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सांस्कृतिक मानवशास्त्र

सांस्कृतिक मानवशास्त्र (अंग्रेज़ी-Cultural anthropology) अथवा सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान नृविज्ञान की वह शाखा है जिसमें, किसी संकृति-समुदाय में रह रहे मानव, उनके व्यवहार और उनके सांकृतिक मानदंडो के स्वभाव, उद्भव और विकास का अध्ययन है।

ऐज़्टेक दिनतालिका की ऐज़्टेक धर्म और संकृति में एक प्रमुख भूमिका थी।

मानवशास्त्र की दो प्रमुख अंग हैं-

  • शारीरिक मानवशास्त्र, तथा
  • सांस्कृतिक मानवशास्त्र

मनुष्य का प्राणिशास्त्रीय अध्ययन, उसका उद्भव एवं विकास, मानव-शरीर-रचना, प्रजनन शास्त्र एवं प्रजाति इत्यादि शारीरिक मानव शास्त्र के अंतर्गत हैं।

सांस्कृतिक मानवशास्त्र का परिचय

मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समूहों में रहता है। विश्व के समस्त जीवधारियों में केवल वही संस्कृति का निर्माता है। इस विशेषता का मूल कारण है भाषा। भाषा के ही माध्यम से एक पीढ़ी की संचित अनुभूति भविष्य की पीढ़ियों को मिलती है। प्रत्येक पीढ़ी की संस्कृति का विकास होता है। संस्कृति परिसर का वह भाग है जिसका निर्माण मानव स्वयं करता है। ई. बी. टाइलर के अनुसार संस्कृति उस समुच्चय का नाम है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नीति, विधि, रीति-रिवाज़ तथा अन्य ऐसी क्षमताओं और आदतों का समावंश रहता है जिन्हें मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में मानता है।

सांस्कृतिक मानवशास्त्री उन तरीकों का अध्ययन करता है जिससे मानव अपनी प्राकृतिक एवं सामाजिक स्थिति का सामना करता है, रस्म रिवाजों को सीखता और उन्हें एक पुश्त से अगली पुश्त को प्रदान करता है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में एक ही साध्य के कई साधन हैं। पारिवारिक संबंधों का संगठन, मछली पकड़ने के फंदे तथा जगत्‌ के निर्माण के सिद्धांत प्रत्येक समाज में अलग-अलग है। फिर भी प्रत्येक समाज में जीवन कार्य-कलाप सुनियोजित है। आंतरिक विकास या बाह्य संपर्क के कारण परंपरा के स्थिर रूप भी बदलते हैं। व्यक्ति एक विशेष समाज में जन्म लेकर उन रस्म-रिवाजों को ग्रहण करता है, व्यवहार करता है और प्रभावित करता है जो उसकी सांस्कृतिक विरासत हैं। सांस्कृतिक मानव शास्त्र के अंतर्गत ऐसे सारे विषय आते हैं।

क्षेत्र

सांस्कृतिक मानव शास्त्र का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। अन्य विषय मानव कार्यकलाप के एक भाग का अध्ययन करते हैं। सामान्यत: मानवशास्त्री ऐसी जातियों का अध्ययन करते हैं जो पाश्चात्य सांस्कृतिक धारा से परे हैं। वे प्रत्येक जाति के रस्म-रिवाजों के समूह को एक समष्टि के रूप में अध्ययन करने का प्रयास करते हैं। यदि वे संस्कृति के एक ही पक्ष पर अपने अध्ययन को केंद्रित रखते हैं तो उनका खास उद्देश्य उस पक्ष में और संस्कृति के दूसरों पक्षों में संबंधों का विश्लेषण होता है। पूरी संस्कृति पर विचार करने के लिए वे उस समाज के लोगों का तकनीकी ज्ञान, आर्थिक जीवन, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएँ, धर्म, भाषा, लोकवार्ता एवं कला का अध्ययन करते हैं। वे इन पक्षों का अलग-अलग विवेचन करते हैं पर साथ-साथ यह भी देखते हैं कि वे विभिन्न पक्ष समय रूप में किस प्रकार काम करते हैं जिससे उस समाज के सदस्य अपने परिसर से समवस्थित होते हैं। इस रूप में सांस्कृतिक मानवशास्त्री अर्थशास्त्री, राजनीति-विज्ञान-शास्त्री, समाजशास्त्री धर्मों के तुलनात्मक अध्येता, कला या साहित्य के मर्मज्ञों से भिन्न हैं।

संस्कृति

संस्कृति शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। मानवशास्त्र में इसका प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में होता है। यह उसका आधारभूत सिद्धांत है। संस्कृति के गुण निम्नलिखित हैं-

(1) मानव संस्कृति के साथ जन्म नहीं लेता लेकिन उसमें संस्कृति ग्रहण करने की क्षमता होती है। वह उसे सीखता है। इस प्रक्रिया को संस्कृतीकरण कहते हैं।

(2) संस्कृति का उद्भव मानव जीवन के प्राणि शास्त्रीय, परिसरीय मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक अंगों से होता है। उसके निरूपण और विकास में इन तत्वों का बहुमूल्य योग होता है।

(3) संस्कृति की संरचना के विशिष्ट भाग हैं। सबसे छोटे भाग को सांस्कृतिक तत्व (Culture Trait) कहते हैं। कई तत्वों को मिलाकर एक तत्व समूह (Complex) होता है। एक संस्कृति में अनेक सांस्कृतिक तत्व समूह होते हैं। इसके अतिरिक्त कई संस्कृतियों में एक या अधिक प्रेरक सिद्धांत होते हैं जो उन्हें विशिष्टता प्रदान करते हैं।

(4) संस्कृति अनेक विभागों में विभक्त होती है, जैसे भौतिक संस्कृति (तकनीकी ज्ञान और अर्थव्यवस्था), सामाजिक संस्थाएँ (सामाजिक संगठन, शिक्षा, राजनीतिक संगठन) धर्म और विश्वास, कला एवं लोकवार्ता, भाषा इत्यादि।

(5) संस्कृति परिवर्तनशील है। संस्कृति के प्रत्येक अंग में परिवर्तन होता रहता है, किसी में तीव्रता से, किसी में मंद गति से। बाह्य प्रभाव भी बिना सोचे-समझे ग्रहण नहीं किए जाते। किसी में विरोध कम होता है, किसी में अधिक।

(6) संस्कृति में विभिन्नताएँ होती हैं जो कभी-कभी एक ही समाज के व्यक्तियों के व्यवहार में प्रदर्शित होती हैं। जितनी छोटी इकाई होगी उतना ही कम अंतर उसके सदस्यों के आचार-विचार में होगा।

(7) संस्कृति के स्वरूप, प्रक्रियाओं और गठन में एक नियमबद्धता होती है जिससे उसका वैज्ञानिक विश्लेषण संभव होता है।

(8) संस्कृति के माध्यम से मानव अपने संपूर्ण परिसर से समवस्थित होता है और उसे रचनात्मक अभिव्यक्ति का साधन मिलता है।

सांस्कृतिक मानव शास्त्र वर्तमान काल की संस्कृतियों का ही केवल अध्ययन नहीं करता। मानव विकास के कितने ही गूढ़ रहस्य प्रागैतिहास के गर्भ में पड़े हैं। प्रागैतिहासिक पुरातत्ववेत्ता पृथ्वी के नीचे से खुदाई करके प्राचीन संस्कृतियों की छानबीन करते हैं। उसके आधार पर वे मानव विकास का क्रमबद्ध स्वरूप निश्चित करते हैं। खुदाई से भौतिक संस्कृति की बहुत-सी चीजें उपलब्ध होती हैं। अनुमान एवं कल्पना की सहायता से उस संस्कृति के सदस्यों के रहन-सहन, आचार-विचार, सामाजिक संगठन, धार्मिक विश्वास इत्यादि की रूपरेखा तैयार करते हैं। अतएव प्रागैतिहास सांस्कृतिक मानव शास्त्र का अभिन्न अंग है।

भाषा के ही माध्यम से संस्कृति का निर्माण हुआ है। सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य ने अनेक तरह से अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त करने का प्रयास किया। पहले तो हाव-भाव तथा संकेत चिन्हों से काम चला। बाद में उसी ने भाषा का रूप ग्रहण कर लिया। प्रत्येक भाषा में उसके बोलने वालों की सारी मान्यताएँ, स्पष्ट तथा अस्पष्ट विचार, बौद्धिक और भावनात्मक क्रियाएँ निर्हित रहती हैं। आदिम समाज के सभी सांस्कृतिक तत्व उसकी भाषा के भंडार में सुरक्षित रहते हैं।

कहावतें, पहेलियाँ, लोककथाएँ, लोकगीत, प्रार्थना मंत्र, इत्यादि में समाज का संस्कार प्रदर्शित होता है। समाज की अंतर्मुखी वृतियों से परिचय प्राप्त करने के लिए भाषा का ज्ञान अत्यावश्यक है। संबंध सूचक शब्दावली से समाज में पारिवारिक और दूसरे संबंधों का पता चलता है। संस्कृति पर बाह्य प्रभावों के कारण जो परिवर्तन होता है वह भी भाषा में प्रतिबिंबित होता है। नए विचार और नई वस्तुएँ जब व्यवहार में आने लगती हैं तो उनके साथ नए शब्द भी आते हैं। इस प्रकार संस्कृति और भाषा दोनों का समान रूप से विकास होता है। आदि संस्कृतियों में भाषाओं की विविधता तथा उनके स्वरूप की जटिलता में अनुसंधान की असीम सामग्री है। जिस तरह भाषा के स्वरूप का विश्लेषण करने से हम सांस्कृतिक रहस्यों को सुलझा सकते हैं उसी प्रकार संस्कृतियों के संरचनात्मक तत्वों और प्रक्रियाओं के ज्ञान से हमें भाषा शास्त्र की कुछ समस्याओं पर व्यापक प्रकाश मिल सकता है।

सांस्कृतिक मानव शास्त्र के अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन, धर्म, भाषा, कला इत्यादि का अध्ययन आता है। टाइलर ने संस्कृति के संबोध के सहारे अध्ययन किया पर उनके समकालीन मोरगन ने समाज के प्रसंग में अपना काम किया। डुर्कहीम ने समाज शास्त्रीय परंपरा को पुष्ट किया। इस प्रकार नृतत्व में दोनों परंपराएँ समानांतर धाराओं की तरह चलती आ रही हैं। अमरीका मानव शास्त्री संस्कृतिपरक विचारधारा से आविर्भूत हैं। अंग्रेज विद्वान डुर्कहीम इसी परंपरा के पोषक हैं। अमरीकी विद्वानों के विचार में संस्कृति का संबोध समाज के संबोध से कहीं अधिक व्यापक है। इस प्रकार सामाजिक मानव शास्त्र उनकी दृष्टि से सांस्कृतिक नृतत्व का एक अंग है। कुछ विद्वान इस धारणा से सहमत नहीं होंगे। उनके अनुसार सांस्कृतिक और सामाजिक मानव शास्त्र के दृष्टिकोण, विचारधारा और तरीके भिन्न-भिन्न हैं।

सामाजिक मानवशास्त्र

सामाजिक मानवशास्त्र का क्षेत्र मानव संस्कृति और समाज है। यह संस्थाबद्ध सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करता है, जैसे परिवार, नातेदारी, व्यवस्था, राजनीतिक संगठन, विधि, धार्मिक मत इत्यादि। श् इस संस्था में परस्पर संबंधों का भी अध्ययन किया जाता है। ऐसा अध्ययन समकालीन समाजों में या ऐतिहासिक समाजों में किया जाता है। सामान्यत: सामाजिक मानव शास्त्री आदिम संस्कृतियों में काम करते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि आदिम समाज दूसरों से हेय है। आदिम समाज में जो जनसंख्या, क्षेत्र, बाह्य संपर्क इत्यादि की दृष्टि से छोटे और सरल हों तथा तकनीकी दृष्टि से पिछड़े हुए हों। आदिम जातियों पर विशेष ध्यान देने के कई कारण हैं। कुछ मानव शास्त्री संस्कृति के विकास का पता लगाने के क्रम में आदिम जातियों का अध्ययन करते थे। ऐसा समझा जाता था कि उन समाजों में ऐसी ही संस्थाएँ पाई जाती हैं जो दूसरे समाजों में प्राचीन काल में पाई जाती थीं। कार्यवादी (Functional) विचारधारा के प्रचलन के बाद समग्र रूप में समाज के अध्ययन की आवश्यकता मालूम हुई। इसके लिए आदिम समाज अत्यंत उपयुक्त थे क्योंकि उनमें एकरूपता थी और पूर्ण समष्टि के रूप में उन्हें देखा जा सकता था। फिर अपने से भिन्न संस्कृतियों का अध्ययन आसान था। उनके विवेचन में निरपेक्षता आसानी से बरती जा सकती थी। आदिम समाजों में सामाजिक बहुरूपता के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। उन पर आधारित जो संबोध बनेंगे वे अधिक दृढ़ और व्यापक होंगे। आदिम समाज शीघ्रता से बदलते जा रहे हैं। लुप्त होने के पूर्व उनका अध्ययन आवश्यक है।

सामाजिक मानव शास्त्र का सबसे प्रधान अंग सामाजिक संगठन है जिसमें उन संस्थाओं का विवेचन होता है जो समाज में पुरुष और स्त्री का स्थान निर्धारित करते हैं और उनके व्यक्तिगत संबंधों को दिशा देते हैं। मोटे तौर पर ऐसी संस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं जो रिश्ते से उत्पन्न होती हैं और जो व्यक्तियों के स्वतंत्र संपर्क से उत्पन्न होती हैं। रिश्तेदारी की संस्थाओं में परिवार और गोत्र आते हैं। दूसरे प्रकार की संस्थाओं में संस्थाबद्ध मैत्री, गुप्त समितियाँ, आयु समूह आते हैं। सामाजिक स्थिति पर आधारित समूह भी इसी के अंतर्गत आते हैं। सामाजिक संगठन कुछ आधारभूत कारकों पर बना होता है, जैसे आयु, यौन, भेद, रिश्तेदारी, स्थान, सामाजिक स्थिति, राजनीतिक स्थिति, व्यवसाय, ऐच्छिक समितियाँ, जादूवर्ग की प्रक्रियाएँ और टाटमवाद (Totemism)।

आर्थिक मानवशास्त्र

न्यूनतम परिश्रम से दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन मानव संबंधों और प्रयास का संगठन किया जाता है उसे आर्थिक मानव शास्त्र की संज्ञा दी गई है। भोजन प्राप्त करने और उत्पन्न करने के अनेक तरीके विभिन्न जातियों में प्रचलित हैं। उनके आधार पर चार मुख्य स्तर पाए जाते हैं-संकलन-आखेटक-स्तर, पशुपालन स्तर, कृषि स्तर और शिल्प-उद्योग-स्तर। आदिम समाजों में आर्थिक संबंध सामाजिक परंपराओं में बँधे रहते हैं। उत्पादन के कारकों में भी भेद करना कठिन होता है। आदिम जगत्‌ की अर्थव्यवस्था में उपहार और व्यापार विनिमय का विशेष महत्व है। उपहारों से व्यक्तिगत तथा सामूहिक संबंध सुदृढ़ बनाए जाते हैं। व्यापार और विनिमय में उत्पादन के वितरण का महत्व अधिक होता है। बहुत से आदिम समाज मुद्राविहीन हैं। अर्थशास्त्रीय माने में बाजार का भी अभाव है। फिर भी उनका आर्थिक संगठन सुचारू रूप से चालू है।

अर्थव्यवस्था भौतिक संस्कृति एवं लोगों की तकनीकी क्षमता पर निर्भर होती है। शिकार, मछली मारने के तरीकों, खेती के तरीकों तथा उद्योग-धंधों का अध्ययन भी इसी के अंतर्गत आता है। पहले के मानव शास्त्री इस प्रकार के अध्ययन में अधिक रुचि रखते थे और उनके प्रयासों के फलस्वरूप विदेशों के संग्रहालय आदिम भौतिक संस्कृति की वस्तुओं से भरे पड़े हैं।

धार्मिक मानवशास्त्र

अदृश्य एवं अज्ञात शक्तियों को जानने की अभिलाषा मनुष्य को सदा से ही रही है। उनके विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ और विश्वास प्रचलित हैं। जब किसी घटना का कोई भी कारण समझ में नहीं आता तो हम उसे देवी घटना मानकर संतोष कर लेते हैं। धर्म और जादू इन्हीं अदृश्य और अज्ञात व्यक्तियों को अपने पक्ष में प्रभावित करने के लिए बनाए गए हैं। किसी भी समाज के संगठन, उपलब्धियों तथा प्रगति के अध्ययन करते समय धार्मिक पृष्ठभूमि से परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। धर्म हममें सुरक्षा की भावना जगाता है। एक धर्म के अनुयायी एकता के दृढ़ सूत्र में बँधे रहते हैं। धर्म की छाप हमें किसी भी समाज के समस्त क्रियाकलापों पर मिलती है। कला, साहित्य, संगीत, नृत्य इत्यादि प्रारंभ में धार्मिक भावना से ही अनुप्राणित थे। उनका अध्ययन भी सांस्कृतिक मानव शास्त्र के अंतर्गत आता है।

संस्कृति का उद्गम एवं विकास

संस्कृति के उद्गम एवं विकास के संबंध में मानव शास्त्रियों में घोर मतभेद है। उन्नीसवीं शताब्दी में डार्विन के उद्विकास (Evolution) के सिद्धांत से अनेक अध्येता प्रभावित हुए। सांस्कृतिक क्षेत्र में भी टाइलर, मोरगन इत्यादि विद्वानों ने इसे मान्यता दी। इस सिद्धांत के सहारे मानव संस्कृति के विकास को अच्छी तरह समझा जा सकता था। इसके अनुसार विकास के तीन स्तर निर्धारित किए गए। निम्नतम स्तर जंगलीपन (Savagery), मध्य स्तर को बर्बरता (Barbarism) और उच्चतम स्तर को सभ्यता की संज्ञा दी गई। संसार के विभिन्न भागों में सांस्कृतिक समानताओं का कारण एक प्रकार से सोचने की प्रवृत्ति तथा समान वातावरण में समान संस्थाओं का निर्माण बताया गया। प्रसारवाद (Diffusionism) के सिद्धांत ने इस मान्यता को ठुकरा दिया। इसके अनुसार संस्कृति का उद्गम कुछ स्थानों पर हुआ और वहीं से वह फैली। प्रसारवाद के कुछ पंडित मिश्र को संस्कृति का उद्गम स्थल मानते थे। प्रसारवादी समझते हैं कि मनुष्य की आविष्कार शक्ति अत्यंत सीमित होती है और ग्रहण शक्ति अपरिमित है। वियना के नृतत्ववेत्ताओं ने इसी आधार पर संसार के प्रमुख संस्कृति वृतों (Kultur Kreis) संबंधी मान्यताएँ स्थापित की हैं।

इसमें संदेह नहीं कि आविष्कार और प्रसार द्वारा संस्कृतियों का रूप बदलता है। अन्य संस्कृतियों के तत्व कई कारणों से ग्रहण किए जाते हैं। कुछ तो दबाव के कारण अपनाए जाते हैं, कुछ नवीनता के लिए, कुछ सुविधा के लिए और कुछ लाभ के लिए। कुछ नवीन तत्व प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपनाए जाते हैं। बार्नेट ने संस्कृति परिवर्तन का नया विवेचन प्रस्तुत किया है। वे उत्प्रेक्षण (Innovation) को संस्कृति-परिवर्तन का आधार मानते हैं। उत्प्रेक्षण मानव की इच्छाओं से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि वे संस्कृति परिवर्तन के कारण होते हैं, फिर भी वे स्वयं सांस्कृतिक परिस्थितियों और कारकों से अछूते नहीं रहते। उत्प्रेक्षण की सफलता के लिए असंतोष की स्थिति आवश्यक है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ