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सामाजिक संविदा

सामाजिक संविदा (Social contract) कहने से प्रायः दो अर्थों का बोध होता है। प्रथमतः सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या ठहराव किया, अतः यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है। दूसररे को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले।

ऐतिहासिक विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए।

इतिहास

यद्यपि सामाजिक संविदा (अनुबंध) का सिद्धान्त अपने अंकुर रूप में सुकरात के विचारों, सोफिस्ट राजनीतिक दर्शन एवं रोमन विधान में मिलता है तथा मैनेगोल्ड ने इसे जनता के अधिकारों के सिद्धांत से जोड़ा, तथापि इसका प्रथम विस्तृत विवेचन मध्ययुगीन राजनीतिक दर्शन में सरकारी संविदा के रूप में प्राप्त होता है। सरकार के आधार के रूप में संविदा का यह सिद्धांत बन गया। यह विचार न केवल मध्ययुगीन सामंती समाज के स्वभावानुकूल वरन् मध्ययुगीन ईसाई मठाधीशों के पक्ष में भी था क्योंकि यह राजकीय सत्ता की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायक था। 16वीं शताब्दी के धार्मिक संघर्ष के युग में भी यह सिद्धांत बहुसंख्यकों के धर्म को आरोपित करने वाली सरकार के प्रति अल्पसंख्यकों के विरोध के औचित्य का आधार बना। इस रूप में इसने काल्विनवाद तथा रोमनवाद दोनों अल्पसंख्यकों के उद्देश्यों की पूर्ति की। परंतु कालांतर में सरकारी संविदा के स्थान पर सामाजिक संविदा को ही हॉब्स, लॉक और रूसो द्वारा प्रश्रय प्राप्त हुआ। स्पष्टत: सामाजिक संविदा में विश्वास किए बिना सरकारी संविदा की विवेचना नहीं की जा सकती, परंतु सरकारी संविदा पर विश्वास किए बिना सामाजिक संविदा का विवेचन अवश्य संभव है। सामाजिक संविदा द्वारा निर्मित समाज शासक और शासित के बीच अंतर किए बिना और इसीलिए उनके बीच एक अन्य संविदा की संभावना के बिना भी, स्वायत्तशासित हो सकता है। यह रूसो का सिद्धांत था। दूसरे, सामाजिक संविदा पर निर्मित समाज संरक्षण के रूप में किसी सरकार की नियुक्ति कर सकता है जिससे यद्यपि वह कोई संविदा नहीं करता तथापि संरक्षक के नियमों के उल्लंघन पर उसे च्युत कर सकता है। यह था लॉक का सिद्धांत। अंत में एक बार सामाजिक संविदा पर निर्मित हो जाने पर समाज अपने सभी अधिकार और शक्तियाँ किसी सर्वसत्ताधारी संप्रभु को सौंप सकता है जो समाज से कोई संविदा नहीं करता और इसीलिए किसी सरकारी संविदा की सीमाओं के अंतर्गत नहीं है। यह हाब्स का सिद्धांत था।

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में सामाजिक संविदा

सम्भवतः भारत में ही पराक्रमी राजा तथा सामाजिक संविदा का महत्व सबसे पहले समझा गया। मनुस्मृति, महाभारत के शान्तिपर्व तथा चाणक्य के अर्थशास्त्र में व्यक्त विचार सामाजिक संविदा का समर्थन करते हैं।

महाभारत में भीष्म कहते हैं-

अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न व्यवतिष्ठते।
परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम्॥ (शान्ति पर्व, अध्याय-६६)
(जिस राज्य में अराजकता होती है धर्म (सही और गलत का विवेक) स्थिर नहीं रह पाता। नागरिक एक दूसरे को 'खाते' हैं। ऐसा राज्य सब दृष्टियों से खराब होता है।)

सामाजिक संविदा के महत्व को व्यक्त करते हुए भीष्म आगे कहते हैं कि हमने सुना है कि पूर्वकाल में अराजक प्रजा एक दूसरे का वैसे ही भक्षण करती थी जैसे जल में बड़ी मछली छोटी मछली का।

अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनेशुरिति नः श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान्॥ (शान्तिपर्व, अध्याय-६६)

भीष्म आगे कहते हैं-

समेत्य तास्ततश्चक्रुः समयानिति नः श्रुतम्।
वाक्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात्पारदारिकः॥
यश्च नः समयं भिन्द्यात्त्याज्या नस्तादृशा इति।
विश्वासार्थं च सर्वेषां वर्णानामविशेषतः।
तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे ॥ (शान्तिपर्व, अध्याय-६६)
(हमने सुना है कि तब उनमें से कुछ लोग एक स्थान पर एकत्र होकर एक निर्णय लिया - ' जिसकी वाणी कठोर है, जो स्वभाव से उद्दण्द है, जो दूसरों की स्त्रियों का शील हरण करता है, जो दूसरों के धन को चुराता है, उसका हम त्याग करेंगें ताकि सभी वर्गों के लोगों का विश्वास जीता जा सके। ऐसी व्यवस्था करके उन्होने कुछ समय तक अच्छी तरह रहे।')

लेकिन भीष्म कहते हैं कि 'धन-सम्पदा चाहने वाले नर को चाहिये कि वह राजा की पूजा वैसे ही करे जैसे इन्द्र की की जाती है। राजा को 'दैवी' माना जाता था।

इसी तरह के विचार दीघनिकाय (दीर्घनिकाय , III, 93 ) में आये हैं।

'अब वे प्राणी ... एकत्र हुए और ...'

सामाजिक संविदा के सिद्धांत की आलोचना एवं विरोध

सामाजिक संविदा के सिद्धांत पर आघात यद्यपि हेगेल के समय से ही प्रारंभ हो गया था तथापि डेविड ह्यूम द्वारा इसे सर्वप्रथम सर्वाधिक क्षति पहुँची। ह्यूम के अनुसार सरकार की स्थापना सहमति पर नहीं, अभ्यास पर होती है और इस प्रकार राजनीतिक कृतज्ञता का आधार बताया तथा बर्क ने विकासवादी सिद्धांत के आधार पर संविदा की आलोचना की।

सामाजिक संविदा का सिद्धांत न केवल ऐतिहासिकता की दृष्टि से अप्रमाणित है वरन् वैधानिक तथा दार्शनिक दृष्टि से भी दोषपूर्ण है। किसी संविदा के वैध होने के लिए उसे राज्य का संरक्षण एवं अवलंबन प्राप्त होना चाहिए; सामाजिक संविदा के पीछे ऐसी किसी शक्ति का उल्लेख नहीं। इसलिए यह अवैधानिक है। दूसरे, संविदा के नियम संविदा करने वालों पर ही आरोपित होते हैं, उनकी संतति पर नहीं। सामाजिक संविदा के सिद्धांत का दार्शनिक आधार भी त्रुटिपूर्ण है। यह धारणा कि व्यक्ति और राज्य का संबंध व्यक्ति के आधारित स्वतंत्र संकल्प पर है, सत्य नहीं है। राज्य न तो कृत्रिम सृष्टि है और न इसकी सदस्यता ऐच्छिक है, क्योंकि व्यक्ति इच्छानुसार इसकी सदस्यता न तो प्राप्त कर सकता है और न तो त्याग ही सकता है। दूसरे, यह मानव इतिहास को प्राकृतिक तथा सामाजिक दो अवस्थाओं में विभाजित करता है; ऐसे विभाजन का कोई तार्किक आधार नहीं है; आज की सभ्यता उतनी ही प्राकृतिक समझी जाती है जितनी प्रारंभिक काल की थी। तीसरे, यह सिद्धांत इस बात की पूर्व कल्पना करता है कि प्राकृतिक अवस्था में रहने वाला मनुष्य संविदा के विचार से अवगत था परंतु सामाजिक अवस्था में न रहने वाले के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व की कल्पना करना संभव नहीं। यदि प्राकृतिक विधान द्वारा शासित कोई प्राकृतिक अवस्था स्वीकार कर ली जाए तो ऐसी स्थिति में राज्य की स्थापना प्रगति की नहीं, वरन् परावृत्ति की द्योतक होगी, क्योंकि प्राकृतिक विधान के स्थान पर बल पर आधारित राज्य सत्ता अपनाना प्रतिगमन ही होगा। यदि प्राकृतिक अवस्था ऐसी थी कि वह संविदा का विचार प्रदान कर सके तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य तब भी सामान्य हित के प्रति सचेत था; इस दृष्टि से उसे सामाजिक सत्ता तथा वैयक्तिक अधिकार के प्रति भी सचेत होना चाहिए। और तब प्राकृतिक और सामाजिक अवस्थाओं में कोई अंतर नहीं रह जाता। अंत में, जैसा ग्रीन ने कहा, इस सिद्धांत की प्रमुख त्रुटि इसका अनैतिहासिक होना नहीं वरन् यह है कि इसमें आधार की कल्पना उन्हें समाज से असंबद्ध करके की गई है। तार्किक ढंग पर अधिकारों का आधार समाज की सहमति है; अधिकार उन्हीं लोगों के बीच संभव है जिनकी प्रवृत्तियाँ एवं अभिलाषाएँ बौद्धिक हैं। अतएव प्राकृतिक अधिकार अधिकार न होकर मात्र शक्तियाँ हैं।

परंतु इन सभी त्रुटियों के होते हुए भी सामाजिक संविदा का सिद्धांत सरकार को स्थायित्व प्रदान करने का एक प्रबल आधार है। यह सिद्धांत इस विचार को प्रतिष्ठापित करता है कि राज्य का आधार बल नहीं विकल्प है क्योंकि सरकार जनसहमति पर आधारित है। इस दृष्टि से यह सिद्धांत जनतंत्र की आधारशिलाओं में से एक है।

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