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व्यवहार प्रक्रिया

सांसारिक उद्दीपनों की टक्कर खाकर सजीव प्राणी (Organisms) अपना अस्तित्व बनाए रखने के निमित्त कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है। उसके व्यवहार को देखकर हम प्राय: अनुमान लगाते हैं कि वह किस उद्दीपक (स्टिमुलस) या परिस्थिति विशेष के लगाव से ऐसी प्रतिक्रिया करता है। जब एक चिड़िया पेड़ की शाखा या भूमि पर चोंच मारती है, तो हम झट समझ जाते हैं कि वह कोई अन्न या कीट आदि खा रही है। जब हम उसे चोंच में तिनका लेकर उड़ते देखते हैं, तो तुरंत अनुमान लगाते हैं कि वह नीड़ (घोंसला) बना रही है। इसी प्रकार मानवी शारीरिक व्यवहार से उसके मनोरथ तथा स्वभाव आदि का भी पता लगता है।

सहज क्रियाएँ

मुख की मुद्रा, देह की अंगभंग तथा कमेंद्रियों के हिलने चलने के व्यवहार से अगोचर मानसिक क्रियाएँ विचार, रागद्वेष आदि भी दूसरे लोगों पर व्यक्त होते हैं। शारीरिक व्यवहार का सरलतम रूप "सहज क्रिया" (रिफ्लेक्स ऐक्शन) में मिलता है। यदि आँख पर प्रकाशपुंज फेंकी जाए, तो पुतली तत्काल सिकुड़ने लगती है। यह एक जन्मजात, प्राकृतिक अनायास क्रिया है। इस क्रिया का न तो कोई पूर्वगामी अथवा सहचारी चेतन अनुभव होता है और न ही यह व्यक्ति की इच्छा के बस में रहती है। इसी प्रकार मिर्च के स्पर्शमात्र से आँखों में अश्रु आ जाते हैं। यह भी एक जन्मजात या सहज क्रिया है। सांस लेना, खांसना आदि कुछ जटिल सहज क्रियाएं हैं। इनको मनुष्य इच्छानुसार न्यूनाधिक प्रभावित कर सकता है। मल-मूत्र त्याग भी सहज क्रियाएँ हैं जिनपर मनुष्य विशेष नियंत्रण रखना सीख लेता है। सूई चुभते ही हम हठात् हाथ खींच लेते हैं। इन सबका मूलाधार है, ज्ञानेंद्रियों का नस द्वारा कर्मेंद्रियों (पेशी, ग्रंथि आदि) के साथ सीधा प्राकृतिक संबंध। सूई के दबाव से पीड़ास्थल से संलग्न नसें सक्रिय हो उठती हैं और नसों द्वारा तत्संबंधित पेशीसंकोच होता है।

अभ्यानुकूलित प्रतिवर्त (कंडीशंड रिफ्लेक्स)

अनेक बार विशेष उद्दीपक की संगति से सहज क्रिया में परिवर्तन आ जाता है। यथा मिठाई खाने से मुख में रसस्राव एक सहज क्रिया है। किंतु मिठाई के दर्शन अथवा नाम के सुनने मात्र से भी लार टपकने लगती है। इसका कारण ग्रंथिस्राव की सहज क्रिया का, अर्थात् संलग्न नसों का रूप, शब्द विशेष की ज्ञानेंद्रिय से एक नवीन अवांतरित संयोग होता है। किंतु अनेक आकृति द्वारा नस संयोग के अवांतरित होने से यह एक अभ्यानुकूलित प्रतिवर्त (कंडीशंड रिफ्लेक्स) का नवीन रूप ले लेती है। "अभ्यानुकूलित" क्रियाओं का भी कोई पूर्वगामी या सहचारी चेतना अनुभव नहीं होता और आचरण भी व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं होता। इसमें चेतन इच्छा की उपेक्षा, तथा सूक्ष्म दैहिक नस संयोग की स्वतंत्रता का ही संकेत प्राप्त होता है। सामाजिक आदर्श व आचरण के सतत् प्रभाव से जहाँ एक व्यक्ति मांसाहार परोसे जाने के समाचार से खिन्न होता है, वहीं दूसरा प्रसन्न होता है। इसी प्रकार पूर्वानुभव वा अभ्यानुकूलन भेद से एक जन विदेशी वस्तु के आभास मात्र से आनंदित और अन्य क्रुद्ध होता है। स्वजातीय सांप्रदायिक व्यक्तियों के साथ सौजन्य तथा मित्रता, परंतु विजातीय वर्ग के प्रति स्वाभाविक वैरभावना की अभ्यानुकूलन का उदाहरण है। आधुनिक युग में सर्वप्रथम इसका महत्व एक रूसी वैज्ञानिक प्रो॰ आईवन पेट्रोविच पैवलॉव ने सुझाया। अमरीका के एक वैज्ञानिक डॉ॰ जॉन बी. वाटसन ने इस सिद्धांत को अत्यंत लोकप्रिय बनाया। सामाजिक आचरण की अनेक गुत्थियों को सुलझाने में इस अभ्यानुकूलन प्रक्रिया का उपयोग होता है।

सहज एवं मूल प्रवृत्ति

जन्म से ही पशुओं में अनेक प्रकार के जटिल कार्य करने की क्षमता होती है। ये कार्य जीवनयापन के निमित्त अत्यंत आवश्यक होते हैं; यथा शिशु का स्तनपान; संतान के हित पशु जाति का व्यवहार; चिड़िया की घोंसला बनाने की प्रवृत्ति; इत्यादि। ऐसी प्रवृत्तियाँ भी जन्मजात प्रकृति का अंग होती हैं। यदि चौपाए भागते-दौड़ते हैं, जो पक्षी उड़ते फिरते हैं। जहाँ मधुमक्खी सुगंधित पुष्पों पर मंडराती है वहाँ छिपकली कीट, फतिंगों का शिकार करती है। ऐसी प्राकृतिक जीवनोपयोगी वृत्तियों को सहज प्रवृत्ति, वृत्ति व्यवहार (इंस्टिंक्ट) अथवा जातिगत प्रकृति भी कह सकते हैं। पशुवर्ग का प्रत्येक आचरण, मूल रूप से उसकी विशेष प्रकृत प्रवृत्ति से विकसित होता है। एक बैल या उसका बछड़ा, घासफूस, पत्ते, तृण आदि से पेट भरता है। परंतु एक उच्च वर्ग का सभ्य आदमी तथा उसके बच्चे विशेष ढंग से पकवान बनवाकर और उचित क्रम से असन वा बर्तन आदि सजाकर ही भोजन करते हैं। सभ्यता के कृत्रिम आवरण में हम प्रकृत मूल प्रवृत्ति की एक धुँधली सी झलक देख सकते हैं। अत: कहते हैं कि मूल प्रवृत्ति के क्षुद्र आधार पर ही उच्चाकांक्षी बृहत् सभ्यता की झाँकी खुलकर खेलती है। एक आंग्ल वैज्ञानिक प्रा. विलियम मैक्डूगल के विचार से प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के तीन अंग होते हैं-

  • एक विशेष उद्दीपक परिस्थिति,
  • एक विशिष्ट रसना अथवा संवेग और
  • एक विशिष्ट प्रतिक्रिया क्रम।

इनमें से संयोगवश उद्दीपक परिस्थिति तथा अनुकूल कार्य के क्रम में अत्यधिक परिवर्तन होता है। सामान्यत: कष्टप्रद अपमानजनक व दु:साध्य परिस्थिति में मनुष्य क्रोधित होकर प्रतिकार करता है। किंतु जहाँ बच्चा खिलौने से रुष्ट होकर उसे तोड़ने का प्रयास करता है, वहाँ एक वयस्क स्वदेशाभिमान के विरुद्ध विचार सुनकर घोर प्रतिकार करता है। जहाँ बच्चे का प्रतिकार लात, धूँसा तथा दाँत आदि का व्यवहार करता है, वहाँ वयस्क का क्रोध अपवाद, सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक हानि तथा अद्भुत भौतिक रासायनिक अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग करता है। किंतु क्रोध का अनुभव तो सब परिस्थितियों में एक समान रहता है। प्रा. मैक्डूगल ने पशु वर्ग के विकास, तथा संवेगों के निश्चित रूप की कसौटी से एक मूल प्रवृत्तियों की सूची भी बनाई है। संवेग अथवा भय, क्रोध आदि को ही मुख्य मानकर तदनुसार मूल प्रवृत्तियों का नाम, स्वभाव आदि का वर्णन किया है। उनकी सूची बहुत लोकप्रिय है और उसकी ख्याति प्राय: अनेक आधुनिक समाजशास्त्रों में मिलती है। परंतु वर्तमानकाल में उसका मान कुछ घट गया है। डॉ॰ वाटसन ने अस्पताल में सद्य:जात शिशुओं की परीक्षा की तो उन्हें केवल क्रोध, भय और काम वृत्तियों का ही तथ्य मिला। एक जापानी वैज्ञानिक डॉ॰ कूओं ने यह पाया है कि सभी बिल्लियाँ न तो चूहों को प्रकृत स्वभाव से मारती हैं और न ही उनकी हत्या करके खाती हैं। उचित सीख से तो बिल्लियों की मूल प्रवृत्ति में इतना अधिक विकार आ सकता है कि चूहेमार जाति की बिल्ली का बच्चा, बड़ा होकर भी चूहे से डरने लगता है। अत: अब ऐसा समझते हैं कि जो वर्णन मैक्डूगल ने किया है वह अत्यधिक सरल है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक स्थिति को सरलतम बनाकर समझने के निमित्त, मानसिक उद्देश्यपूर्ति की उलझन से बचकर, शरीर के सूक्ष्म क्रियाव्यवहार को ही मूल प्रकृति मानने लगे हैं। उन्हें दैहिक तंतुओं के मूल गुण प्रकृति मर्यादित तनाव (Tissue Tension) में ही मूल प्रवृत्ति का विश्वास होता है। जब उद्दीपक वा परिस्थिति विशेष के कारण देह के भिन्न तंतुओं (रेशों) में तनाव बढ़ता है, तो उस तनाव के घटाने के हिव एक मूल वृत्ति सजग हो जाती है और इसकी प्रेरणा से जीव अनेक प्रकार की क्रियाएँ आरंभ करता है। जब उचित कार्य द्वारा उस दैहिक तंतु तनाव में यथेष्ट ढिलाव हो जाता है, तब तत्संबंधित मूल वृत्ति तथा उससे उत्पन्न प्रेरणा भी शांत हो जाती है। दैहिक तंतुओं का एक गुण और है कि विशेष क्रिया करते करते थक जाने पर विश्राम की प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक दैहिक तथा मनोदैहिक क्रिया में न्यूनाधिक थकान तथा विश्राम का धर्म देखा जाता है। अत: निद्रा को यह आहार, भय, मैथुन आदि से सूक्ष्म कूठरस्थ वृत्ति मानते हैं। अर्थात् आधुनिक मत केवल दो प्रकार की मूल प्रवृत्ति मानने का है-

(1) दैहिक तंतु तनाव को घटाने की प्रवृत्ति (या अपनी मर्यादा बनाए रखने की प्रवृति);

(2) दैहिक तंतुओं के थक जाने पर उचित विश्राम की प्रवृत्ति।

प्रेरणा

पशुवर्ग के आचरण को समझने के लिए एकमात्र उपाय, उनकी विभिन्न प्रेरणाओं का ज्ञान प्राप्त करना है। प्रेरणा और प्रवृत्ति के संबंध से कुछ विद्वान् मूल प्रवृत्ति से ही मूल प्रेरणा की उत्पत्ति मानते हैं। किंतु सभ्य जीवन में कृत्रिम वा सीखी हुई मनोवृत्तियों का भी उचित स्थान है। इस युग में धनोपार्जन का कार्य सबको ही करना पड़ता है। धन की इच्छा तो अपने इष्टसाधन का निमित्त मात्र है। वास्तविक प्रेरणा तो अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति, तथा उनके संभोग की मनोवृत्ति से होती है। अत: धनोपार्जन की प्रेरणा एक अर्जित अर्थात् आधुनिक सभ्यता में सीखी हुई प्रेरणा है। धन के अद्वितीय विनिमय गुण के कारण ही धन पाने की इच्छा उत्पन्न होती है। किंतु इस प्रेरणावश सामान्य धन कमाने में उतना ही लिपटा रहता है, जितना आहार विहार की प्रेरणाओं से। यदि किसी बच्चे में साइकिल सवारी की प्रेरणा है, तो वह कभी घुड़सवारी से शांत नहीं होती। दोनों ही कृत्रिम प्रेरणाएँ हैं, किंतु उन्हें निर्मूल कहना मिथ्या है। उक्त बच्चे के लिए साइकिल वैसा ही सबल व्यवहारप्रेरक है, जैसा स्वादिष्ठ भोजन। प्रेरणा को हम सरलता से दो वर्गों में बांट सकते हैं -

  • आकर्षक वा सुखद प्रेरक की प्राप्ति के प्रति और
  • अपकर्षक वा दु:खद प्रेरक से बचने के प्रति।

यदि पहले वर्ग की प्रेरणा को अनुकूल वा धनात्मक (+) कहें, तो दूसरे वर्ग की प्रेरणा को प्रतिकूल वा ऋणात्मक (-) कह सकते हैं। एक में व्यक्ति प्रेरक के लोभ से अग्रसर होता है और दूसरी में व्यक्ति प्रस्तुत प्रेरक से भयभीत होकर पीछे हटता है, या विमुख होकर दूर भागता है, अथवा रक्षा का अन्य उपाय करता है। यदि पहली में प्रवृत्ति है तो दूसरी में निवृत्ति।

सामान्य परिस्थिति न तो शुद्ध सुखस्वरूप और न ही पूर्णतया दु:खरूप होती है। वह प्राय: मिश्रित होती है; यदि कुछ अंशों में वह सुखद होती है तो साथ ही दूसरे अंशों में वह दु:खद भी होती है। जहाँ एक अवयव हमें खींचता है, वहाँ दूसरा अवयव हमें धक्का देता है। जब हम चाकर वृत्ति ग्रहण कर जीविका चलाते हैं, तो हम पराधीनता में भी फँस जाते हैं। अनेक परिस्थितियाँ हमारे सामने न्यूनाधिक उग्र रूप में रागद्वेष का द्वंद्व उपस्थित करती हैं। जब इष्ट की मात्रा अधिक लगती है, तब हम झट उसी ओर प्रवृत्त होते हैं। और जहाँ अनिष्ट की मात्रा अधिक जँचती है, वहाँ हम तुरंत सँभलकर हट जाते हैं। किंतु जब रागद्वेष की उभय प्रेरणाएँ समान मात्रा में दिखाई देती हैं, तब मनुष्य को चिंता होती है और संशयवश उसे विचार तथा परामर्श का आश्रय लेना पड़ता है। कभी दो मनोहर प्रेरणाएँ एक साथ उपस्थित किंतु विरोधी दिशाओं में मनुष्य को खींचती हैं। यह भी कम चिंताजनक द्वंद्व नहीं है। जब बच्चे के सामने यह समस्या आती है कि वह खिलौना ले या मिठाई तो बेचारा दुविधा में फंस कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। कभी-कभी हम दोनों ओर से विपत्तियों के बीच फँस जाते हैं; एक ओर कुआँ है, तो दूसरी ओर खाई। यदि सच कहते हैं तो दंड मिलेगा और यदि झूठ बोलते हैं तो आत्मग्लानि होती है। सिद्धांतरूप से प्रेरणाओं का द्वंद्व प्राय: इन तीनों प्रकार का होता है। किंतु सामान्य परिस्थिति में अनेक धनात्मक और ऋणात्मक अंश एक साथ ओतप्रोत रहते हैं।

प्रेरक परिस्थिति में कभी प्रकृत अंश मुख्य और कभी गौण भी होते हैं। प्रेरक वस्तुओं और परिस्थितियों का मूल्यांकन अधिकतर सामाजिक तथा आर्थिक श्रेष्ठता की माप से होता है। यदि कोई बच्चा खिलौने की अपेक्षा पुस्तक को लेना पसंद करता है, तो उसके मूल्यांकन में सामाजिक शिक्षा तथा वैज्ञानिक अभ्यास और अनुभूति का ही विशेष प्रभाव रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक परिस्थिति के अंग के साथ, न्यूनाधिक स्पष्ट मात्रा में निश्चित सामाजिक श्रेष्ठता के अंश का संयोग रहता है। अत: बहुमुखी परिस्थिति में प्रकृत अंश की अपेक्षा सामाजिक पसंद का ही स्फुट महत्व रहता है। नया कपड़ा न होने से हम बारात के साथ जाना अस्वीकार करते हैं। कभी समाजप्रतिष्ठा के मोह से हम उधार लेकर अधिक दहेज आदि दान करते हैं।

प्रेरणाद्वंद्व से पाला पड़ने पर मनुष्य सर्वथा निष्क्रिय नहीं रह सकता और कुछ न कुछ प्रतिक्रिया करते ही एक नया नियम बन जाता है। संशयात्मक स्थिति में एक ओर पग उठाने से, शेष व्यवहार उसी निर्णय के अनुरूप होने लगता है। प्रत्येक नवयुवक और युवती के लिए गृहस्थ जीवन में प्रवेश की समस्या प्राय: संशयात्मक होती है। किंतु निर्णय होते ही, तदनुकूल क्रियाएँ धारारूप से दूरवर्ती ध्येय की ओर प्रवाहित होती हैं। इसी प्रकार प्रत्येक संशयात्मक परस्पर विरोधी इच्छाओं की समस्या में हम एक को मानकर दूसरी को छोड़ देते हैं। परंतु मान्य इष्टप्राप्ति के प्रयास में त्यक्त इच्छाएँ भी कभी अवसर पाकर सिर उठाती हैं, पश्चात्ताप बढ़ाती हैं और विशेष अवस्था में व्यक्ति की बुद्धि हरने में सफल होकर उसे न्यूनाधिक पथभ्रष्ट भी कर देती हैं।

परिस्थिति के साथ समायोजन (adjustment)

परिस्थिति के साथ समायोजन (adjustment) तो व्यक्ति की सहज प्रकृति है। वह कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल मनोवृत्ति से प्रतिक्रिया करना है। यदि किसी अभियोजन के विधान से व्यक्ति वा समाज को सुख वा प्रगति की आशा होती है, तो उसे उचित, अन्यथा अनुचित कह देते हैं। किंतु तात्कालिक और दीर्घकालीन दृष्टिकोण में अंतर भी हो सकता है। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात को विषपान का मृत्युदंड भी एक ऐसी सामाजिक अभियोजन की घटना थी, जिसपर वर्तमान काल में उभय पक्ष से वादविवाद होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अभियोजन का विधान, नियम अथवा क्रिया तो सरल है। परिस्थिति के मोहक तथा भयानक अंशों के अनुमान से मनुष्य अधिक सुखप्राप्ति के निमित्त कार्य करता है। किंतु परिस्थिति विशेष के प्रतिकूल अवयव के नित्य के संघर्ष से वह या तो उससे उदासीन हो जाता है, या उसके मूल्यांकन का परिवर्तन कर उसको परोक्ष रूप से न्यूनाधिक लाभप्रद मानने लगता है। जब एक शहरी युवक सेना में भरती होता है, तो उसे सारा दिन चुस्त वरदी वा भारी बूट आदि पहनकर रहना प्राय: खलता है। परंतु कुछ ही दिनों में वह उस वेश भूषा को सैनिक मर्यादा का संकेत कहकर, तथा उसमें आत्मसम्मान का आभास देखकर, उससे सलंग्न दु:ख को भी सहने की आदत बना लेता है। इस अभियोजन प्रक्रिया से मनुष्य दुखांश के प्रति उदासीन होता है और समय बीतने से वह उस अनिवार्य दु:ख को भूल भी जाता है, या उसे ही सुखद समझने लगता है।

यह तो दैहिक तंतुओं का भी नियम है कि वे सतत कार्य करते रहने से थक जाते हैं। ज्ञानेंद्रियाँ भी थककर संज्ञाशून्य हो जाती हैं। बहुत मिठाई खाने से मिठास का अनुभव सुखहीन वा फीका पड़ जाता है। धूप जलाने पर उसकी गंध तो कुछ समय तक हम अनुभव करते हैं किंतु थोड़ी देर में वह सुगंध प्राय: लुप्त हो जाती है। यही दशा दैनिक संघर्ष द्वारा परिस्थिति के दु:खद अंश की होती है। कह सकते हैं कि इस चेतनालोप द्वारा हम शोकमुक्त होकर समाज के साथ समायोजित होते हैं। परंतु ये लुप्त प्रेरणाएँ अज्ञात मानस अवस्था में गुप्त रूप से बनी रहती हैं और उचित अवसर पाकर छद्म रूप से ज्ञात मन द्वारा इष्टपूर्ति का प्रयास करती हैं।

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