वि-उपनिवेशीकरण
व्युपनिवेशीकरण या व्यौपनिवेशीकरण, किसी उपनिवेश को समाप्त करने के सम्बन्ध में प्रयुक्त शब्द है जहाँ एक राष्ट्र का निर्माण होता है जो स्वतन्त्र और सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित होता है।[1] द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ में श्रमिक संघों एवं नेताओं ने युद्ध का विरोध किया किन्तु 1941 के रूस के मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में सम्मानित हो जाने के उपरान्त उनका रूख परिवर्तित हो गया तथा साम्यवादियों ने इसे लोगों का युद्ध कह कर इसका समर्थन प्रारम्भ कर दिया। साम्यवादियों ने भारत छोड़ो आन्दोलन से भी स्वयं को पृथक कर लिया तथा शान्तिपूर्ण औद्योगिक नीति की वकालत प्रारम्भ कर दी। 1945 में मुम्बई और कोलकाता के बन्दरगाह मजदूरों ने इण्डोनेशिया भेजे जाने वाली रसद को जहाजों पर लादने से इंकार कर दिया 1946 में शादी नौसेना में विद्रोह होने पर मजदूरों ने इसका समर्थन में विद्रोह एवं हड़ताले कीI उपनिवेशिक शासन के अन्तिम वर्ष भी मजदूरों ने पोस्ट रेलवे एवं अन्य प्रतिष्ठानों में आयोजित हड़ताल में भागीदारी निभाई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोपीय साम्राज्यवाद के विध्वंस की गति को तेज करने में कई कारणों ने मदद की। वस्तुतः विश्व युद्ध के पश्चात् तमाम नवोदित राष्ट्र अस्तित्व में आते गए। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में गुलामी को समाप्त कर एक नए युग का आरम्भ किया। साम्राज्यवादी राष्ट्रों की पकड़ से इन राष्ट्रों की स्वतंत्रता की प्रक्रिया को व्युपनिवेशीकरण का नाम दिया। औपनिवेशिक मुक्ति के पश्चात् नव स्वतन्त्र राष्ट्रों ने गुटीय राजनीति को छोड़कर अपनी स्वतंत्र पहचान कायम की। दूसरे शब्दों में दो विश्व में बँटे गुट से अपने को अलग रखा। इसी कारण नवोदित राष्ट्रों को 'तृतीय विश्व' भी कहा गया। इस दृष्टि से उपनिवेशवाद उन्मूलन प्रक्रिया ने तृतीय विश्व के उदय में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई।
उपनिवेशवाद की समाप्ति के कारण
साम्राज्यवाद का कमजोर होना
द्वितीय विश्व युद्ध ने फासीवाद का उन्मूलन करने के साथ-साथ यूरोप के साम्राज्यवादी देशों को भी कमजोर कर दिया। इनमें से कई देश स्वयं ही फासीवादी अतिक्रमण का शिकार हो गये। उदाहरण के लिए यूरोप के तीन साम्राज्यवादी देश फ्रांस, बेल्जियम और हॉलैण्ड स्वयं ही जर्मनी के कब्जे में चले गये। युद्ध के दौरान उनकी सैनिक शक्ति और अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। सबसे बड़े साम्राज्य के स्वामी ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था भी युद्ध के कारण जर्जर हो चुकी थी। इनमें से कोई भी देश अब बड़ी शक्ति नहीं रह गया था। उनके स्थान पर अब संयुक्त राज्य और सोवियत संघ बड़ी शक्तियां थी।
साम्यवादी दलों के नेतृत्व में पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी सरकारों की स्थापना होने से भी यूरोप के साम्राज्यवादी देशों की शक्ति क्षीण हुई। अब वे लंबी औपनिवेशिक लड़ाई लड़ते रहने की स्थिति में नहीं थे। जिन देशों ने लम्बी औपनिवेशिक लड़ाईयाँ लड़ी उनके सामने विकट घरेलू समस्याएँ खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए हिन्द-चीन और अल्जीरिया में फ्रांस की औपनिवेशिक लड़ाईयों ने देश में गम्भीर संकट उत्पन्न कर दिये। पुर्तगाल द्वारा अफ्रीका में लड़ी गई और औपनिवेशिक लड़ाईयाँ पुर्तगाली तानाशाही के पतन का प्रमुख कारण सिद्ध हुए।
बदले हुए राजनीतिक वातावरण ने अब साम्राज्यवाद को श्रेष्ठ सभ्यता की निशानी नहीं माना जाता था। इसके विपरीत, अब हर जगह, यहां तक भी स्वयं औपनिवेशवादी देशों में भी, साम्राज्यवाद को पशुता अन्याय और शोषण का पर्याय माना जाने लगा। 1945 के बाद विश्व में आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सम्प्रभुता और समानता तथा राष्ट्रों के बीच सहयोग जैसे विचारों का बोलबाला कायम हुआ। यहाँ तक स्वयं साम्राज्यवादी देशों में भी औपनिवेशिक शासन कायम रखने के प्रयत्न लोकप्रिय नहीं रहे। अधिकांश फ्रांसीसी जनता ने फ्रांस द्वारा लड़ी गई औपनिवेशिक लड़ाईयों का विरोध किया। 1956 में जब ब्रिटेन में फ्रांस और इजरायल के साथ मिलकर मिस्र पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन में व्यापक स्तर पर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुये।
बहुत से विद्वानों का मत है कि उपनिवेशों पर कब्जा बनाये रखने की लागत का भार उठाना उपनिवेशवादी देशों के लिए कठिन होता जा रहा था।
साम्राज्यवाद-विरोधी आन्दोलनों की एकजुटता
राष्ट्रवादी तत्व अपने देश को विदेशी दासता से मुक्त करा कर वहाँ एक स्वदेशी सरकार की स्थापना हेतु संघर्ष करने लगे थे। उपनिवेशों के संसाधनों से शासक देश सुख और समृद्धि प्राप्त कर रहे थे। वहीं उपनिवेशों की जनता गरीबी और दयनीय दशा में जीने के लिए अभिशप्त थी। यही स्थिति राष्ट्रवादियों को स्वतन्त्र होने की प्रेरणा दे रही थी।
विभिन्न देशों के स्वतन्त्रता आन्दोलन के बीच एकजुटता बढ़ने लगी थी। प्रत्येक देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन ने दूसरे देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन को समर्थन दिया। उदाहरण के लिए 1946 में इण्डोनेशिया में डच शासन और हिन्द-चीन में फ्रांसीसी शासन को पुनः प्रतिष्ठित करने में सहायता देने के लिए भारत की ब्रिटिश हुकूमत उन देशों में भारतीय सैनिकों को भेज रही थी, तो ऐसे में भारत में इस कार्रवाई के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों ने इण्डोनेशिया और हिन्द चीन की स्वतन्त्रता के प्रति अपना जोरदार समर्थन व्यक्त किया। जैसे-जैसे एक के बाद एक देश को स्वतन्त्रता मिलती गई वैसे-वैसे इस एकजुटता की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती गई। नव स्वतन्त्र देशों ने राष्ट्रमण्डल के मंच का उससे भी कहीं अधिक संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच का उन देशों के हितों को समर्थन देने के लिए प्रयोग किया, जो अब भी विदेशी शासन के अधीन थे। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में उपनिवेशवाद विरोध तथा साम्राज्यवाद विरोध शामिल थे। इसने उपनिवेशों में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलनों को समर्थन देकर अपने लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास किया।
संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका
संयुक्त राष्ट्र संघ साम्राज्यवाद को समाप्त करने में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में सामने आया। संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र और माँग अधिकारों की विश्वजनित घोषणा अन्तरराष्ट्रीय समुदाय की विश्व व्यापी आकांक्षाओं का प्रतीक है। अपनी स्थापना के समय से ही संयुक्त राष्ट्र ने उपनिवेशों के मामलों पर गम्भीर ध्यान दिया। जैसे-जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल होने वाले पूर्व उपनिवेशी राष्ट्रों की संख्या बढ़ी वैसे-वैसे उपनिवेशवाद को समाप्त करने के प्रश्न पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा और स्वतन्त्रता प्राप्त करने में उपनिवेशों का मार्ग प्रशस्त करने में उत्तरोत्तर अधिक सक्रिय भूमिका निभाने लगा।
द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव
युद्ध से पूर्व उपनिवेशी जनता यूरोपीय सेना को अजेय मानती थी किन्तु युद्ध के आरम्भिक चरण में जापानी सेनाओं की सफलता ने इस मिथक को चकानाचूर कर दिया। जापनियों ने मलाया, सिंगापुर, बर्मा, इंडो-चीन, ईस्टइंडीज आदि क्षेत्रों पर कब्जा किया। हालांकि अन्त में जापानियों को हरा दिया गया किन्तु इस क्षेत्रों के राष्ट्रवादी समूहों ने छापामार युद्ध-नीति का प्रयोग बाद में यूरोपीय शक्तियों के विरूद्ध चलाये गये स्वतन्त्रता आन्दोलन में किया।
विश्व युद्ध में शामिल एशियाई व अफ्रीकी लोग सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक बन चुके थे। युद्ध के दौरान घोषित 1941 के अटलाण्टिक चार्टर में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता अस्तित्व तथा आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दी गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका यूरोप अब इतना सक्षम नहीं था कि अपने साम्राज्यों में चल रहे राष्ट्रीय अभियानों को बलपूर्वक दबा सके। यही वजह है कि ब्रिटिश शासकों में इस तत्व को स्वीकार करते हुए भारत को स्वतन्त्रता प्रदान कर दी।
युद्ध के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने यह पूर्णतः स्पष्ट कर दिया था कि अटलांटिक चार्टर मात्र जर्मनी द्वारा उत्पीडि़त लोगों पर ही नहीं बल्कि विश्व के सभी लोगों पर लागू होता है। अमेरिका का मानना था कि यदि उपनिवेशों की स्वतन्त्रता मेें विलम्ब किया गया तो अफ्रीका व एशिया के व्यापक भू-भाग में साम्यवाद का प्रसार हो सकता था। दूसरी बात कि अमेरिका नवस्वतन्त्र देशाें को एक स्वतन्त्र बाजार के रूप में देखता था जहां वह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को भी स्थापित कर सकता था।
भारत की भूमिका
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् पहले स्वतन्त्रता प्राप्त करने वाले देशों में एक भारत भी था। भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन अफ्रीका और एशिया के स्वतन्त्रता आन्दोलनों के लिए प्रेरण स्रोत बन गया था। आजादी से पहले ही एशियाई संबंध सम्मेलन का संगठन करके भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता बहुत से एशियाई देशों को एक मंच पर इकट्ठा कर चुके थे। यह सम्मेलन इस बात का प्रतीक था कि विश्व पटल पर एशिया का एक नई शक्ति के रूप में उदय हुआ है। स्वतन्त्र भारत अपनी स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाले सभी देशों के लिए शक्ति का स्रोत बन गया।
सन्दर्भ
- ↑ तरुण कानित बोस (अनुवादक: पारुल अरोड़ा). "संयुक्त राष्ट्र : राजनीतिक शकितयाँ एवं दुर्बलताएँ". मूल से 18 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १८ जनवरी २०१५.