सामग्री पर जाएँ

शेयर बाजार की पारिभाषिक शब्दावली

  • आउटलुक : रेटिग के साथ जुड़ा हुआ यह शब्द भी भावी संभावनाओं को दर्शाता है। कंपनी/संस्था या देश का भविष्य क्या है अथवा इसकी क्या संभावना है जैसे सवाल पूछते समय आउटलुक शब्द का उपयोग किया जाता है। आउटलुक के आधार पर ही निवेश करने का निर्णय कम्पी को लिया जाता है क्योंकि आउटलुक पॉजिटिव, निगेटिव या फिर स्टेबल (स्थिर) हो सकता है। निवेशकों के लिए यह हितकारक है कि वे निवेश करते समय कंपनी, संस्था या देश के आउटलुक पर ध्यान दें।
  • ऑर्डर बुक : कंपनी की ऑर्डर बुक में कितने ऑर्डर बकाया पड़े हैं इसकी जानकारी के आधार पर कंपनी के कार्य परिणाम, भविष्य एवं स्थिरता का अनुमान लगाया जा सकता है। कंपनी के पास ऑर्डर ही न हों या भरपूर ऑर्डर न हों तो ऐसी स्थिति कंपनी के लिए अच्छी नहीं माना जाती, जबकि निरंतर ऑर्डर मिलने वाली तथा ऑर्डर बुक में भरपूर ऑर्डर रखने वाली कंपनी की स्थिति सुदृढ़ मानी जाती है। ऑर्डर बुक भरपूर होने का अर्थ यह है कि कंपनी के पास भरपूर काम है तथा भविष्य में उसकी आय निरंतर बनी रहेगी।
  • आर्बिट्रेज : एक शेयर बाजार से निर्धारित शेयरों की कम भाव पर खरीदारीी करके उसे दूसरे बाजार में ऊंचे भाव पर बेच देने की प्रवृत्ति को आर्बिट्रेज कहा जाता है। उदाहरण स्वरूप बीएसई पर एबीसी कंपनी के शेयर 145.20 रू. के भाव पर खरीद कर उसी समय एनएसई पर 145.30 रू. पर बेच देने की प्रक्रिया को आर्बिट्रेज कहते हैं। इस प्रकार आपको 10 पैसे का अंतर मिलता है। ये सौदे एक ही समय किये जाते हैं तथा इसमें बड़ी संख्या में सौदे किये जाते हैं। पुराने समय में एक ही समय पर एक ही स्क्रिप के अलग-अलग भाव हुआ करते थे परंतु अब ऑन लाइन ट्रेडिंग सुविधा होने से इसकी मात्रा काफी घट गयी है। अब इस प्रकार के सौदों में भाव का अंतर काफी कम होता है, परंतु भारी मात्रा में सौदे होने से इनमें भरपूर लाभ अर्जित होता है। इस प्रकार का कारोबार करने वालों को आर्बिट्रेजर कहा जाता है। कई बार एक ही कमोडिटी, करेंसी या सिक्युरिटीज के तीन चार एक्सचेंज पर अलग-अलग भाव अंतर पर सौदे होते हैं, जिसमें एक बाजार से नीचे भाव में खरीद कर दूसरे बाजार में ऊंचे भाव पर बेचा जाता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि ये सौदे दोनों एक्सचेंजों पर एक ही समय पर किये जाते हैं। ब्रोकर इस काम के लिए विशेष स्टॉफ रखते हैं, जो बीएसई और एनएसई दोनों पर भरपूर मात्रा में सौदे करते रहते हैं।
  • आर्बिट्रेशन : इस शब्द का अर्थ आर्बिट्रेज से काफी अलग है। आर्बिट्रेशन का अर्थ है विवादों का निपटान। जब ब्रोकर और ब्रोकर के बीच या ब्रोकर और ग्राहक के बीच कोई विवाद हो जाता है तो इस प्रकार के विवाद को निपटाने के लिए मध्यस्थ की नियुक्ति की जाती है, जिसे आर्बिट्रेटर कहा जाता है और उसके निपटान की प्रक्रिया को आर्बिट्रेशन प्रोसेस कहा जाता है। शेयर बाजार में ऐसे विवादों के निपटान के लिए एक खास विभाग एक्सचेंज के नियमों एवं उपनियमों के तहत कार्य करता है। इस प्रकार के मामलों में आर्बिट्रेटर की नियुक्ति एक्सचेंज के नियमों के अनुसार होती है और उसके द्वारा दिये गये निर्णय ब्रोकर और ग्राहकों पर लागू होते हैं। इस प्रक्रिया में आर्बिट्रेटर दोनों पक्षों को सुनने के बाद अपना निर्णय देता है।
  • ऑक्शन (नीलाम) : शेयर बाजार में जब कोई निवेशक शेयर बेच देता है, परंतु समय पर उसकी डिलिवरी देने में विफल हो जाता है तो एक्सचेंज की कार्य पद्धति के तहत निवेशक के शेयर डिलिवरी दायित्व को उतारने के लिए उतने ही शेयरों का आवश्यक रूप से ऑक्शन (नीलाम) किया जाता है। इस प्रक्रिया में ऑक्शन के जरिए उतनी संख्या के शेयर बाजार के वर्तमान भाव पर ब्रोकर के द्वारा खरीदे जाते हैं और इसके भाव अंतर का बोझा निवेशक से वसूला जाता है। इसका कारण यह है कि निवेशक ने अपने पास शेयर हुए बिना भी उनको बेच दिया था। हमने इसके पहले शार्ट सेल्स (खोटी बिक्री) की चर्चा की थी। उसमें भी शार्ट सेल्स करने वाले निवेशक को बाजार भाव पर शेयर खरीद कर डिलिवरी देनी होती है, परंतु जब कोई निवेशक स्वेच्छा से ऐसा नहीं करता है तो बाजार के नियमों के तहत स्टॉक एक्सचेंज द्वारा आवश्यक रूप से नीलामी के मार्फत उस सौदे का निपटान किया जाता है।
  • एलॉटमेंट : कंपनियों के सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) के दौरान निवेशकों द्वारा किये गये आवेदन पर मिले हुए शेयरों को शेयर एलॉटमेंट कहा जाता है।
  • एसटीटी : सिक्योरिटीज ट्रांजेक्शन टेक्स को सारांश में एसटीटी कहते हैं। सरकार के `कर नियम` के अनुसार शेयर सिक्युरिटीज के प्रत्येक सौदे पर एसटीटी लागू होता है। सरकार को इस मार्ग से प्रतिदिन भारी राजस्व मिलता है। यह `कर` ब्रोकरों को भरना होता है हालांकि ब्रोकर इसे अपने ग्राहकों से वसूल लेते हैं। प्रत्येक कांट्रेक्ट नोट या बिल में ब्रोकरेज के साथ-साथ एसटीटी भी वसूला जाता है।
  • एफआईआई : शेयर बाजार को नचाने वाला, बाजार की चाल निर्धारित करने वाला यह शब्द बाजार से संबंधित समाचारों में बार-बार सुनने को मिलता है। प्रायः इस बात पर आप अपना ध्यान देते हैं कि एफआईआई की लिवाली या बिकवाली के कारण बाजार का यह हाल हुआ। एफआईआई, यानि की फॉरेन इंस्टिट्युशनल इन्वेस्टर अर्थात विदेशी संस्थागत निवेशक। ये संस्थागत निवेशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होते हैं। ये अपने स्वयं के देश के लोगों से बड़ी मात्रा में निवेश के लिए धन एकत्रित करते हैं और उनका अनेक देशों के शेयर बाजार में निवेश करते हैं। इन संस्थागत निवेशकों के ग्राहकों की सूची में सामान्य निवेश से लेकर बड़े निवेशक - पेंशन फंड आदि होते हैं, जिसका एकत्रित धन एफआईआई अपनी व्यूहरचना के अनुसार विविध शेयर बाजारों की प्रतिभूतियों में निवेश करके उस पर लाभ कमाते हैं और उसका हिस्सा अपने ग्राहकों को पहुंचाते हैं। चूंकि इन लोगों के पास धन काफी विशाल मात्रा में होता है और प्राय: ये भारी मात्रा में ही लेवाली या बिकवाली करते हैं जिससे शेयर बाजार की चाल पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में तो अभी उनका ऐसा वर्चस्व है कि लगता है शेयर बाजार को वे ही चलाते हैं। वर्ष 2008 में जब अमेरिका में आर्थिक मंदी आयी थी तब इस वर्ग ने भारतीय पूंजी बाजार से अपना निवेश निरंतर निकाला था, जिससे भारतीय बाजार में भी गिरावट होती गयी। किसी भी एफआईआई को भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने से पहले अपना पंजीकरण भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) तथा भारतीय रिजर्व बैंक के पास करवाना होता है तथा इनके नियमों का पालन करना होता है। वर्तमान समय में सेबी के पास 1100 से अधिक एफआईआई पंजीकृत है।
  • एक्सपोजर : साधारण शब्दों में इसे जोखिम कहा जा सकता है। जब कोई निवेशक किसी कंपनी में निवेश करता है तो यह कहा जाता है कि उक्त निवेशक ने कंपनी में एक्सपोजर लिया है। एक्सपोजर मात्र कंपनी में ही नहीं बल्कि संपूर्ण उद्योग या अर्थतंत्र में भी लिया जाता है। जब कोई निवेशक अन्य देश में निवेश करता है तो कहा जाता है कि उसने उस देश के अर्थ तंत्र में या उस देश की कंपनियों, उद्योगों में एक्सपोजर अर्थात जोखिम ली है। वायदे के सौदों में यह शब्द काफी उपयोग में लाया जाता है क्योंकि जब कोई ट्रेडर प्युचर कांट्रेक्ट करता है तब वह भविष्य की जोखिम लेता है। व्यक्ति जब भी कोई निवेश करता है तब उसके मूल्य में घट-बढ़ की संभावना होने से उस निवेश का एक्सपोजर कहा जाता है।
  • बेस्ट बाई : जो शेयर खरीदने के लिए उत्तम माने जाते हैं या जिन शेयरों का खरीदारी के लिए उत्तम भाव माना जाता है उन्हें ``बेस्ट बाई`` कहा जाता है। ये कंपनियां श्रेष्ठ हैं अथवा भविष्य में उनका भाव अपने वर्तमान भाव से बढ़ने की संभावना होती है ऐसी स्क्रिप या शेयर को बेस्ट बाई के रूप में गिना जाता है। अनेक बार एनालिस्ट विद्यमान स्थित के आधार पर किसी शेयर को बेस्ट बाई कहते हैं, उस समय उन कंपनियों का शेयर भाव बढ़ने की प्रबल संभावनाएं रहती हैं।
  • ब्लू चिप : शेयर बाजार की श्रेष्ठ - मजबूत कंपनियों के लिए यह शब्द उपयोग में लाया जाता है। किसी कंपनी का ब्लू चिप होने का अभिप्राय यह है कि उसके शेयर निवेशकों के लिए पसंदीदा शेयर हैं। इस प्रकार की कंपनियों में सौदे भी काफी होते हैं, उतार-चढ़ाव भी काफी होता है और उनमें निवेशकों का आकर्षण भी खूब बना रहता है।
  • बोल्ट (बीएसई (बांबे स्टॉक एक्सचेंज) ऑन लाइन ट्रेडिंग : बोल्ट अर्थात प्रतिभूतियों की ऑनलाइन स्क्रीन आधारित ट्रेडिंग सुविधा उपलब्ध कराने वाला टर्मिनल। बीएसई के सदस्यों को एक्सचेंज की तरफ से इस टर्मिनल की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
  • बबल : पिछले कुछ वर्षों से यह शब्द भी संपूर्ण विश्व में चचि≤ है विशेषकर बाजार में जब कोई भी प्रकरण खुलता है तो उसे ``बबल बस्र्ट`` हुआ है ऐसा कहा जाता है। बबल अर्थात बुलबुला और बस्र्ट अर्थात फटना। जब किसी शेयर का भाव बुलबुले की तरह फूलता रहे और एक सीमा पर आने के बाद धड़ाम से गिर जाये तो इसे बुलबुला फूटना कहा जाता है।


  • करेक्शन : शेयर बाजार की दैनिक रिपोर्ट में इस शब्द का उपयोग होता रहता है। बाजार खूब बढ़ गया हो और एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने के बाद तेजी के रूझाान के बीच जो गिरावट दर्ज की जाती है उसे बाजार में करेक्शन कहा जाता है। उदाहरण के लिए शेयर बाजार यदि निरंतर 4 दिन एकतरफा बढ़ता रहे और पांचवे दिन उसमें गिरावट आ जाये तो उसे करेक्शन के नाम से जाना जाता है। समय-समय पर इस प्रकार का करेक्शन बाजार के स्वास्थ्य के लिए अच्छा प्रतीक माना जाता है। निरंतर एकतरफा बढ़ते रहने वाला बाजार जोखिमपूर्ण हो जाता है जिसमें आगे जाकर एक साथ भारी गिरावट की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
  • कार्पोरेट एक्शन : कंपनी द्वारा जब कभी भी शेयरधारकों या बाजार से संबंधित कोई निर्णय लिया जाता है तो उसे कार्पोरेट एक्शन कहा जाता है। उदाहरण के लिए लाभांश / ब्याज का भुगतान, राइट / बोनस इश्यू, मर्जर/डिमर्जर, बाई बैक, ओपन ऑफर जैसी बातों कार्पोरेट एक्शन कही जाती हैं।
  • कांट्रेक्ट नोट : शेयर बाजार में सौदे करते समय कांट्रेक्ट नोट का काफी महत्व है। आप जिस शेयर ब्रोकर के जरिये शेयरों की खरीद बिक्री करें, उससे हर बार कांट्रेक्ट नोट लेने का आग्रह करें। आपके शेयरों के सौदे किस समय तथा किस भाव पर हुए, उस पर कितनी दलाली, सिक्युरिटी ट्रांजेक्शन टैक्स, सर्विस टैक्स लगा है इन सबका उल्लेख कांट्रेक्ट नोट में होता है। आपको ब्रोकर से सौदे के 24 घंटे के भीतर कांट्रेक्ट नोट मिल जाना चाहिए, परंतु सामान्य रूप से ब्रोकर इसमें 3-4 दिन लगा देते हैं। कांट्रेक्ट नोट पाना आपका अधिकार बनता है और यही आपके सौदे का दस्तावेजी प्रमाणित प्रमाण भी है। यदि किसी कारण से आपका ब्रोकर विफल हो जाये और आपको अपने सौदे के शेयर या उसकी रकम उससे लेनी निकलती है तो इस कांट्रेक्ट नोट के आधार पर हीी आप अपना दावा पेश कर सकते हैं। ब्रोकर के विफल होने पर एक्सचेंज कांट्रेक्ट नोट के आधार पर ही आपका दावा मान्य करता है, जिसमें आपको एक्सचेंज की तरफ से 10 लाख रूपये तक की सुरक्षा मिलती है। ऐसी स्थिति में कांट्रेक्ट नोट ही मात्र ऐसा दस्तावेज है जो आपके दावे का आधार बनता है। ऐसा न होने पर आपका दावा वैध नहीं माना जायेगा। अतः ब्रोकरों के साथ व्यवहार करते समय कांट्रेक्ट नोट लेने का आग्रह करें, इसकी उपेक्षा न करें तथा इसे संभाल अपने पास रखें। याद रखें इस कांट्रेक्ट नोट पर ब्रोकर का सेबी पंजीकरण क्रमांक होना भी आवश्यक है।
  • कॉर्नरिंग : जब कोई निश्चित व्यक्ति या ग्रुप किसी शेयर विशेष की खरीदारी करके उस पर एकाधिकार जमाने के लिए इकùा करता है तो इसे उस शेयर की कॉर्नरिंग हो रही है, ऐसा कहा जाता है। ऐसा करने के अनेक कारण हो सकते हैं परंतु यह बात निश्चित है कि ऐसा करने के पीछे उक्त समूह या व्यक्ति की उस शेयर में रूचि है।
  • कंसेंट ऑर्डर : प्रतिभूति बाजार में यह शब्द पिछले एक-दो वर्षों से प्रचलित हुआ है। बाजार का कोई भी मध्यस्थती - खिलाड़ी नीति नियमों का उल्लंघन करता है तब उसके विरूद्ध कार्रवाई की जाती है। उल्लंघन करने वाली हस्ती अपना अपराध स्वीकार न करे तो वह अपना विवाद सेट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक ले जा सकता है। ऐसा करने पर उसे काफी खर्च करना पड़ सकता है तथा समय भी काफी बर्बाद हो सकता है। यदि कोई हस्ती इन लंबी कानूनी प्रक्रियाओं से बचना चाहे तो वह अपनी भूल स्वीकार कर लेता है और सेबी उस पर निर्धारित आर्थिक दंड लगाकर एक कंसेंट ऑर्डर जारी कर देती है। ऐसा करने से समय और खर्च बच जाता है, जबकि अपराधी को आर्थिक सजा भी मिल जाती है। हालांकि विशेष प्रकार के अपराधों में ही कंसेंट ऑर्डर की सुविधा मिलती है। गंभीर प्रकार के अपराध करके कंसेंट ऑर्डर के जरिए मुक्ति नहीं पायी जा सकती। न्यायालयों में विवादों के ढेर लगे हुए हैं तथा मामलों के निर्णय आने में वर्षों लग जाते हैं ऐसी स्थिति में कंसेंट ऑर्डर के जरिए मामलों को निपटाना एक व्यवहारिक मार्ग है। विदेशों में यह प्रथा प्रचलित है। सेबी द्वारा यह प्रथा शुरू करने के बाद अनेक मामलों के निर्णय जल्दी हो पाये हैं और आर्थिक दंड के रूप में इस प्रक्रिया के जरिए काफी धन जमा हुआ है। इस राशि का उपयोग इन्वेस्टर प्रोटेक्शन या एज्यूकेशन पर किया जा सकता है।


  • डिलिस्टिंग : आईपीओ (पब्लिक इश्यू) के बाद जिस प्रकार शेयरों की शेयर बाजार में लिस्टिंग होती है उसी प्रकार अनेक बार कंपनियां अपने शेयरों की शेयर बाजार से डिलिस्टिंग करवाती हैं। शेयर डिलिस्टि हो जाने के बाद उनके सौदे शेयर बाजार पर नहीं हो सकते। इस प्रकार डिलिस्टिंग शेयरधारकों एवं निवेशकों के हित में नहीं है। डिलिस्टिंग अलग-अलग कारणों से होती है। कोई कंपनी डिलिस्टिंग करार का पालन नहीं करती है और डिलिस्टिंग की फीस नहीं भरती है तब एक्सचेंज पहले उसके शेयरों को सस्पेंड कर देता है उसके बाद भी यदि कंपनी निर्धारित समय के अंदर डिलिस्टिंग करार में वणि≤ शर्तों का पालन नहीं करती है तो अंत में एक्सचेंज उसके शेयरों को डिलिस्टि करने की नोटिस दे देते हैं। ऐसा होने पर भी यदि कंपनी कोई उत्तर न दे तो एक्सचेंज उसके शेयरों को अपनी सूची से हटा देती है। इस प्रकार की डिलिस्टिंग एक सजा के रूप में या कार्रवाई के रूप में होती है, जिसका भोग उसके शेयरधारकों को भोगना पड़ता है, जिससे वे अपने शेयरों के सौदे बाजार में नहीं कर सकते और शेयरों की प्रवाहिता शून्य हो जाती है। जबकि अनेक बार कंपनियां अपनी स्वैच्छा से डिलिस्टिंग कराती हैं। ऐसा करते समय कंपनियों को सेबी के डिलिस्टिंग दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है, जिसके तहत कंपनी को शेयरधारकों के पास से स्वयं ही शेयर खरीदने पड़ते हैं। इस प्रकार स्वैच्छिक डिलिस्टिंग के मामले में उसके शेयरधारकों को नुकसान सहन नहीं करना पड़ता है।
  • डिसइन्वेस्टमेंट : यह शब्द पिछले कुछ वर्षों से अपनी अर्थ व्यवस्था और बाजार में प्रचलित हुआ है। इन्वेस्टमेंट का अर्थ है निवेश करना जबकि डिसइन्वेस्टमेंट का मतलब है निवेश खाली करना। सरकारी अर्थात सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की स्थापना सरकार ने की होती है, जिससे उस कंपनी का संपूर्ण मालिकाना हक सरकार के पास ही रहता है। बदलते समय और उदारीकरण के वातावरण में निजीकरण का दायरा बढ़ता जा रहा है। सरकार इन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से अपना हिस्सा (निवेश) खाली करती है तो इसे डिसइन्वेस्टमेंट कहा जाता है। यह खाली किये जाने वाला हिस्सा सरकार सार्वजनिक जनता, निजी निवेशकों, बैंकों, संस्थाओं आदि को प्रस्तावित करती है। इस प्रकार धन एकत्रित करके सरकार उस रकम का उपयोग सामाजिक विकास के कार्यों में करती है। साथ ही सामान्य निवेशकों को सार्वजनिक क्षेत्र की इन कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी लेने का अवसर मिलता है। डिसइन्वेस्टमेंट के बाद शेयरों की स्टॉक एक्सचेंज पर लिस्टिंग होती है और उसमें सौदे भी होते हैं। सरकार पिछले कई वर्षों से धीमी गति से डिसइन्वेस्टमेंट कर रही है। जिसके कारण ही अनेक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के शेयर सूचीबद्ध हैं, जिनमें ओएनजीसी, एनटीपीसी, भेल इत्यादि कंपनियों का समावेश है। वर्ष 2010-11 के बजट में 40 हजार करोड़ रू. डिसइन्वेस्टमेंट के जरिए एकत्रित करने का लक्ष्य रखा गया है। हाल ही में सरकार की तरफ से डिसइन्वेस्टमेंट का पहला चरण शुरू हुआ है जिसे ध्यान में रखते हुए बांबे स्टॉक एक्सचेंज ने पीएसयूडॉटकॉम के नाम से एक अलग वेबसाइट भी तैयार की है जिस पर पीएसयू के डिसइन्वेस्टमेंट से संबंधित आवश्यक जानकारियां उपलब्ध करायी गयी है। दीर्घावधि के लिए निवेश करने वाले निवेशकों के लिए ये कंपनियां श्रेष्ठ मानी जाती हैं। निवेशकों को इस साइट से ऐसी अनेक जानकारियां मिल सकती हैं जो उनके निवेश निर्णय में सहायक होती हैं।
  • डीपी (डिपॉजिटरी पर्टिसिपेंट) : शेयरधारक, कंपनी और डिपॉजिटरी की कड़ी अर्थात डीपी। बैंक, वित्तीय संस्थाएं और शेयर दलाल आदि डीपी बन सकते हैं। जिस प्रकार बैंक खातेधारकों की रकम संभाल कर रखते हैं उसी प्रकार डिपॉजिटरी निवेशकों की प्रतिभूतियों को इलेक्ट्रानिक स्वरूप में संभाल कर रखते हैं। हमारे देश में एनएसडीएल (नेशनल सिक्युरिटीज डिपॉजिटरी लि.) और सीडीएसएल (सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज इंडिया लि.) नाम की दो डिपॉजिटरी हैं। शेयर बाजार में सौदे करने के लिए निवेशक को अपना डिमैट खाता खुलवाना आवश्यक है। यह खाता डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट के पास खुलवाया जाता है।
  • डाइवर्सिफिकेशन (विविधीकरण) : शेयर बाजार ही नहीं निवेश जगत में भी यह शब्द काफी महत्व रखता है। सभी अंडे एक टोकरी में नहीं रखे जाते, आपने यह कहावत तो सुनी ही होगी। इसी प्रकार सारा निवेश एक शेयर में नहीं करना चाहिए बल्कि अलग-अलग शेयरों में करना चाहिए और इतना ही नहीं ये शेयर भी अलग-अलग उद्योगों से जुड़ी कंपनियों के होने चाहिए। इस प्रकार विविध उद्योगों की कंपनियों के शेयरों में निवेश करना विविधीकरण कहलाता है। ऐसा करने से निवेशकों की जोखिम घटती है, कारण कि यदि सारे अंडे एक ही टोकरी में हों और वह टोकरी गिर जाय तो सारे अंडे नष्ट हो जायेंगे। इसी प्रकार सारा निवेश किसी एक ही कंपनी के शेयरों में हो और दुर्भाग्यवश यदि उस कंपनी के साथ कुछ अनहोनी हो जाये तो निवेशकों का सारा निवेश नष्ट हो सकता है। ऐसा करने के बजाय विविध शेयरों में निवेश होने से डाइवर्सिफिकेनशन का लाभ मिलता है। जिसमें यदि किसी एक या दो कंपनियों के शेयर गिर भी जायें तो अन्य शेयरों में किया गया निवेश उसकी जोखिम को कम कर देता है। अलग-अलग उद्योगों के शेयर रखने के पीछे उद्देश्य यह है कि प्रायः किसी एक समय में सभी उद्योगों की कंपनी में मंदी का दौर नहीं रहता। एक उद्योग में मंदी होने पर दूसरे उद्योग की तेजी का लाभ मिल जाता है। हां, यह दूसरी बात है कि पूरे वित्त बाजार में ही भारी गिरावट का दौर न आ जाय।

यहां यह बात भी समझानी जरूरी है कि निवेश का डाइवर्सिफिकेशन मात्र शेयरों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। निवेशकों को मात्र शेयरों में निवेश करने से भी जोखिम होती है। भले ही उसने अनेक प्रकार के शेयरों में निवेश किया हो। पूरा शेयर बाजार ही मंदी की चपेट में आ जाय तो क्या हो? निवेशकों को अपने असेट का भी डाइवर्सिफिकेशन रखना चाहिए। जिसे दूसरे शब्दों में असेट एलोकेशन भी कहा जाता है। सरल शब्दों में कहा जाय तो निवेशकों को शेयरों के बाद सोना, चांदी, प्रापर्टी, बैंक या कार्पोरेट डिपॉजिट, बांड्स, सरकारी बचत योजनाओं इत्यादि में भी निवेश करना चाहिए। ऐसा करने से उसकी संपूर्ण जोखिम का विभाजन हो जाता है और वह अपने पूरे निवेश को खोने से बच सकता है।

  • डिसगोर्जमेंट : यह शब्द उच्चारण में काफी भारी भरकम लगता है परंतु इसका अभिप्राय काफी सरल है। कोई भी हस्ती शेयर बाजार या पूंजी बाजार में गैर व्यवहारिक तरीके से घोटाले करके दूसरों की रकम डकार ले तब सेबी ऐसे मामलों की जांच करके इन हस्तियों के पास से गैर व्यवहारिक तरीके से कमाई गयी रकम वसूल करने का अधिकार रखती है। इस उद्देश्य से सेबी डिसगोर्जमेंट ऑर्डर जारी करती है। इस प्रकार की वसूली को डिसगोर्जमेंट कहा जाता है। ताजा उदाहरण के रूप में इस शब्द को समझों तो वर्ष 2003- 2005 के दौरान अनेकों आईपीओ में बेनामी डिमैट एकाउंट खुलवाकर मल्टिपल आवेदन करके अनेक लोगों ने अनुचित लाभ कमाया। चूंकि उस समय बाजार तेजी पर था और आईपीओ में शेयर पाने वाले लोगों को सेकेंडरी बाजार में लिस्टिंग के बाद अच्छा लाभ मिलता था। बेनामी मल्टिपल आवेदनों के कारण छोटे आवेदक आईपीओ में शेयर पाने से वंचित रह गये थे। सेबी ने लंबी जांच के बाद ऐसे अनेक लोगों के पास से उनके द्वारा गैर व्यवहारिक तरीके से कमाई गयी रकम डिसगोर्ज (वसूल) की और अप्रैल के शुरूआत में इस वसूल की गयी रकम को मुआवजे के रूप में उन लोगों में बांटा जो आईपीओ में उक्त शेयर प्राप्त करने से वंचित रह गये थे। भारतीय पूंजी बाजार के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ। भारत के वित्त मंत्री के हाथों निवेशकों को मुआवजे के चेक दिये गये। इस प्रकार डिसगोर्जमेंट शब्द जरूर भारी है, लेकिन निवेशकों के लिए लाभदायी एवं राहत भरा है। इस उदाहरण से निवेशकों में सिस्टम तथा बाजार के प्रति विश्वास बढ़ना स्वाभाविक है। सेबी अपने इस अधिकार से उन लोगों पर अंकुश बनाये रख सकती है, जो बाजार में गैर कानूनी और गैर व्यवहारिक तरीके से लाभ कमाना चाहते हैं।
  • डिस्क्लोजर : यह शब्द सेबी के नियमों से लेकर शेयर बाजार व तमाम नीति -नियमों में उपयोग किया जाता है। साधारण अर्थों में इसका अर्थ है खुलासा करना अर्थात डिस्क्लोज करना। इस शब्द का पूंजी बाजार में काफी महत्व है। इसके आधार पर ही निवेश का निर्णय लिया जाता है। निवेशकों को कंपनी तथा उसके मध्यस्थतों के बारे में आवश्यक जानकारियां समय-समय पर मिलती रहे इसके लिए सेबी समय-समय पर डिस्क्लोजर के नियम बनाती एवं संशोधित करती रहती है। निवेश करने का निर्णय लेने में ये जानकारियां काफी महत्व रखती हैं।
  • इस्यूअर : प्रतिभूतियां जारी करने वाली कंपनी या संस्थान को इस्यूअर कहा जाता है। साधारण शब्दों में शेयर या प्रतिभूतियां जारी करने वाली कंपनियों या संस्थाओं को इस्यूअर कहा जाता है।
  • फंडामेंटल : शेयर बाजार या फिर कंपनी से संबंधित रिपोर्टों में अनेक बार फंडामेंटल शब्द पढ़ने या सुनने को मिलता है। उदाहरण के तौर पर कंपनी के या बाजार के फंडामेंटल मजबूत हैं या कमजोर हैं इत्यादि-इत्यादि। फंडामेंटल अर्थात मूलभूत तत्व या परिणाम। कंपनी बिक्री, नफा, आय, मार्जिन, डिमांड इत्यादि के संबंध मेें अच्छा प्रदर्शन करती हो तो फंडामेंटल की दृष्टि से कंपनी मजबूत गिनी जाती है। इसी प्रकार अनेक कंपनियों के परिणाम अच्छे आने पर या अन्य उत्साहवर्धक नीतियों की घोषणा एवं अच्छी प्रगति होने पर बाजार में सकारात्मक रूझाान दिखायी देता है तो यह आर्थिक जगत के मजबूत फंडामेंटल का आधार बनता है। निवेशकों को पूंजी बाजार में निवेश करते समय कंपनियों एवं बाजार के फंडामेंटल पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

अनेक बार कंपनियों का फंडामेंटल तो मजबूत रहता है, परंतु बाजार का फंडामेंटल कमजोर रहने से शेयरों के भाव कम रह सकते हैं। निवेशकों को ऐसे समय में कंपनी के फंडामेंटल को अधिक महत्व देना चाहिए।


  • गाइडन्स : कंपनी जब आगामी समय में होने वाले अपने संभावित टर्नओवर या बिजनेस या कार्य के संकेत देती है तो उसे गाइडन्स कहा जाता है। प्रायः आईटी (इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजीज) कंपनियां इस शब्द का काफी उपयोग करती हैं। इंफोसिस ने आगामी तिमाही के लिए अपना गाइडन्स जाहिर किया था, जिससे उसके शेयरों का भाव काफी चढ़ा, ऐसे समाचार आपने पढ़े होंगे। कंपनी के भावी संकेतों के आधार पर उद्योग विशेष के संकेत का अनुमान भी लगाया जा सकता है।
  • गाइड लाइन अर्थात मार्ग रेखा : सेबी शेयर बाजार अथवा बाजार के मध्यस्थतों के लिए जब-जब भी नीति-नियम जाहिर करती है तो उसे मार्ग रेखा कहा जाता है, इनका पालन करना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में इसे शर्त एवं नियम भी कहा जा सकता है।


  • केवाईसी (नो योर क्लाइंट / कस्टमर) : वर्तमान समय में केवाईसी एक जरूरत बन गया है विशेषकर बैंक एकाउंट, शेयर ब्रोकर के पास ट्रेडिंग एकाउंट या फिर डिमैट एकाउंट खुलवाते समय केवाईसी का उपयोग होता है। बेनामी तथा गैरकानूनी प्रवृत्ति का धन बाजार में प्रवेश न कर पाये इसके लिए यह नियम लागू किया गया है। `नो योर क्लाइंट` अर्थात आप अपने ग्राहक को जानो-पहचानो। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्राहक वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं, इसकी जांच करना जरूरी हो गया है। काला धन, अपराध व अंडरवल्र्ड का धन, हवाले का धन आदि बैंकिंग व शेयर बाजार के माध्यम से प्रवेश कर रहा है ऐसी शंका या भय के आधार पर सरकार ने इस पर अंकुश लगाने के लिए केवाईसी का पालन करना आवश्यक बनाया है। इससे पहले आईपीओ घोटाले के समय बोगस डिमैट और बैंक एकाउंट खुलवाने के प्रकरण प्रकाश में आये हैं, जिनमें कि वास्तव में कोई खाताधारक होता ही नहीं था और अनेक बेनामी और बोगस खाते खुल गये थे। इसके बाद सेबी ने पूंजीबाजार में केवाईसी आवश्यक करने का निर्णय लिया जो म्युच्युअल फंड के लिए भी लागू हो गया है।
  • लिस्टिंग : सार्वजनिक निर्गम में आवेदकों को शेयर आबंटित करने के बाद उन शेयरों को शेयर बाजार की ट्रेडिंग सूची पर सूचीबद्ध करवाया जाता है। इसे शेयरों की लिस्टिंग कहा जाता है।
  • लिक्विडिटी (प्रवाहिता) : शेयर बाजार में रूपये की आपूर्ति अधिक हो और बढ़ते हुए भाव में भी निरंतर लिवाली बढ़ती रहे तो बाजार में प्रवाहिता अधिक है ऐसा माना जाता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि ले-बेच दोनों निरंतर होती रहे और उनमें वाल्यूम भी काफी हो तो लिक्विडिटी अच्छी कहलाती है। बाजार में तेजी के लिए अच्छी लिक्विडिटी होना महत्वपूर्ण है। मंदी में लिक्विडिटी कम हो जाती है अथवा कम लिक्विडिटी होेने पर बाजार में मंदी आ जाती है। अनेक बार बाजार में अधिक लिक्विडिटी के कारण भाव काफी बढ़ने लगते हैं जिससे बाजार में जोखिम बढ़ जाती है। भारतीय रिजर्व बैंक समय-समय पर बाजार में लिक्विडिटी को अंकुश में रखने के लिए कदम उठाती रहती है।
  • लुढ़कना (एक ही दिन में भारी गिरावट) : शेयर बाजार का इंडेक्स सेंसेक्स या फिर निप्टी यदि एक ही दिन में काफी गिर जाये तो इसे लुढ़कना अर्थात भारी गिरावट कहा जाता है। सामान्यतः एक ही दिन में 400-500 अंकों की गिरावट बाजार के लुढ़कने या फिर इतने ही अंकों की वृद्धि बाजार के उछलने का प्रतीक माना जाता है।
  • मार्केट ब्रेड्थ : बाजार की चाल एवं प्रवृत्ति को दर्शाने वाली बातों को मार्केट ब्रेड्थ कहा जाता है। शेयर बाजार में जब यह जानना हो कि बाजार की चाल सकारात्मक है या नकारात्मक तो इसका अनुमान निकालने के लिए मार्केÀट ब्रेड्थ को देखना चाहिए। एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कंपनियों में से जितनी भी कंपनियों के दिन भर के दौरान सौदे होते हैं उनमें से बढ़ने वाली और घटने वाली दोनों स्क्रिपें होती हैं। यदि बढ़ने वाली स्क्रिपों की संख्या अधिक हो तो मार्केÀट ब्रेड्थ पॉजिटिव और यदि घटने वाली स्क्रिपों की संख्या अधिक हो तो मार्केÀट ब्रेड्थ निगेटिव कही जाती है। उदाहरण स्वरूप बीएसई पर सूचीबद्ध कंपनियों में यदि किसी दिन 2500 स्क्रिपों में सौदे हुए हों और उसमें से 1500 स्क्रिपों के भाव बढ़े हों और 1000 स्क्रिपों के भाव घटे हों मार्केÀट ब्रेड्थ पॉजिटिव अर्थात सकारात्मक कही जाती है। इसके विपरीत होने पर मार्केट ब्रेड्थ निगेटिव अर्थात नकारात्मक कहलाती है। बाजार का रूझाान जानने के लिए निवेशकों को घटने वाली और बढ़ने वाली स्क्रिपों पर ध्यान देना चाहिए। यह संख्या शेयर बाजार की वेबसाइट पर उपलब्ध है। बीएसई और एनएसई दोनों की वेबसाइट पर मार्केट ब्रेड्थ रोज-रोज ऑन लाइन देखने को मिलती है। सेंसेक्स की 30 स्क्रिपों में से 25 स्क्रिपें बढ़ी हों और 5 घटी हों तो सेंसेक्स की मार्केट ब्रेड्थ पॉजिटिव कही जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक इंडेक्स की अपनी -अपनी मार्केÀट ब्रेड्थ जानी जा सकती है।
  • प्लेज शेयर (गिरवी रखे गये शेयर) : कोई भी निवेशक या खुद कंपनियों के प्रमोटर शेयरों को बैंक या अन्य वित्तीय संस्थानों के पास गिरवी रखकर ऋण ले सकते हैं। इस प्रकार ऋण के लिए बतौर गारंटी गिरवी रखे गये शेयरों को प्लेज शेयर कहा जाता है। कंपनियां इस मार्ग से शेयर गिरवी रखकर ऋण सुविधाएं लेती हैं और उसका उपयोग कंपनी के विकास कार्यों पर करती हैं। ऋण लेने के लिए यह एक आसान एवं अच्छा मार्ग है। परंतु सत्यम कंप्यूटर घोटाले के बाद हुई जांच में सेबी का ध्यान इस तरफ गया कि कंपनी के प्रमोटर भारी संख्या में शेयर गिरवी रखकर धन इकùा करके उसका अन्यत्र उपयोग कर लेते हैं, जिससे कंपनी को कोई फायदा नहीं होता। इस विषय में पारदर्शिता के अभाव में निवेशकों को इस सच्चाई का पता नहीं लग पाता है कि प्रमोटरों की कंपनी में कितनी शेयरधारिता है क्योंकि प्रमोटरों की शेयरधारिता ही इस बात का संकेत है कि प्रमोटरों का कंपनी के साथ कितना हित जुड़ा हुआ है। सत्यम घोटाले के उजागर होने के बाद ही सेबी ने समय-समय पर प्रमोटरों द्वारा गिरवी रखे गये उनके हिस्से के शेयरों की जानकारी घोषित करने का दिशा-निर्देश जारी किया। निवेशकों को प्रमोटरों की शेयरधारिता पर ध्यान रखना चाहिए।
  • प्रॉफिट बुकिंग : शेयर बाजार में यह शब्द सबसे अधिक महत्व का है, जो कि न केवल समझाने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि इसका अमल भी महत्वपूर्ण है। जब आप कोई शेयर 45 रू. के भाव पर लें और एक-आधे वर्ष बाद उसका भाव 85 रू. हो जाये और आप यह शेयर बेचकर नफा कर लें तो इसे प्रॉफिट बुकिंग कहा जाता है। सामान्यतः निवेशक लालच में इतना आकर्षक लाभ मिलने पर भी और अधिक बढ़ने के लालच में उन शेयरों को बेचकर प्रॉफिट बुक नहीं करते, जिससे अनेक बार फिर से भाव घट जाने पर या तो उनका नफा जाता रहता है या वे नुकसान में भी जा सकते हैं। जब तक आप 45 रू. का शेयर 85 रू. में बेचते नहीं हैं तब तक आपका वह नफा सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहता है। वास्तव में उसे बेचकर उसकी रकम प्राप्त करने पर ही आप प्रॉफिट हासिल कर सकते हैं। निवेशकों को कौन सा शेयर किस भाव पर निकाल कर अपना प्रॉफिट बुक कर लेना चाहिए, इसकी समझा होनी जरूरी है।
  • पेनी स्टॉक्स : जिन शेयरों का भाव पैसों में अर्थात 10 पैसे से लेकर 90 पैसे तक या फिर 1 रूपये - 2 रूपये में बोला जाता हो उन्हें पेनी स्टॉक्स कहा जाता है। ऐसी कंपनियां बिल्कुल घटिया दर्जे की मानी जाती हैं तथा इनके शेयरों का कोई खरीदार नहीं रहता। प्रायः ऐसी कंपनियां जेड ग्रुप में रहती हैं और इन कंपनियों में अधिकांशत : सटोरियो या ऑपरेटर हिस्सा लेते हैं। अपवाद स्वरूप अनेक बार ऐसी कंपनियों में भी कोई कंपनी ऐसी होती है जो टर्नअराउंड हो सकती है।
  • पीबीटी : प्रॉफिट बिफोर टेक्स - अर्थात सरकार को चुकाये जाने वाले करों के भुगतान के पूर्व का लाभ। पीबीटी वह मुनाफा है जिसमें सरकार को चुकाये जाने वाले करों (टैक्स) का समायोजन नहीं किया गया होता है।
  • रिकवरी : यह करेक्शन से बिल्कुल विपरीत स्थिति दर्शाती है अर्थात निरंतर घटते हुए बाजार में जब गिरावट रूक जाये और बाजार बढ़ने लगे तो इसे रिकवरी कहा जाता है। बाजार एक साथ घटता ही रहे तो इसे मंदी गिना जाता है परंतु मंदी के कुछ दिनों के बाद बाजार में सुधार हो तो उसे रिकवरी कहते हैं। जिस प्रकार किसी बीमार आदमी के स्वास्थ्य में दवा लेने के बाद कुछ सुधार हो तो उसे रिकवरी कहते हैं उसी प्रकार गिरते हुए बाजार में सुधार होने पर रिकवरी कहा जाता है।
  • रिलिस्टिंग : डिलिस्टिंग की तरह ही एक शब्द है रिलिस्टिंग। जब कोई कंपनी एक या अनेक कारणों से नियमों का उल्लंघन करने पर डिलिस्टि कर दी जाती है तो उसके बाद वह कंपनी फिर से उन नियमों का पालन करके एक्सचेंज में अपने शेयर फिर से लिस्ट करवा लेती है। इस प्रकार दुबारा सूचीबद्ध हुई कंपनियों के लिए रिलिस्टिंग शब्द का प्रयोग होता है। निवेशकों के लिए यह खुशी की बात होती है क्योंकि जिस कंपनी के शेयर मात्र कागज के टुकड़े रह गये थे उनमें फिर से प्रवाहिता आ जाती है, उन्हें खरीदा-बेचा जा सकता है।
  • रोल बैक : अभी हाल ही में बजट के बाद वित्त मंत्री के मुंह से यह शब्द बार-बार बोला गया। इसका अर्थ यह है कि उठाया गया कदम पीछे नहीं लेना अर्थात जो निर्णय ले लिया गया वह ले लिया गया, उसे वापस नहीं लिया जायेगा। उदाहरण के लिए पेट्रोल की भाव वृद्धि घोषित करने के बाद वित्त मंत्री ने कहा कि उसका रोल बैक नहीं होगा तो इसका अर्थ यह हुआ कि भाव वृद्धि की घोषणा वापस नहीं ली जायेगी।
  • रेग्युलेशन : इस सरल शब्द का अर्थ इसिलये समझाना जरूरी है कि अधिकांश लोग रेग्युलेशन्स को नियंत्रण (कंट्रोल) मानते हैं, जबकि वास्तव में रेग्युलेशन नियमन है। ऐसे तो इन दोनों की भूमिका एक जैसी लगती है परंतु वास्तव में ये कहीं अलग भी हैं। कंट्रोल में स्वामित्व का भाव रहता है, जबकि नियमन में नियम का पालन करवाने का इरादा होता है। सेबी नाम की पूंजी बाजार की नियामक संस्था शेयर बाजार, शेयर ब्रोकर, म्युच्युअल फंड आदि का नियमन करती है। संबंधित हस्तियों से नियमों का पालन करवाने की जवाबदारी का निर्वाहन करवाना नियमन है।
  • रिस्ट्रक्चरिंग : सामान्य अर्थों में इसका मतलब है पुनर्गठन। कार्पोरेट भाषा में कहें तो जब कोई कंपनी खास उद्देश्यों के साथ अपने घाटे में कमी लाने या लाभदायिकता बढ़ाने के प्रयास स्वरूप जो कुछ फेरबदल करती है उसे स्ट्रक्चरिंग कहा जाता है। निवेशकों को कंपनी द्वारा उठाये गये इस प्रकार के कदमों का ध्यान से अध्ययन करना चाहिए। इसका मुख्य उद्देश्य कंपनी की स्थिति सुधारना होता है।
  • रिहेबिलाइजेशन अथवा रिवाइवल : जो कंपनी कंगाल होकर बीमार पड़ गयी हो तो उसके पुनर्रूत्थान की संभावना होने पर इसका प्रयास शुरू कर दिया जाता है। इसके लिए बीआईएफआर अपना मत व्यक्त करती है तथा कंपनी के प्रबंधन को ऐसा करने के लिए उचित समय देती है। ऐसी कंपनियों के पुनर्रूत्थान की प्रक्रिया पर निवेशकों को ध्यान रखना चाहिए और उसके आधार पर निवेश करने का निर्णय लेना चाहिए। हालांकि ऐसी बीमार और पुनर्रूत्थान की संभावनाओं वाली कंपनियों के भाव काफी गिर जाते हैं और उनमें सौदे भी नाम मात्र के होते हैं, परंतु यदि कोई मजबूत ग्रुप ऐसी कंपनी को संभालने के लिए तैयार हो जाये तो कंपनी के शेयरों का भाव रिकवर हो सकता है। ऐसी कंपनियों में जहां निवेश जोखिम भरा होता है वहीं इनमें लाभ की संभावनाएं भी रहती है।
  • रेटिंग : कंपनी के वित्तीय परिणाम, कार्य परिणाम, ट्रैक रिकॉर्ड आदि के आधार पर कंपनी की प्रतिभूतियों या कंपनियों को रेटिंग प्रदान की जाती है, जो कंपनी की साख एवं पात्रता का स्तर दर्शाती है। कंपनी या संस्थाओं के अतिरिक्त देश को भी रेटिंग उपलब्ध करायी जाती है। उदाहरण स्वरूप स्टैंडर्ड एंड पुअर (एस एंड पी), मूडीज जैसी संस्थाएं देश की समग्र आर्थिक स्थिति के आधार पर संबंधित राष्ट्र को भी रेटिंग प्रदान करती हैं। समय-समय पर मौजूदा स्थितियों के अनुवर्ती रेटिंग को अपग्रेड या डाउनग्रेड किया जाता है। किसी देश की रेटिंग ऊंची और अच्छी होती है तो विश्व के अन्य देशों के निवेशक उक्त देश के उद्योग धंधों में निवेश करने के लिए प्रेरित होते हैं।
  • सर्किट ब्रेकर : सर्किट फिल्टर स्क्रिप पर लागू होता है जबकि बाजार के इंडेक्स पर सर्किट ब्रेकर लागू होता है। इंडेक्स दिन के दौरान कितने अंक या प्रतिशत बढ़ या घट सकता है इसकी मर्यादा को नियंत्रित रखने के लिए सर्किट ब्रेकर लागू किया जाता है। आपने कई बार सुना होगा कि सेंसेक्स या निप्टी निश्चित प्रतिशत टूटने (घटने) के कारण बाजार कुछ समय के लिए बंद कर देना पड़ा। सर्किट ब्रेकर का उपयोग बाजार को तेजडि़यों और मंदेडि़यों की गिरप्त से बचाने के लिए किया जाता है ताकि एक ही दिन में भारी मात्रा में उतार-चढ़ाव न हो सके। समय-समय पर सर्किट ब्रेकर की सीमा में फेरबदल किया जाता है।
  • सर्किट फिल्टर : किसी भी स्क्रिप का भाव एक ही दिन में अनावश्यक रूप से घटे या बढ़े नहींं अथवा कोई ऑपरेटर खिलाड़ी ऐसा न कर सके इसके लिए स्टॉक एक्सचेंज प्रत्येक स्क्रिप के उतार-चढा]व (चंचलता) को अंकुश में रखने के लिए सर्किट फिल्टर का तरीका अपनाती है। शेयरों के भाव के साथ कोई निरंकुश होकर छेड़खानी न कर सके इस उद्देश्य से शेयर बाजार विविध सर्किट फिल्टर निर्धारित करता है, जो कि 20 प्रतिशत की रेंज में होती हैं। जो स्क्रिप जितनी ज्यादा चंचल होती है उसे अंकुश में रखने के लिए कम प्रतिशत से सर्किट फिल्टर लागू किया जाता है, जबकि कम चंचलता वाली स्क्रिपों पर सर्किट फिल्टर का प्रतिशत अधिक होता है। एक्सचेंज सर्किट फिल्टर की सीमा में समय-समय पर परिवर्तन करता रहता है। उदाहरण के बतौर एबीसी कंपनी पर यदि 5 प्रतिशत की दर से सर्किट फिल्टर लागू है तो किसी एक कार्य दिवस में उस कंपनी के शेयरों का भाव अधिकतम या तो 5 प्रतिशत बढ़ सकता है या 5 प्रतिशत घट सकता है इससे अधिक की घट-बढ़ होने पर उस कंपनी के उस दिन सौदे नहीं हो सकते। यह सर्किट फिल्टर एक दिन के लिए लागू होता है। अगले कार्य दिवस उसे फिर से नये सौदे करने की अनुमति मिल जाती है, परंतु उस दिन भी उस पर वही सर्किट फिल्टर की सीमा लागू रहती है। इस प्रकार किसी शेयर में ऊपरी सर्किट तेजी का तथा निचला सर्किट मंदी का संकेत देता है। निवेशक स्क्रिपों पर लगी सर्किट फिल्टर को ध्यान में रखकर उस स्क्रिप के संबंध में अनुमान लगा सकते हैं।
  • सर्कुलर ट्रेडिंग : शेयर बाजार में सटोरियों या ऑपरेटरों का एक ऐसा वर्ग भी रहता है जो अपनी पसंदीदा स्क्रिप की आपस में ही खरीद-बिक्री करके उसके भाव को अपनी इच्छित दिशा में ले जाने का प्रयास करता है। इस समूह के लोग पहले से ही आपस में सांठ-गांठ कर लेते हैं और आपस में ही शेयरों को खरीद-बेचकर उस शेयर के प्रति बाजार में विशेष रूझाान बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार की ट्रेडिंग को सर्कुलर ट्रेडिंग कहा जाता है। सामान्य निवेशकों के लिए यह खेल समझाना कठिन जरूर है, परंतु निरंतर निरीक्षण एवं अनुभव के आधार पर इस तरह के खेल को समझाा जा सकता है और उनके इस जाल से बचा जा सकता है। एक्सचेंज का सर्वेलंस विभाग भी ऐसे सौदों पर विशेष ध्यान रखता है और ऐसे मामले सामने आने पर उन पर आवश्यक कानूनी कार्यवाही भी करता है। आम निवेशकों को तेजी के समय किसी विशेष स्क्रिप की खरीदारी करने से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कहीं उसमें सर्कुलर ट्रेडिंग करके उन्हें लुभाने का प्रयास तो नहीं किया गया है।
  • स्टॉप लॉस : प्रॉफिट बुकिंग की तरह ही बाजार में लॉस की अर्थात घाटे की बुकिंग करनी होती है, जिसे स्टॉप लॉस कहा जाता है तथा उचित समय पर ऐसा न कर पाने पर घाटा बढ़ता जाता है। माना कि कोई शेयर 45 रू. के भाव पर लिया और उसका भाव घटकर 38 रू. रह गया तथा आगे भी उसमें घटने का ही रूझाान दिखायी दे तो निवेशकों को 38 रू. के स्तर पर शेयर बेच कर अपने घाटे को मर्यादित कर लेना चाहिए। ऐसा न करने पर घाटे की मात्रा काफी ज्यादा हो सकती है। रोज-रोज की खरीद-बिक्री के दौरान प्रॉफिट बुकिंग और स्टॉप लॉस की नीति का उपयोग प्रचुर मात्रा में होता है। स्टॉप लॉस को दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है कि घाटे की मर्यादा को नियंत्रित कर लेना। निवेशक इस प्रकार की खास सूचना के साथ अपना ऑर्डर भी रख सकते हैं।
  • स्टीम्युलस पैकेज : वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद यह शब्द पूरे विश्व में प्रचलित हो गया। मंदी से उद्योग को उबारने के लिए या उस उद्योग का अस्तित्व टिकाये रखने के लिए जब सरकार राहत पैकेज घोषित करती है तो उसे स्टीम्युलस पैकेज कहा जाता है। राहत पैकेज में करों से छूट या मुक्ति, अनुदान, ब्याज माफी, ऋण वापस करने के नियमों में छूट जैसी अनेक सुविधाओं का समावेश होता है। सरकार अपने बजट से ये सुविधाएं उस उद्योग को बचाने के लिए उपलब्ध कराती है। ये सुविधाएं निश्चित समयावधि के लिए होती हैं, स्थायी नहीं। इसलिये जब भी इस तरह का राहत पैकेज वापस लिया जाता है तब संबंधित उद्योग में थोड़ी सी घबराहट जरूर नजर आती है और उसका असर उन कंपनियों के शेयरों पर भी पड़ता है। हालांकि सरकार राहत पैकेज वापस लेते समय इस बात की सुनिश्चितता करती है कि क्या वह उद्योग अपने बल पर खड़ा होने के लिए लायक बन गया है? राहत पैकेज से संबंधित सरकारी निर्णय उक्त उद्योग की कंपनियों के शेयरधारकों के लिए काफी संवेदनशील होते हैं।
  • सेबी : यह पूंजी बाजार - शेयर बाजार की नियामक संस्था है, जिसका पूरा नाम सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया है। सेबी का मूलभूत उद्देश्य है `पूंजी बाजार का स्वस्थ विकास एवं निवेशकों का रक्षण।` सेबी का गठन संसद में पारित प्रस्तावों के अनुरूप किया गया है, जो एक स्वायत्त नियामक संस्था है। इसके नियम शेयर बाजारों, शेयर दलालों, मर्चेंट बैंकरों, म्युच्युअल फंडों, पोर्टफोलियो मैनेजरों सहित पूंजी बाजार से संबंधित अनेक मध्यस्थतों पर लागू होते हैं।
  • सेट अर्थात सिक्युरिटीज अपीलेट ट्रिब्युनल (एसएटी) : यह सेबी से सम्बद्ध एक न्यायालय के समान ज्युडिसरी बॉडी है। सेबी के आदेश के सामने सेट में अपील की जा सकती है। सेट के आदेश सेबी को मानने पड़ते हैं या सेबी उसके सामने भी अपील कर सकती है और हाईकोर्ट में भी अर्जी कर सकती हैं। जिस प्रकार इन्कम टैक्स के सामने अपील में जाने के लिए इन्कम टैक्स अपीलेट ट्रिब्युनल होती है उसी प्रकार `सेट` एक ट्रिब्युनल है।
  • स्वीट (स्वेट) इक्विटी : आईपीएल मैच के विवाद के दौरान यह शब्द थोड़ा चर्चा में आया था, परंतु शेयर बाजार और आर्थिक जगत में यह शब्द वर्षों से प्रचलित है। कंपनी जब अपने कर्मचारियों एवं निदेशकों को रियायती शर्तों पर इक्विटी शेयर देती है तब ऐसे शेयरों को स्वीट शेयर कहा जाता है। सामान्यतः ये स्वीट (स्वेट) इक्विटी शेयर कर्मचारियों एवं निदेशकों को उनके द्वारा कंपनी के हित में किये गये महत्वपूर्ण योगदान के बदले दिये जाते हैं। कभी -कभी ये शेयर बिल्कुल निःशुल्क भी दिये जाते हैं।
  • सिक कंपनी : बीमार कंपनी या मंद कंपनी को सिक कंपनी कहा जाता है। कंपनी अधिनियम में बीमार कंपनी की व्याख्या की गयी है जिसके अनुसार जिस कंपनी की नेटवर्थ समाप्त हो गयी हो अर्थात जिस कंपनी का संचित घाटा बढ़कर उसकी नेटवर्थ से अधिक हो गया हो तो उसे बीमार कंपनी माना जाता है और ऐसी कंपनी बीमार कंपनी कही जाती है। बीमार हो चुकी कंपनी का इलाज हो सकता है, जिसके तहत प्रमोटर कंपनी में अन्य धन का निवेश करते हैं, दूसरे प्रमोटरों को सहभागी बनाते हैं जिससे वह कंपनी बीमारी से बाहर आ सकती है। बीमार कंपनी को बीआईएफआर (बोर्ड फार इंडस्ट्रीयल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन्स) में सूचीबद्ध कराना होता है। यह बोर्ड कंपनी की स्थिति की जांच करके उसके इलाज की सलाह देता है। यदि उसे सुधरने का कोई रास्ता नजर नहीं आता तो ऐसी कंपनियों को वाइंड-अप (बंद) करने की सलाह दी जा सकती है। निवेशकों को ऐसी कंपनियों पर दोहरी नजर रखनी चाहिए। यदि ऐसी कंपनियों के सुधरने की संभावना हो तो उस कंपनी के शेयर कम भाव पर खरीद लेने चाहिए और यदि कंपनी बंद होती नजर आये तो अपने शेयर बेच देने चाहिए।
  • सेलिंग प्रेशर : शेयर बाजार में यह शब्द प्रचलित होने के साथ-साथ घबराहट फैलाने वाला है। इसका अर्थ है बिकवाली का दबाव। जब शेयर बाजार में निरंतर या बड़ी मात्रा में बिकवाली होने लगे तब ऐसी स्थिति को सेलिंग प्रेशर कहा जाता है। इससे बाजार मंदी की ओर जाता है। सेलिंग प्रेशर पूरे बाजार का भी हो सकता है या एफआईआई या म्युच्युअल फंड जैसे समूह का भी हो सकता है। जब किसी एक वर्ग द्वारा बिकवाली का दबाव हो तो ज्यादा चिंता की बात नहीं परंतु जब यह दबाव सभी वर्गों में हो तो ऐसी स्थिति चिंतादायक होती है।
  • शेयरहोल्डिंग पैटर्न : यह शब्द निवेशकों में अधिक लोकप्रिय नहीं है परंतु इसका महत्व काफी है। प्रत्येक कंपनी का शेयरहोल्डिंग पैटर्न होता है। इसका अर्थ यह है कि उक्त कंपनी की शेयरपूंजी में किस-किस वर्ग के कितने शेयर हैं, इसकी जानकारी शेयर पैटर्न कहलाती है तथा इसके आधार पर कंपनी का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। किसी भी कंपनी में अलग-अलग शेयरधारक होते हैं, जिसमें कंपनी के प्रमोटरों के अलावा सार्वजनिक जनता, विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई), म्युच्युअल फंड, घरेलू संस्थागत निवेशक (जिसमें बीमा कंपनियों, बैंकों आदि का समावेश होता है), एनआरआई (अनिवासी भारतीय) आदि। सामान्यतः जिस कंपनी में प्रमोटरों की शेयरधारिता अधिक होती है उसे मजबूत कंपनी माना जाता है इसका कारण यह है कि कंपनी के प्रमोटरों का हिस्सा अधिक होने पर वे उसके विकास के लिए अधिक सक्रिय एवं गंभीर रहते हैं, ऐसा माना जाता है। जिस कंपनी की शेयरधारिता में जनता का हिस्सा कम होता है बाजार में उनके शेयर कम रहते हैं, जिससे बाजार में उसकी मांग बढ़ने पर भाव ऊंचे रहने या बढ़ने की संभावना अधिक रहती है। इसी प्रकार एफआईआई, वित्तीय संस्थाओं और म्युच्युअल फंड की शेयरधारिता अधिक होने वाली कंपनियों को भी अच्छा माना जाता है क्योंकि उन कंपनियों में फंडामेंटल मजबूती के आधार पर ही तो इन वित्त विशेषज्ञों ने इनमें निवेश किया होगा, ऐसा माना जा सकता है। इस प्रकार कंपनी के शेयरहोल्डिंग पैटर्न को देखकर उस कंपनी की सेहत का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रत्येक कंपनी की स्वयं की वेबसाइट या शेयरबाजार की वेबसाइट पर प्रत्येक कंपनी का शेयरहोल्डिंग पैटर्न उपलब्ध है। निवेशक निवेश करने से पहले संबंधित कंपनी के शेयरहोल्डिंग पैटर्न को देख लें, ऐसी सलाह दी जाती है।
  • शॉर्ट कवरिंग : शॉट्स सेल्स (बनावटी बिकवाली) शब्द की चर्चा हमने पहले की थी। इस बार उसमें से सृजित दूसरे शब्द शॉर्ट कवरिंग को समझाते हैं। बाजार जब गिरावट की तरफ होता है तो उस समय मंदेडि़ये हाथ में शेयर न होने पर भी उनकी बिकवाली कर देते हैं, जिससे यदि बाजार उनकी धारणा के अनुसार और घटता है तो वे घटे हुए भाव पर शेयर खरीद कर उसकी डिलिवरी दे देते हैं अथवा सौदे को भाव अंतर के साथ बराबर कर देते हैं। इस प्रकार जब बाजार में अधिकांश कारोबारी खोटी बिकवाली करके बाद में शेयरों की खरीदी करने लगे अर्थात शॉर्ट सेल्स करने के बाद खरीदी करने लगे तो ऐसी स्थिति को श@ार्ट कवरिंग कहा जाता है। शेयर बाजार से संबंधित इस शब्द का अखबारों में या दैनिक मार्केÀट रिपोर्ट में काफी उपयोग होता है। शॉर्ट कवरिंग के कारण बाजार घटने से रूका या बाजार रिकवर हुआ ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं। इस प्रकार शॉर्ट कवरिंग गिरते हुए बाजार को थामने का काम करता है।
  • शेयर बाजार में डिस्काउंट : शेयर बाजार में डिस्काउंट का दूसरा अर्थ भी होता है। जब बाजार में किसी कंपनी के शेयर का भाव उसके मूल भाव से नीचे चल रहा है तो उसे डिस्काउंट कहा जाता है। इसे विलो पार अर्थात सममूल्य से कम भी कहा जाता है। दूसरी तरफ किसी कंपनी के शेयरों का विद्यमान बाजार भाव यदि उसके समभावित भाव से कम चल रहा हो तो इसे भी शेयर डिस्काउंट पर मिल रहा है, ऐसा कहा जाता है।

यह हुई शेयर के भाव में डिस्काउंट की बात। दूसरी तरफ शेयर बाजार में अनेक ऐसी घटनाएं एवं समाचार होते हैं जहां इस शब्द का उपयोग किया जाता है। किसी घटना के होने की संभावना मात्र से बाजार पर उसका असर पड़ जाये और वह घटना वास्तव में घटित होने पर उसका खास असर बाजार पर न पड़े तो कहा जाता है कि वह घटना डिस्काउंट हो गयी। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक की घोषणाएं होने की संभावना से ही बाजार पर उसका असर पड़ जाये और सचमुच घोषणा होने पर उसका कोई खास असर दिखायी न दे तो कहा जाता है कि रिजर्व बैंक की घोषणाएं डिस्काउंट हो गयी।

  • टॉप और बॉटम : शेयर बाजार में जब भी कोई शेयर या सूचकांक अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचता है तो कहा जाता है कि उक्त शेयर या उक्त इंडेक्स ने अपना टॉप बना लिया है। इसी प्रकार निचले स्तर पर होने पर बॉटम कहलाता है। यह टॉप या बॉटम समय अंतराल के आधार पर निर्धारित होता है। उदाहरण स्वरूप सेंसेक्स ने वर्ष 2009 में 17500 का टॉप और 7600 का बॉटम बनाया।
  • टर्नअराउंड : जब कोई कंपनी घाटे से बाहर निकल कर मुनाफा करने लगे या भारी घाटा दर्शाने वाली कंपनी का घाटा नाम मात्र रह जाये तो ऐसी कंपनी को टर्नअराउंड कंपनी कहा जाता है। निवेशकों को ऐसी कंपनियां तलाशते रहनी चाहिए क्योंकि ऐसी कंपनियों में आगामी समय में मुनाफे की गुंजाइश बढ़ जाती है जिससे उनके भाव बढ़ने की संभावना हो जाती है। व्यापारिक पत्रिकाओं, रिसर्च एजेंसियों, स्टॉक एक्सचेंज की वेबसाइट का निरंतर अवलोकन करके इस प्रकार की कंपनियों को चिन्हित किया जा सकता है। कई बार किसी निश्चित उद्योग में मंदी का दौर समाप्त होने पर उस क्षेत्र से जुड़ी कंपनियां टर्नअराउंड हो जाती हैं। इसी प्रकार कई बार पूरा बाजार भी टर्नअराउंड होता है, जिसमें बाजार निरंतर गिरावट वाले निगेटिव रूझाान से निकलकर सकारात्मक की ओर प्रस्थान करता है।
  • टेकओवर : जब कोई एक कंपनी दूसरी कंपनी का अधिग्रहण करती है तो इसे टेकओवर कहा जाता है। कार्पोरेट क्षेत्र में बड़ी कंपनियां अपने जैसा ही कारोबार करने वाली छोटी परंतु अच्छी कंपनियों का टेकओवर करके अपना कद बढ़ाती हैं। आपने कुछ समय पूर्व स्टील क्षेत्र की टाटा स्टील द्वारा विदेशी कंपनी कोरस के अधिग्रहण की बात सुनी होगी। अभी हाल ही में फोर्टिस हेल्थकेयर ने विदेशी कंपनी पार्कवे का मेजोरिटी हिस्सा अधिग्रहित किया है। भारती एयरटेल अफ्रीका की जेन कंपनी का अधिग्रहण करके चर्चा में रही है। कोई भी कंपनी जब दूसरी कंपनी का टेकओवर करती है तब उसका स्वामित्व या नियंत्रण अपने कब्जे में ले लेती है, जिसके कारण ये टेकओवर शेयरधारकों एवं निवेशकों के लिए संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जब कोई मजबूत और समर्थ कंपनी किसी दूसरी कमजोर कंपनी का अधिग्रहण करती है तो कमजोर कंपनी के शेयरधारक खुश हो जाते हैं, जबकि अधिग्रहित करने वाली कंपनी के शेयरधारक सोचते हैं कि इससे उनकी कंपनी पर बोझा न बढ़े तो अच्छा।

टेकओवर परस्पर आपसी सहमति से भी होता है तथा बाजार की व्यूहरचना के साथ चालाकी से भी किया जाता है जिसमें अनेक बार जिस कंपनी का टेकओवर किया जाता है उस कंपनी के मैनेजमेंट को अंधेरे में भी रखा जाता है। इस प्रकार के ``टेकओवर वार`` के अनेक किस्से कार्पोरेट इतिहास में दर्ज हैं। ऐसे टेकओवर को ``होस्टाइल टेकओवर`` कहा जाता है। इस विषय की जटिलता एवं शेयरधारकों की सुरक्षा एवं हितों के विभिन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए सेबी ने टेकओवर रेग्युलेशन्स बनाया है और समय-समय पर आवश्यकतानुसार उसमें सुधार भी किया जाता है। निवेशकों को कार्पोरेट टेकओवर के किस्सों पर नजर रखनी चाहिए क्योंकि आगामी वर्षों में ऐसे किस्से बढ़ने की संभावना है। भारी प्रतिस्पर्धा में न टिक पाने वाली छोटी एवं मध्यम कद की कंपनियों को विशालकाय कंपनियां टेकओवर कर लें तो ऐसे में उन छोटी कंपनियों की किस्मत बदल जाती है, जिसका प्रभाव दोनों कंपनियों के शेयर भावों पर पड़ता है।

  • टार्गेट : इसका सरल अर्थ है लक्ष्य। शेयर बाजार में टार्गेट शब्द का उपयोग शेयरों के भाव के संदर्भ में व्यापकता से उपयोग किया जाता है। विशेषकर एनालिस्ट अपनी रिपोर्ट में इस शब्द का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए एक कंपनी के शेयरों का भाव आगामी तीन महीनों या छह महीनों में 500 रू. तक पहुंचने का टार्गेट है। इस टार्गेट अर्थात लक्ष्य के लिए एनालिस्ट विभिन कारण भी बताते हैं। टार्गेट भाव शार्ट टर्म के लिए अधिक उपयोग किया जाता है और उसमें परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलाव भी किया जाता है। यहां इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई एनालिस्ट किसी शेयर का टार्गेट भाव बताये तो उसके आधार पर आंख बंद करके निवेश नहीं करना चाहिए। तेजी के समय ऐसे टार्गेट भले ही पूरे हो जायें, लेकिन हमेशा ऐसा हो ही, यह जरूरी नहीं।
  • ट्रीगर : यह शब्द जरा संजीदा है। इसका सादा अर्थ है बाजार का ``चालक बल`` या ड्राइवर। बाजार की भाषा में कहें तो मार्केÀट को ऊंचा लेे जाने के लिए किसी ट्रीगर की जरूरत होती है। शेयर बाजार एक या अनेक कारक तत्वों के आधार पर संचालित होता है, उसकी गति ऊपर या नीचे की ओर हो सकती है परंतु बाजार को वेग देने के लिए ट्रीगर प्वाइंट जरूरी है। उदाहरण के लिए सरकार जब कोई उदार एवं प्रोत्साहनात्मक नीति जाहिर करती है तब बाजार को ऊपर जाने के लिए ट्रीगर मिल जाता है अथवा रिलायंस जैसी विशाल कंपनी का परिणाम काफी उत्साहवर्धक जाहिर हो तो यह भी बाजार को ऊपर ले जाने के लिए ट्रीगर बन सकता है। रिजर्व बैंक की ऋण नीति अत्यधिक प्रोत्साहन वाली थी जिससे बाजार को ऊपर जाने का ट्रीगर मिल गया। इस प्रकार शेयर बाजार की चाल को वेग देने वाले कारक तत्वों को ट्रीगर कहा जाता है। अहा जिदंगी या उसके इस कॉलम को पढ़ना भी आपके लिए ट्रीगर हो सकता है क्योंकि इसको पढ़कर आप लाभान्वित होते हैं।
  • यूसीसी : युनिक क्लाइंट कोड - शेयर दलालों के पास अपना पंजीकरण कराने वाले प्रत्येक ग्राहक को एक कोड नंबर दिया जाता है। ब्रोकर के पास शेयरों के सौदे लिखवाते समय ग्राहकों को यह कोड नंबर बताना होता है।
  • युलिप : अप्रैल के महीने में यह नाम विवादित हो गया था। युलिप का पूरा नाम है `यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्लान`। अर्थात एक ऐसी निवेश योजना जिसमें निवेश करने से व्यक्ति का जीवन बीमा भी हो जाता है। उसके द्वारा किये गये निवेश को सिक्युरिटीज मार्केÀट में निवेश किया जाता है जिससे उसे प्रतिभूति बाजार का एक्सपोजर भी मिलता है। अभी हम इसके विवाद की बात करने के बजाय युलिप के बारे में बताना चाहेंगे। युलिप एक म्युच्युअल फंड के समान स्कीम है जो निवेश के साथ बीमा का भी लाभ ऑफर करती है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि निवेशकों को बीमा प्रोडक्ट में बीमा के तरीके से ही निवेश करना चाहिए। जो व्यक्ति सचमुच अपने परिवार के हित में अपने जीवन को बीमित करना चाहता है उसके निवेश में बीमे की मात्रा अधिक रहने वाली योजनाओं का समावेश होना चाहिए। युलिप में बीमा का हिस्सा काफी कम होता है और सिक्युरिटीज में निवेश का हिस्सा काफी ऊंचा होता है। युलिप हो या ऐसी ही कोई अन्य योजना निवेशकों को चाहिए कि वे इन योजनाओं का बारीकी से अध्ययन करके ही अपनी आवश्यकता के अनुरूप इसका चयन करें।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ