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समकालीन दर्शन

उन्नीसवीं शती के अन्त से लेकर वर्तमान समय तक के दर्शन को समकालीन दर्शन (Contemporary philosophy) कहते हैं। समकालीन दर्शन, 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में अनुशासन के बढ़ते व्यावसायीकरण और विश्लेषणात्मक और महाद्वीपीय दर्शन के उदय के साथ पश्चिमी दर्शन के इतिहास में वर्तमान काल है । .[1]

वाक्यांश "समकालीन दर्शन" दर्शन में तकनीकी शब्दावली का एक भाग है जो पश्चिमी दर्शन (अर्थात् 20वीं और 21वीं शताब्दी के दर्शन) के इतिहास में एक विशिष्ट अवधि को संदर्भित करता है। हालांकि,यह वाक्यांश अक्सर आधुनिक दर्शन (जो पश्चिमी दर्शन में पहले की अवधि को संदर्भित करता है), उत्तर आधुनिक दर्शन (जो आधुनिक दर्शन के कुछ दार्शनिकों की आलोचनाओं को संदर्भित करता है), और वाक्यांश किसी हालिया दार्शनिक कार्य के जिक्र के गैर-तकनीकी उपयोग के साथ अक्सर भ्रमित होता है। [2]

समकालीन पाश्चात्य दर्शन की पृष्‍ठभूमि

लॉक से लेकर कांट और हीगेल तक जिस दार्शनिक विचारधारा का विकास हुआ, 19वीं शती के अंत तक उसे मात्र ऐतिहासिक तथ्य समझा जाने लगा। कांट एवं हीगेल की विचारधारा इस शती के अंत तक पूरे यूरोप में फैल चुकी थी, विशेषकर नव्य हीगेलवादी धारा तो अमेरिका, इंग्लैंड एव रूस में व्यपक रूप से विकसित हो चुकी थी। हीगेलीय दर्शन में ज्ञानोपलब्धि के लिए तर्क को सर्वोपरि स्थान दिया गया। वास्तविकता तर्कसाध्य है और जो तर्कसाध्य है, वही वास्तविकता है। परस्पर विरोधी, परिवर्तनशील एवं नाम रूप का ऐंद्रिय जगत् भ्रामक है। वास्तविकता अद्वैत है, देशातीत एवं कालातीत है। यह अमूर्त है, इसलिए इसे तर्कशास्त्र, गणित एवं ज्यामिति की पद्धति से ही जाना जा सकता है। इस विचारधारा में अनुभूमि, इच्छा एवं संवेदना को तिरस्कृत करने के साथ साथ ऐंद्रिय जगत् का भी निषेध किया गया। इस प्रकार मष्तिष्क एवं हृदय के बीच तनाव काफी बढ़ गया।

समकालीन दर्शन का अभ्युदय उपर्युक्त विचारधारा के विरोध में हुआ। दर्शन का यह युग प्रणालीविरोधी रहा है। यह प्रवृत्ति क्रमश: अराजकता की ओर बढ़ती गई। दूसरे, व्यक्तिगत अनुभवों को अधिक महत्व दिया गया। तत्वमीमांसा पर प्रबल आक्रमण किए गए। इसके लिए किसी स्कूल ने धर्म और मनोविज्ञान का आश्रय लिया, किसी ने अनुभूति का, तो किसी ने विज्ञान और तार्किक विश्लेषण का। फिर तत्वमीमांसा के सिद्धांत नए स्तर पर स्थापित किए गए। सैमुउल अलेक्जैंडर, निकोलाई हार्टमान एवं अल्फ्रेड नार्थ ह्वाइटहेड इसके उदाहण हैं। धार्मिक अनुभवों, एवं मनोवैज्ञानिक सत्यों को विलियम जेम्स ने पर्याप्त महत्व दिया। जेम्स ने हीगेल के पूर्वनिर्धांरित एवं गतिहीन जगत् की कटु आलोचना की। उनके अनुसार वास्तविकता परिवर्तनशल है और इसका ज्ञान संवेदनाओं के माध्यम से ही हो सकता है। फलत: चेतनाप्रवह का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया। देश काल की वास्तविकता को ही वास्तविकता स्वीकार कर लिया गया। जेम्स ने "विश्वास की इच्छा" का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार, विश्वास की कसौटी तथ्य नहीं, सफलता है। इस विचारधारा को व्यावहारिकतावाद या प्रैग्मैटिज्म कहते हैं। इसमें वास्तविकता की जा कल्पना की गई वह व्यापारवाद, अवसरवाद एवं स्वार्थवाद की ओर प्रेरित करती है। जान डिवी, शिलर, चार्ल्स पियर्स और स्वयं जेम्स इस विचारधारा के प्रसिद्ध व्याख्याता थे। फ्रांसीसी दार्शनिक हेनरी बर्गसाँ ने जेम्स के दृष्टिकोण की प्रशंसा की। किंतु वे उपयोगिता को बुद्धिजन्य मानते थे। इसलिए उपयोगिता एवं बुद्धि दोनों ज्ञान प्राप्त करने में बाधक बतलाई गईं। बर्गसाँ ने मनन, सहजानुभूति एव मूल प्रवृत्तियों को महत्व दिय। जीवन एवं परिवर्तन को वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया। उनके अनुसार भौतिक जगत, जो देश में स्थित है, बुद्धिगम्य है और काल जिसमें सभी कुछ स्थित है, सहजानुभूतिगम्य है। वर्गसाँ का दर्शन एक तरह से नव्य प्लेटोवादी परंपरा का सुधरा हुआ रूप है। उन्होंने रहस्यवाद का, प्रगति एवं काल की वास्तविकता से समन्वय करने का प्रयत्न किया है।

19वीं शती के अंत में जर्मन प्रत्ययवाद के विरुद्ध विद्रोह होने लगे थे। जेम्स और बर्गसाँ के अतिरिक्त तर्कशास्त्रियों ने भी हीगेलीय पद्धति में दोष ढूँढ़ निकाला। यदि एक ओर तार्किक भाववाद (लाजिकल पाजिटिविज्म) भाषीय विश्लेषण के माध्यम से आगे आया तो अस्तित्ववाद नई और जटिल भाषा लेकर उदित हुआ। फ्रैंज ब्रैन्तैनो के विचारों से प्रभावित होकर एडमंड हुसर्ल ने प्रतिभासवाद (फेनोनेनोलाँजी) का सिद्धांत प्रणीत किया। कभी कभी एक ही स्कूल के भीतर मतवैभिन्न्य एवं अस्पष्टता की भरमार मिलती है। एक तरह से मूल प्रवृत्ति प्रणालीविरोधी होने के कारण अराजक एवं अणुवादी रही है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद रूस एवं चीन का राष्ट्रीय दर्शन होने के कारण सबसे अधिक प्रभावशाली दर्शन रहा है, क्योंकि सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक, दोनों पक्षों से उसे जीवन में ग्रहण किया गया। दर्शन शास्त्र का जीवन के लिए ऐसा उपयोग समकालीन समाज में कहीं नहीं है। मार्क्स एवं एंगेल्स ने इसकी स्थापना की, जिसे लेनिन, प्लैखनोव, स्टेलिन एवं माऔत्सेतुंग ने आगे विकसित किया। यहाँ तार्किक भाववाद, प्रतिभासवाद एव अस्तित्ववाद का संक्षिप्त परिचय देना पर्याप्त होगा। किंतु इसके पहले हमें नव्य टामसवाद पर कुछ शब्द कह देना चाहिए। जाके मेरितें ने टामस एक्वीनास के विचारों का आधुनिकीकरण करने का प्रयत्न किया, किंतु यह दर्शन मूलत: धार्मिक शिक्षाओं पर आधारित है। व्यक्तिवादी प्रवृत्ति से भिन्न होते हुए भी, इसमें ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण की शिक्षा ही महत्वपूर्ण समझी जाती है। इसमें ज्ञानमीमांसा आदि की व्याख्या हुई है, किंतु नैतिक एवं धार्मिक शिक्षाएँ ही सर्वोपरि स्थान पा सकी हैं। फलत: यह कैथालिक चर्च का दर्शन बन कर रह गया। कभी कभी ये अपने को वास्तविक अर्थों में अस्तित्ववादी कहते हैं। किंतु ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग आदि की कल्पनाओं को अधिक महत्व देने के कारण वे भौतिक जीवन को तिरस्कृत करते हैं और उन्हें अस्तित्ववादी नहीं कहा जा सकता।

प्रतिभासवाद

प्रतिभासवाद (Phenomenology) 19वीं शती की प्रधान दार्शनिक धारा है। मुख्यत: फ्रैंज ब्रैन्तैनो (1838-1917) के विचारों का आधार बनाकर एडमंड हुसर्ल (1859-1938) ने इसे विकसित किया। जर्मनी के बाद इसका प्रभाव सारे यूरोप में फैल गया। मूर (नव्ययथार्थवादी) (अस्तित्ववादी), हार्टमान (तत्वमीमांसा) इत्यादि पर प्रतिभासवाद का अलग अलग प्रभाव पड़ा। प्रतिभासवादियों में मैक्स (Max Scheler) का नाम उल्लेखनीय है। इस सिद्धांत के अनुसार दर्शन का प्रतिभास है। प्रतिभास से अर्थ है, जो भी प्रदत्त वस्तु प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनती हो। फलत: प्रकृति विज्ञान के विपरीत युद्ध अपनाते हुए भी सह प्रत्ययवाद से भी अलग पड़ता है। प्रतिभासवाद, ज्ञानमीमांसा से अध्ययन प्रारंभ नहीं करता। दूसरी विशेषता यह है कि प्रतिभासवाद सारतत्वों को विषयवस्तु के रूप में चुनता है। ये सारतत्व प्रतिभासी आदर्श एवं बोधगम्य होते हैं। ये प्रत्याक्षानुभूति की क्रिया में मन में छूट जाते हैं इसीलिए इसे सारतत्वों का दर्शन भी कहते हैं। एडमंड हुसर्ल फ्रैंज ब्रैंतैनो के अतिरिक्त, स्कॉलेस्टिसिज्म, नव्य कांटवाद आदि का प्रभाव स्पष्ट है। गणित में उनका विशेष अध्ययन है। प्रतिभासवाद माध्यम से उन्होंने नामवाद, अज्ञेयवाद, भाववाद आदि का खंडन करने का प्रयत्न किया है। हुसर्ल ने अपने अर्थ के सिद्धांत के अनुमान मानसिक प्रत्ययों, बिंबों, अवधारणाओं, घटनाओं, अनुभवों आदि की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। फलत: उनका सिद्धांत अंत में प्रतिभासवादी होकर रह जाता है। प्रतिभासवादी पद्धति को दर्शन के विज्ञान के रूप में विकसित करने के लिए हुसर्ल ने इसे प्रत्यक्षानुभूति से शु डिग्री किया है। समान्य अर्थों में "देखने की क्रिया से" - जिसे वे प्रमुख चेतना कहते हैं जो प्रदत्त वस्तुओं को प्रत्यक्षत: प्रस्तुत करती है। यह मूल वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनिवार्य साधन है। प्रतिभासवाद का यह प्रथम नियम है। हम चेतना में वस्तुओं को जिस रूप में देखते हैं, वह उनका अर्थ है, इस प्रदत्त को प्रतिभास कहते हैं, क्योंकि वह चेतना में प्रतिभासित हाता है। प्रतिभासवाद में प्रतिभासों के अतिरिक्त किसी अज्ञेय तत्व को महत्व नहीं दिया गया है। फलत: यह आनुभविक या निगमात्मक पद्धति को महत्व नहीं देता। प्रदत्त की व्याख्या से इसका संबंध है। इस प्रकार सरतत्वों की ओर ही इसका आग्रह होता है। विषयी की क्रिया भी इसके अध्ययन की वस्तु हो सकती है। किंतु सर्वप्रथम ज्ञात, संदेहास्पद, प्रेममूलक वस्तुओं को ही ग्रहण किया जाता है। हुसर्ल के अनुसार प्रत्येक वस्तु में उसका सारतत्व निहित होता है। यद्यपि प्रत्येक वस्तु संभाव्य या अनिश्चित वास्तविकता होती है, फिर भी उसमें सार तत्व होता है, जिसे शुद्ध प्रत्यय कह सकते हैं। इस प्रकार प्रतिभासवद बौद्धिक सहजानुभूति के माध्यम से सारतत्वों का अध्ययन करता है। अनुभवातीत न्यूनीकरण के माध्यम से इन सारतत्वों की खोज की जाती है। इसी सिद्धात से "साभिप्रायिकता" का सिद्धांत भी जुड़ा हुआ है। इसमें चेतना और इसकी क्रियाओं का अध्ययन होता है। हुसर्ल के अनुसार जीव के विभिन्न विभागों से प्रतिभासवाद की सीमा निर्धारित होती है। इसमें से एक है- शुद्ध चेतना। इसे "साभिप्रायिकता" के आधार पर प्राप्त करते हैं। सामिप्रायिकता इस शुद्ध चेतना से संबंधित होती है। प्रेम, आस्वादन, इत्यादि चेतना हैं, ये साभिप्रायिक अनुभव हैं। ये साभिप्रायिक अनुभव जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसे संपूर्ण रूप से जान लेते हैं। अनुभव स्वयं शुद्ध क्रिया है। साभिप्रायिक वस्तु और शुद्ध चेतना का साभिप्रायिक संबंध ही यह क्रिया है। इस प्रकार संपूर्ण वास्तविकता शुद्ध क्रिया है। साभिप्रायिक वस्तु और शुद्ध चेतना का साभिप्रायिक संबध ही यह क्रिया है। इस प्रकार संपूर्ण वास्तविकता शुद्ध क्रिया के रूप में अनुभवप्रवाह है। अनुभवप्रवाह में ही ऐद्रिय पदार्थ एव साभिप्रायिक रूप का अंतर स्पष्ट करते हुए, साभिप्रायिक अनुभवप्रक्रिया की गूढ़ व्याख्या करते हैं। अंत में वे प्रत्ययवादी सिद्धांतों के अनुरूप ही अपना सिद्धांत पूर्ण करते हैं।

तार्किक भाववाद

तार्किक वस्तुनिष्ठावाद (Logical Positivism) की पृष्ठभूमि में कांत, मिल, माख, ह्यूम इत्यादि का प्रभाव महत्वपूर्ण है। जी.ई. मूर, बट्रेंड रसेल, ह्वाइटहेड एवं आइन्सटीन के भौतिक शास्त्र का प्रभाव भी इस शाखा पर स्पष्टत: लक्षित होता है। किंतु इस स्कूल का संगठन वियना में मोरिज श्लिक (1882-1936) की अध्यक्षता में हुआ। एर्केटनिस इस स्कूल का मुखपत्र था, बाद में इसका नाम "Journal of Unified Science" हो गया। प्राग, कोनिंग्सबर्ग, कापेनहेगेन, पेरिस और कैंब्रिज में इसकी महत्वपूर्ण बैठकें हुईं। अमरीका से इस स्कूल के "International Encyclopedia of Unified Science" का प्रकाशन हुआ। इस स्कूल के प्रतिनिधि मुख्यत: जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका रूडाल्फ कर्नप हैन्स रीखेनबाख, श्लिक, ओट्टो न्यूराथ, ऐ.जे. आयर, गिलबर्ट राइल, जान विज्डम आदि का नाम महत्वपूर्ण है। लुडविग वित्गीन्सताइन के भाषा संबंधी विश्लेषण का इस स्कूल पर गहरा प्रभाव है। इन सारे व्यक्तियों में परस्प्र मतभेद है, फिर भी वे तर्क, गणित और विज्ञान को एक स्वर से वास्तविकता का साधन मानते हैं। तत्वमीमांसा पर इस स्कूल ने घातक आक्रमण किया। तार्किक भाववाद के अनुसार तत्वमीमांसा ने भाषा के नियमों का उल्लंघन किया है। इसलिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है। ""प्रमाणीकरण"" की पद्धत्ति से तत्वमीमांसा का अध्ययन करने के बाद कहा गया कि उसके सारे वाक्य "अर्थहीन" हैं। ईश्वर, आत्मा, अमरता आदि को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। दर्शन का काम वास्तविकता की खोज करना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक वाक्यों का अध्ययन करना हे। इस प्रकार कोई भी वाक्य प्रमाणीकरण के सिद्धांत पर खरा उतरता है तो उसे सार्थक कहा जा सकता है, नहीं उतरता तो वह अर्थहीन है। तत्वमीमांसा की समस्याओं को घिसी पिटी समस्याएँ कहकर उड़ा दिया गया। इस प्रकार तार्किक भाववाद अपने मूल रूप में विश्लेषणात्मक दर्शन है। भाषा का तार्किक विश्लेषण इत्यादि सिद्धांतों से लगता है कि तार्किक भाववाद वस्तुवादी विश्लेषण इत्यादि सिद्धांतों से लगता है कि तार्किक भाववाद वस्तुवादी सिद्धांत है। किंतु ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से यह वर्कले के आत्मगत प्रत्ययवाद के निकट पड़ता है। यद्यपि यह वैज्ञानिक संकेत, प्रतीक, वाक्यों इत्यादि की शब्दार्थ विज्ञान के अनुसार व्याख्या करता है, तथापि इसे बाह्य जगत् में विश्वास नहीं है। तार्किक भाववाद के अनुसार हमें बाह्य जगत् का ज्ञान नहीं हो सकता। हम सिर्फ अपने संवेदों को जान सकते हैं, बस। गुलाब स्वयं में क्या है, नहीं कहा जा सकता। लेकिन वह लाल है, सुगंधित और कोमल है, यही कहा जा सकता है। जिस गुलाब को हम जानते हैं, वह हमारे संवेदों से निर्मित होता है। यहीं इस दर्शन की सीमा समाप्त होती है।

अस्तित्ववाद

अस्तित्ववाद (existentialism) का उदय द्वितीय महायुद्ध के बाद हुआ। किंतु इस परंपरा में रोमांटिक कवि, साहित्यकार एवं विचारकों का नाम लिया जा सकता है। सारैन किर्कगार्ड (1813-1855) ने हीगेल के सिद्धांतों पर निरंतर आक्रमण किया। किर्कगार्ड ने सर्वभक्षी प्रत्यय से व्यक्ति को सुरक्षित करने का प्रयास किया। उनके अनुसार अस्तित्व प्रथम है, सारतत्व गौण है। तर्क से वास्तविकता का ज्ञान असंभव है। इसके लिए विश्वास, प्रेम, अनुभूति आदि की जरूरत है। प्रतिविवेकवाद की नींव किर्कगार्ड ने डाली, इसी पर पूरा अस्तित्ववाद खड़ा हुआ। इस सन्दर्भ में नीत्शे का नाम भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैसे इस वाद पर हुसर्ल, बर्गसाँ, डिल्थी का व्यापक प्रभाव है। इस स्कूल के प्रधान व्याख्याता हेडगर, मार्सेल, कार्ल यास्पर्स, एवं ज्याँपाल सार्च हैं। विचारकों ने अपने अपने मत का अधिकतर व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर व्यक्त किया है। किंतु सब में कुछ सामान्य समानताएँ हैं, जिससे वे लोग एक स्कूल के विचारक सिद्ध होते हैं।

अस्तित्ववाद में मृत्यु को दर्शन का आरंभिक बिंदु माना गया है। यास्पर्स के अनुसार दार्शनिकता का अर्थ है यह सीखना कि हम कैसे मृत्यु को प्राप्त हों। हेडगर की "मृत्यु की प्रेरणा" और सात्र का "नासिया" इसके दूसरे रूप हैं। इसी को कहते हैं कि अस्तित्ववाद की समस्या आदमी की अस्तित्वपरक समस्या है। "अस्तित्व" ही इस स्कूल के अनुसार अध्ययन की मूल वस्तु है। अस्तित्व की परिभाषा प्राय: लोगों ने अलग अलग दी है। किंतु इन सबके अनुसार, अस्तित्व आदमी के अस्तित्व के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु नहीं है। आदमी स्वयं अपना अस्तित्व है। फलत: वह आत्मोन्मुख वास्तविकता है। लेकिन यह वास्तविकता ससीम है। आदमी स्वयं अपना निर्माण करता है और यह निर्माण उसकी स्वतंत्रता सिद्ध करता है। सार्त्र कट्टर नास्तिक है। दूसरे लोग ईश्वर की अलग अलग कल्पना करते हैं। इसके वाबजूद मृत्यु, भय पीड़ा, स्वतंत्रता, असफलता, उत्तरदायित्व इत्यादि की व्याख्या लोगों ने समान अर्थों में की है।

अस्तित्ववाद का मूल स्वर निराशावादी है। जीवन के निषेधात्म्क पक्षों पर ही उसमें अधिक विचार किया गया है। सामान्यत: यह स्वीकार किया गया है कि आदमी भाग्याधीन है और चरम रूप से वह अपनी परिस्थितियों में निर्धारित है। उनकी अधिकतर परिभाषाएँ अस्पष्ट और गढ़े हुए मुहावरों के कारण असंप्रेषणीय एवं दुरूह होती गई हैं। एक अर्थ में, इसमें अनुभवों का अतिरेक के साथ वर्णन हुआ है। सामाजिक संबंधों का अध्ययन मुख्यत: मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक स्तर पर किया गया है। अस्तित्व दूसरे के लिए, संप्रेषण, तूँ, इत्यादि शब्दों से इस संबंध का विश्लेषण किया गया है। अस्तित्ववाद में तत्वमीमांसा को पर्याप्त स्थान मिला है। फलत: प्रत्ययवादी प्रवृत्ति से यह स्कूल मुक्त नहीं हो सका है। यास्पर्स, हेडगर एव सार्त्र में इसके पर्याप्त उदाहरण वर्तमान है। यास्पर्स तो कांट से काफी प्रभावित हैं। अस्तित्ववादियों के अनुसार बौद्धिकता वास्तविकता की ओर नहीं ले जाती। ज्ञान की उपलब्धि अनुभव के माध्यम से ही हो सकती है। वास्तविकता अनुभूति गम्य है। प्रेम, घृणा, दया, करुणा, हिंसा इत्यादि मनुष्य की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ हैं। अपनी लघुता के ज्ञान के साथ ही आदमी अनुभव का महत्व देने लगता है। फलत: अस्तित्ववाद बुद्धिविरोधी दर्शन हैं। यही कारण है कि इसने 19वीं शती के साहित्य को दूर तक प्रभावित किया। किंतु यह जीवनदर्शन बन सकने की स्थिति में नहीं आ सका। सार्त्र जैसे अस्तित्ववदी तो मार्क्सवाद को वस्तविक जीवनदर्शन स्वीकार करते हैं, लेकिन उसमें स्वतंत्रता को अपनी ओर से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं।

बाहरी कड़ियाँ

  1. The publication of Husserl's Logical Investigations (1900–01) and Russell's The Principles of Mathematics (1903) is considered to mark the beginning of 20th-century philosophy (see Spindel Conference 2002–100 Years of Metaethics. The Legacy of G.E. Moore, University of Memphis, 2003, p. 165).
  2. M.E. Waithe (ed.), A History of Women Philosophers: Volume IV: Contemporary Women Philosophers, 1900–Today, Springer, 1995.