विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र
विशिष्ट अर्थ में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें सामण्ड ने क्रमशः विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र (Analytical Jurisprudence), ऐतिहासिक विधिशास्त्र (Historical Jurisprudence) एवं नैतिक विधिशास्त्र (Ethical Jurisprudence) कहा है। उल्लेखनीय है कि विधि के विविध पहलुओं में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इनका पृथक विवेचन करने से विधिशास्त्र का विषय ही अपूर्ण रह जायेगा। अतः विधिशास्त्र के अध्ययन के लिये इन तीनों का समावेश आवश्यक है।
विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र से आशय विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करना है। इस विश्लेषण में उनके ऐतिहासिक उद्गम अथवा विकास या नैतिक महत्व आदि का निरूपण नहीं किया जाता है। विधिशास्त्र की इस शाखा के प्रणेता जॉन ऑस्टिन थे जिन्होंने विधि-विज्ञान की विभिन्न समस्याओं के प्रति इस शाखा के विचारों का प्रतिपादन अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्राविन्स ऑफ ज्यूरिसप्रुडेन्स डिटरमिन्ड’ में किया जो सर्वप्रथम सन् 1832 में प्रकाशित हुई थी। इस शाखा के अन्य समर्थक मार्कबी (Markby), एमॉस (Amos), हॉलैण्ड (Holland) तथा सामण्ड (Salmond) हैं।
परिचय
विश्लेषणात्मक चिन्तन का प्रारंभ मुख्यतः बेंथम द्वारा अठारहवीं शताब्दी के अन्त में किया गया जिसका विकास आगे चलकर आस्टिन के हाथों हुआ। इसे प्रमाणवादी विचारधारा (Positivist School) भी कहा जाता है। सामण्ड इसे व्यवस्थित विधिशास्त्र (Systematic Jurisprudence) तथा सी0के0 एलन आदेशात्मक सिद्धान्त (Imperative Theory) कहते हैं।
इस विचारधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिस प्रकार भौतिक-विज्ञान विश्लेषण के बल पर आगे बढ़ता है ठीक उसी प्रकार यह किसी चीज को बिना विश्लेषण के यथावत स्वीकार नहीं कर लेती। प्राकृतिक विचारधारा की तरह यह कानून को दैवीय (ईश्वरीय) या दैव-जात या प्राप्त नहीं मानती, बल्कि इसका उद्भव सम्प्रभु राज्य से हुआ मानती है। यह विचारधारा विधिक नियमों का विश्लेषण करती है। इसलिए यह ऐतिहासिक या समाजशास्त्रीय विचारधारा से भिन्न हो जाती है। यह विचारधारा नागरिक विधि तथा अन्य विधियों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन विश्लेषणात्मक ढंग से करना चाहती है तथा विधि को प्राप्त नहीं अपितु निर्मित मानती है। विधि की ऐतिहासिक प्रगति का मूल क्या है, इससे इस विचारधारा का कोई मतलब नहीं। जूलियस स्टोन ने ठीक ही कहा है "इसकी प्रमुख दिलचस्पी विधिक भावार्थों के विश्लेषण और विधिक तर्क वाक्यों के तार्किक अन्तः सम्बन्धों के बारे में खोजबीन करना है।" सामण्ड ने इस विचारधारा के प्रयोजन को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
- विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र का प्रयोजन, विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का, बिना उनके ऐतिहासिक उद्भव और विकास के उनके नीतिशास्त्रीय (Ethical) या वैधता के सन्दर्भ में विश्लेषण करना है। दूसरे शब्दों में यह वर्तमान वास्तविक विधि के ढाँचे का तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से परीक्षित करने के प्रयास का एक ढंग है। इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि आदर्श और नैतिक तत्वों पर निर्भर न रहने वाले अधिकारिक नियम क्या हैं?
मुनरो स्मिथ के अनुसार यह विचारधारा राज्य की सचेतन मुहर कानून के लिए आवश्यक मानती है। इस अर्थ में विधि सचेतन और निश्चित मानव इच्छा की अभिव्यक्ति है। प्रमाणवाद एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है जिससे अनुभव से परे परिकल्पनाओं को अस्वीकार कर आँकड़ों द्वारा प्रस्तुत अनुभव तक ही सीमित रहा जा सके। यह दृष्टिकोण दिए हुए तथ्यों के विश्लेषण तक सीमित रहता है तथा अनुभूति की परिघटनाओं से दूर नहीं जाता है। अतीत तथा भविष्य की परिकल्पनाओं से दूर रहकर ‘विधि जैसी है’ के तथ्यात्मक अध्ययन के कारण इसे प्रमाणवादी दृष्टिकोण नाम दिया गया है। इंग्लैण्ड में मुख्य रूप से प्रचलित होने तथा आस्टिन से जुड़े होने के नाते इसे 'इंग्लिश स्कूल' या 'आस्टीनियन स्कूल' भी कहते हैं। इसे विधि को सम्प्रभु का समादेश मानने और उसे माने जाने की बाध्यता के कारण आज्ञात्मक सिद्धान्त (Imperative theory of Law) भी कहा जाता है। हार्ट इसे ‘‘समादेश, अनुशास्ति एवं सम्प्रभु की त्रिवेणी’’ मानते हैं। इस विचारधारा में मनुष्य द्वारा विधि के निर्माणात्मक तत्वों पर विशेष बल दिया जाता है।