सनई
सनई (Sunn या sunn hemp; वैज्ञानिक नाम : Crotalaria juncea) एक पौधा है जिसका उपयोग हरी खाद बनाने में किया जाता है। इसके फूलों की शब्जी बनती है। इसके तने को पानी में सड़ाने के बाद इसके ऊपर लगा रेशा से रस्सी बनायी जाती है।और यह रस्सी बहुत ही टिकाऊ होती है।
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सनई की खेती
- जलवायु
भारत के सभी भागों में इसे उगाया जाता है लेकिन, उ०प्र० एवं मध्य प्रदेश में इसे प्रमुखता से उगाते हैं उत्तरी राज्यों में इसे खरीफ में उगाते हैं जबकि दक्षिणी राज्यों में इसे रबी में भी उगाते हैं इसकी खेती के लिए कम से कम ४० सेमी. वार्षिक वर्षा पर्याप्त रहती है, जिसका वितरण ठीक हो, जो लगभग ५० दिन में गिरे।
- भूमि
उचित जल- निकास वाली अल्यूवियल मृदा उचित रहती है, जो बलुई दोमट से दोमट हो चूँकि यह दलहनी (legume) फसल है, लेकिन इसकी जङों में गाँठो (nodules) का निर्माण भूमि में उपस्थित कैल्शियम (Ca) एवं फास्फोरस (P) की मात्रा पर निर्भर करता है अत: कम पी-एच (pH) वाली मृदायें उचित नहीं होती है, लेकिन अम्लीय मृदाओं में चूना प्रयोग करके उन्हें सुधारा जा सकता है रेशा तथा हरी खाद दोनों के लिये खेत की फसल के लिये, सुविधाओं के अनुसार, एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व २-३ जुताई देशी हल से करते हैं अन्तिम जुताई के बाद खेत को समतल एवं भुरभुरा बनाने के लिए पाटा चलाया जाता है।
- प्रजातियाँ
सनई की संस्तुत किस्में एवं उनकी विशेषतायें-
कानपुर-१२ (K-12)- अधिक उपज, रेशा अच्छी गुणवत्ता का, उकठा प्रतिरोधी, उपज १४ कुं०प्रति है०
M-18- शीघ्र परिपक्वता, हल्की भूमि हेतु उपयुक्त, कम वर्षा चाहिए
M-35- तना छेदक प्रतिरोधी, शेष M-18 की तरह
BE-1(नालन्दा सनई)- अच्छी उपज एवं रेशों का गुण भी अच्छा
बैल्लारी- अधिक उपज
D-IX - उकठा प्रतिरोधी
ST-55- K-12 से अधिक उपज
- बीज-बुवाई
बुवाई- सनई को खरीफ फसल के रूप में रबी में गेहूँ अथवा तिलहनों - सरसों आदि से पूर्व उगाते हैं इसे प्राय: छिटकवाँ विधि से बोते हैं यदि इसे लाइन में बोया जाय तो उचित होगा छिटकवाँ विधि में बीजदर लगभग २५-३० किग्रा०/ हेक्टेयर पर्याप्त रहती है जबकि लाइनों में बुवाई करने पर मात्र ५ किग्रा०/ हेक्टेयर बीज चाहिए कतार से कतार कतार ३० सेमी तथा पौधा से पौधा ५ से ७ सेमी की दूरी पर हो खाद हेतु इसके बीज की मात्रा ५०-६० किग्रा०/ हेक्टेयर छिटकवाँ विधि में रखते हैं
बुवाई का समय- वर्षा से पूर्व जुलाई में प्राय: इसे बोते हैं एक वर्ष से पुराना बीज न हो, क्योकि बीजों की अंकुरण क्षमता ९० प्रतिशत होती है।
- उर्वरक
चूँकि यह एक दलहनी फसल है और स्वयं जड़ें (ग्रथियों में जीवाणु होने के कारण) वायुमण्डल से नत्रजन एकत्रित कर लेती हैं, अत: नत्रजन देने की जरूरत नहीं पङती है फाँस्फोरस एवं पोटाश तत्वों की मत्रायें लगभग २०-२० क्रिग्रा० (P व K) प्रति हेक्टेयर दी जाय सूक्ष्म-तत्व बोरोन (Boron) एवं माँलिब्डेनम (Mo) लाभदायक है, लेकिन इन्हें प्राय: नहीं दिया जाता है क्योंकि इन तत्वों की मात्रा भूमि में पाई जाती है कैल्सियम की अधिक मात्रा में जरूरत पङती है उ० प्र० के प्रचलित क्षेत्रों - बनारस, प्रतापगढ, सुल्तानपुर, आजमगढ, देवरिया में चूना नहीं दिया जाता खेत में खाद डालने के बाद इसकी बुवाई कर दी जाती है भूमि में रेक चला कर बीजों को मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं। सिंचाई:
अप्रैल - मई में बोई गई फसल में वर्षा आरम्भ होने से पहले १-२ सिंचाई करते हैं दाने व रेशे वाली फसलों के लिये वर्षा अगर शीघ्र समाप्त हो जाय या बीच में सूखा पङ जाये तो आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देते हैं। खरपतवार:
प्राय: निकाई नहीं की जाती है चूँकि सनई में आइपोमिया स्पीशीज (Ipomea sp.) के बीज मिल जाते हैं अत: एक निकाई आवश्यक है।
- कीट-नियंत्रण
१.सनई का मोथ-यह पत्तियों को खाता है इसके ऊसर लाल, काले और सफेद निशान होते हैं यह कैप्सूल में छेद करके अन्दर घुस जाता है मौथ के पंखों पर सफेद, लाल व काले चिन्ह मिलते हैं पत्तियों और तनों पर अपने अण्डे देता है इसकी सूँडी फसल को क्षति पहुँचाती है इससे बचने के लिये अण्डों और सूँडियों को चुनकर बाहर डाल कर नष्ट कर देना चाहिये या ५ प्रतिशत बी० एच० सी० धूल १२-२० किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से बुरकनी चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान (३५ ई० सी०) के घोल का छिङकाव करें
२. तना छेदक-यह कीट पौधे के उपरोक्त भाग में छेद करके पौधे को क्षति पहुंचाता है इसकी रोकथाम के लिये ५ प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल लाभप्रद रहती है या ०.०४ प्रतिशत डायजिनान के घोल का छिङकाव करें
३. लाल रोयेंदार सूँडी- यह लाल बालों वाली सूँडी पत्तियों को खाती है यह सूँडी अंकुरित होते हुये बीजांकुरों को भी खा जाती है और भूमि के अन्दर ही इसकी प्यूपा अवस्था पूरी होती है इसके मौथ के पंखो पर काले धब्बे होते हैं इसके अण्डे भी भूमि में ही पाये जाते हैं इसके रोकथाम के लिये मौथ को रोशनी द्वारा आकर्षित करके, पकङ कर नष्ट कर देना चाहिये, १० प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल २५-३० किग्रा० प्रति है० की दर से बुरकना चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान के घोल का छिङकाव करें।
- रोग
(१) चूर्णिल आसिता - यह फफूँद से लगने वाला रोग है इसके द्वारा बहुत हानि होती है; रोगी पौधों को उखाङकर जला दें, घुलनशील गन्धक जैसे इलोसाल या सल्फैक्स की ३ कि.ग्रा. मात्रा को १००० ली० पानी में घोलकर प्रति हे० की दर से छिङकाव करें या फसल पर ०.०६ प्रतिशत कैराथेन (६० ग्राम दवा १०० ग्राम ली० पानी में) नामक दवा का छिङकाव करें
(२) गेरूई या रतुआ-यह फफूँद से लगता है पौधे के सभी वायुवीय भागों पर फफोले दिखाई देते हैं इनका रंग कुछ पीला - भूरा होता है धब्बे बिखरे रहते हैं व बाद में काले - भूरे हो जाते हैं इसकी रोकथाम के लिये ०.२ प्रतिशत डाइथेन एम-४५ के घोल का छिङकाव करें
(३) मोजेक- यह विषाणु द्वारा लगने वाली बीमारी है पत्तियाँ इससे प्रभावित होती हैं और इनमें मोङ आ जाते हैं तथा कुरूप हो जाती हैं शारीरिक क्रिया कम हो जाती है फसल की पैदावार घट जाती है इसकी रोकथाम भी अभी तक अज्ञात है वैसे फसलों के हरे-फेर कर बोने से रोग को कुछ सीमा तक रोका जा सकता है
(४) मुरझान या उकठा- यह फफूँद द्वारा लगता है पत्तियाँ पीली पङ जाती हैं यह रोग अक्टूबर में दिखाई देता है और पूरा पौधा मुरझा जाता है तथा बाद में नष्ट हो जाता है इसे रोकने के लिये प्रतिरोधी किस्मों (के १२ व के १२ पीली) को उगाना चाहिये, फसल -चक्र अपनाने चाहियें और खेत की स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिये बीज को बोने से पहले एग्रोसन जी० एन० से उपचारित कर लेना चाहिये
(५) जीवाणु पत्ती या पर्ण दाग- यह बीमारी जीवाणु से लगती है इसके द्वारा पत्तियो पर चकत्ते बने जाते हैं यह बहुत कम प्रभाव दिखाती है और कम ही क्षति इसके द्वारा होती है खेत से उचित जल निकास का प्रबन्ध करें व उचित फसल - चक्र अपनायें।
- कटाई
(अ) हरी खाद के लिये कटाई-फसल बोने के ५० - ६० दिन बाद फसल खेत में पलट दी जाती है अप्रैल -मई में बोई गई फसल जून- जौलाई में खेत में पलट देते हैं व जून -जौलाई में बोई गई फसल अगस्त - सितम्बर में खेत में पलट देते है
(ब) रेशे वाली फसल-बोने के १० -१२ सप्ताह बाद रेशे के लिये फसल की कटाई करते हैं पहले कटाई करने पर रेशा कच्चा प्राप्त होता है तथा उपज में भारी कमी होती है व बाद में कटाई करने पर रेशा अच्छे गुणों वाला प्राप्त नहीं होता सितम्बर में इस फसल की कटाई हो जाती है
(स) बीज या दाने वाली फसल - फलियों में बीज जब कठोर व काला हो जाये तभी फसल की कटाई करने पर रेशा दाने के लिये करते हैं इस अवस्था पर फलियाँ सूख जाती हैं व बीज अपने वृन्त से अलग हो जाता है हंसिया से कटाई करके, फसल से सूखे डन्डों की सहायता से बीज अलग कर लेते हैं सूखे तने को पानी में गला कर निम्न गुणों का रेशा भी प्राप्त हो जाता है।
- उपज
हरी खाद की फसल से २००-३०० कुन्तल प्रति है० तक जीवांश प्राप्त हो जाता है रेशे वाली फसलों से ८-१२ कु० तक रेशे प्रति है० दाने वाली फसल से ८-१० कुन्तल दाना प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाता है।
सड़ाना एवं रेशा निकालना
जूट की भाँति इसके सङाने की विधि है प्राय: पोखर, तालाबों, जहाँ वर्षा का पानी कुछ दिनों तक भर जाय, ऐसी जगह इसके तनों का बंडल बाँधकर पानी में गाढ देते हैं, पहले खङा करके पानी में १-२ दिन छोङ देते हैं फिर उन्हें पानी में डालकर मिट्टी से ढक देते हैं लगभग ५-७ दिन में सङाव क्रिया पूर्ण हो जाती है जूट की तुलना में सनई से रेशा निकालना कठिन कार्य है पीटना एवं झटक विधि उपयुक्त नहीं रहती क्योंकि टूटे तने पर रेशा चिपका रहता है अत: इसके प्रत्येक तने से अलग - अलग रेशा निकालते हैं, जो हाथ से निकाला जाता है रेशा को बाद में पानी में धोकर धूप में सूखा देते हैं यदि सङाव अच्छा नहीं हुआ है, तो रेशा मोटा (भद्दा) एवं हरा तो होगा लेकिन उसकी ताकत में कमी नहीं आवेगी पानी में कम धुलाई से गोंद सा रेशे पर चिपका रहेगा
बीज उत्पादन
प्राय: १०० दानों का वजन ३.४ से ६ ग्राम होता है जो किस्म से किस्म भिन्न होता है इसके बीज में प्रोटीन अधिक होती है अत: चिपकाने के काम में आती है वैसे बीज उत्पादन अभी कोई संगठित रूप नहीं हो रहा हैं, लेकिन कृषक पुराने तरीकों से ही बाजरा, ज्वार, रागी, धान की फसलों के चारों ओर कूंड लगाकर बीज हेतु सनई उगाते हैं बीज की उपज २० कुं० प्रति है० तक पहुँच जाती है हरी खाद हेतु सनई: सनई को हरी खाद हेतु उगाने के लिए बीज लगभग ६० किग्रा० प्रति हैक्टर प्रयोग होता है, जो जुलाई में बोते हैं और अगस्त तक लगभग ४५ दिन की फसल को खेत में पलट देते हैं, ताकि एक माह में फसल वर्षा के पानी से सङ जाय प्राय: ६०-८० किग्रा० नत्रजन प्रति हेक्टेयर भूमि में (P व K के अलावा) प्राप्त हो जाती है जो हरे तने लगभग २० टन प्रति हेक्टेयर भूमि में पलटने से मिल जाती है ऊसर भूमियों को सुधारने के लिए हरी खाद प्रयोग करते हैं।