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सुरंग

भूमिगत रेलवे की सुरंग
होसपेट, भारत में सुरंग
तिब्बत में सुरंग
हेल्सिंकी, फ़िनलैण्ड में एक सुरंग में चलता व्यक्ति

सुरंग (Tunnel) ऐसा भूमिगत (भूमि के नीचे का) मार्ग होता है, जिसे ज़मीन की सतह के नीचे की मिट्टीपत्थर खोदकर बनाया गया हो। इसमें ऊपर की चट्टान या मिट्टी को हटाया नहीं जाता। सुरंग का निर्माण खोदने, विस्फोट के द्वारा मिट्टी-पत्थर का मलबा बनाकर हटाने, या अन्य किसी विधि से छिद्र बनाकर करा जाता है। आम भाषा में चट्टान या भूखंड तोड़ने के उद्देश्य से विस्फोटक पदार्थ भरने के लिए कोई छेद बनाना भी 'सुरंग लगाना' कहलाता है।[1][2]

प्राचीन काल में सुरंग मुख्यतया तात्पर्य किसी भी ऐसे छेद या मार्ग से होता था जो जमीन के नीचे हो, चाहे वह किसी भी प्रकार बनाया गया हो, जैसे कोई नाली खोदकर उसमें किसी प्रकार की डाट या छत लगाकर ऊपरी मिट्टी से भर देने से सुरंग बन जाया करती थी। किंतु बाद में इसके लिए जलसेतु (यदि वह पानी ले जाने के लिए है), तलमार्ग या छादित पथ नाम अधिक उपयुक्त समझे जाने लगे। इनके निर्माण की क्रिया को सुरंग लगाना नहीं, बल्कि सामान्य खुदाई और भराई ही कहते हैं। बाद में चौड़ी करके सुरंग बड़ी करने के उद्देश्य से प्रारंभ में छोटी सुरंग लगाना अग्रचालन कहलाता है। खानों में छोटी सुरंगें गैलरियाँ, दीर्घाएँ या प्रवेशिकाएँ कहलाती हैं। ऊपर से नीचे सुरंगों तक जाने का मार्ग, यदि यह ऊर्ध्वाधर है तो कूपक और यदि तिरछा हो तो ढाल या ढालू कूपक कहलाता है।

प्राकृतिक बनी हुई सुरंगें भी बहुत देखी जाती हैं। बहुधा दरारों से पानी नीचे जाता है, जिसमें चट्टान का अंश भी घुलता है। इस प्रकार प्राकृतिक कूपक और सुरंगें बन जाती हैं। अनेक नदियाँ इसी प्रकार अंतभौम बहती हैं। अनेक जीव भूमि में बिल बनाकर रहते हैं, जो छोटे-छोटे पैमाने पर सुरंगें ही हैं।

इतिहास

प्रकृति में इस प्रकार सुरंगों के प्रचुर उदाहरण देखकर निस्संदेह यह कल्पना की जा सकती है कि मनुष्य भी सुरंगें खोदने की दिशा में अति प्राचीन काल से ही अग्रसर हुआ होगा-सर्वप्रथम शायद निवासों और मकबरों के लिए, फिर खनिज पदार्थ निकालने के उद्देश्य से और अंतत: जल प्रणालियों, नालियों आदि सभ्यता की अन्य आवश्यकताओं के लिए। भारत में अति प्राचीन गुफा मंदिरों के रूप में मानव द्वारा विशाल पैमाने पर सुरंगें लगाने के उदाहरण प्रचुर परिमाण में मिलते हैं। इनमें से कुछ गुफाओं के मुख्य द्वारों की उत्कृष्ट वास्तुकला आधुनिक सुरंगों के मुख्यद्वारों के आकल्पन में शिल्पियों का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखती है। अजंता, इलोरा और एलीफैंटा की गुफाएँ सारे संसार के वास्तुकला विशारदों का ध्यान आकर्षित कर चुकी हैं।

मध्य पूर्व में निमरोद के दक्षिणी पूर्वी महल की डाटदार नाली साधारण भूमि के भीतर सुरंग लगाने का प्राचीन उदाहरण है। ईटं की डाट लगी 4.5 मी और 3.6 मी एक सुरंग फरात नदी के नीचे मिली है। अल्जीरिया में, स्विट्जरलैंड में और जहाँ कहीं भी रोमन लोग गए थे, सड़कों, नालियों और जल प्राणियों के लिए बनी हुई सुरंगों के अवशेष मिलते हैं।

बारूद का आविष्कार होने से पहले सुरंगें बनाने की प्राचीन विधियों में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई थी। 17वीं शती के उत्कीर्ण चित्रों में सुरंग बनाने की जो विधियाँ-प्रदर्शित हैं, उनमें केवल कुदाली, छेनी, हथौड़ी का प्रयोग और अग्रचालन के लिए नरम चट्टान तोड़ने के उद्देश्य से लकड़ियों की आग जलाना ही दिखाया गया है। संवातन के लिए आगे की ओर कपड़े हिलाकर हवा करने और कूपकों के मुख पर तिरछे तख्ते रखने का उल्लेख भी मिलता है। रेलों के आगमन से पहले सुरंगें प्राय: नहरों के लिए ही बनाई जाती थीं और इनमें से कुछ तो बहुत प्राचीन हैं। रेलों के आने पर सुरंगों की आवश्यकता आम हो गई। संसार भर में शायद 5,000 से भी अधिक सुरंगें रेलों के लिए ही खोदी गई हैं। अधिकांश पर्वतीय रेलमार्ग सुरंगों में ही होकर जाता है। मेक्सिको रेलवे में 105 किमी लंबे रेलपथ में 21 सुरंगें और दक्षिणी प्रशांत रेलवे में 32 किमी की लंबाई में ही 11 सुरंगें हैं, जिनमें एक सर्पिल सुरंग भी हैं। संसार की सबसे लंबी लगातार सुरंग न्यूयार्क में 1917.24 ई. में कैट्सकिल जलसेतु के विस्तार के लिए बनाई गई थी। यह शंडकेन सुरंग 288 किमी लंबी है। कालका शिमला रेलपथ पर साठ मील लंबाई में कई छोटी सुरंगें हैं, जिनमें सबसे बड़ी की लंबाई 1137 मी है।

विश्व की प्रमुख सुरंगें

विश्व की अन्य महत्वपूर्ण सुरंगें माउंट सेनिस 14 किमी (1857-71 ई.), सेंट गोथार्ड 15 किमी (1872-81 ई.), ल्यूट्शबर्ग (1906-11 ई.), यूरोप के आल्प्स पर्वत में कनाट (1913-16 ई.) कनाडा के रोगर्स दर्रे में मोफट 10 किमी (1923-28 ई.) एवं न्यूकैस्केड (1925-28 ई.) संयुक्त राष्ट्र अमरीका के पर्वतों में हैं। सुरंग निर्माण का बहुत महत्वपूर्ण काम जापान में हुआ है। वहाँ सन्‌ 1918-30 में अटायो और पिशीमा के बीच टाना सुरंग खोदी हुई, जो दो पर्वतों और एक घाटी के नीचे से होकर जाती है। इसकी अधिकतम गहराई 395 मी और घाटी के नीचे 182 मी है। भारत में सड़क के लिए बनाई गई सुरंग जम्मू-श्रीनगर सड़क पर बनिहाल दर्रे पर है, जिसकी लंबाई 2790 मी है। यह समुद्रतल से 2184 मी. ऊपर है तथा दुहरी है, जिससे ऊपर और नीचे जाने वाली गाड़ियाँ अलग-अलग सुरंग से जा सकें।

सुरंग निर्माण

सुरंग निर्माण की आधुनिक विधियों में ढले लोहे की रोकों का और संपीडित वायु का प्रयोग बहुप्रचलित है। लंदन में रेलों के लिए लगभग 144 किमी सुरंगें बनी हैं, जिनमें सन्‌ 1890 से ही ढोल जैसी रोकें ढले लोहे की ही दीवारें लगती रही है। पैरिस में भी लगभग 96 किमी लंबी सुरंगें हैं, किंतु वहाँ केवल ऊपरी आधे भाग में ढले लोहे की रोकें लगी हैं, जिनके नीचे चिनाई की दीवारें हैं। प्राय: ऊपरी भाग पहले काट लिया जाता है और वहाँ रोकें लगाकर बाद में नीचे की ओर दीवारें बना दी जाती हैं।

जहाँ पानी के नीचे से होकर सुरंगें ले जानी होती हैं, वहाँ पहले, से तैयार किए हुए बड़े-बड़े नल रखकर उन्हें गला दिया जाता है। अपेक्षित गहराई पर पहुँच जाने पर वे परस्पर जोड़ दिए जाते हैं। सुरंग केसन भी जलतल में नीचे ही बनाए जाते हैं। संपीडित वायु के प्रयोग द्वारा पानी दूर रखा जाता है और वायुमंडल से तीन चार गुने अधिक दबाव में आदमी काम करते हैं। वे बाहर खुली जगह से भीतर दबाव में जाते हुए और वहाँ से बाहर आते हुए पाश कक्षों में से गुजरते हैं। एक और विधि है, जिसमें जलसिक्त भूमि में ठंढक पहुँचाकर पानी जमा दिया जाता है और फिर उसे चट्टान की भाँति काट-काटकर निकाल दिया जाता है। यह विधि कूपक गलाने के लिए अच्छी है और अनेक स्थानों में सफलतापूर्वक प्रयुक्त हुई है, किंतु सुरंगों के लिए नहीं आजमाई गई।

जहाँ सुरंग के ऊपर चट्टान का परिमाण बहुत अधिक हो, जैसे किसी पहाड़ के आर-पार काटने में, तो शायद यही उचित अथवा अनिवार्य हो कि केवल दोनों सिरों में ही काम आरंभ किया जाए और बीच में कहीं भी कूपक गलाकर वहाँ से काम न चलाया जा सके। वास्तव में समस्या के समाधान के लिए मुख्य रूप से यह देखना अपेक्षित है कि चट्टान काटने और उसे निकाल बाहर करने के लिए क्या उचित होगा। विस्तृत अनुभव और आधुनिक यांत्रिक युक्तियाँ, जैसे संपीडित वायु द्वारा चालित बर्मा और मलबा हटाने और लादने की मशीनें आदि, काम जल्दी और किफायत से करने में सहायक होती हैं।

सुरंगों में संवातन

सुरंगों में संवातन की समस्या अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसे दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता। निर्माण के समय काम करने वाले व्यक्तियों के लिए तो अस्थायी प्रबंध किया जा सकता है, किंतु यदि सुरंग रेल या सड़क आदि के लिए है, तो उसके अंदर उपयुक्त संवातन के लिए स्थायी व्यवस्था होनी आवश्यक है। इसका सरलतम उपाय तो यह है कि पूरी सुरंग की चौड़ाई के बराबर चौड़े और 6-6 मी लंबे खंड लगभग 150-150 मी अंतर से खुले छोड़ दिए जाएँ, जहाँ से सूर्य का प्रकाश और खुली हवा भीतर पहुँच सके। किंतु बहुत लंबी और गहरी सुरंगों में यह संभव नहीं होता, उनमें यांत्रिक साधनों का सहारा लेना आवश्यक होता है। कभी-कभी अपेक्षाकृत छोटी सुरंगों में भी कृत्रिम संवातन व्यवस्था आवश्यक होती है। यदि सुरंग ढालू है, तो धुआँ और गैसें ढाल के ऊपर की ओर चलेंगी। सुरंग में कोई इंजन तेजी से चल रहा हो तो उसकी गति के साथ भी धुआँ भीतर ही खिंचता चला जाएगा। इसलिए जगह-जगह पर संवाती कूपक बनाने पड़ते हैं। बिजली के मोटरों की अपेक्षा भाप के इंजन चलते हों, तो संवातन की अधिक आवश्यकता होती है।

प्राकृतिक संवातन का आधार संवाती कूपक के भीतर की हवा के और धरातल पर बाहर की हवा के तापमान का अंतर है। शीत ऋतु में कूपक में हवा ऊपर की ओर पड़ती है और गर्मी में नीचे की ओर उतरती है। वसंत और शरद ऋतुओं में कूपक के भीतर और बाहर तापमान का अंतर नहीं के बराबर होता है, इसलिए संवातन नहीं हो पाता।

यांत्रिक संवातन का सिद्धांत यह है कि यथासंभव सुरंग के बीचोबीच से किसी कूपक द्वारा जिसके मुँह पर पंखा लगा होता है, गंदी हवा निकलती रहे। मरसी नदी के नीचे से जाने वाली सुरंग में यह संभव न था, क्योंकि ऊपर पानी भरा था। इसलिए एक संवाती सुरंग ऊपर से बनाई गई, जो नदी के किनारों पर खुलती है और बीच में मुख्य सुरंग से उसके निम्नतम भाग में मिलती है।

संवातन की गति क्या हो, अर्थात्‌ कितनी हवा सुरंग से भीतर जानी चाहिए, इसका अनुमान लगाने के लिए यह पता लगाया जाता है कि सुरंग में से गुजरने में इंजन को कितना समय लगेगा और उतने समय में कितना कोयला जलेगा। प्रति पौंड कोयले में से 29 घन फुट विषैली गैसें निकलती हैं और हवा 0.2 प्रतिशत कार्बनडाइआक्साइड रह सकती है, इस आधार पर प्रति मिनट कितनी हवा सुरंग में पहुँचाई जानी चाहिए, इसका परिकलन किया जाता है।

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. Ellis, Iain W (2015). Ellis' British Railway Engineering Encyclopaedia (3rd Revised ed.). Lulu.com. ISBN 978-1-326-01063-8.
  2. Klaus Grewe, 1998, Licht am Ende des Tunnels – Planung und Trassierung im antiken Tunnelbau, Verlag Philipp von Zabern, Mainz am Rhein.