शिवलीलार्णव
शिवलीलार्णव अप्पय्य दीक्षित के पौत्र तथा नारायण दीक्षित के पुत्र नीलकण्ठ दीक्षित द्वारा विरचित एक महाकाव्य है। इस महाकाव्य में 22 सर्ग हैं। शिवभक्ति में तत्पर रहने वाले मीनाक्षी देवी के साथ सुन्दरेश्वर की उपासना करने वाले पाण्ड्यवंश में उत्पन्न होने वाले 20 से अधिक राजाओं का वर्णन यहाँ किया गया है। इसमें शान्त रस प्रधान रूप में वर्णित है, अन्य सभी रसों का वर्णन अंगभूत उपलब्ध होता है। स्कन्दपुराण की अगस्त्य संहिता से कथानक लिया गया है इसलिए वही इस महाकाव्य का उपजीव्य है। प्रारम्भ में वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण किया गया है-
- पूतं स्वतः पूततरं यद् गांगं पयः शंकरमौलि संगात्।
- तत्पातु मातुः प्रणयापराध पादाहतैः पूततमं ततो नः॥
खल निन्दा के प्रसंग में कवि कहता है कि ब्रह्मा ने सृष्टिकाल में दुष्ट बुद्धि वाले खलों के मुख को लहसुन और नीम से भर दिया था। इसी से उनके मुख में दुर्गन्ध और तिक्तता पायी जाती है-
- आपूर्य वक्त्रं लशुनैर्विधाता
- किं बिम्बसारैः कुधियामसिंचत्।
- न चेत्कथं वाचि ततः क्षरन्त्याम्
- स पूतिगन्धः स च तिक्तभावः॥
एक प्रकार के छन्द वाले नाति स्वल्प और नाति दीर्घ 22 सर्ग इस काव्य में हैं। 20वां और 21वां सर्ग नानावृत्तमय है। इस काव्य में 28 छन्दों का प्रयोग किया गया है। द्रुतविलम्बित की छटा अवलोकनीय है-
- यदि मरुद्विजितं विजितं मनो- यदि मनो विजितं विजितं जगत्।
- जितवतां मरुतं च तदर्वताम् किमभिधेयमतस्त्रिजगज्जये॥
महाकवि ने युग्मक, कलापक, कुलक तथा चक्क्लक आदि पद्यों का प्रयोग किया है। सन्ध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात्रि, प्रदोष अंधकार, दिन, प्रातः, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, उपवन, नदी, सागर आदि का वर्णन यत्र-तत्र काव्य में समुपलब्ध होता है। ताम्रपर्णी नदी का वर्णन करते हुए महाकवि ने कहा है कि ताम्रपर्णी को छोड़कर भगवान शंकर का गंगा के प्रति प्रेम वैसा ही है जैसा केतकी के फूल के विद्यमान रहने पर भी मदार के प्रति प्रेम रखना-
- यां सर्वरत्नैकखनिं विहाय
- गंगामघात् केन गुणेन शम्भुः।
- का प्रीतिरर्के सति कैतकेऽपि
- न हीश्वराः पर्यनुयोज्यशीलाः॥
बसन्त ऋतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है-
- अध्वर्युं मलयसमीरमन्यपुष्टम्
- होतारं वनभुवी सामगं द्विरेफम्।
- ब्रह्माणं मधुमपि सादरं वृणाना
- आजह्नुर्मदनमष्टाध्वरं युवानः॥
नगर वर्णन के क्रम में चौथे सर्ग में कवि ने मधुरा (मदुरै) नगरी का वर्णन किया है। वहाँ नाम की सार्थकता बताते हुए कवि ने कहा है-जीमूतवाहन ने दिव्य सुधामय गंधों से इस नवीन नगर को तीन दिनों तक सेचन कराया। ‘मधुरोदक संसिक्त होने के कारण यह महानगरी मधुरा (मदुरै) कही जाएगी’- इस प्रकार की आकाशवाणी हुई-
- दिव्यैः सुधामयैर्मेघैर्देवो जीमूतवाहनः।
- नगरं सेचयामास नवीनं तृण्यहानि सः॥
- मधुरोदकसंसिक्ता मधुरेऽयं महापुरी।
- इत्यश्रूयत तत्रत्यैर्दिव्या वागशरीरिणी॥[1]
नये-नये शब्दों का प्रयोग करने में महाकवि नीलकण्ठ माघ को भी पीछे छोड़ देते हैं। इनमें शब्द पुनरुक्ति नगण्य है। इसलिए डॉ0 ददन उपाध्याय ने ठीक ही कहा है-
- नवसर्गगते माघे रिक्ता तस्य सरस्वती।
- नवसर्गप्रयोगेऽपि जितानेन सरस्वती॥
एक शब्द का अनेक अर्थों में एकत्र प्रयोग इस महाकाव्य में दिखायी पड़ता है। एक ही पुष्कर शब्द का चार अर्थों (जल, सूड़, कमल और आकाश) में प्रयोग सहृदय हृदयाह्लादक है-
- पुष्करैरभिषिच्येशौ पुष्करोपहृतैरयम्।
- पुष्करैरेव चानर्च पुष्करं गाहितुं पुनः॥[2]
अलंकारों के प्रयोग में कवि सर्वत्र सावधान दिखायी पड़ता है। इस काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, व्यतिरेक, अर्थान्तर न्यास आदि अलंकारों की रमणीयता दर्शनीय है।
उपमा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
- क्षुद्रद्वीपमिव चण्डमारुता
- शुष्कगुल्ममिव दानपावकः
- ध्वान्तवृत्तमिव भास्करोदय-
- स्तद्वलं नरवलं व्यनीनशत्॥[3]
उत्प्रेक्षा की छटा भी प्रेक्षणीय है- भगवान शंकर ने विवाह के समय जब का×चन अम्बर धारण किया, उसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है-
- दिगम्बरः कांचनमम्बरं हरः
- कथं बभारेति न विस्मयाय नः।
- तनुत्विषा तस्य दिशो दशापि यत्
- प्रतप्तकार्तस्वरभास्वरीकृता॥[4]
भगवान् शंकर को भक्तजन जो कस्तूरी और कपूर अर्पण करते हैं, उसके प्रति कवि की उत्प्रेक्षा अवलोकनीय है-
- कृष्णार्जुनाभ्यां परिपूज्यलिंग
- मासदिता सिद्धय इत्यवेत्य।
- कस्तूरीकाभिर्घनसारकैश्च
- लिम्पन्ति लोका खलु लिंगमेतत्॥[5]
यह महाकवि किसी भी वस्तु का आलंकारिक चि त्रण करने में सिद्धहस्त प्रतीत होता है। नारी के निर्माण के विषय में उसकी कल्पना विचारणीय है-
- दुर्दान्तमदनमवेक्ष्य निर्ममे
- किं वर्मैकं युवसु वधूमयं विधाता।
- यद्योगे मदनशराः प्रसूनमात्रम्
- यत्त्यागे कुलिशदशाममी वहन्ति॥[6]
राजा के प्रताप और कीर्ति का मनोहर वर्णन कवि ने किया है-
- भेरीरवश्चलति योजनमेव यावत्
- तावत्ततो दशगुणं चलितः प्रतापः
- कीर्तिस्ततो दशगुणं व्यचलत्ततोऽपि
- चेलुस्ततो दशगुणं विमता विदुरे॥[7]
कान्तासम्मित उपदेश के लिए काव्य होता है। परन्तु राजा कुलशेखर ने अपने पुत्र मलयध्वज को शिक्षित करने के बहाने लोकों को उपदेश दिया है [8] यह उपदेश बाणभट्ट के शुकनासोपदेश का स्मरण कराता है। एक स्थल पर माँ ने अपनी कन्या को उपदेश दिया है। जो शकुन्तला के प्रति कण्व के उपदेश का स्मरण कराता है-
- शुशूष्व प्रेयसः पादपद्मं
- क्षान्त्या धृत्या प्रेमवत्या च भक्त्या।
- लब्ध्वा पुत्रं राज्यभारेऽभिषिच्य
- द्रष्टास्मि त्वां स्वं पदं प्रत्युपेताम्॥[9]
शैव दर्शन तत्व को महाकवि ने अपनी प्रतिभा से काव्य में समुपस्थित किया है। शिवभक्तिप्रवण होने के का रण यद्यपि यह काव्य शान्त रस प्रधान है फिर भी अन्य रसों का वर्णन अंग रूप में हुआ है। युद्ध वर्णन प्रसंग में वीर रस की अनुभूति होती है। बीच-बीच में शृंगार रस की मृदुता अविस्मरणीय है। कुचद्वय के वर्णन प्रसंग में कवि कहता है-
- परस्परस्पर्ध्यपि तत्कुचद्वयम्
- वि जेतुकामं किल मेरुमन्दरौ।
- तथा समेतं समये मिथः स्वयं
- यथोपलभ्येत न किंचदन्तरम्॥[10]
नायिका के सौन्दर्यवर्णन के प्रसंग में कवि की काव्यपटुता अवलोकनीय है-
- उपासितुं सा पतिमुत्पलाप्रियं
- करे च कर्णे च निवेशितोत्पला
- बभार भूयो नयनोत्पले ततः
- स्वयं बभूवोत्पलदामकोमला॥
वैदर्भी रीति प्रधान होते हुए भी यह काव्य प्रसाद गुण से गुम्फित है। काव्य में शास्त्रान्तर का पुटपाक भी सहृदयों को शास्त्र विचारणा के लिए उन्मुख करता है। वेदान्त के एकेश्वरवाद के सिद्धान्त को महान कवि श्री दीक्षित पूरी कुशलता के साथ उपस्थापित करते हैं।
काशीपति विश्वेश्वर के तारकमन्त्र दान से कैवल्य प्रदान की महिमा का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है-
- कैवल्यदानाय कृतप्रतिज्ञौ
- काशीपतिः पाण्ड्यपतिर्युवां द्वौ।
- शिष्यैकविश्रान्तममुष्यदानं
- सार्वत्रिकं तारकमेव शम्भोः॥
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रीकण्ठ दीक्षित विरचित यह शिवलीलार्णव काव्य एक सफल महाकाव्य के लक्षणों की कसौटी पर खरा उतरता है।