श्रीधर वर्मन
प्राचीनकाल से ही सागर जिला मध्य भारत के महत्वपूर्ण इलाकों में शामिल रहा है और यहां कई शासक हुए हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सागर का प्रथम ऐतिहासिक शासक श्रीधर वर्मन था। ईसा पश्चात चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उत्तर भारत में गुप्त वंश की राजनैतिक सर्वोच्चता स्थापित हुई। इस वंश की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
चंद्रगुप्त के स्वनामधन्य पुत्र समुद्रगुप्त ने शस्त्र-बल से मध्य भारत और दक्षिण भारत तक अपना आधिपत्य स्थापित करते हुए अनेक राजाओं को हराया। उसके इलाहाबाद में मिले स्तंभों से ज्ञात होता है कि कुछ शकों और मुरुंडों ने शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य की आधीनता स्वीकार कर ली थी और उससे शासनपत्र प्राप्त कर अपने प्रदेशों का उपभोग करते रहे थे।
इस क्षेत्र में मिले विभिन्न पुरा साक्ष्यों के अनुसार एक पराजित शक अधिपति श्रीधर वर्मन भी था। उसके बारे में जानकारी देने वाले दो स्तंभों से प्रतीत होता है वह विदिशा-एरण प्रदेश पर राज्य कर रहा था। कनखेरा में मिले स्तंभ से प्रतीत होता है कि श्रीधर वर्मन ने अपना जीवन एक सेना अधिकारी के रूप में आरंभ किया और वह संभवत: आभीर राजा का समकालीन था।
कालांतर में अपनी योग्यता के बलबूते पर श्रीधर वर्मन सामंत बना। आभीर वंश का पतन होने पर उसने अपने स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी थी। एरण में प्राप्त दूसरे शिलालेख में उसके राज्यकाल के 27वें वर्ष के एक लेख में श्रीधर वर्मन का उल्लेख महाक्षत्रप तथा शकनंद के पुत्र के रूप में किया गया है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार श्रीधर वर्मन धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। दोनों ही शिलालेखों में श्रीधर वर्मन का वर्णन धर्माविजयन अर्थात धार्मिक विजेता के रूप में किया गया है। श्रीधर वर्मन किसी अन्य धर्म का था लेकिन उसे हिंदू धर्म का पक्का अनुयायी माना जाता था। माना जाता है कि समुद्रगुप्त ने किसी बात से उत्तेजित हो उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया और एरिकिना के युद्ध में उस पर निर्णायक विजय प्राप्त की।