शहीद बलभद्र सिंह
बलभद्र सिंह रैकवार 1857 की क्रांति में अवध, उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधि चरित्र हैं। मूर्धन्य साहित्यकार अमृतलाल नागर ने अपनी पुस्तक 'गदर के फूल' शहीद बलभद्र सिंह एवं उनके छह सौ साथियों को समर्पित की है।
परिचय
सिपाहियों के विद्रोह के लिए तो गाय-सुअर की चर्बी के कारतूस कारण बने, जबकि अवध के जमींदारो, तालुकेदारों के लिए, जो अंग्रेजों के तंत्र के ही भाग थे, ऐसा कोई कारण भी नहीं था, लेकिन सैकड़ों नाम हैं जो विदेशी राज की प्रतिक्रिया में इस क्रांति और शहादतों का हिस्सा बने। यह विद्रोह उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी चरित्र को उजागर करता है। 1857 का कलेवर विश्व की महानतम फ्रांसीसी राज्य क्रांति से काफी बड़ा था। 1857 की भारतीय क्रांति ने भी एक राष्ट्र का सूत्रपात किया। अगर अमेरिकी क्रांति अमेरिकी एकता का मार्ग प्रशस्त करती है तो 1857 ने भारत के राजनीतिक एकीकरण का रास्ता दिखाया है। दुनिया के इतिहास में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध यह सबसे बड़ा विद्रोह था। इसने साम्राज्य की जड़ें हिला दीं। अगर अंग्रेजों को नेपाल से मदद न मिली होती तो गुलामी का दौर बहुत पहले खत्म हो गया होता।
लखनऊ अंग्रेजों के कब्जे में आ चुका था। बाराबंकी के ओबरी नवाबगंज के मैदान में गदर के सिपाही, दर्जन भर तालुकेदार अपनी इलाकाई सेनाओं के साथ मोर्चे की तैयारी में थे। बहुत से सैनिकों को और खुद बलभद्र सिंह का यह पहला युद्ध अनुभव था और नेतृत्व भी उन्हीं पर था। इस युद्ध में अवध के किसानों ने मशहूर रेजीमेंट हडसन हार्स को भागने पर मजबूर किया। कई तोपे भी कब्जे में ले लीं। दोबारा हुए युद्ध में तीन घटे भीषण संघर्ष हुआ। बहादुरी और जुझारूपन में नवाबगंज का युद्ध कहीं-कहीं हल्दीघाटी को स्पर्श कर जाता है। यह 13 जून 1858 की तारीख थी। इसके 5 दिन बाद 18 जून को हल्दीघाटी की तिथि पड़ती है। नवाबगंज के हवाले से 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध को याद रखना भी आसान है। युद्ध संवाददाता विलियम रसेल और ब्रिगेडियर होपग्रांट ने अपने डिस्पैच में बलभद्र सिंह की वीरता, युद्ध क्षमता खुले दिल से स्वीकार की है। पहले युद्ध में अंग्रेजों की तोपों पर कब्जा कर लेने के बाद भागते शत्रु का पीछा न करने से अंग्रेजों को पुन: जवाबी हमले का अवसर मिल गया। युद्ध के प्रति पेशेवराना नजरिया न होना बलभद्र सिंह की हार व शहादत का कारण बना। दोपहर का वक्त था, जब घिर गए बलभद्र की गरदन पर पीछे से तलवार का भरपूर वार पड़ता है। किंवदंतियों के अनुसार सर कट जाता है। धड़ गिरता नहीं। हाथ यंत्रवत तलवार चलाते रहते हैं। पीढि़यों बाद भी जन मानस में सुरक्षित हो गई वह स्मृति आज भी बहुत से गीतों, आल्हा और रासो में अभिव्यक्त हो रही है। एक दूसरे युद्ध में बिलग्राम के निकट रूइया किले पर राजा नरपत सिंह की मोर्चेबंदी में ब्रिगेडियर एड्रियन होप सहित बहुत से ब्रिटिश सैनिक मारे गए। रसेल लिखता है कि लखनऊ पर पुन: कब्जे के युद्ध में रूइया युद्ध से थोड़े ही अधिक सैनिक मारे गए थे। रूइया किले के खंडहर आज भी नरपत सिंह के संघर्ष की दास्तान कहते हैं। दूसरा युद्ध फिर उसी गढ़ी पर रक्षात्मक रूप से लड़ा गया। बताते हैं कि तीसरे दिन फाटक खोलकर हुए युद्ध में नरपत सिंह साथियों सहित शहीद हुए।