संविधान
संविधान ( 'सम्' + 'विधान' ), मूल सिद्धान्तों का एक समुच्चय है, जिससे कोई राज्य या अन्य संगठन अभिशासित होते हैं।[1]
वह किसी संस्था को प्रचालित करने के लिये बनाया हुआ संहिता (दस्तावेज) है। यह प्रायः लिखित रूप में होता है। यह वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शासन का आधार है; उसके चरित्र, संगठन, को निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग विधि को बताती है, यह राष्ट्र की परम विधि है तथा विशेष वैधानिक स्थिति का उपभोग करती है सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे असंवैधानिक घोषित कर दिए जाते है।
भारत का संविधान विश्व के किसी भी सम्प्रभु देश का सबसे लम्बा लिखित संविधान है,[2] जिसमें, उसके अंग्रेज़ी-भाषी संस्करण में[3] 117369 शब्दों के साथ, 25 भागों( 22+4A,9A,14A) में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 106(1951 to 2024) संशोधन हैं, जबकि शब्दों के आधार पर मोनाको का संविधान सबसे छोटा लिखित संविधान है, जिसमें 97 अनुच्छेदों के साथ 10 अध्याय, और कुल 3,814 शब्द हैं। वहीं अमेरिका के संविधान में 4,543 शब्दों का प्रयोग हुआ है जो दुनिया की किसी भी बड़ी सरकार का सबसे पुराना और सबसे छोटा लिखित संविधान।[4][5]
परिचय
संविधान शब्द का प्रयोग साधारणतया संकुचित एवं विस्तृत दो रूपों में होता है। विस्तृत रूप में इसका प्रयोग किसी राज्य के शासनप्रबन्ध सम्बन्धी सब नियमों के लिये होता है। इन नियमों में से कुछ नियम न्यायालयों द्वारा मान्य तथा लागू किए जाते हैं, किंतु कुछ ऐसे भी होते हैं जो पूर्णतया वैधानिक नहीं होते। इन विधि से परे अर्धवैधानिक नियमों की उत्पत्ति रूढ़ि, परंपरागत प्रथाओं, प्रचलित व्यवहार एवं विधि व्याख्या से होती है। अपने अशुद्ध रूप के कारण यह नियम न्यायलयों में मान्यता नहीं पाते, किंतु फिर भी शासनप्रबंध की व्यावहारिकता में इनका प्रभाव शुद्ध नियमों का मिश्रण ही संविधान होता है। इंग्लैंड का विधान इस कथन का साक्षी है। अन्य देशों में संविधान का अर्थ तनिक अधिक संकुचित रूप में होता है, तथा केवल जन विशेष नियमों के सम्बन्ध में होता है जो शासन प्रबन्ध के हेतु आधिकारिक लेखपत्रों में आबद्ध कर लिए जाते हैं। फलत: संविधान एक प्रकार से किसी देश का वह एक या अधिक लेखपत्र होता है जिसमें उस देश के शासनप्रबन्ध में अनुशासन के मूल नियम संकलित हों। इस अर्थ के साक्षी संयुक्त राष्ट्र अमरीका तथा भारत के संविधान हैं।
'संविधान' शब्द का आशय कोई भी माना जाए किंतु मूल वस्तु यह है कि किसी देश के संविधान का पूर्ण अध्ययन केवल कुछ लिखित नियमों के अवलोकन के संभव नहीं। कारण, यह तो शासन प्रबन्ध सम्बन्धी अनुशासन का एक अंश मात्र होते हैं। संपूर्ण संवैधानिक परिचय शासनप्रबंधीय सब अंगों के अध्ययन से ही संभावित हो सकता है। उदाहरणार्थ, बहुधा संविधान संविदा में केवल शासन के मुख्य अंगों - कार्यपालिका, विधायिनी सभा, न्यायपालिका - का ही उल्लेख होता है। किंतु इन संस्थाओं की रचना, पदाधिकारियों की नियुक्ति की रीति इत्यादि की व्याख्या साधारण विधि द्वारा ही निश्चित होती है। इसी प्रकार कई देशों में निर्वाचन नियम, निर्वाचन क्षेत्र एवं प्रति क्षेत्र के सदस्यों की संख्या, शासकीय विभागों की रचना तथा न्यायपालिका का संगठन, इन सब महत्वपूर्ण कार्यो को संविधान में कहीं व्याख्या नहीं होती; यदि होती भी है तो बहुत साधारण रूप में, मुख्यत: इनका वर्णन तथा नियंत्रण साधारण विधि द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त संपूर्ण विधिरचना विधानमंडल के क्षेत्र में ही सीमित नहीं होती, न्यायपालिका द्वारा मूलविधि की व्याख्या द्वारा जो नियम प्रस्फुटित होते हैं उनसे संविधान में नित्य संशोधनत्मक नवीनता आती रहती है। फिर, राज्यप्रबन्ध सम्बन्धी रूढ़ि एवं व्यवहार भी कम प्रभावात्मक और महत्वपूर्ण नहीं होते। अतएव इन सब अंशों का अध्ययन ही सर्वांग वैधानिक परिचय पूर्ण कर सकता है। किंतु 'संवैधानिक शास्त्र' शब्द की परिधि में केवल शुद्ध वैधानिक नियम ही आते हैं, अन्य सब संवैधानिक व्यवहाररूप माने जाते हैं।
प्रकार
संविधान एक प्रकार का हैं : लिखित, लिखित संविधान अधिकतर एक लेख्य (भारतीय संविधान) या कुछ संकलित लेख्य (स्वीडिश संविधान) होते हैं। किंतु जिस रूप में संविधान क्रियान्वित होता है उसकी व्याख्या न कहीं पूर्णतया लिखित होती है, न पूर्णतया अलिखित। इंग्लैंड का संविधान अलिखित माना जाता है किंतु वहाँ भी 1701 ई. में ऐक्ट ऑव सेटेलमेंट, कई रेप्रेजेंटेशन ऑव पीपुल्ज ऐक्ट, 1911 एवं 1949 के पार्लिमेंट ऐक्ट जिनके द्वारा लार्ड सभा के अधिकार सीमित हुए, 1679, 1816 एवं 1862 के हेबीयस कारपस ऐक्ट तथा 1947 ई. में क्राउन प्रोसीडिंग्ज ऐक्ट निर्मित हुए। इन लिखित नियमों का महत्त्व इंग्लैंड के संविधान में, अलिखित रूढ़ि, परम्परा तथा व्यवहार से तनिक भी कम नहीं है। इसके विपरीत भारत के विस्तृत रूप से लिखित संविधान में भी (जिसका विस्तार 395 धाराओं तथा 12 अनुसूचियों एवं 22 भागो में है) कुछ अलिखित नियम पूरक रूप में मिलते हैं, जैसे विधानसभाओं एवं सदस्यों के विशेषाधिकार, राष्ट्रपति तथा राज्यपाल का मंत्रिपरिषद् से सम्बन्ध, संवैधानिक संकटावस्था एवं राज्यपाल की स्थिति, इन समस्त विषयों के सम्बन्ध में संविधान के अतिरिक्त अलिखित नियम ही लागू होते हैं।
संविधान सम्बन्धी अन्य भेद हैं - नमनशील एवं परिदृढ़, बहुधा इन्हें क्रमशः: अलिखित एवं लिखित के पर्यायवाची रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है। लार्ड ब्राइस ने लिखित के स्थान पर परिदृढ तथा अलिखित के स्थान पर नमनशील शब्दों का प्रयोग सहज भाव से किया है। किंतु इस प्रकार का मिश्रित प्रयोग उचित नहीं। वस्तुतः: संविधान लिखित किंतु नमशील हो सकता है और अलिखित किंतु परिदृढ़ रूप का हो सकता है। सिद्धांतत: इंग्लैंड की संसद निमिष मात्र में इंग्लैंड के संविधान में मनोनीत परिवर्तन कर सकती है तथा वहाँ का प्रधान मंत्री मंत्रिमंडल को आमंत्रित न कर मंत्रिमंडलीय शासनपद्धति की इतिश्री कर सकता है, किंतु ऐसे आकस्मिक परिवर्तन कभी व्यवहार में क्रियात्मक नहीं होते। यदि इंग्लैंड के इतिहास की ओर दृष्टिपात किया जाए तो प्रतीत होगा कि परिवर्तन सदा क्रमिक विकास के रूप में हुए है; आकस्मिकता की वहाँ कोई सम्भावना नहीं।
मतप्रदान (वोटिंग), स्वतंत्रता सुधार, लार्ड सभा की सत्ता के हनन सम्बन्धी नियम, तथा युद्धोपरांत अधिराज्य स्वशासन अधिकार (डोमिनियन अधिकार) इन सबके होते हुए भी एक शताब्दी के अभ्यंतर में इंग्लैंड का संविधान अलिखित होकर भी कम परिवर्तन हुए हैं। फलत: इंग्लैंड का संविधान अलिखित होकर भी नमनशील नहीं परिदृढ़ रूप का है। इसके विपरीत भारतीय संविधान परिदृढ़ कहा जाता है, कारण कि इसकी संशोधनक्रिया बड़ी जटिल है, जहाँ किसी किसी विषय में संशोधन के लिये केवल केंद्रीय संसद् का बहुमत ही पर्याप्त नहीं वरन् समस्त राज्यों के विधानमंडलों का बहुमत प्राप्त करना भी अनिवार्य है। ऐसी जटिल व्यवस्था के उपरांत भी पिछले अनेक वर्षो में भारतीय संविधान में अनेक संशोधन हो चुके हैं। इसका कारण यह है कि संशोधन परिवर्त्तन एवं संशोधन का सम्बन्ध केवल संशोधनक्रिया की लिखित व्यवस्था से नहीं वरन् देश की प्रमुख प्रभावात्मक राजनीतिक दलबंदियों के संतोष या असंतोष से होता है। यदि वे वैधानिक रूपरेखा और उसके द्वारा राजनीतिक सत्ता के वितरण से संतुष्ट होती हैं तो परिवर्तन नहीं होते, अन्यथा संशोधन, आवर्तन, परिवर्तन अवश्यंभावी हैं। संवैधानिक संशोधनों का कारण कांग्रेसी सरकारें थीं जिनके नियंत्रण में केंद्रीय तथा लगभग समस्त राज्यों के शासन की बागडोर थी।
अतएव किसी संविधान का रूप नमनशील है अथवा परिदृढ़, यह केवल उस देश का संवैधानिक इतिहास ही स्पष्ट कर सकता है। यदि कहीं परिवर्तन सहज रूप से होते रहे हैं तो उस देश का संविधान नमनशील है, अन्यथा परिदृढ़।
संयुक्त राष्ट्र अमरीका के उदाहरण के उपरांत अधिकतर देशों में लिखित संविधान की प्रथा प्रचलित हो गई है। लिखित संविधान कहीं विधायिका द्वारा निर्मित होते हैं जैसे 'अमरीकन आर्टिकल्ज ऑव कान्फडरेशन' ने अमरीका में तथा ओस्ट्रियो हंगेरियन संघ ने 1867 में ऑस्ट्रिया में किया। इच्छा न होते हुए भी कई सम्राटों एवं राजाओं ने भी उन्नीसवीं शताब्दी में अपने देशों में संविधान रचना की। फ्रांस में 1814 तथा 1830 ई. में तथा 1848 ई. में सारडीनिया में इसी प्रकार वहाँ के सम्राटरचित संविधान घोषित हुए। अन्य संविधान अधिकतर देश की विधानसभाओं द्वारा ही बने, जैसे 1787 ई. में अमरीका तथा 1949 ई. में भारत में संविधान की रचना हुई।
अधिकांशतया उन समस्त देशों में जहाँ लिखित संविधान उपस्थित है, संविधान को देश की अन्य विधियों से अधिक मान्यता दी जाती है। इसका कारण यह है कि संविधान की उत्पत्ति ही इस भावना से हुई है कि शासनप्रबंध में निरंकुशता को अनुशासित तथा सीमित रखा जा सके। शासनप्रबंध संविधान के बंधनों से कितना नियंत्रित होगा अथवा संविधान के बंधनों से कितना नियंत्रित होगा, अथवा संविधान कितना उच्च माना जाएगा, यह संविधाननिर्माताओं के उद्देश्य एवं दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह किस विषय में संविधान की कितनी मान्यता एवं सुरक्षा के इच्छुक थे।
भारतीय संविधान की रचना के समय निर्माताओं के सम्मुख कई मूल प्रश्न थे, जैसे नागरिकों कें मूल स्वाधिकारों की सुरक्षा, केंद्र एवं राज्यों के कार्यक्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या जिससे दोनों अपनी निर्धारित सीमाओं के अंतर्गत ही विधिव्यवहार सीमित रखें, संविधान का रूप परिदृढ़ रखना, तथा राज्यों में पारस्परिक वाणिज्य व्यवसाय, स्वातंत्र्य की रक्षा इत्यादि। देश में कार्यपालिका या विधायिका के समस्त कार्यों की शुद्धता तथा औचित्य इसी पर निर्भर करता है कि वह देश के संवैधानिक उद्देश्य बन्धनों के अनुकूल है अथवा नहीं, यदि कोई कार्य इन मूल उद्देश्यों के प्रतिकूल होता है तो वह शक्ति बाह्य कहा जाता है। राज्य के सर्वोच्च न्यायलय में जहाँ विधि प्रयुक्ति एवं व्याख्या होती है, अधिकांशत: वहीं यह भी निश्चित होता है कि अमुक विधिनियम शक्तिबाह्य (अल्ट्रा वायर्स) है अथवा नहीं।
अमरीकी संविधान के एक प्रमुख रचयिता हैमिल्टन के अनुसार संविधान वास्तव में मूल विधि है तथा न्यायाधीशों को सदा इस तथ्य को स्वीकार कर मान्यता देनी चाहिए। जब विधानमंडलों द्वारा निर्मित साधारण विधिनियमों तथा संविधान में विरोध उपस्थित हो तो संविधान को उच्च एवं प्राथमिक मानकर अधिक मान्यता देनी चाहिए। कारण यह है कि संविधान स्वयं देश की जनता के आंतरिक उद्देश्यों की अभिव्यक्ति है जब कि अन्य विधि उस जनता की प्रतिनिधि सभाओं की भावनाओं की प्रतीक होती है। स्वभावत: संविधान मूल एवं श्रेष्ठ है। अमरीका के प्रधान न्यायाधीश मार्शल ने 1803 में मारबरो बनाम मैडिसन का निर्णय इसी नियम के अनुसार किया था।
जहाँ अलिखित संविधान होता है वहाँ शासनप्रबन्ध पर संवैधानिक नियम की आबद्धता अवश्य नहीं होती किंतु जनमत के भय से तथा निर्वाचन-क्रिया, परम्पराओं एवं रूढ़ियों द्वारा इस प्रकार का नियंत्रण एवं अनुशासन सहज रूप से होता रहता है।
प्रमुख संविधान
ऐतिहासिक संविधान
पोलैण्ड के संविधान
वर्तमान संविधान
अमान्य देशों तथा परतंत्र क्षेत्रों के संविधान
अमान्य देशों तथा परतंत्र क्षेत्रों के संविधान | ||
संविधान | अंगीकार होने की तिथि | संविधान के पाठ का लिंक |
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Constitution of Abkhazia | नवंबर 26 1994 | |
Constitution of Hesse | दिसंबर 1 1946 | |
Konstytucja Kosowa | जून 15 2008 | |
Constitution of Transnistria | दिसंबर 24 1995 |
अंतर्राष्ट्रीय संघ तथा संगठनों के संविधान
अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के संविधान | ||
संविधान | अधिनियमन की तिथि | संविधान के पाठ का लिंक |
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पृथ्वी संघ का संविधान | ||
संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र | 26 जून 1945 | Tekst Karty {{{2}}} |
यूरोप के संविधान की स्थापना करने वाली संधि | 29 अक्टूबर 2004[19] | Tekst Konstytucji {{{2}}} |
सन्दर्भ ग्रन्थ
- के. सी. वीह्वर : माडर्न कांस्टीटयूशन्स ;
- इंसाइक्लोपीडिया ऑव सोशल साइन्सेज;
- जेनिंग्ज: दि ला ऐंड दि कांस्टीट्यूशन ;
- मैथयूज : अमरीकन कांस्टीट्यूशनल सिस्टम;
- वैड एंड फिलिप्स : कांस्टीट्यूशनल ला
इन्हें भी देखें
- भारतीय संविधान
- एथेंस का संविधान
- संविधान संशोधन
- फ्रांस का संविधान
- ब्रिटेन का संविधान
- संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान
- जापान का संविधान
सन्दर्भ
- ↑ The New Oxford American Dictionary, Second Edn., Erin McKean (editor), 2051 pages, May 2005, Oxford University Press, ISBN 0-19-517077-6.
- ↑ Pylee, M.V. (1997). India's Constitution. S. Chand & Co. पृ॰ 3. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-219-0403-X.
- ↑ "Constitution of India". Ministry of Law and Justice of India. July 2008. मूल से 23 फ़रवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि December 17, 2008.
- ↑ "Constitute". www.constituteproject.org. मूल से 21 दिसंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2016-06-05.
- ↑ "Constitution Rankings - Comparative Constitutions Project". Comparative Constitutions Project (अंग्रेज़ी में). मूल से 1 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2016-06-05.
- ↑ Traktowana najczęściej jedynie jako nowelizacja konstytucji konsularnej z 1799.
- ↑ Sporządzona w marcu 1849, ogłoszona 7 marca, nosiła oficjalną datę 4 marca 1849
- ↑ Formalnie obowiązywała do 31 grudnia 1851, faktycznie przez cały ten okres zawieszonej (nigdy nie weszła w życie).
- ↑ W 1865 zawieszony, obowiązywał de facto do 1867
- ↑ Od 1973 zawieszona, de facto obowiązywała do 1981
- ↑ Na uchodźstwie obowiązywała do 1990
- ↑ Treść konstytucji Bośni i Hercegowiny została ustalona jako załącznik nr 4 do układu pokojowego z Dayton.
- ↑ Zmodyfikowana w 1999 i 2001 roku.
- ↑ Nowelizacje w 1986, 2001 i 2008.
- ↑ Poprzednie wersje konstytucji były przyjmowane w 1948, 1972, 1992 i w 1998 roku
- ↑ Po odzyskaniu niepodległości przywrócono obowiązywanie konstytucji łotewskiej z 1922 roku,
- ↑ Data przyjęcia w referendum.
- ↑ 18 kwietnia 1999 poddana pod referendum.
- ↑ Data podpisania.
बाहरी कड़ियाँ
- Dictionary of the History of Ideas Constitutionalism
- Constitutional Law, "Constitutions, bibliography, links"
- International Constitutional Law : विभिन्न देशों के संविधानों का अंग्रेजी अनुवाद
- Democracy in Ancient India by Steve Muhlberger of Nipissing University