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वेदी

वैदिक एव स्मार्त कर्म के लिए वेदी या वेदि का निर्माण अत्यावश्यक है। कर्मकांडीय अनुष्ठान के लिए एक निश्चित परिमाणम की शास्त्रानुसार परिष्कृत भूमि वेदी कहलाता है। इस वेदी में यज्ञपात्रों का स्थापन, यज्ञपशु का बंधन एवं अन्यान्य याज्ञिक कर्म अनुष्ठित होते हैं।

श्रौत परंपरा में वेदी के विषय में अनेक विशिष्ट तथ्य मिलते हैं। यथा स्फ्य (खड्ग की आकृति वाला अस्त्र जो खदिर वृक्ष से बनाया जाता है, जिसका प्रमाण १ अरत्नि = २४ अंगुल है; १ अंगुल = इंच) से भूमि खोदने, तृण को हटाने और शुद्ध पांशु लाकर वेदी का निर्माण करने का निर्देश है।

वेदी अनेक आकृतियों की होती है। अग्निहोत्र दर्शपूर्णमास के लिए एक ही वेदी बनाई जाती है, जबकि चातुर्मांस यज्ञांतर्गत वरुणप्रधास में दो वेदियाँ होती हैं। यज्ञकर्मानुसार वेदी का स्थान निश्चित होता है, यथा - आह्वनीय अग्नि के पूर्व में, निरूढ पशुबंध यज्ञ की वेदी बनाई जाती है, जबकि दर्शपूर्णमास में अग्नि के पश्चिम में। वेदी का परिमाण भी यज्ञकर्म के भेद के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है। एक ही यज्ञ की वेदियाँ विभिन्न श्रौतसूत्रों के अनुसार कुछ विभिन्न रूपों से बनाई जाती हैं। आपस्तबानुसारी जहाँ वेदी को गार्हत्याग्नि से कुछ दूर बनाते हैं, वहाँ सत्याषाढानुसारी वेदी को अग्नि के पास ही बनाते हैं।