सचोली
कंचुकी | |
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स्वर्ण-मुख समुद्री घोंघे | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | प्राणी |
संघ: | रज्जुकी |
उपसंघ: | कंचुकी |
कंचुकी एक प्रकार के समुद्री जीव है, जो एकल, या समूह में, संसार के किसी भी महासागर की विभिन्न गहराइयों में पाए जाते हैं। इनके अधिकांश प्रकार स्थानबद्ध होते हैं एवं नाना प्रकार के पदार्थों के साथ जुड़े रहते हैं। इनका शरीर पारदर्शी, पारभासी या अपारदर्शी एवं कई प्रकार के रंगों का होता है। शरीर का आकार अनिश्चित एवं परिमाण एक इंच के सौवें भाग से लेकर एक फुट तक के व्यास का होता है। सारा शरीर एक पतले या मोटे चर्म सदृश आवरण में, जिसे कंचुक कहते हैं लिपटा रहता है। कंचुक अधिकांश, ट्यूनिसिन नामक स्रवित पदार्थ का बना होता है। ट्यूनिसिन सेलुलोस के अनुरूप एक पदार्थ है। कंचुक में दो छिद्र या मार्ग होते हैं। एक मार्ग से जल भीतर प्रवेश करता है तथा दूसरे से बाहर निकल जाता है। कंचुकियों में पृष्ठरज्जु केवल डिम्भ के पुच्छ में पाई जाती है।
परिचय
सचोली कशेरुकी (vertebrate) प्राणियों के संबंधी हैं, तथा कॉर्डेटा (Chordata) संघ (phylum) के एक उपविभाग (sub-division) का निर्माण करते हैं। डिंभक अवस्था (larval stage) में एक पूर्ण विकसित पृष्ठरज्जु (notochord) की उपस्थिति इनकी मुख्य विशेषता है। पृष्ठरज्जु मुख्यत: डिंभक के पुच्छ भाग में, जो वयस्क अवस्था में क्रमश: लुप्त हो जाता है, सीमित होता है।
सचोलियों की कई आकृतियाँ विचित्र एवं चित्ताकर्षक होती हैं। जंतुओं में ट्यूनिसिन का बना हुआ चोल (coat) स्रवित करनेवाले ये अकेले जीव हैं। इनका हृदय कुक्कुटों के भ्रूण के हृदय के समान होता है, परंतु हृदय की गति की दिशा समय समय पर बदली जा सकती है, जिससे रुधिर का संचरण विपरीत दिशाओं में भी संभव हो जाता है। रुधिर में श्वसन वर्णक (respiratory pigment) नहीं होते हैं। कुछ स्पीशीजों (species) की रुधिर कोशिकाओं में वैनेडियम एवं सल्फ्यूरि अम्ल अधिक मात्रा में मिलते हैं। मलोत्सर्जन की विचित्रता यह है कि मूत्रजनित त्याज्य पदार्थ ठोस आकारों के ढेर के रूप में शरीर के भीतर एक या अनेक थैलियों में एकत्र होते जाते हैं। दूसरे प्रकार की त्याज्य वस्तुओं का मस्तिष्क, ठोस पृष्ठीय गुच्छिका (ganglion) के रूप में तथा एक तंत्रिका ग्रंथि के साथ मिला हुआ होता है। यह तंत्रिका ग्रंथि केशेरुकी के पीयूष (pituitary body) से समानता रखती है।
सचोली उभयलिंगी (hermaphrodite), अर्थात् वृषण एवं अंडाशय, दोनों प्रकार के अंगोवाले होते हैं। कई जंतुओं में निषेचित अंडों, या फिर वयस्कों के किसी भी भाग के ऊतकों की वृद्धि एवं पुन:रचना (reconstruction) के, द्वारा अंतिम जीव का निर्माण होता है। कुछेक जंतु रात्रि में तीक्ष्ण प्रकाश उत्पन्न करते हैं।
पाइरोसोमा नामक जंतु उष्ण महासागरों के जल मे थपेड़ों में प्रवाहित होते हुए, जलती हुई मोमबत्ती के सदृश दृष्टिगोचर होते हैं।
संक्षिप्त इतिहास
सर्वप्रथम जगत्प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू (384-322 ईसा पूर्व) ने एक सामान्य "ऐसिडियन" (ascidian) का विवरण प्रस्तुत किया था। अरस्तू के बाद लगभग 2,000 वर्षो तक इन जंतुओं के विषय में लोगों की अल्पज्ञता रही। लिनियस (Linnaeus) तथा उनके बाद के कुछ प्राणिविज्ञानियों ने कई "ऐसिडियन" जंतुओं को मस्तकरहित मोलस्का (Mollusca) के साथ एक वर्ग में रखा। लामार्क (1816 ई.) ने इन्हें मोलस्का से पृथक् कर, इनके समूह का नाम ट्यूनिकेटा (Tunicata, सचोली) प्रदान किया। सन् 1886 ई. में कॉवलेफस्कि (Kowalevsky) ने एक सामान्य ऐसिडियन की वृद्धि के विषय में अनुसंधान लेख प्रकाशित कर, यह प्रकट किया कि इसके बैगची डिंभक (tadpole larva) में कॉडेंटा के प्रमुख गुण वर्तमान होते हैं, तथा बैंगची के वयस्क में कायांतरण (metamorphosis) होने के समय, ये गुण क्रमश: लुप्त हो जाते हैं। इस प्रकार के कायांतरण को प्रतिक्रमणी (retrogressive) कायांतरण कहते हैं। इस अनुसंधान ने इस आधुनिक धारणा को जन्म दिया कि सचोली एक प्राचीन कॉडेंटा के विशेष प्रकार के अवशेष हैं, जिनका विकास प्रमुख कॉडेंटा से बहुत ही प्रारभिक अवस्था में हुआ था।
जीवनवृत्त
ऐसिडियन उभयलिंगी जंतु हैं। अधिकांश जंतु अपने ही अडों को निषेचित कर सकते हैं, परंतु अन्य जंतुओं में यह शक्ति नहीं होती। उनमें परनिषेचन (cross-fertilization) की क्रिया होती है। वृद्धि काल की प्रारंभिक आकृतियाँ प्राचीन कशेरुकी आकृतियों से मिलती जुलती हैं। अंडे, वृद्धि की इन अवस्थाओं के पश्चात्, बैंगची का रूप धारण करते हैं। बैगची आकार में बहुत छोटे होते हैं, एवं उनमें कुछ समय तक तैरते रहने की शक्ति होती है। प्रत्येक बैंगची में तैरने के लिए एक पुच्छ होती है, जिसके मध्य में कोशिकाओं के द्वारा निर्मित एक पृष्ठरज्जु भी होती है। ऐसिडियन के बैंगची की वृद्धि इस अवस्था के पश्चात् रुक जाती है। पृष्ठरज्जु के दोनों पार्श्वो में पेशीतंतु की एक पट्टी होती है, जिनकी तुलना मछलियों के चलन पेशियों (locomotary muscies) से की जा सकती है। पृष्ठरज्जु के ऊपर, उसकी पूरी लंबाई में, एक संकीर्ण, नालाकार मेरुरज्जु (spinal cord) स्थित होती है। सभी कशेरुकी एवं कॉर्डेटों में उपर्युक्त विशेषताएँ मिलती हैं, जो ऐसिडियन एवं अन्य सचोलियों की विकास की मुख्य पंक्ति के साथ संबद्ध करती है। इसी मुख्य पंक्ति के शीर्ष पर स्वयं मनुष्य भी स्थित है।
बैगची में तंत्रिका नाल (nerve-tube) का अग्र भाग विस्तृत होकर, मस्तिष्क के आशय (vesicle) का निर्माण करता है, जिसमें दो प्रकार की ज्ञानेंद्रियाँ होती हैं। ये ज्ञानेंद्रियाँ बैंगची के अभिविन्यास (orientation) को तथा उसे प्रकाश के स्रोत की ओर बढ़ने में सहायता प्रदान करती है।
इस प्रकार के बैगची प्रजापतियों के सुदूर विस्तार और प्रसार में सहायक होते हैं। कुछ समय के पश्चात् बैगची में ह्रासी (degenerative) परिवर्तन प्रारंभ हो जाता है। बैंगची समुद्र तल में डूब जाता है, इसका पुच्छ भा अचल हो जाता है तथा यह किसी ठोस वस्तु से, अपनी नासा के निकट स्थित तीन आसंजक (adhesive) रचनाओं द्वारा, संबद्ध हो जाता है। इस प्रकार बैंगची में कायांतरण की क्रिया प्रारंभ होती है तथा ऐसी अवस्था की वृद्धि होती है जिसमें यह सर्वप्रथम भोजन ग्रहण करने योग्य हो जाता है। इस नवीन अवस्था में इसका शरीर नालाकार हो जाता है, तथा इसके अग्र भाग में ऊपर की ओर स्थित कीप के आकार का मुख होता है, जिसके द्वारा जल एक विस्तृत ग्रसनी में प्रवाहित होता है। ग्रसनी में प्रत्येक ओर गिल छिद्र (gill slits) होते हैं, जिनके द्वारा जल एक दूसरे कोष्ठ (chamber) में पहुँचकर, फिर वहाँ से एक दूसरे कीप के द्वारा बाहर निकल जाता है। ये कीप क्रमश: अंतर्वाही नाल (Inhalent siphon) एवं अपवाही नाल (Exhalent siphon) कहलाते हैं और ये नाल सचोली वर्ग के जीवों के मुख्य लक्षण है।
प्रौढ़ ऐसिडियन में विस्थापित एवं विकसित बैगची के इन आवश्यक गुणों के अतिरिक्त कुछ विशेष लक्षण भी मिलते हैं। इनके अंग अधिक विकसित होते है एवं आकार अधिक विस्तृत हो जाता है और यौन ग्रथियाँ भी निर्मित हो जाती हैं। ये जंतु संबद्ध प्रौढ़ावस्था में ह्रासी जंतुओं एवं प्राचीन प्रकार के जंतुओं का निरूपण करते हैं।
यथार्थत: ऐसिडिन आकृति में एक बृहत् कोशिका जैसा होता है, जिसमें प्रवेशार्थ एक अंतर्वाही नाल होती है। ग्रहण किए जल के छानने की क्रिया कोशिका के प्रत्येक और स्थित असंख्य गिल छिद्रों के द्वारा होती है। जल वहाँ से बाह्य कोष्ठ में पहुँचकर अपवही नाल के द्वारा बाहर निकलता है। आहार नाल का शेष संकीर्ण भाग गिल कोष्ठ (gill chamber) के पश्च भाग से प्रारंभ होता है। इसके मुख्य भाग है, ग्रसिका (oesophagus), आमाशय तथा क्षुद्रांत्र। क्षुद्रांत्र ऊपर की ओर मुड़कर अपवाही नाल के निकट खुलता है। अंतर्वाही नाल के द्वार के निकट, स्पर्शिकाओं की एक वृत्ताकार रचना होती है, जो इस छिद्र में बहुत बड़े वस्तुओं को नहीं प्रविष्ट होने देती है। क्षुद्रात्र के मुड़े भाग के मध्य बहुधा उभयलिंगी यौन ग्रंथियाँ स्थित होती है तथा पार्श्व में एक हृदय होता है। मस्तिष्क दोनों नालों के मध्य में स्थित होता है।
अशन साधन (Feeding Mechanism)
अशन साधन के मुख्यत: दो अंग हैं। एक अंग का कार्य श्लेष्मा (muscus) उत्पन्न करना है, जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ के टुकड़े एक साथ श्लेष्मा में लिपटकर एकत्र हो जाते हैं। दूसरे अंग का कार्य जलस्रोत उत्पन्न करना है, जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ भीतर प्रविष्ट हो सकें। ये जलस्रोत ग्रसनी की दीवारों में स्थित, असंख्य गिल छिद्रों के पक्ष्माभिका (cilia) अंत:स्तरण (lining) के निर्गामी स्पंदन (outward beating) के द्वारा उत्पन्न होते हैं, एवं अंतर्वाही नाल के द्वारा भीतर प्रविष्ट होते हैं। गिल छिद्रों के द्वारा जल अपवाही नाल के निकट स्थित परिकोष्ठगुहिका (atrial cavity) में एकत्र होता है, तथा पुन: अपवाही नाल के द्वारा, धार के रूप में, प्रबल वेग से कुछ दूर पर जाकर गिरता है, जिससे वह जल मुख के द्वारा पुन: भीतर नहीं प्रविष्ट हो सके। गिल कोष्ठ में प्रविष्ट होनेवाले जल में भोजन योग्य कई प्रकार के सूक्ष्म जीवित पौधे एवं जंतु होते हैं, जो एंडोस्टाइल (endostyle) से स्रवित श्लेष्मा के द्वारा उलझाकर रोक लिए जाते है। भोजन की पाचन क्रिया आमाशय के द्वारा स्रावित पाचक एंजाइमों से होती है। अपचित अवशेष अपवाही नाल के मूल के निकट एकत्र होता है। यहाँ से अपवाही जल के तीव्र स्रोत के द्वारा मलपदार्थ समुचित दूरी पर फेंक दिए जाते हैं।
जनन
जनन प्राय: लैगिक होता है, जिसमें एक अवस्था डिंभ की होती है। कुछ जंतु राजीवप्रजक (viviparous) किस्म के भी होते हैं, जिनमें अंडे एक विशिष्ट प्रकार की भ्रूणधानी में कुछ समय के लिए एकत्र होकर बढ़ते और बैगची का रूप धारण करते हैं, एवं इसी रूप में बाहर निकलते हैं। कुछ जातियों में अंकुरण के द्वारा भी जनन क्रिया होती है। कई प्रकार के अचर (non-metile) ऐसिडियनों में पौधों की तरह जेमोद्भवन (gemmation) एवं अलैंगिक जनन की क्रिया भी होती है। अधिचर्म (epidermis) के संकुचि होने के फलस्वरूप, भीतरी ऊतकों के कई खंड हो जाते हैं एवं प्रत्येक खंड अंकुरों में परिवर्तित हो जाते हैं। अंकुर शीत ऋतु में नष्ट नहीं होते एवं वसंत के आते ही पुन: नवीन जीवों की वृद्धि करते हैं। कुछ जंतुओं में अंकुर आंशिक रूप में अपने जनक (parent) से जुड़े रहते हैं। ऐसी अवस्था में दोनों की रुधिरवाहक नलिकाएँ एवं अपवाही नाल संयुक्त होते हैं। इस प्रकार अंकुरण की क्रिया के फलस्वरूप अनेक जंतु (व्यक्तिगत रूप में) वेष्ठन (tunic) के एक ही पुंज में एकत्र होते है, एवं एक जंतुसमूह का निर्माण करते हैं। इन जंतुओं में पुनर्जनन (regeneration) की क्षमता भी असाधारण रूप में होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुछ जातियों की वृद्धि एकल वयस्क के रूप में होती हैं, जबकि अन्य जातियों में लैगिक एवं अलैगिक जनन की अवधि एकांतरित रूप में मिलती हैं।
वासत्थान का चयन
एकल एवं सामूहिक ऐसिडियन कई प्रकार के वासस्थान के अनुकूल परिवर्तित हो गए हैं। साधारणतया एकल ऐसिडियन आकार में कुछ अधिक बड़े होते है तथा उन्हें अधिक स्थान की आवश्यकता होती है। ये मुख्यत: या तो चट्टानों, स्तभों या जहाजों के तल भाग के साथ जुड़े होते हैं, या बालू अथवा कीचड़ के भीतर स्थित होते हैं।
अंकुर उत्पन्न करनेवाले, या संयुक्त ऐसिडियन, उपर्युक्त प्रकार के वातावरण में जीवित नहीं रह सकते। ये अधिकांशत: उन समतल धरातलों के साथ जुड़े होते हैं, जहाँ स्वच्छ जल पर्याप्त मात्रा में, परंतु वेग से नहीं, उपलब्ध होता है। जिन जंतुओं में अंकुरण की क्रिया अधिक सक्रिय होती है, उनका आकार छोटा होता है, परंतु उनकी संख्या अधिक होती है। इस प्रकार के जंतुनिवह (colonics) बहुधा क्षेत्रफल में विस्तृत होते हैं, परंतु इनकी मोटाई अधिक नहीं होती। संयुक्त ऐसिडियन अल्प संख्या में अपेक्षाकृत बड़े आकार के अंडों का निर्माण करते हैं। इन अंडों के बैगचियों की अवस्था में वृद्धि जनक के अलिंद (atrium) या अंडवाहिनी (oviduct) में सुरक्षित रूप में होती है।
सामूहिक ऐसिडियन बहुधा पीले, भूरे, लाल, हरे एव नीले रंगकणों के द्वारा अभिरीजेत होते है तथा समूह का आकार तारा सदृश, (जैसे बोट्रिलस (Botryllus) में), सीढ़ी की तरह पंक्तिबद्ध, (जैसे बोट्रिलायड (Botrylloids) में), या गुच्छ के रूप में, जैसा पोलिक्लिनम (Polyclinum) में, होता है।
आर्थिक महत्व
सचोलियों का प्रत्यक्ष आर्थिक महत्व बहुत ही कम है। कुछ जीव तो जहाजों के भतर सड़ाँघ भी उत्पन्न करते हैं। सचोलियों के केवल छ: प्रकार प्राच्य देशों के मनुष्यों (orientals) के द्वारा भोजन के रूप में ग्रहण किए जाते हैं।
वर्गीकरण
इनकी लगभग 2,000 जातियाँ ज्ञात हैं, जो निम्नलिखित तीन गणों (orders) में विभाजित हैं :
1. ऐसिडिएशिआ (Ascidiacea) - ये संलग्न (attached) होते हैं। पृष्ठतल पर अपवाही तथा ग्रसनी में पदमाभिकामय (ciliated) गिल छिद्रों की अनुप्रस्थ पंक्तियों की उपस्थिति इनकी मुख्य विशेषता है; उदाहरण: सायोना (Ciona), मोलगुला (Molgula), बोट्रिलस (Botryllus) आदि।
2. थैलिएसिआ (Thaliacea) - ये वेलापवर्ती (pelagic) जीव है। इनमें अंतर्वाही और अपवाही नाल शरीर के विपरीत छोर पर स्थित होते है, तथा इनके गिलछिद्र साधारणतया लबे होते हैं, छोटे और पंक्तिबद्ध नहीं; उदाहरण : पाइरोसोमा (Pyrosoma), डोलाइओलम (Doliolum), सेल्पा (Salpa) आदि।
3. लारवेसिआ (Larvacea) - ये क्षुद्र वेलापवर्ती जीव है। इनकी पुच्छ स्थायी होती है तथा इनकी आंतरिक रचना साधारण होती है; उदाहरण : ऐपेंडिकूलेरिआ (Appendicularia)।
बाहरी कड़ियाँ
- "tunicate." Encyclopædia Britannica Online.
- The TUNICATE PORTAL is an access point to the main websites and databases dealing with tunicates
- Ascidians.com has pictures of species around the world
- ANISEED: A model organism database for several ascidians species including Ciona intestinalis and Halocynthia roretzi
- New breed of Sea squirt found