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सहायिकी

सहायिकी (subsidy) या राजसहायता किसी आर्थिक या समाजिक नीति को बढ़ाने के लिए दी गई वित्तिय सहायता होती है। यह आमतौर से सरकार द्वारा व्यक्तियों, कम्पनियों या संस्थाओं को दी जाती है। सहायिकी के कई रूप हो सकते हैं, जैसे कि सीधे पैसे देना, कर छूट देना, बिना ब्याज़ के ऋण देना, इत्यादि। उपभोक्ताओं को सहायिकी किसी माल या सेवा की कीमत घटाने के लिए दी जाती है, मसलन भारत की राशन व्यवस्था में अनाज व अन्य आवश्यक खाद्यसामग्री कम कीमत पर उपलब्ध कराई जाती है। सहायिकी प्रदान करने का खर्चा अंततः दो ही स्रोतों से मिलता है: या तो इसे साधारण करदाता पर कर बढ़ाकर लिया जाता है या फिर उसे मुद्रा छापकर पूरा करा जाता है, जिस से महंगाई बढ़ती है (यानि खर्चा पूरा समाज उठाता है)। कुछ क्षेत्रों में सीमित सहायिकी देने से सहाजिक कल्याण, कमज़ोर वर्गों की रक्षा और अर्थव्यवस्था में व्यापार को बढ़ावा मिल सकता है।[1][2]

सहायिकी में अक्सर उसके चोरी होने का या अन्य अनपेक्षित परिणाम का संकट रहता है। बहुत से देशों में सहायिकी का आरम्भ किसी वर्ग की मदद करने के लिए किया जाता है लेकिन समय के साथ उसे चोरी करने की अपराधिक व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। यह व्यवस्थाएँ स्वयं में पत्रकारों, राजनेताओं, सरकारी अफसरों और विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक संघों के नेतृत्व (जैसे कि कृषि संघ, मज़दूर संघ, इत्यादि) को मिला लेती हैं, और फिर सरकार व लोकमत को प्रभावित कर सहायिकी हटाने से रोकती है। भारत की राशन वितरण प्रणाली में दशकों तक राशन की व्यवस्थित रूप से चोरी हो रही थी।[3]

किसी बड़े आर्थिक क्षेत्र में स्थाई सहायिकी देने से महंगाई और भ्रष्ट्राचार के साथ-साथ, बाज़ार विकृति (market distortion) भी उत्पन्न होती है, जिस से बाज़ार में अन्य वस्तुओं का अभाव जन्म ले सकता है जिस से उनका दाम बढ़ता है।[4]

अर्थिक प्रभाव

अर्थव्यवस्था किसी भी माल या सेवा की उत्पादकों द्वारा आपूर्ति और उपभोक्ताओं द्वारा माँग के बीच आर्थिक संतुलन बनता है और उस चीज़ की बाज़ार में कीमत (मूल्य) इसी संतुलन से प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होती है। यह संतुलन बहुत लाभदायक होता है।

सहायिकी के बिना

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि भारत में प्याज़ का बाज़ार है। प्याज़ के कई राज्यों में उत्पादक हैं और कई उपभोक्ता। अब बिना सरकार द्वारा सहायिकी के दो बदलाव की स्थितियाँ देखी जा सकती हैं:

  • पहली स्थिति: किसी कारण से आपूर्ति कम हो जाती है, मसलन किसी राज्य में प्याज़ की फसल में बीमारी होने से उत्पादन कम हो जाता है। आपूर्ति कम होने से प्याज़ की कीमत बढ़ती है। इस से देशभर के कृषि उत्पादकों को मूल्य संकेत द्वारा से यह प्रोत्साहन मिलता है कि वह अपना प्याज़ का उत्पादन बढ़ाएँ। सम्भव है कि कुछ कृषक जो कोई और फसल उगाने वाले थे, अब वह बाज़ार में प्याज़ में बढ़े भाव से अधिक लाभ की सम्भावना देखकर प्याज़ उगाने लगते हैं। इसी काल में उपभोक्ता भी देखते हैं कि बाज़ार में प्याज़ महँगा हो गया है और, इस मूल्य संकेत मिलने से वह प्याज़ का उपभोग थोड़ा कम कर लेते हैं - शायद प्याज़ के स्थान पर कोई अन्य विकल्प प्रगोग करते हैं या जहाँ दो प्याज़ प्रयोग करते थे, वहाँ अब एक ही करते हैं। यानि देशभर के उपभोक्ता इस बात के लिए स्वयं ही संवेदनशील हो जाते हैं कि देश में प्याज़ की कमी है और उसका प्रयोग बच-बच कर करें। समय के साथ-साथ उत्पादकों द्वारा बढ़ी आपूर्ति बाज़ार में आती है और प्याज़ के दाम धीरे-धीरे गिरकर कम हो जाते हैं। उत्पादक भी धीरे-धीरे अपना उपभोग बढ़ाकर वापस संतुलन में आ जाते हैं।
  • दूसरी स्थिति: किसी कारण से आपूर्ति बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि किसी राज्य में वर्षा अपेक्षा से अधिक अच्छी हो जाती है। बाज़ार में आपूर्ति बढ़ने से कीमत गिरती है। इस मूल्य संकेत से देशभर के उत्पादकों को प्रोत्साहन मिलता है कि वह अपना प्याज़ का उत्पादन घटाएँ। उसी काल में किसी अन्य सब्ज़ी के भाव बढ़े भी हो सकते हैं, यानि उस सब्ज़ी की कमी है - कुछ कृषक अब प्याज़ के स्थान पर उस दूसरी सब्ज़ी को उगाना शुरु करते हैं। यानि कृषकों को प्राकृतिक रूप से यह संकेत मिलता है कि देशभर में प्याज़ आवश्यकता से अधिक हो गया है, अब कोई और ऐसी सब्ज़ी का उत्पादन करें जिस की कमी है। इसी काल में उपभोक्ताओं को भी मूल्य संकेत मिलता है कि वह प्याज़ अधिक प्रयोग करें। इस से वह किसी अधिक दाम (यानि कम आपूर्ति) वाली सब्ज़ी का प्रयोग कम करते हैं और प्याज़ का अधिक। यानि उपभोक्ताओं को भी प्राकृतिक रूप से मूल्य संकेत मिल गया है कि देशभर में प्याज़ की थोक है और अन्य सब्ज़ियों से पहले इसका प्रयोग करें। समय के साथ-साथ आपूर्ति घटती है और कीमत धीरे-धीरे बढ़कर अपने पहले के संतुलन बिन्दु पर लौटने लगती है।

यह देखा जा सकता है कि आर्थिक संतुलन और मूल्य संकेत किसी की समाज व देश की अर्थव्यवस्था की चिरकालीन आर्थिक भलाई के लिए अति-आवश्यक हैं और उसके उत्पादकों व उपभोक्ताओं को हर समय पर सही आर्थिक निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

साहायिकी के साथ

पूर्व भाग में उल्लेखित प्याज़ के उदहारण में अब सरकारी द्वारा सहायिकी देकर हस्तक्षेप के प्रभावों का छोटा अध्ययन करा जा सकता है। सरकार या तो उत्पादकों को सहायिकी दे सकती है या फिर उपभोक्ताओं को:

सरकार द्वारा उपभोक्ताओं को सहायिकी

शुरु में बाज़ार में उत्पादन और उपभोग के बीच आर्थिक संतुलन बना हुआ है। अब घटनाओं का अनुक्रम इस प्रकार जाता है:

    • सरकार पर दबाव आता है कि "प्याज़ बहुत महंगा है" और वह हर उपभोक्ता को प्याज़ खरीदने पर कुछ रुपये प्रति किलोग्राम की सहायिकी देने लगती है। यह सहायिकी किसी विधि द्वारा प्याज़ खरीदते समय ग्राहक को दी जाएगी। इस से उपभोक्ताओं को दाम कम पड़ता है लेकिन उत्पादकों को जो दाम पहले मिल रहा था, वह अब भी मिलता रहता है।
    • सहायिकी का पैसा सरकार को करदाताओं पर कर बढ़ाकर स्पष्ट रूप से देश की जनता से, या फिर मुद्रा छापकर (जिस से जनता के लिए महंगाई बढ़ती है) अस्पष्ट रूप से, उसी जनता से वसूल करना पड़ता है।
    • सहायिकी अब प्याज़ खरीदने के लिए प्याज़ उपभोक्ताओं को दी जाती है। कुछ उपभोक्ता अधिक प्याज़ खरीदने लगते हैं, यानि बाज़ार में माँग बढ़ जाती है। लेकिन उत्पादकों द्वारा प्राप्त कीमत में कोई बदलाव नहीं हुआ है, इसलिए उत्पादन नहीं बढ़ता।
    • माँग और आपूर्ति के बीच अब असंतुलन उत्पन्न हो गया है। उत्पादक अधिक माँग पूरी करने के लिए और प्याज़ उगा नहीं सकते, क्योंकि उनके द्वारा देखा गया मूल्य नहीं बढ़ा है। अर्थशास्त्र की भाषा में उन्हें कोई मूल्य संकेत या प्रोत्साहन नहीं मिला है, और उनके लिए वर्तमान मात्रा से अधिक प्याज़ उगाने पर घाटा होता है।
    • कई उपभोक्ता जिन्हें पहले प्याज़ मिलता था, अब उन्हें प्याज़ नहीं मिलेगा क्योंकि माँग बढ़ गई है लेकिन आपूर्ति नहीं।
    • राजनेता बयान देते हैं कि "सरकार ने प्याज़ सस्ता करवा दिया है"। उपभोक्ता बोलते हैं कि "प्याज़ सस्ता हुआ है लेकिन पता नहीं क्यों बाज़ार में अब कम मिलने लगा है।"
    • ध्यान देने योग्य बात है कि अब बाज़ार में ऐसे कुछ उपभोक्ता हैं जो प्याज़ की अधिक कीमत देने तो तैयार थे और आर्थिक संतुलन की स्थिति में देकर प्याज़ मिल भी रहा था। सम्भव है कि उन्हें अन्य लोगों की तुलना में इस प्याज़ की अधिक आवश्यकता थी जिस कारण वह अधिक दाम देने को तैयार थे। अब उन्हें भी प्याज़ कम मिलेगा और कभी-कभी मिलेगा भी नहीं।
    • यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मूल्य संकेत विकृत होने से अगर पहले प्याज़ उत्पादन बढ़ने वाला था, अब नहीं बढ़ेगा।

सम्भव है कि आपात स्थिति में प्याज़ के लिए सहायिकी समाज के लिए लाभदायक हो। लेकिन स्थाई रूप से इस प्रकार के हस्तक्षेप की हानि देखी जा सकती है।

सरकार द्वारा उत्पादकों को सहायिकी

शुरु में बाज़ार में उत्पादन और उपभोग के बीच आर्थिक संतुलन बना हुआ है। अब घटनाओं का अनुक्रम इस प्रकार जाता है:

    • सरकार पर दबाव आता ऐ कि "किसान गरीब हैं" और वह हर उत्पदक को प्याज़ बेचने पर कुछ रुपये प्रति किलोग्राम की सहायिकी देने लगती है। यह सहायिकी किसी विधि द्वारा प्याज़ बेचते समय उत्पादक को दी जाएगी। इस से उत्पादकों को दाम अधिक मिलता है लेकिन उपभोक्ताओं को जो दाम पहले मिल रहा था, वह अब भी मिलता रहता है।
    • सहायिकी का पैसा सरकार को करदाताओं पर कर बढ़ाकर स्पष्ट रूप से देश की जनता से, या फिर मुद्रा छापकर (जिस से जनता के लिए महंगाई बढ़ती है) अस्पष्ट रूप से, उसी जनता से वसूल करना पड़ता है।
    • सहायिकी अब प्याज़ बेचने के लिए प्याज़ उत्पादकों को दी जाती है। कुछ उत्पादक अधिक प्याज़ उगाने व बेचने लगते हैं (और कुछ अन्य चीज़े छोड़कर प्याज़ उगाने लगते हैं), यानि बाज़ार में आपूर्ति बढ़ जाती है। लेकिन उपभोक्ताओं द्वारा प्राप्त कीमत में कोई बदलाव नहीं हुआ है, इसलिए उपभोग नहीं बढ़ता।
    • माँग और आपूर्ति के बीच अब असंतुलन उत्पन्न हो गया है। उपभोक्ता अधिक प्याज़ नहीं खरीद रहे लेकिन बाज़ार में अधिक प्याज़ आ रहा है। अर्थशास्त्र की भाषा में उपभोक्ताओं को कोई मूल्य संकेत या प्रोत्साहन नहीं मिला है जिस से वह अधिक प्याज़ खरीदें।
    • राजनेता बयान देते हैं कि "सरकार ने किसानों की मदद की है"। उत्पादक बोलते हैं कि "कीमत तो बढ़ी है लेकिन पता नहीं क्यों बाज़ार में कभी-कभी हमारा सारा प्याज़ लोग खरीदते ही नहीं।"
    • ध्यान देने योग्य बात है कि अब बाज़ार में ऐसे किसान भी हैं जो प्याज़ कम कीमत पर बेचने को तैयार थे और आर्थिक संतुलन की स्थिति में इस कीमत पर उनका सारा प्याज़ बिक रहा था। लेकिन अब उनका भी कुछ प्याज़ बिना बिके सड़ जाता है।
    • यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मूल्य संकेत विकृत होने से अगर पहले प्याज़ की खरीदरी बढ़ने वाली थी, अब नहीं बढ़ेगी।

सम्भव है कि आपात स्थिति में प्याज़ के लिए सहायिकी समाज के लिए लाभदायक हो। लेकिन स्थाई रूप से इस प्रकार के हस्तक्षेप की हानि भी देखी जा सकती है। भारत में गेहूँ और चावल की सहायिकी से यह स्थिति उत्पन्न हो चुकी है।[5][6]

भारत में राजसहायता

भारत में राजसहायता प्राप्त प्रमुख मदों की सूची तथा 2013-14 के आँकड़े व 2014-15 के बजट प्रावधान इस प्रकार हैं[1]:

मद2014-15
(बजट प्रावधान)
2013-14
(जुलाई 2014 के संशोधित अनुमान)
उर्वरक सब्सिडी67970.3067971.50
खाद्य सब्सिडी115000.0092000.00
पैट्रोलियम सब्सिडी63426.9585480.00
ब्‍याज सब्सिडी8462.888174.85
अन्‍य सब्सिडी847.491889.90

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. "राजसहायता में कमी". पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार. 11जुलाई 2014. मूल से 14 जुलाई 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जुलाई 2014. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. Myers, N. (1998). "Lifting the veil on perverse subsidies". Nature. 392 (6674): 327–328. डीओआइ:10.1038/32761.
  3. "Inflation and Capital," Frederick Victor Meyer, Bowes & Bowes, 1954, ... the difference is made up out of subsidies . These must be paid for by the taxpayer. The taxpayer finds his tax bill correspondingly inflated ...
  4. "Global Economic and Public Policy Framework," Nazimudeen Saleem, Lulu Press Inc, 2007, ISBN 9781430317425
  5. "Surplus Stocks of Wheat and Rice Biggest Problems for Agriculture and Environment," Gurneel Kaur, December 14, 2019, Grain Mart India, "... The surplus stocks of wheat and rice have become the biggest problem for agriculture in India and the environment. The continuous wheat-rice crop pattern, especially in North India, resulted in dead and excess stock lying at FCI warehouses. Wheat and Paddy crop cycle also has a long term impact on underground water depletion and soil deterioration. Further, added problems of excessive cultivation of paddy includes the air pollution caused by stubble burning ..."
  6. "Problem of plenty: As wheat, rice production hits record high, new worry stares in Modi govt’s face," March 2, 2020, "... As against the stocking norm of 21.4 million tonnes (7.6 million tonnes rice and 13.8 million tonnes wheat), the actual food grain stock in the month of January 2020 was 56.5 million tonnes (23.7 million tonnes rice and 32.7 million tonnes wheat) ... The stock is nearly more than three times the 21.4 million tons stock required to maintain operational stock as well as the strategic reserve ..."