वीरशैव दर्शन
वीरशैव धर्म, हिन्दुओं के लिंगायत सम्प्रदाय का एक उपसम्प्रदाय है। यह एक शैव परम्परा है जो शैवागमों पर आधारित है। यह दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुई है। ये भारत का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है पर इसके अधिकांश उपासक कर्नाटक में हैं॥ इसके अलावा भारत का दक्षिणी राज्यों, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल ओर तमिलनाडु मे वीरशैव उपासक अधिकतम हैं।
यह एकेश्वरवादी धर्म है। तमिल में इस धर्म को शिवाद्वैत धर्म अथवा 'लिंगायत धर्म' भी कहते हैं। उत्तर भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम 'शैवागम' है।
इतिहास
भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र ) की सिन्धु घाटी सभ्यता में वीरशैव धर्म के कई निशान मिलते हैं । इनमें एक मां पार्वति मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे शिवलिंग की मुद्राएँ / मूर्तियां , शिवलिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के मुतबिक सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं वीरशैव थे और भारत का मूल निवासी माने गए है ।
वीरशैव की सभ्यता को द्राविड सभ्यता कहते हैं । इतिहासकारों के दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में वीरशैव अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये । तभी से वो लोग (उनके विद्वान आचार्य ) अपने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे । पहले चार वेद मे शिव भगवान को परमब्रह्म प्रतिपादन को प्रमाण किया श्रीकर भाष्य ने, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था । उसके बाद जगद्गुरु श्री वागीश पंडिताराध्य शिवाचार्य उपनिषद जैसे ग्रन्थ को प्रस्थान त्रय ग्रन्थ मे शिवोत्तम का प्रतिपाध्य किया गये।
मुख्य सिद्धान्त
वीरशैव धर्म में शिवाद्वैत अथवा षटस्थल सिद्धान्त है जिसे सभी वीरशैव को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक अध्यात्म साधन का मार्ग है। वीरशैव का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहीं है और न ही कोई "पोप"। इसकी अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर वीरशैव मानते हैं, इन सब में विश्वास : धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति--जिसके कई रास्ते हो सकते हैं) और बेशक, ईश्वर। वीरशैव धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। वीरशैव धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वीरशैव धर्म में चार मुख्य साम्प्रदाय हैं :
- १) बसवादि शरण साम्प्रदाय ह,
- २) आचार्य साम्प्रदाय
- ३ नायनार साम्प्रदाय (तमिळ शैव साम्प्रदाय)
- ४) कश्मीरि शैव साम्प्रदाय (जो सबि शिव को परमेश्वर मानते हैं), देवी को परमेश्वरि मानते हैं।
शिव
वीरशैव धर्मग्रन्थ शैवाग्मो (सिद्धांत शिखामणि) के अनुसार शिव ही परम तत्व है वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। शिव एक और सिर्फ़ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। शिव के दो रूप हैं : परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमें अनन्त सत्य, अनत चित और अनन्त आनन्द है। शिव की पूजा लिंगको की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव ॐ (ओम्) शिववाक्य है, जिसे सभी वीरशैव परम पवित्र शब्द मानते हैं। शिव की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है और वीरशैव धर्म की विश्व को अनुपम देन है।
अष्टावर्ण
- १ गुरु : वीरशैव धर्म में गुरु को शिव का प्रति रूप माना जाता है। शिष्य कि उद्धरण के लिये गुरु मु़ख्य है ओर शिष्य को धर्म मार्ग पर चलाते है।
- २ लिंगः शिव प्रति रूप यनि विश्वात्मका साकार रूप हि लिंग है। लिंगमे त्रि प्रकार है
- १) इष्टलिंग २) चरलिंग ३) स्थावरलिंग। इष्टलिंग को धर्म उपासकोने कंठ मे धारण करते है।
- ३ जंगम : वीरशैव धर्म में जंगमो को सबसे उंचा स्थान है ओर इनका कर्तव्य धर्म का प्रचार ओर लोककल्यण धर्म प्रोहित्य
- ४ पादोदक : यनि गुरु कि चरण को धोये पानि अचमन
- ५ प्रसादः शिवलिंगार्पि नविद्य सेवन
- ६ विभूति : यनि भस्म से माथे पर त्रीपुंड धारण करते है वीरशैव
- ७ रुद्राक्षि : शिखा, मस्तक, कंट, गळा, करण, ओर् रुद्राक्षि से मुकुट बनाके धारण करते है वीरशैव
- ८ मंत्र : ओम नमः शिवाय पंचाक्षरि जप
षटस्थल
१ भक्तस्थल २ महेशस्थल ३ प्राणस्थल ४ लिंगस्थल ५ ऐक्यस्थल ६ शरणस्थल
पञ्च आचार
१ भर्त्याचार, २लिंगाचार, ३सदाचार, ४गणचार, ५ शिवाचार
धर्मग्रन्थ
श्रुति वीरशैव धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं। इसके अन्तर्गत अठाविस शैवागम (२८) आते हैं : वातुलागम, परमेश्वरागम श्रुति इसलिये कहे जाते हैं क्योंकि वीरशैव का मानना है कि इन शैवागम को परमात्मा शिव ने रेणुकाचार्यादि पंचाचार्य को सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। शैवागम को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरू द्वारा शिष्यों को दिया जाता था। हर शैवागम में चार भाग हैं। इनके सम्बन्ध के बारे में विवेचना की गयी है। शैवागम ही वीरशैव धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं और अगर अन्य शैव साहित्य और पूराणो में कोई विवाद होता है तो शैवागमही मान्य होगी। शैवागम को छोड़कर अन्य सभी वीरशैव धर्मग्रन्थ प्रस्थान त्र्य कहे जाते हैं, क्योंकि इनमें वो कहानियाँ हैं जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा। सभी प्रस्थान त्र्य ग्रन्थ शैवागम की प्रशंसा करते हैं। इनको शैवागम से निचला स्तर प्राप्त है, पर ये ज़्यादा आसान हैं और अधिकांश वीरशैवओं द्वारा पढ़े जाते हैं (बहुत ही कम वीरशैव शैवागम पढ़े होते हैं)। प्रमुख प्रस्थान त्र्य हैं:- आचार्यो द्वारा रचित शिद्धंत शिखाणि, वीरशैव पूराण, शिवप्रकाशम, लिंगपूराण् और शिवलिलामर्त, शिव गीता, वचन सहित्य वर्षभेंद्र विजय और प्रभुलिंगलिला, पेरिय पूराण आदि। य सबि संस्क्रत, कन्नड, मराठि, तमिल, ओर हिन्दि मे है।
तीर्थ एवं तीर्थयात्रा
भारत देश बड़ा विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जबतक कि उसे देखें नहीं। इस और वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले जगदगुरु रेणुकाचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, पाच पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में केदारनाथ के निकट वैराग्य्पीठ ऊकिमठ, दक्षिण में गोकर्ण के निकट रंभापूरि पीठ, दक्षिणि पूर्व में श्रीशैलमे में सूर्य सिंहासन पीठ, मध्य भारत उज्जयन में सद्धर्मपिठ ओर काशि मे विश्वरध्यपिठ। तीर्थों के प्रति हमारे वीरशैव यों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए रेणुकाचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके वीरशैव यों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये पंच तीर्थ पंच पिठ कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन पंच तीर्थ की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।