सदाशिवराव भाऊ
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सदाशिवराव भाऊ (3 अगस्त 1730 – 14 जनवरी 1761) मराठा सेना के सेनानायक थे। उन्हें विदेशी आक्रमणकारी के विरुद्ध सैनिक सफलताओं के कारण असाधारण सेनानी समझा गया और पानीपत अनुकूल प्रकृति होते हुए भी महत्वकांक्षी और स्पष्टवादी होने से, भाऊ ने शासन प्रबंध में असाधरण दक्षता प्राप्त की। किंतु वही भाऊ और पेशवा में मनोमालिन्य बढ़ाने का भी कारण बना।[1] भाऊ का प्रथम महत्वपूर्ण कार्य पश्चिमी कर्नाटक में मराठा आधिपत्य स्थापित करना था (1746)। फिर, विद्रोही यामाजी शिवदेव को पराजित कर उसने संगोला का किला हस्तगत किया (1750)। उसने मराठा शासन में वैधानिक क्रांति स्थापित कर दी।
परिचय
सदाशिवराव भाऊ बाजीराव पेशवा के भाई चिमाजी अप्पा के पुत्र थे। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम राखमबाई था।
भाऊ का प्रथम महत्वपूर्ण कार्य 1746 में पश्चिमी कर्नाटक में मराठा आधिपत्य स्थापित करना था। फिर विद्रोही यामाजी शिवदेव को पराजित कर उन्होंने संगोला का किला हस्तगत किया (1750)। उन्होंने मराठा शासन में वैधानिक क्रांति स्थापित कर दी। किंतु भाऊ के कुछ कार्यो को अपने स्वत्वाधिकारों का अपहरण समझ पेशवा उनसे और बाबा से रुष्ट हो गये। तब बाबा से प्रोत्साहित हो भाऊ ने पेशवा से शासन संचालन का पूर्णाधिकार माँगा। वही पद जो विगत पेशवा के समय से उसके पिता का था। पेशवा की अस्वीकृति पर भाऊ ने कोल्हापुर के राजा के पेशवापद को ग्रहण करने की धमकी दी। किंतु अंततः महादोवा पुरंदरे के पदत्याग के कारण दोनों में समझौता हो गया। जिससे महाराष्ट्र में गृहयुद्ध की आशंका टल गई।
1751 से 1759 तक यद्यपि भाऊ ने पेशवा के साथ कुछ सफल सैनिक अभियानों में भाग लिया, किंतु मुख्यत: उनका कार्यक्षेत्र शासन प्रबंध ही रहा। जिसमें उन्होंने पूर्ण योग्यता का परिचय दिया। 1760 भाऊ की ख्याति का चरमोत्कर्ष था। जब ऊदगिरी के युद्ध में निजाम को पूर्णरूपेण परास्त कर उन्होंने महाराष्ट्र साम्राज्य का सीमा विस्तार किया। किंतु तभी महाराष्ट्र के भावी अनिष्ट की पूर्वसूचना के रूप में पेशवा को अहमदशाह दुर्रानी के हाथों बरारघाट में दत्ताजी सिंधिया की पराजय और मृत्यु के समाचार प्राप्त हुए। तब पेशवा ने अपने भाई रघुनाथराव की अपेक्षा भाऊ को दुर्रानी का गतिरोध करने के लिए सेनापति नियुक्त किया। 2 अगस्त को भाऊ ने दिल्ली पर अधिकार किया। 10 अक्टूबर को शाह आलम को दिल्ली का सम्राट् घोषित किया। फिर, 17 अक्टूबर को कुंजपुरा विजय कर, 31 अक्टूबर को वह पानीपत पहुँच गये। 4 नवम्बर को विपक्षी सेनाएँ आमने सामने खड़ी हो गईं। प्राय: ढाई महीने की मोर्चाबंदी के बाद, 14 जनवरी 1761 के दिन समूचे भारतीय इतिहास के घोरतम युद्धों में से एक, पानीपत का तृृृतीय युद्ध प्रारंभ हुआ।
सैनिक योग्यता में दुर्रानी से निम्नतर होने के अतिरिक्त भाऊ निस्संदेह प्रतिकूल परिस्थितियों से विवश हो गये थे। इस भीषण युद्ध में नानासाहब पेशवा के पुत्र विश्वासराव तथा भाऊ के अतिरिक्त अनेक मुख्य सामंतों के साथ प्राय: एक लाख मराठा सैनिक तथा असैनिक खेत रहे। कुछ इतिहासकार सदाशिव राव भाऊ को इस युद्ध में हार का मुख्य कारण मानते हैं क्योंकि विश्वास राव जिनकी मौत करीब 1:30 से 2:00 के बीच में हुई। 14 जनवरी सन 1761 के दिन उनको ढूंढने के लिए सदाशिवराव भाऊ अपने हाथी से उतर कर सेना के बीच में चले गए वह विश्वास राव को ढूंढ नहीं पाए। परंतु जब सेना ने देखा कि उनका संचालन करने वाला कोई नहीं है, और इस कारण से एक केंद्रीय शक्ति या केंद्र संचालन ना होने के कारण मराठा सेना में अफरा-तफरी मच गई। इस बात का फायदा उठाते हुए अहमदशाह ने अपने 15000 रिजर्व सैनिक जो रखे थे उनको भी मराठा सेना पर हमला करने के लिए भेज दिया अंत में उनकी मृत्यु हो गई जिसके कारण सभी मराठा सैनिक वापस उनकी मौत की खबर सुनते ही वापस भाग गए। भयानक युद्ध में करीब 40000 से अधिक लोग जो तीर्थ यात्रा के लिए उत्तर भारत में मराठा सेना के साथ गए हुए थे, उनको भी सिर कलम कर दिया गया और कई बच्चे और माताओं को भी मार डाल कर खत्म कर दिया गया। बालाजी बाजीराव कुछ खबर पहुंची की सदाशिव राव की मृत्यु बहुत बड़ी सेना लेकर उत्तर की ओर चले परंतु दिल्ली के पास उनको संदेश प्राप्त हुआ कि दुर्रानी वापस अफगानिस्तान लौटने जा रहे हैं और इस बात की उन्होंने बालाजी बाजीराव को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि "दिल्ली अब आप के कब्जे में है और मैंने युद्ध की घोषणा इसलिए की क्योंकि सदाशिवराव ने मुझे युद्ध के लिए प्रेरित किया और मेरी सेना में बहुत नुकसान हो चुका है और अब आगे नहीं बनाना चाहता"। इसीलिए पेशवा दिल्ली से वापस वापस लौट गया।
परंतु बालाजी बाजीराव के लिए और पुणे में ही जून 1761 में उनकी मृत्यु हो गई । सदाशिव राव भाऊ ने अपनी सेना को फ्रेंच तरीके से ढालने की कोशिश की और उन्होंने मारकिस दी बसी (Marquiess de bussy) जो निजाम की सेना में तोपखाने के अध्यक्ष थे, उनको मराठों की और मिलाने की कोशिश की। परंतु मार्केस बसी के साथ करने में असफल रहे। इस कारण उन्होंने निजाम की सेना में एक और तोपखाने को संभालने वाले इब्राहिम गदी को अपनी ओर मिला लिया और उसी को ही तोपखाने की कमान दी। उनकी सेना में जानकोजी शिंदे, महादजी शिंदे, नाना फडणवीस,पेशवा के पुत्र विश्वास राव और खुद सदाशिव राव भाऊ और उनके साथ अन्य कई सरदार भी इस युद्ध में शामिल हुए। परंतु इसमें से कई सारे सरदारों की मृत्यु हो गई। परंतु महादजी सिंधिया और नाना फडणवीस युद्ध से भाग निकले। अन्य सभी सरदारों की मृत्यु हो गई। यह युद्ध 18 वीं सदी का सबसे भयानक युद्ध साबित हुआ और मराठों की हार भारत में विदेशियों के शासन के लिए बहुत ही लाभप्रद साबित हुई।
सदाशिवराव की पहली पत्नी उमाबाई जिन के 2 पुत्र थे और दूसरी पत्नी पार्वती बाई जो कि उनके साथ ही पानीपत के तृतीय युद्ध में तीर्थ यात्रा करने के लिए गई हुई थी। और 1763 मे उनकी भी मौत हो गई। सन 1770 के आस पास एक आदमी जो खुद को सदाशिव राव भाऊ बताता था, वहां पर पहुंचा पर बाद में जब पता चला कि वह नहीं ऐसा नहीं है तो उसका कत्ल कर दिया गया। भारतीय इतिहास में एक महान रूप में जाने जाते हैं उन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण दान कर दिए और अंतिम वक्त तक उन्होंने मराठा सेना को जिताने की कोशिश की। जब सभी सेनापति भाग गए लेकिन तभी भी उसमें उनकी मौत हो गई और उनका सिर काटकर अफ़गानिस्तान ले गया और उनके शरीर को वहीं छोड़ दिया गया जिसके बाद में जलाया गया मराठी और हिंदू धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ में। भारतीय इतिहास के लिए बहुत ही भयानक साबित हुआ और अंत में यह भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन रहा। इस लडा़ई के बाद खुद अहमदशाह ने भाऊ की वीरता को सराहा और उनको सच्चा देशभक्त भी बताया।
सन्दर्भ
- ↑ इस शीर्षक के अंतर्गत पूरा लेख हिन्दी विश्वकोश, भाग-11, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-1969, पृ.452-453 से प्रायः यथावत् उद्धृत है; जिसके लेखक राजेन्द्र नागर हैं।