विश्व शांति
विश्व शान्ति पृथ्वी पर सभी लोगों और राष्ट्रों के भीतर और उनके बीच शान्ति की एक आदर्श स्थिति की अवधारणा है। विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, दर्शन और संगठनों की अलग-अलग अवधारणाएँ हैं कि ऐसा राज्य कैसे आएगा।
विभिन्न धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष संगठनों ने मानवाधिकारों, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, अभियान्त्रिकी, चिकित्सा, या राजनय को सम्बोधित करके विश्व शान्ति प्राप्त करने का घोषित उद्देश्य सभी प्रकार की लड़ाई के अन्त के रूप में उपयोग किया है। 1945 से, संयुक्त राष्ट्र और इसकी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य (चीन, फ़्रान्स, रूस, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका) युद्ध या युद्ध की घोषणा के बिना संघर्षों को हल करने के उद्देश्य से काम कर रहे हैं। [1]बहरहाल, तब से राष्ट्रों ने कई सैन्य संघर्षों में प्रवेश किया है।
संभावना
जबकि विश्व शांति सैद्धांतिक रूप से संभव है, कुछ का मानना है कि मानव प्रकृति स्वाभाविक तौर पर इसे रोकती है।[2] यह विश्वास इस विचार से उपजा है कि मनुष्य प्राकृतिक रूप से हिंसक है या कुछ परिस्थितियों में तर्कसंगत कारक हिंसक कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे। [3]
तथापि दूसरों का मानना है कि युद्ध मानव प्रकृति का एक सहज हिस्सा नहीं हैं और यह मिथक वास्तव में लोगों को विश्व शांति के लिए प्रेरित होने से रोकता है।[4]
विश्व शान्ति के सिद्धान्त
विश्व शान्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए कई सिद्धान्तों का प्रस्ताव किया गया है। इनमें से कई नीचे सूचीबद्ध हैं। विश्व शांति हासिल की जा सकती है, जब संसाधनों को लेकर संघर्ष नहीं हो। उदाहरण के लिए, तेल एक ऐसा ही संसाधन है और तेल की आपूर्ति को लेकर संघर्ष जाना पहचाना है। इसलिए, पुन: प्रयोज्य ईंधन स्रोत का उपयोग करने वाली प्रौद्योगिकी विकसित करना विश्व शांति हासिल करने का एक तरीका हो सकता है[5]।[]
विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएँ
दावा किया जाता है कि कभी-कभी विश्व शान्ति किसी खास राजनीतिक विचारधारा का एक अपरिहार्य परिणाम होती है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के मुताबिक "लोकतंत्र का प्रयाण (मार्च) विश्व शान्ति का नेतृत्व करेगा."[6] एक मार्क्सवादी विचारक लियोन त्रोत्स्की का मानना है कि विश्व क्रान्ति कम्युनिस्ट विश्व शान्ति का नेतृत्व करेगी। [7]
लोकतान्त्रिक शान्ति सिद्धान्त
विवादास्पद डेमोक्रेटिक शान्ति सिद्धान्त के समर्थकों का दावा है कि इस बात के मजबूत अनुभवजन्य साक्ष्य मौजूद हैं कि लोकतान्त्रिक देश कभी नहीं या मुश्किल से ही एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं।[8] (केवल अपवाद हैं कोड युद्ध, टर्बोट युद्ध और ऑपरेशन फोर्क). जैक लेवी (1988) बार-बार- जोर दे कर यह सिद्धांत बताते हैं कि "चाहे कुछ भी हो, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में हमें एक व्यवहारिक कानून की आवश्यकता है".
औद्योगिक क्रान्ति के बाद से लोकतान्त्रिक बनने वाले देशों में वृद्धि हो रही है। एक विश्व शान्ति इस प्रकार संभव है, अगर यह रुझान जारी रहे और अगर लोकतान्त्रिक शान्ति सिद्धान्त सही हो।
हालांकि इस सिद्धान्त के कई संभव अपवाद है।
पूँजीवादी शान्ति सिद्धान्त
अपनी "कैपिटलिज्म पीस थ्योरी" पुस्तक में आयन रैंड मानती है कि इतिहास के बड़े युद्ध उस समय के अपेक्षाकृत अधिक नियंत्रित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों द्वारा मुक्त (अर्थव्यवस्थाओं) के खिलाफ लड़े गये और उस पूँजीवाद ने मानव जाति को इतिहास में सबसे लम्बे समय तक शान्ति प्रदान की और जिस अवधि में पूरी सभ्य दुनिया की भागीदारी में 1815 में नेपोलियन युद्ध के अन्त से 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने तक युद्ध नहीं हुए.
यह याद रखा जाना चाहिए कि उन्नीसवीं सदी की राजनीतिक प्रणालियाँ शुद्ध पूँजीवादी नहीं थीं, बल्कि मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं वाली थीं। हालाँकि पूँजीवाद के तत्व का प्रभुत्व था, पर यह पूँजीवाद की एक सदी के उतने ही करीब था, जितना मानव जाति के आने तक था। लेकिन पूरी उन्नीसवीं सदी के दौरान राज्यवाद के तत्व फलते-फूलते रहे और 1914 में पूरी दुनिया में इसके विस्फोट के समय तक शामिल सरकारों पर राज्यवाद की नीतियों का बोलबाला रहा। [9]
हालाँकि, इस सिद्धान्त ने यूरोप के बाहर के देशों, साथ ही साथ एकीकरण के लिए जर्मनी और इटली में हुए युद्धों, फ्रांको-पर्सियन युद्ध और यूरोप के अन्य संघर्षों के खिलाफ पश्चिमी देशों द्वारा छेड़े गये क्रूर औपनिवेशिक युद्धों की अनदेखी की। यह युद्ध के अभाव को शान्ति के पैमाने के रूप में पेश करता है, जब वास्तविक रूप में वर्ग संघर्ष मौजूद रहा।
कोब्डेनिज्म
कोब्डेनिज्म के कुछ समर्थकों [कौन?] का दावा है कि टैरिफ हटाने और अन्तरराष्ट्रीय मुक्त व्यापार शुरू करने से युद्धों असंभव हो जायेंगे, क्योंकि मुक्त व्यापार एक राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनने से रोकता है, जो लम्बे युद्धों की एक आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक देश आग्नेयास्त्रों का उत्पादन और दूसरा गोला-बारूद का उत्पादन करता है, तो दोनों एक-दूसरे से ही लड़ेंगे, क्योंकि पहला गोला-बारूद हासिल करने में असमर्थ होगा और दूसरा हथियार हासिल करने में।
आलोचकों [कौन?] का तर्क है कि मुक्त व्यापार एक देश को युद्ध के मामले में अस्थायी रूप से आत्मनिर्भर बनने की आपात योजना बनाने से नहीं रोक सकता या एक देश साधारण तौर पर अपनी जरूरत एक दूसरे देश से पूरी कर सकता है। इसका एक इस अच्छा उदाहरण पहला विश्व युद्ध है। ब्रिटेन और जर्मनी दोनों युद्ध के दौरान आंशिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में कामयाब हो गये। यह विशेष रूप से इस तथ्य की वजह से अहम था कि जर्मनी के पास एक युद्ध अर्थव्यवस्था बनाने की कोई योजना नहीं थी।
अधिक आम तौर पर, इसके अन्य समर्थकों [कौन?] का तर्क है कि मुक्त व्यापार, भले ही युद्ध को असंभव नहीं बनायें, पर वह युद्ध करा सकता है और युद्धों के कारण व्यापार पर प्रतिबन्ध कई विभिन्न देशों में उत्पादन, अनुसन्धान और बिक्री में लगी अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए महँगे साबित हो सकते हैं। इस तरह, एक शक्तिशाली लॉबी- जो केवल राष्ट्रीय कम्पनियों के कारण उपस्थित नहीं होती तो वह युद्ध के विरुद्ध तर्क दे सकती है।
द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश
द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश (कभी-कभी इसे एमएडी (MAD) कहा जाता है) सैन्य रणनीति का एक सिद्धांत है, जिसमें दो प्रतिद्वंद्वी पक्षों द्वारा पूर्ण पैमाने पर नाभिकीय हथियारों के उपयोग से हमलावर और रक्षक दोनो के विनाश का प्रभावी परिणाम निकलता है।[10] शीत युद्ध के दौरान द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश की नीति के समर्थकों [कौन?]की वजह से युद्ध की घातकता इस कदर बढ़ी कि किसी भी पक्ष के लिए किसी शुद्ध लाभ की संभावना नहीं बनी और इस तरह युद्ध व्यर्थ साबित हुए.
वैश्वीकरण
कुछ लोग [कौन?] राष्ट्रीय राजनीति में एक प्रवृत्ति देखते हैं, जिसके तहत नगर-राज्य और राष्ट्र-राज्य एकीकृत हो गये और सुझाव दिया कि अन्तरराष्ट्रीय मंच इसका पालन करेगा। चीन, इटली, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, भारत और ब्रिटेन जैसे कई देश एकीकृत हो गये, जबकि यूरोपीय यूनियन ने बाद में इसका अनुपालन किया और इससे संकेत मिलता है कि और अधिक भूमण्डलीकरण एक एकीकृत विश्व व्यवस्था बनाने में मदद करेगा।
पृथकतावाद और गैर-हस्तक्षेपवाद
पृथकतावाद और गैर-हस्तक्षेपवाद के समर्थकों [कौन?] का दावा है कि कई राष्ट्रों से बनी एक दुनिया उस समय तक शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के साथ रह सकती है, जब तक वह घरेलू मामलों की तरफ मजबूती से ध्यान केंद्रित रखे और दूसरे देशों पर अपनी इच्छा थोपने की कोशिश नहीं करे.
गैर-हस्तक्षेपवाद के सम्बन्ध में पृथकतावाद को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। गैर-हस्तक्षेपवाद की तरह पृथकतावाद दूसरे राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचने की सलाह देता है, लेकिन संरक्षणवाद और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार और पर्यटन पर प्रतिबन्ध पर जोर देता है। दूसरी तरफ गैर-हस्तक्षेपवाद मुक्त व्यापार (कोब्डेनिज्म की तरह) के राजनीतिक व सैन्य अ-हस्तक्षेप के संयोजन की वकालत करता है।[11][]
जैसे राष्ट्र शायद अतीत में पृथकतावादी नीतियों की स्थापना के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं। जापानी ईदो, तोकुगावा ने एक पृथकतावादी अवधि ईदो अवधि शुरू की, जिसके तहत जापान ने पूरी दुनिया से अपने को अलग कर दिया। यह एक प्रसिद्ध अलगाव अवधि थी और कई क्षेत्रों में अच्छी तरह प्रलेखित की गई।[12]जापान []
स्व-संगठित शान्ति0
विश्व शांति को स्थानीय, स्व-निर्धारित व्यवहार के एक परिणाम के रूप में दर्शाया[13] गया है, जो शक्ति के संस्थानीकरण को रोकता है और हिंसा को बढ़ावा देता है। समाधान बहुत कुछ सहमति वाले एजेंडे या उच्च प्राधिकार, चाहें वह दैवीय हो या राजनीतिक, में निवेश पर उतना आधारित नहीं है, जितना आपसी सहमित वाले तंत्रों का स्व-संगठित नेटवर्क, जिसका परिणाम एक व्यवहार्य राजनीतिक-आर्थिक सामाजिक तानेबाने के रूप में निकलता है। अभिसरण के उत्प्रेरण के लिए प्रमुख तकनीक विचारों का प्रयोग है, जिसे बैककास्टिंग कहते है और इससे कोई भागीदारी में सक्षम हो सकता है, भले ही वह किसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, धार्मिक सिद्धान्त, राजनीतिक संबद्धता या जनसांख्यिकीय उम्र का हो। समान सहयोगी तंत्र विकिपीडिया सहित खुली स्रोत वाली परियोजनाओं के आसपास इण्टरनेट के जरिये उभर रहे हैं और सामाजिक मीडिया का विकास हो रहा है।
आर्थिक मानदण्डों का सिद्धान्त
आर्थिक मानदण्डों का सिद्धान्त आर्थिक स्थितियों को प्रशासन के संस्थानों और संघर्ष से संबद्ध करता है, व्यक्तिगत ग्राहकवर्गीय अर्थव्यवस्थाओं को अवैयक्तिक बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्थाओ से अलग करता है और बाद वाली अर्थव्यवस्थाओं को राष्ट्रों के भीतर और उनके बीच स्थायी शांति की पहचान देता है।[14][15]
हालांकि मानव इतिहास के ज्यादातर समाज व्यक्तिगत सम्बन्धों पर आधारित है: समूहों के व्यक्तिं एक दूसरे को जानते हैं और और पक्ष का विनिमय करते हैं। आज समूहों के कम आय वाले समाज पदानुक्रम समूह के नेताओं के बीच व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर धन वितरित करते हैं, जो अक्सर ग्राहकवर्गवाद और भ्रष्टाचार के साथ जुड़ी हुई एक प्रक्रिया मानी जाती है। माइकल मोउसेयू का तर्क है कि इस प्रकार की सामाजिक-अर्थव्यवस्था में संघर्ष हमेशा से मौजूद रहा है, भले ही वह प्रच्छन्न या खुला रहा हो, क्योंकि व्यक्ति शारीरिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए अपने समूहों पर निर्भर रहते हैं और इस तरह अपने राज्यों के बजाय अपने समूहों के प्रति वफादार रहते है और क्योंकि समूह राज्य के खजाने तक पहुँच के लिए सतत संघर्ष की स्थिति में होते हैं। आबद्ध समझदारी की प्रक्रियाओं के माध्यम से लोग मजबूत सामूहिक पहचान के प्रति अभ्यस्त होते हैं और बाहरी ताकतों के डर व मनोवैज्ञानिक पूर्वानुकूलता के कारण उसी दिशा में बह जाते हैं, जिससे सांप्रदायिक हिंसा, नरसंहार और आतंकवाद संभव हो पाता है।[16]
बाजारोन्मुख सामाजिक अर्थव्यवस्थाएँ व्यक्तिगत सम्बन्धों से नहीं, बाजार के अवैयक्तिक बल से एकीकृत होती है, जहाँ ज्यादातर व्यक्ति राज्य द्वारा लागू अनुबन्धों के तहत अजनबियों पर विश्वास करने के लिए आर्थिक रूप से निर्भर होते हैं। यह राज्य के प्रति वफादारी पैदा करती है, जो कानून का शासन और अनुबन्ध निष्पक्ष और विश्वस्त रूप से लागू करती है और अनुबन्ध करने की स्वतंत्रता में समान संरक्षण प्रदान करती है, जिसे उदारवादी लोकतन्त्र कहा जाता है। युद्ध बाजार एकीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के भीतर और उनके बीच नहीं हो सकते, क्योंकि युद्ध में एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाने की आवश्यकता होती है और इस तरह की अर्थव्यवस्थाओं में हर कोई तभी आर्थिक रूप से बेहतर रह सकता है, जब बाजार में दूसरे भी बेहतर रहें, बदतर नहीं। लड़ने के बजाय, बाजारोन्मुख सामाजिक अर्थव्यवस्थाओं में नागरिक हर किसी के अधिकारों और कल्याण के बारे में गहरी चिन्ता करते हैं, इसलिए वे घर में आर्थिक विकास और विदेश में आर्थिक सहयोग और मानवाधिकारों की माँग करते हैं। वास्तव में, बाजारोन्मुख सामाजिक अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में वैश्विक मुद्दों[16] पर सहमति होती है और उन दोनों के बीच किसी विवाद में एक भी मौत नहीं हुई है।[17]
आर्थिक मानदण्डों के सिद्धान्त को शास्त्रीय उदार सिद्धांत के रूप में भ्रमित नहीं होने देना चाहिए। बाद वाला मानता है कि बाजार प्राकृतिक होते हैं और मुक्त बाजार धन को बढ़ावा देता है।[18] इसके विपरीत, आर्थिक मानदम्डों का सिद्धान्त बताता है कि कैसे बाजार-अनुबन्ध एक गहन अध्ययन वाला तरीका है और राज्य का खर्च, विनियमन और पुनर्वितरण यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि हर कोई "सामाजिक बाजार" अर्थव्यवस्था में भागीदारी कर सके, जो हर किसी के हित में है।
विश्व शांति के धार्मिक विचार
कई धर्मों और धार्मिक नेताओं हिंसा खत्म करने और/या विश्व शांति की इच्छा व्यक्त की है।
नास्तिकता
आधुनिक युग विज्ञान का युग है। अतः समय के साथ-साथ धर्मों और ईश्वर की प्रासंगिकता समाप्त होती जा रही है । नास्तिकता धर्मों के विरुद्ध एक अच्छा विकल्प के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। नास्तिक विचारधारा के अनुसार विश्व में अशांति व अराजकता का मूल कारण धर्म व ईश्वर की अवधारणा है, इसने मानव सभ्यता को समय समय पर विभक्त किया है। कोई भी धर्म अन्य धर्म से एकमत नहीं है जो आगे चलकर धार्मिक टकराव व दंगों का कारण बनता है। देखा जाए तो धर्मों ने मानव को पृथक करने का कार्यं किया है। जातिवाद, नस्लवाद, रंगभेद व स्त्री दुर्दशा आदि सभी समस्याएं धर्मों से ही जन्म लेकर वर्तमान स्वरूप में पहुंची है। धर्मों में इन सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के स्थान पर इन पर्दा डालने का कार्य किया जाता है, तथा इन कुप्रथाओं को उचित ठहराने के लिए उल्टे सीधे तर्क दिए जाते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो नास्तिक विचारधारा के अनुसार धर्म का प्रभाव समाज से निस्तेज हो जाना चाहिए, क्योंकि जहाँ धर्म और ईश्वर का विषय आ जाता है वहाँ लोग तर्क की परिभाषा भूल जाते हैं! विश्व शांति को कायम रखने के लिए नास्तिक विचारधारा को एक विकल्प माना जा सकता है, यदि इसमें मौलिक नैतिक तत्वों व गुणों से कोई छेड़छाड़ ना की जाए ।
बहाई धर्म
विश्व शांति के लक्ष्य के विशिष्ट संबंध में, बहाई विश्वास के बहाउल्ला ने स्थाई शांति की स्थापना के लिए पूरी दुनिया की ओर से समर्थित सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था का सुझाव देता है। यूनिवर्सल हाउस ऑफ जस्टिश ले द प्रोमिज ऑफ वर्ल्ड पीस में इस प्रक्रिया के बारे में लिखा है।[19] ऐसा करिबन हर धर्म में कहा गया है।
बौद्ध धर्म
कई बौद्ध धर्मावलंबी मानते हैं कि विश्व शांति तभी हो सकती है, जब हम अपने मन के भीतर पहले शांति स्थापित करें। बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ गौतम ने कहा, "शांति भीतर से आती है। इसे इसके बिना न तलाशें."[20] विचार यह है कि गुस्सा और मन की अन्य नकारात्मक अवस्थाएं युद्ध और लड़ाई के कारण हैं। बौद्धों का विश्वास है कि लोग केवल तभी शांति और सद्भाव के साथ जी सकते हैं, जब हम अपने मन से क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाओं को त्याग दें और प्यार और करुणा जैसी सकारात्मक भावनाएं पैदा करें।
ईसाई धर्म
बुनियादी ईसाई आदर्श सद्भाव और विश्वास को दूसरों से साझा करने के जरिये शांति को बढ़ावा देता है, साथ ही साथ उन्हें भी माफ कर देने, जो शांति भंग करने की कोशिश करते हैं। नीचे दो चुने हुए उपदेश दिये जा रहे हैं:
"लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं, अपने दुश्मनों से प्यार करो, जो तुम्हें शाप देते हैं, उन्हें आशीर्वाद दो, उनका भला करो, जो तुमसे नफरत करते हैं और उनके लिए प्रार्थना करो, जो तुमसे द्वेषपूर्ण सलूक करते हैं और उत्पीड़न करते हैं। क्योंकि वे तुम्हारे परम पिता की संतान हो सकते हैं, जो स्वर्ग में है: क्योंकि उसने जो सूर्य बनाया है, वह दुष्ट और भला दोनों पर उगता है और उचित और अनुचित दोनों पर वर्षा बरसाता है।" मैथ्यू 05:44 - 45
"मैं तुम्हें एक नया आदेश देता हूं, कि तुम एक दूसरे को प्यार करो, जैसा कि मैंने तुमसे प्यार किया है, क्योंकि तुम एक दूसरे से प्यार करते हो. इसके द्वारा सभी लोग जानेंगे कि तुम सब मेरे शिष्य हो, अगर तुम्हें दूसरे के लिए प्यार है।" जॉन 13:34-35
जॉन 14:06 में यीशु मसीह के शब्दों के कारण, जो कहते हैं, "मैं मार्ग हूं, सत्य हूं और जीवन हूं. और मेरे माध्यम के बिना कोई भी परम पिता के पास नहीं आता . कई ईसाई यीशु मसीह के अलावा ईश्वर तक पहुंचने का कोई अन्य तरीका स्वीकार करने में असमर्थ हैं। इसलिए, ईसाई प्यार का एक सच्चा कार्य होगा, इस बात का प्रचार करना कि केवल एक भगवान है और एक ही परित्राता है। ईसाइयों को अपने शत्रुओं से प्यार करने और उपदेशों के सुसमाचार प्रचारित करने को कहा जाता है।
सदी से पहले ईश्वर के प्राकट्य वाले विचार के अनुयाइयों का विश्वास है कि विश्व शांति यीशू मसीह के दूसरी बार अवतरित होने और महाकष्ट के बाद मसीह के 1000 साल का शासन शुरू होने तक विश्व शांति प्राप्त नहीं की जा सकती. इसलिए, ईसाइयों को केवल ईसा मसीह के माध्यम से मुक्ति का संदेश फैलाना चाहिए, जबकि उनकी परलोक विद्या बताती है कि ईसा के हजार साल का शासन शुरू होने तक ईसा विरोधियों के शासन के सात सालों की महाकष्ट की अवधि के दौरान युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं में काफी वृद्धि होगी.
हिंदू धर्म
परंपरागत रूप से हिंदू धर्म में वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा गृहीत की गई है,[21] जिसका अनुवाद है, "पूरा विश्व एक परिवार है।" इस कथन का सार यह बताता है कि केवल कलुषित मन ही द्विभाजन और विभेद देखता है। हम जितना अधिक ज्ञान की तलाश करेंगें, उतना ही समावेशी होंगे और हमें सांसारिक भ्रम या माया से अपने भीतर की आत्मा को मुक्त करना होगा। हिंदुओं के मुताबिक ऐसा सोचा जाता है[किसके द्वारा?] कि विश्व शांति केवल आंतरिक साधनों के माध्यम से हासिल की जा सकती है, खुद को कृत्रिम सीमाओं से आजाद करके, जो हमें अलग करती है, लेकिन शांति हासिल करने के लिए अच्छी है!
इस्लाम धर्म
इस्लाम धर्म के अनुसार केवल एक खुदा में यकीन और एडम और ईव के रूप में समान माता-पिता का होना मनुष्यों का शांति और भाईचारे के साथ एक साथ रहने का सबसे बड़ा कारण है। विश्व शांति के इस्लामी विचार कुरान में वर्णित है, जहां पूरी मानवता को एक परिवार के रूप में मान्यता प्राप्त है। सभी लोग एडम के बच्चे हैं। इस्लामी आस्था का उद्देश्य लोगों को अपनी बिरादरी की ओर अपने स्वयं के प्राकृतिक झुकाव की पहचान कराना है। इस्लामी परलोकशास्त्र के अनुसार पैगंबर जीसस के नेतृत्व में उनके दूसरे अवतरण में पूरा विश्व एकजुट हो जायेगा.[22] उस समय इतना ज्यादा प्रेम, न्याय और शांति होगी कि दुनिया स्वर्ग जैसी हो जाएगी.
आईईसीआरसी द्वारा 5 अक्टूबर 2009 को शामिल किया गया - विश्व शांति में धार्मिक भागीदारी पर इस्लामिक एजुकेशनल एंड कल्चरल रिसर्च सेंटर के अनुसंधान और विश्व शांति व्यवस्था की अवधारणा का विस्तातिरत वर्णन नवीनतम प्रकाशन "वर्ल्ड पीस आर्डर- टुआर्ड्स एन इंटरनेशनल स्टेट" में किया गया है।[23]
यहूदी धर्म
यहूदी धर्म पारंपरिक रूप से सिखाता है कि भविष्य में किसी समय एक महान नेता का उदय होगा और वह इज़राइल के लोगों को एकजुट करेगा, जिसके परिणामस्वरूप विश्व में शांति और समृद्धि आयेगी. ये विचार मूलत: तनाख और रब्बानी व्याख्याओं के उद्धरणों के हैं।
मसीहा के प्रसिद्ध विचार के अलावा टिक्कुन ओलम (विश्व के संस्कार) का विचार भी मौजूद है। टिक्कुन ओलम की उपलब्धि विभिन्न साधनों के माध्यम से होती है, जैसे ईश्वर के दैवी आदेशों (सब्बात, कश्रुत कानूनों, आदि का पालन करते हुए) को आनुष्ठानिक रूप से पालन करने, साथ ही साथ उदाहरण के द्वारा बाकी दुनिया को राजी करने से होती है। टिक्कुन ओलम की उपलब्धि दान और सामाजिक न्याय के माध्यम से भी होती है।
कई यहूदियों का मानना है कि जब टिक्कुन ओलम की उपलब्धि हो जायेगी या जब दुनिया का संस्कार हो जायेगा है, तब मुक्तिदाता युग की शुरुआत होगी।
जैन धर्म
सभी तरह के जीवन, मानवीय या गैर-मानवीय, में करुणा जैन धर्म का केंद्र है। मानव जीवन एक अद्वितीय, ज्ञान तक पहुंचने के एक दुर्लभ अवसर, किसी भी व्यक्ति की हत्या नहीं करने, इससे मतलब नहीं कि उसने क्या अपराध किया है, के अवसर के रूप में मूल्यवान है, जिसे अकल्पनीय घृणित माना जाता है। यह एक ऐसा धर्म है, जिसमें अपने सभी संप्रदायों और परंपराओं के भिक्षुओं और गैर-पादरी वर्ग की जरूरत होती है, उन्हें शाकाहारी होने की आवश्यकता होती है। भारत के कुछ क्षेत्र, जैसे गुजराती जैनियों से बहुत प्रभावित होते है और अक्सर पंथ के स्थानीय हिंदुओं का बहुमत शाकाहारी बन जाता है।[24]
सिख धर्म
"सभी जीव-जंतु उनके हैं, वह सभी के लिए हैं" (गुरु ग्रंथ साहिब, 425). इसके अलावा गुरुओं ने आगे उपदेश दिया है कि "एक बेदाग ईश्वर की स्तुति गाओ, वह सब के भीतर निहित है," (गुरु ग्रंथ साहिब, 706). "सिख के गुरु की खास विशेषता यह है कि वह जाति-वर्गीकरण के ढांचे से परे जाता है और विनम्रता की ओर प्रेरित होता है। तब उसका श्रम ईश्वर के दरवाजे पर स्वीकार्य हो जाता है" (भाई गुरदास जी, 1).[25]
इन्हें भी देखें
- शांति आंदोलन
- युद्ध विरोधी
- विश्व शांति परिषद
- अहिंसा के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस
- विश्व युद्धविराम दिवस
- वैश्विक शांति सूचकांक
सन्दर्भ
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