तीसरा भाग अवचेतन मन कहलाता है। इस भाग में मनुष्य का नैतिक स्वत्व रहता है। डाक्टर फ्रायड ने नैतिक स्वत्व को राज्य के सेन्सर विभाग की उपमा दी है। जिस प्रकार राज्य का सेन्सर विभाग किसी नए समाचार के प्रकाशित होने के पूर्व उसकी छानबीन कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य के अवचेतन मन में उपस्थित सेन्सर अर्थात् नैतिक स्वत्व किसी भी वासना के स्वप्नचेतना में प्रकाशित होने के पूर्व काँट छाँट कर देता है। अत्यंत अप्रिय अथवा अनैतिक स्वप्न देखने के पश्चात् मनुष्य को आत्मभत्र्सना होती है। स्वप्नद्रष्टा को इस आत्मभत्र्सना से बचाने के लिए उसके मन का सेन्सर विभाग स्वप्नों में अनेक प्रकार की तोड़मरोड़ करके दबी इच्छा को प्रकाशित करता है। फिर जाग्रत होने पर यही सेन्सर हमें स्वप्न के उस भाग को भुलवा देता है। जिससे आत्मभत्र्सना हो। इसी कारण हम पूरे स्वप्नों को ही भूल जाते हैं।
डॉ॰ फ्रायड ने स्वप्नों के प्रतीकों के विशेष प्रकार के अर्थ बताएँ हैं। इनमें से अधिक प्रतीक जननेंद्रिय संबंधी हैं। उनके कथनानुसार स्वप्न में होनेवाली बहुत सी निरर्थक क्रियाएँ रतिक्रिया की बोधक होती हैं। उनका कथन है कि मनुष्य की प्रधान वासना, कामवासना है। इसी से उसे अधिक से अधिक शारीरिक सुख मिलता है और इसी का उसके जीवन में सर्वाधिक रूप से दमन भी होता है। स्वप्न में अधिकतर हमारी दमित इच्छाएँ ही छिपकर विभिन्न प्रतीकों द्वारा प्रकाशित होती हैं। सबसे अधिक दयित होनेवाली इच्छा कामेच्छा है। इसलिए हमारे अधिक स्वप्न उसी से संबंध रखते हैं। मानसिक रोगियों के विषय में देखा गया है कि एक ओर उसकी प्रबल कामेच्छा दमित अवस्था में रहती है और दूसरी ओर उसकी उपस्थिति स्वीकार करना उनके लिए कठिन होता है। इसलिए ही मानसिक रोगियों के स्वप्न न केवल जटिल होते हैं वरन् वे भूल भी जाते हैं मौत का।
स्वप्नरचना के प्रकार
डाक्टर फ्रायड ने स्वप्नरचना के पाँच-सात प्रकार बताए हैं। उनमें से प्रधान हैं - संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावांतरकरण तथा नाटकीकरण। संक्षेपण के अनुसार कोई बहुत बड़ा प्रसंग छोटा कर दिया जाता है। विस्तारीकरण में ठीक इसका उल्टा होता है। इसमें स्वप्नचेतना एक थोड़े से अनुभव को लंबे स्वप्न में व्यक्त करती है। मान लीजिए किसी व्यक्ति ने किसी पार्टी में हमारा अपमान कर दिया और इसका हम बदला लेना चाहते हैं। परंतु हमारा नैतिक स्वप्न इसका विरोधी है, तो हम अपने स्वप्न में देखेंगे कि जिस व्यक्ति ने हमारा अपमान किया है वह अनेक प्रकार दुर्घटनाओं में पड़ा हुआ है। हम उसकी सहायता करना चाहते हैं, परंतु परिस्थितियों ऐसी हैं जिनके कारण हम उसकी सहायता नहीं कर पाते। भावांतरीकरण की अवस्था में हम अपने अनैतिक भाव को ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रकाशित होते नहीं देखते जिसके प्रति उन भावों का प्रकाशन होना आत्मग्लानि पैदा करता है। कभी-कभी किशोर बालक भयानक स्वप्न देखते हैं। उनमें वे किसी राक्षस से लड़ते हुए अपने को पाते हैं। मनोविश्लेषण से पीछे पता चलता है कि यह राक्षस उनका पिता, चाचा, बड़ा भाई, अध्यापक अथवा कोई अनुशासक ही रहता है।
नाटकीकरण के अनुसार जब कोई विचार इच्छा अथवा स्वप्न में प्रकाशित होता है तो वह अधिकतर दृष्टि प्रतिमाओं का सहारा लेता है। स्वप्नचेतना अनेक मार्मिक बातों को एक पूरी परिस्थिति चित्रित करके दिखाती है। स्वप्न किसी शिक्षा को सीधे रूप से नहीं देता। स्वप्न में जो अनेक चित्रों और घटनाओं के सहारे कोई भाव व्यक्त होता है उसका अर्थ तुरंत लगाना संभव नहीं होता। मान लीजिए, हम अकेले में हैं और हमें डर लगता है कि हमारे ऊपर कोई आक्रमण न कर कर दे। यह छोटा सा भाव अनेक स्वप्नों को उत्पन्न करता है। हम ऐसी परिस्थिति में पड़ जाते हैं जहाँ हम अपने को सुरक्षित समझते हैं परंतु हमें बाद को भारी धोखा होता है।
डाक्टर फ्रायड का कथन है कि स्वप्न के दो रूप होते हैं - एक प्रकाशित और दूसरा अप्रकाशित। जो स्वप्न हमें याद आता है वह प्रकाशित रूप है। यह रूप उपर्युक्त अनेक प्रकार की तोड़ मोड़ की रचनाओं और प्रतीकों के साथ हमारी चेतना के समक्ष आता है। स्वप्न का वास्तविक रूप यह है जिसे गूढ़ मनोवैज्ञानिक खोज के द्वारा प्राप्त किया जाता है। स्वप्न का जो अर्थ सामान्य लोग लगाते हैं वह उसके वास्तविक अर्थ से बहुत दूर होता है। यह वास्तविक अर्थ स्वप्ननिर्माण कला के जाने बिना नहीं लगाया जा सकता।
डाक्टर फ्रायड ने स्वप्नानुभव के बारे में निम्नलिखित बात महत्व की बताई हैं : स्वप्न मानसिक प्रतिगमन का परिणाम है। यह प्रतिगमन थोड़े काल के लिए रहता है। अतएव इससे व्यक्ति के मानसिक विकास की क्षति नहीं होती। दूसरे यह प्रतिगमन अभिनय के रूप में होता है। इस कारण इससे मनुष्य की उन इच्छाओं का रेचन हो जाता है जो बचपन की अवस्था की होती हैं। यदि ऐसे स्वप्न मनुष्य को न हों तो उसका मानसिक विकास रुक जाए अथवा उसे किसी न किसी प्रकार का मानसिक रोग हो जाए। डाक्टर फ्रायड ने दूसरी महत्व की बात यह बताई है कि स्वप्न निद्रा का विनाशक नहीं वरन् उसका रक्षक है। भयानक अथवा उत्तेजक स्वप्नों से दमित उत्तेजना बाहर आकर शांत हो जाती है। स्वप्न मानव श्रवण की जटिल समस्याओं को हल करने का एक मार्ग है। फ्रायड ने तीसरी बात यह बताई कि स्वप्न न तो व्यर्थ मानसिक अनुभव है और न उसमें देखे गए दृश्य निरर्थक होते हैं। अप्रिय स्वप्नों द्वारा व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है। स्वप्नों का अध्ययन करना मन के आंतरिक रूप को समझने के लिए नितांत आवश्यक है। स्वप्नों को डाक्टर फ्रायड ने मनुष्य के आंतरिक मन की कुंजी कहा है।
स्वप्न संबंधी बातचीत से रोगी के बहुत से दमित भाव चेतना की सतह पर आते हैं और इस तरह उनका रेचन हो जाता है। किसी रोगी के अनेक स्वप्न सुनते और उनका अर्थ लगाते लगाते रोगी का रोग नष्ट हो जाता है। मानसिक चिकित्सा की प्रारंभिक अवस्था में रोगी को प्राय: स्वप्न याद ही नहीं रहते। जैसे-जैसे रोगी और चिकित्सक की भावात्मक एकता स्थापित होती है वैसे-वैसे उसे स्वप्न अधिकाधिक होने लगते हैं तथा वे अधिकाधिक स्पष्ट भी होते हैं। एक ही स्वप्न कई प्रकार से होता है। स्वप्न का भाव अनेक प्रकार के स्वप्नों द्वारा चिकित्सक के समक्ष आता है।
चार्ल्स युंग
चार्ल्स युंग ने स्वप्न के विषय में कुछ बातें डाक्टर फ्रायड से भिन्न कही हैं। उनके कथनानुसार स्वप्न के प्रतीक सभी समय एक ही अर्थ नहीं रखते। स्वप्नों के वास्तविक अर्थ जानने के लिए स्वप्नद्रष्टा के व्यक्तित्व को जानना, उसकी विशेष समस्याओं को समझना और उस समय देश, काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। एक ही स्वप्न भिन्न-भिन्न स्वप्नद्रष्टा के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ रखता है और एक ही द्रष्टा के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भी उसके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। अतएव जब तक स्वयं स्वप्नद्रष्टा किसी अर्थ को स्वीकार न कर ले तब तक हमें यह नहीं जानना चाहिए कि स्वप्न का वास्तविक अर्थ प्राप्त होगा। डॉक्टर फ्रायड की मान्यता के अनुसार अधिक स्वप्न हमारी काम वासना से ही संबंध रखते हैं। युंग के कथनानुसार स्वप्नों का कारण मनुष्य के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छाओं का ही दमन मात्र नहीं होता वरन् उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी होती हैं। इसी के कारण मनुष्य अपने स्वप्नों के द्वारा जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्राप्त कर लेता है।
चार्ल्स युंग के मतानुसार स्वप्न केवल पुराने अनुभवों की प्रतिक्रिया मात्र नहीं हैं वरन् वे मनुष्य के भावी जीवन से संबंध रखते हैं। डॉक्टर फ्रायड सामान्य प्राकृतिक जड़वादी कारणकार्य प्रणाली के अनुसार मनुष्य के मन की सभी प्रतिक्रियाओं को समझने की चेष्टा करते हैं। इनके प्रतिकूल डॉक्टर युंग मानसिक प्रतिक्रियाओं को मुख्यत: लक्ष्यपूर्ण सिद्ध करते हैं। जो वैज्ञानिक प्रणाली जड़ पदार्थों के व्यवहारों को समझने के लिए उपयुक्त होती है वही प्रणाली चेतन क्रियाओं को समझाने में नहीं लगाई जा सकती। चेतना के सभी कार्य लक्ष्यपूर्ण होते हैं। स्वप्न भी इसी प्रकार का एक लक्ष्यपूर्ण कार्य है जिसका उद्देश्य रोगी के भावी जीवन को नीरोग अथवा सफल बनाना है। युंग के कथनानुसार मनुष्य स्वप्न द्वारा ऐसी बातें जान सकता है जिनके अनुसार चलने से वह अपने आपको अनेक प्रकार की दुर्घटनाओं और दु:खों से बचा सकता है। इस तथ्य को उन्होंने अनेक दृष्टांतों के द्वारा समझाया है।
बाहरी कड़ियाँ
- The Dream & Nightmare Laboratory in Montreal[मृत कड़ियाँ]
- Archive for Research in Archetypal Symbolism website
- The International Association for the Study of Dreams
- More information on the expectation fulfillment theory of dreaming
- Dreams at the Open Directory Project
- Dreams interpretation
- Rüya Tabirleri Dreams (तुर्की में)
स्वप्न का विज्ञान - हम रात भर स्वप्न देखते हैं। दिवा स्वप्न भी अक्सर लोग देखते रहते हैं, दिवा स्वप्न कल्पना कहलाते हैं। नीद में देखा गया स्वप्न ही स्वप्न होता है। कभी कभी कुछ कम अवधि के स्वप्न याद रहते हैं। श्रुति में स्वप्न के विषय में जगह जगह चर्चा हुयी है। वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न के विषय में प्रसंग है, जिस प्रकार एक राजा अपने सेवक और प्रजा के साथ देश का भ्रमण करता है उसी प्रकार जीव स्वप्नावस्था में प्राण, शब्द, वाणी आदि को लेकर इस शरीर में इच्छानुसार विचरता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णन है स्वप्नावस्था में जीव लोक–परलोक दोनों देखता है और दुःख सुख दोनों का अनुभव करता है। इस स्थूल शरीर को अचेत करके जीव वासनामय शरीर की रचना करता है फिर लोक परलोक देखता है। इस अवस्था में देश-विदेश, नदी, तालाब, सागर, पर्वत मैदान. वृक्ष, मल, मूत्र, स्त्री, पुरुष, सेक्स, क्रोध, भय आदि नाना प्रकार के संसार की रचना कर लेता है। जीव द्वारा स्वप्न में भी सृष्टि-सांसारिक पदार्थों की रचना होती है। यह रचना अत्यंत रहस्यमय और अति विचित्र होती है। मांडूक्योपनिषद् में गूढ़ रूप से स्वप्न को स्पष्ट किया है।
स्वप्न भांति सम व्याप्त जग ज्ञान ब्रह्म पर ब्रह्म सात अंग उन्नीस मुख तैजस दूसर पाद.
विशेष – सात अंग सात लोक हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,’व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.
उकार मात्रा दूसरी और श्रेष्ठ अकार उभय भाव है स्वप्नवत तैजस दूसर पाद
स्वप्न में जीवात्मा अपनी सभी उपाधियों के समूह साथ एक होता है, इस समय अन्तःकरण तेजोमय होने के कारण इस अवस्था में आत्मा को तैजस कहा है। तैजस ब्रह्म की ऊपर से नीचे तीसरी अवस्था है। स्वप्नावस्था में दोनों जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप मनोवृत्ति से शब्द स्पर्श रूप रस गंध का अनुभव करते हैं। तैजस सूक्ष्म विषयों का भोक्ता है। जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप दोनों अभेद हैं जैसे जल की बूंद में और जलाशय मैं पडने वाला आकाश का प्रतिविम्ब. कठोपनिषद कहता है- ‘य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः’ यह पुरुष जो नाना भोगों की रचना करता है सबके सो जाने पर स्वयं जागता है। यहाँ पुरुष को कामनाओं का निर्माता बतलाया है। अतः सिद्ध है स्वप्न में भी सृष्टि होती है, क्या स्वप्न में हुई सृष्टि वास्तविक है।-तात्कालिक रूप से स्वप्न में हुई सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं दिखायी देता परन्तु इस विषय में मेरा निश्चित विचार है कि स्वप्न में जो भी देखा सुना जाता है उसे सृष्टि में किसी न किसी जगह किसी न किसी जीव अथवा पदार्थ के रूप में होना निश्चित है। स्वप्न और सृष्टि के विकास का गहरा सम्बन्ध है स्वप्न है तो सृष्टि है और सृष्टि है तो स्वप्न हैं।
स्वप्न के शुभ–अशुभ परिणाम- श्रुति का इस विषय में निश्चत मत है कि स्वप्न भविष्य में होने वाले शुभ–अशुभ परिणाम के सूचक हैं। एतरेय आरण्यक के अनुसार स्वप्न में दांत वाले पुरुष को देखना मृत्यु का सूचक है।
छान्दग्योपनिषद में कहा है जब कामना की पूर्ति के लिए स्वप्न में स्त्री को देखना समृद्धि का सूचक है। आदि
सुसुप्ति का रहस्य- सुषुप्ति काले सकले विलीने तमोऽभिभूतः सुखरूपमेति – केवल्य
प्रत्येक प्राणी के लिए नीद आवश्यक है नीद की दो अवस्थाएँ है। स्वप्नावास्था और सुषुप्ति. सुषुप्ति वह अवस्था है जब कोई स्वप्न भी नहीं रहता. प्रश्नोपनिषद बताता है जब उदान वायु द्वारा CNS (स्नायुतंत्र पर) पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया जाता है तब सुषुप्ति अवस्था होती है। वेदान्त बताता है सुषुप्ति काल में इन्द्रियों और उनके विषय नहीं रहते. इस अवस्था में कोई आसक्ति न होने से यहाँ जीव आनन्द का अनुभव करता है। सुषुप्ति काल में स्थूल और सूक्ष्म दोनों विलीन हो जाते हैं। व्यावहारिकसत्ता और स्वप्न प्रपंच अपने कारण अज्ञान में लीन हो जाते हैं। केवल शुद्ध चेतन्य अंश उपस्थित रहता है। इस अवस्था में ईश्वर और जीव आनन्द का अनुभव करते हैं परन्तु इस समय वृत्ति अज्ञानमय होती है मांडूक्योपनिषद् सुषुप्ति को स्पष्ट करता है।
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य सुप्त सम है ज्ञान घन मुख चैतन्य परब्रह्म आनन्द भोग का भोक्ता तीसर पाद पर ब्रह्म.
मकार तीसरी मात्रा माप जान विलीन सुसुप्ति स्थान सम देह है प्रज्ञा तीसर पाद जान माप सर्वस्व को सब लय होत स्वभाव.
चैतन्य से दीप्त अज्ञान वृत्ति से मुक्त होकर आनन्द को भोगता है। इसी कारण सोकर उठा हुआ मनुष्य कहता है मैं सुख पूर्वक सोया, बढ़े चैन से सोया, इन शब्दों से सुषुप्ति में आनन्द के अस्तित्व का पता चलता है। मुझे कुछ याद नहीं है, इससे अज्ञान के अस्तित्व का भी पता चलता है।