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विधिकार

सामान्य भाषा में विधिकार और विधायक शब्दों का प्रयोग भिन्न अर्थों में किया जाता है। विधिकार (law Givers) के प्रयोग से ऐसे व्यक्ति का अभिप्राय है जो स्वयं विधि का निर्माण करे और विधायक किसी एक अथवा कुछ विधियों का निर्माण कर सकता है लेकिन विधायक विधि संस्थानों - संसद, विधानमंडल आदि - में बैठकर अन्य विधायकों के साथ मिलकर विधि का निर्माता होता है अत: व्यक्तिगत रूप से वह विधि का निर्माण नहीं करता।

विधिकार की परिभाषा देने के पूर्व विधि संबंधी दृष्ष्टिकोण स्पष्ट होना आवश्यक है। विधि के सिलसिले में कानून, सत्य, धर्म, न्याय, राइट, रेस्ट, ड्रायट आदि भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है। लैटिन भाषा में लेजिस्लेटर (विधायक) अथवा जूरिसडेटर (न्यायनिर्माता) शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता, लेकिन "लेजेनडेरे" और "लेक्स डेट" में (विधि देने और प्रयुक्त विधि) का उल्लेख मिलता है। जस्टीनियन ऐसे विधिकार को विधायक की संज्ञा दी गई है। यूनानी भाषा में भी विधिकार के संबंध में इसी भांति अस्पष्टता है। "थेसमोस" (Thesmos) का अर्थ एक वाक्य, सूत्र अथवा विधि किया जाता है। विधिसंहिता की नोमोस (Nomos) की संज्ञा दी जाती है। सोलोन (Solon) ने थेसमोइ (थेसमोस का बहुवचन) की रचना की जिसे 250 वर्ष बाद अरस्तू (Aristotle) ने विधिकार नाम से संबोधित किया।

विधि संबंधी विभिन्न व्याख्याओं के कारण इस संबंध में भी मतभेद है कि किस व्यक्ति को विधिकार माना जाए और किसको नहीं। ईश्वरप्रदत्त विधि मानने पर भी उनको संसार में लानेवाले माध्यम का महत्व कम नहीं होता अत: हजरत मूसा, ईसा, मुहम्मद, कन्फ्यूशियस, मनु आदि को इस श्रेणी में रखना पड़ेगा। यदि विधि समाज के विवेक और शील का प्रतीक है तो भी विधिरचना में व्यस्त चाहे वह विधानमंडल हो अथवा न्यायाधीश, जो परंपराओं को नवीन स्थितियों में लागू करने के लिए नई व्यवस्थाएँ देते हैं अथवा ऐसे दार्शनिक विचारक जो समाज के विश्लेषणात्मक अध्ययन के उपरांत उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप विधि बनाने पर जोर देते हैं अथवा ऐतिहासिक विकासशृंखला के ऐसे नरेश, सत्तासंपन्न व्यक्ति जिन्होंने अपनी शक्ति और निदेश से नए नियमों की रचना की, उन सभी को विधिकार कहा जा सकता है।

परिचय

अमरीका के प्रसिद्ध विधिशास्त्री डीन रस्को पउंड ने अपनी पुस्तक "फिलासफी ऑव ला" की भूमिका में विधि की व्याख्या करते हुए कहा है कि विधि के संबंध में कम से कम 12 विभिन्न प्रकार की व्याख्याएँ की जाती हैं।

(1) कुछ लोग विधि को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं। इस श्रेणी में हजरत मूसा, दस निदेश, हम्मूराबी और मनुसंहिताओं को रखा जा सकता है।
(2) कुछ अन्य लोग विधि का परंपराजन्य मानते हैं और उन परंपराओं की रक्षा का भार अभिजात्य वर्ग अथवा पुरोहित वर्ग पर रहता है।
(3) कुछ लोग विधि को विवेकजन्य मानते हैं। ई. पू. चौथी शताब्दी में एथेंस में डेमोस्थनीज (Demosthenes) ने विधि की इसी प्रकार व्याख्या की थी।
(4) विधि प्राकृतिक नियमों के आधार पर विकसित होती है जिसका विकास परंपरा, विवेक और दार्शनिक सिद्धांतों के योग से होता है।
(5) विधि नीति अनीति संबंधी शाश्वत नियमों का रूप है।
(6) विधि संगठित समाज के राजनीतिक अधिकारों और नियमों का वह रूप है जिसे समाज में लोग परस्पर एक दूसरे के लिए स्वीकार करते हैं।
(7) विधि ईश्वरीय न्याय है जिसका आभास ब्रह्मांड के प्राकृतिक नियमों से मिलता है और यह ईश्वरीय तर्क और विवेक का रूप है।
(8) विधि सर्वसत्तासंपन्न सत्ता का आदेश है। रोम, आंग्ल, फ्रांसीसी नरेशों और अमरीकी क्रांति के बाद संसदीय सत्ता के रूप में भी इस सिद्धांत को लागू किया गया।
(9) विधि वे नियम हैं जिन्हें मानव जाति अपने विकस में सीखती है और जिनके पालन से वह पहले से अधिक स्वतंत्रता पाने का प्रयास करती है।
(10) विधि प्राकृतिक दार्शनिक सिद्धांतों और तर्कप्रणाली के आधार पर विकसित ऐसे नियम हैं जिनमें व्यक्ति और समष्टि के हितों में संतुलन लाने का प्रयास किया जाता है।
(11) विधि ऐसे नियम हैं जिनको समाज का शक्तिशाली वर्ग अन्य लोगों को अपने अधीन बनाए रखने के लिए लागू करता है। इस प्रकार विधि वर्गहितों की रक्षा और स्थापना के लिए ही लागू की जाती है;
(12) विधि समाज के आर्थिक और सामाजिक नियमों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले नियमों के रूप में विकसित होती है जिसमें समाज को स्थिर रखने के लिए सभी लोगों को सामान्य अधिकार देकर उनके हितों में एकरूपता और समरसता लाने का प्रयास किया जाता है और प्रत्येक व्यक्ति के हितों की रक्षा की जाती है।

विधिकार के लिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि वह दैवी रूप से अनुप्राणित हो। हम्मूराबी (Hammurabi) की संहिता के आरंभ में यह घोषणा की गई है कि देव मरदुक (God Marduk) ने उसे न्याय के सिद्धांतों को जनता को देने का आदेश दिया। सुमेरिया के उरुकगीना (Urukagina) ने निनगिरूस (Ningirusu) से विधि ज्ञान पाया था। हजरत मूसा ने ईश्वर की प्रेरणा से न्याय के दस निदेशों (Ten commandments) की रचना की। एथेना नामक यूनानी देवता ने जैल्युकस (Zaleucus) को स्वप्न में विधि का ज्ञान दिया। कुछ स्थानों में विधिकार स्वयं कोई देवता अथवा देवतुल्य ऋषि माना जाता है। अंग्रेजी भाषा में ईश्वर को ही विधिकार कहा गया है। ईसाई मत के अतिरिक्त अन्य मतों और धर्मों में ईश्वर अथवा सर्वोच्च सत्ता को विधि का मूल स्रोत माना गया है। मिस्र में मैनेस (Manes), रामुस द्वितीय (Ramus II), बोकोरिस (Bocchoris) फराऔह को जिन्हें पितृदेव माना गया है, उन्हें ही विधिकार भी माना गया है।

भारत के विधिकार

भारत में धर्म और अन्य का मूल स्रोत "ऋत्" माना गया है। वैदिक काल में यह माना जाता था कि ऋत् चराचर जगत् का नियामक है। प्राकृतिक न्याय और सामाजिक न्याय दोनों का मूल स्रोत ऋत् ही है। ऋत् से ही धर्म की उत्पत्ति हाती है। धर्म से राजा और प्रजा दोनों बँधे रहते थे। वेदों और श्रुतियों के बाद गृह्यसूत्र और श्रौतसूत्रों को धर्मसूत्रों की संज्ञा दी जाती है। इनमें व्यवहार और दंड की भी व्यवस्था थी। इस प्रकार भारतीय विधि का आरंभ इन धर्मसूत्रों से माना जाता है। मैक्समूलर और प्रोफेसर हापकिंस के अनुसार 600 ई. पू. से 200 ई. पं॰ तक के काल में याज्ञवल्क्य ने 20 ऋषियों के नामों की सूची विधिकारों के रूप में दी है। डाक्टर बुहलर और डॉ॰ जाली ने गौतम, बोधायन, आपस्तंब और वशिष्ठ के धर्मसूत्रों को प्राचीन विधिपुस्तकें माना है। धर्मसूत्रों के बाद मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, कात्यायन, पितामह, यम, हरित, अंगिरस, ऋष्यशृंग, प्रजापति, संवर्त, दक्ष, कर्षणाजिनी, पुलस्त्य, लंगाक्षी, विश्वामित्र की स्मृतियों को विधिग्रंथ माना गया है अत: ये लोग भारत के विधिकार माने जाते हैं।

मनु का कालनिर्धारण प्राय: 1500 वर्ष ई. पू. किया गया है। मनु ने विधि के चार स्रोत बतलाए हैं - (१) श्रुति (वेद), (2) स्मृति, (3) परंपराएँ, और (4) प्रत्येक व्यक्ति की आत्मचेतना। उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से कहा है कि श्रुति और स्मृति में मतभेद होने पर श्रुति मान्य होती है और इन दोनों को अन्य दो स्रोतों से श्रेष्ठ माना जाता है। मनुस्मृति अथवा मनुसंहिता इनकी विधिसंहिता मानी जाती है।

याज्ञवल्क्य को कुछ लोग मनु का समसामयिक मानते हैं और कुछ लोग उनके बाद का मानते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति में वही बातें कही गई हैं जिनका उल्लेख मनुसंहिता में है। याज्ञवल्क्य ने पूरी सामग्री को विभाजित कर उसे फिर से व्यवस्थित किया। याज्ञवल्क्य ने परंपराओं और सामान्य न्याय पर यथेष्ट जोर दिया है। साक्षी आदि प्रश्नों पर याज्ञवल्क्य ने अपनी परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं।

नारद स्मृति की रचना मनुस्मृति के आधार पर की गई, फिर भी उसमें अनेक नई बातों का समावेश है। न्यायालयों में न्याय की कैसी व्यवस्था हो, इसका नारद स्मृति में सविस्तार वर्णन है। नारदस्मृति ने देश के न्यायप्रशासन का वर्गीकरण कर उसको व्यवस्थित किया। मनु और याज्ञवल्क्य ने व्यवहार को 18 भागों में विभाजित किया था, उन्हें नारद ने 132 उपविभागों में विभाजित कर उनका स्पष्टीकरण किया।

वृहस्पतिस्मृति और मनुस्मृति की समानता की लक्ष्य कर कुछ विद्वानों ने उसे "वार्तिक" कहा। बृहस्पतिस्मृति में अनेक नियमों की व्याख्या करते हुए उन्हें समयानुकूल बनाने का भी प्रयास किया गया है। बृहस्पतिस्मृति में न्यायप्रशासन और न्यायालय व्यवस्था का नारद स्मृति की भाँति सविस्तार वर्णन किया गया है। इसमें न्यायालय के अधिकारियों की संख्या दस बताई गई है जबकि नारद स्मृति में यह संख्या आठ रखी गई है। अमात्य और पुरोहित भी न्यायालय के अधिकारी बताए गए हैं। बृहस्पतिस्मृति में स्त्रियों को उत्तराधिकार का अधिकारी माना गया है। न्यायालय में प्रार्थनापत्र देने और उसके बाद की कार्रवाइयों का भी उल्लेख है। दीवानी और फौजदारी न्यायव्यवस्था का इसमें अलग अलग उल्लेख है।

कात्यायन स्मृति का कालनिर्धारण 400-600 ई. के बीच में किया जाता है। वृहत्पाराशर, पुलस्त्य, पितामह और हरित स्मृतियों की रचनाएँ 400 स 600 ई. के बीच के समय की बताई जाती हैं। पितामह स्मृति का उल्लेख मिताक्षरा, स्मृतिचंद्रिका और अपरक में मिलता है। कुछ लोग यम को धर्मशास्त्रों का व्याख्याकार मानते हैं और कुछ उन्हें स्मृतिकार कहते हैं। हरित स्मृति में व्यवहार शब्द की परिभाषा देने का प्रयास किया गया है।

स्मृतियों के बाद निबंधों और टीकाओं का स्थान है जिनमें स्मृतियों की व्याख्या करने का प्रयास किया गया। 900 ई. के बाद आधुनिक काल तक किसी नवीन स्मृति की रचना का उल्लेख नहीं मिलता, केवल टीकाओं और निबंधों की रचना हुई। इसके बाद हिंदू कानून उन भागों में बँट गया जिनके नामों से हम आज परिचित हैं। इनमें मिताक्षरा और दायभाग प्रमुख हैं। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसकी रचना 11वीं शताब्दी में हुई। जीमूतिवाहन ने 13वीं और 15वीं शताब्दी के बीच में दायभाग की रचना की जिसमें सभी स्मृतियों की बातें शामिल हैं। दायभाग कानून केवल बंगाल में चलता है और उसके साथ ही, "दायतत्व" और "दाय-कर्म-संग्रह" नामक ग्रंथों का प्रचलन है।

मिताक्षरा के बाद उनमें चार उपविभाग हो गए हैं-

  • (1) बनारस में "वीर मित्रोदय" और "निर्णयसिंधु",
  • (2) मिथिला में "विवाद चिंतामणि", "विवाद रत्नाकर",
  • (3) द्रविड़ क्षेत्र में "स्मृति चंद्रिका", "पराशर माधव" और "वीर मित्रोदय"
  • (4) महाराष्ट्र और गुजरात क्षेत्र में "व्यवहार मखूख", "वीर मित्रोदय" और "निर्णयसिंधु" की मान्यता है।

हिंदू न्याय और विधि के इतिहास में वैदिक ऋषियों के अतिरिक्त स्मृतिकारों को विधिकार कहा गया है।

भारत में मुसलमानी शासनकाल में अनेक सुलतानों और बादशाहों ने विधिनिर्माण का प्रयास भले ही किया हो लेकिन उन्हें विधिकार नहीं माना जाता।

अंग्रेजी शासनकाल में विधि आयोगों की स्थापना कर उनके माध्यम से विधि-रचना शुरु की गई और बाद में विधानमंडलों द्वारा विविध रचनाएँ की गईं।

भारत के स्वतंत्र होने पर संविधान परिषद ने देश के संविधान की रचना की और उस समय देश के विधिमंत्री डॉ॰ बी. आर. अंवेदकर ने देश के अनेक विधिपंडितों के सहयोग से अपूर्व विधिरचना की लेकिन शास्त्रीय परिभाषा में इन लोगों को विधिकार नहीं कहा जा सकेगा। इसी भांति प्रसिद्ध न्यायाधीश श्री राधाविनोद पाल तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशगण विधिविद्या के प्रकांड पंडित हैं और न्याय तथा विधि की व्यवस्थाएँ देते हैं। इनका भी शास्त्रीय परिभाषा में विधिकार नहीं कहा जा सकता।

अन्य देशों के विधिकार

प्राचीन काल

एक देश, काल में अनेक विधिकार हों इसकी संभावना कम होती है। रोम में डेसेंवीरी (The Decemviri) ने रोम के 12 सूत्रों (twelve tables) की रचना की लेकिन उसे विधिकार नहीं माना जाता है। लेकिन कुछ शासकों ने विशेष प्रकार की विधियों की रचना की, उन्हें विधिकार माना जाता है। इस श्रेणी में जस्टीनियन के कार्पस जूरिस (Corpus juris), नेपोलियन की संहिता (Code Napoleon) को कानून या विधि माना जाता था और उनके निर्माता विधिकार माने जाते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि विधिकार को उसके समसामयिक भी विधिकार मानें। ड्राको (Draco) को उसके अपने समय में केवल एक विशेष न्यायाधीश माना जाता था लेकिन उसकी व्यवस्थाओं ने बाद में विधि का रूप ले लिया और उसे विधिकार माना जाने लगा। थिओडोसियस द्वितीय (Theodosius II) ने संहिता की रचना की, उसे भी अब विधिकार माना जाता है।

विधिकार और न्यायाधीश का संबंध भी विचित्र है। पुराने जर्मन विधिकार न्यायाधीश होते थे। विधिकार को न्यायमूर्ति कहा जाता है। हम्मूराबी की संहिता में न्याय देने का उल्लेख है जिसका तात्पर्य यह है कि उस समय के नरेश न्याय देते थे। यूनान का ड्राको (Darco) न्यायाधीश (Themothetes) था। रोम के विधिशास्त्री अपने नरेशों को विधिकार की अपेक्षा विधि का व्याख्याकार अधिक मानते थे। विधिकार और न्यायाधीश दोनों की समानता का यह कारण है कि जर्मन और आंग्ल अमरीकी विधिशास्त्रों में यह स्वीकार किया जाता है कि न्यायाधीश ईश्वरीय प्रेरणा से विधि का निर्माण करता है अत: वह स्वयं विधिकार है।

विधिकारों ने जिन विधियों की रचना की उनमें बहुत अंतर है, चाहे वे विधियाँ हजरत मूसा, हजरत मुहम्मद आदि धार्मिक नेताओं की रचना हों अथवा उनकी रचना रामुलस (Romulus) अथवा लाइकरगस (Lycurgus) जैसे सामरिक नेताओं ने की हो अथवा हम्मुरावी संहिता और ड्राको की व्यवस्था में दंडव्यवस्था के रूप में विधि की रचना हुई हो अथवा मनुसंहिता के रूप में एक आदर्श सिद्धांत की स्थापना की गई हो। आधुनिक शोधों से मिले परिणामों के अनुसार सभी विधिकार अपनी समसामयिक परंपराओं, न्यायाधीशों की व्यवस्थाओं और मान्य अधिनियमों को ही विधियों का रूप प्रदान करते रहे हैं। यह बात हम्मूराबी, संहिता और मूसा के दस सिद्धांतों पर लागू होती है। जस्टीनियन तो स्वयं यह स्वीकार करता है कि समसामयिक अधिनियम और न्यायाधीशों की व्यवस्थाओं के आधार पर उसने विधिरचना की।

मान्य विधिकारों के अतिरिक्त ऐसी अनेक विधिपुस्तकें मिलती हैं जिन्हें विधिशास्त्र की अच्छी रचनाएँ कहा जा सकता है और कुछ लोग ऐसे विधिशास्त्रियों को भी विधिकार की श्रेणी में रखना चाहते हैं।

लगश के सुमेरियाई नरेश "उरुकगीना" (Urukagina) (अनुमानत: ई. 2750 ई. पू.), वेबीलोन के शासक नबूनायद (Nabunaid, अनुमानत: 556-539 ई. पू.) अपने समय के महत्वपूर्ण विधिकार माने जाते हैं। बेवीलोन के हम्पूराबी शासक की संहिता का तो सबसे अधिक महत्व है। इसका कालनिर्णय अभी नहीं हो सका है। असीरियाई विधिपुस्तकों और हिटाइट संहिता (Hittite code, अनुमानत: 1350 ई. पू.) की रचना करनेवाले विधिकारों का ठीक पता नहीं चला है। यूनानी लेख डियोडोरस (Diodorus) ने मिस्र के फराओह मैनेस (Pharaohs Menes, अनुमानत: 3400 ई. पू.), रामसेस द्वितीय (Ramses II, 1292-1225 ई. पू.), वोकोरिस (Bocchoris, 718-712 ई. पू.) और अमेसिस (Amesis 569-525 ई. पू.) का उल्लेख किया है। लेकिन इसकी पुष्टि अन्य सूत्रों से नहीं हुई है। हजरत मूसा यहूदी विधि के मुख्य विधिकार हैं लेकिन जितनी बातें उनके नाम से चलती हैं वे सब उन्हीं की लिखी नहीं हैं। इनके अतिरिक्त अनेक मसीहा अथवा ईश्वरीय दूतों का नाम विधिकारों के रूप में लिया जा सकता है। जूडा ला नसी (Juda La nisi) द्वितीय शतब्दी मैगोनिडेस (Maimonides, 1135-1204) और जोसेफ कारो (Joseph Karo, 1488-1575) अपने समय के प्रमुख विधिकार माने जाते हैं।

प्राचीन यूनान में एचियन लोक्रिस के जैल्युकस (Zaleucus 650 ई. पू.), आई ओनियन केटना के चरौंडास (Charondas 650 650 ई. पू.) की विधिकारों में गणना की जाती है। स्पार्टा के लाइकरगस (Lycurgus) प्रसिद्ध ड्राको (Darco 621 ई. पू.) और एथेंस के सौलोन (Solon, 594 ई. पू.) का प्रथम श्रेणी के विधिकारों में स्थान है।

प्राचीन रोम में रोमुलस (Romulus) और नूमा (Numa) को विधिकार कहा जाता है लेकिन जब तक रोम साम्राज्य की स्थापना नहीं हो गई थी और वहाँ विधिसंहिता (condification of law) नहीं बन गई थी उस समय तक किसी को विधिकार की संज्ञा देना उचित नहीं है। थियोडोसियस द्वितीय की संहिता विधि संबंधी सामग्री का संकलन मात्र थी। सन् 527-565 ई. में जस्टीनियन की संक्षिप्त सार (digesta) और संहिता प्रकाशित हुई। उसमें विधि और न्याय संबंधी साहित्य को एकत्र किया गया। जस्टीनियन संहिता में जिन विधिशास्त्रियों की रचनाओं का संग्रह है उनमें जूलियन (Julian, द्वितीय शताब्दी), पैपिनियन (Papinian, 212 ई.) और पाल (Paul) (तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध) को विधिरचना में सहायक माना जा सकता है।

चीन और जापान के प्राचीन विधिकारों के संबंध में सामग्री प्राय: अप्राप्य है।

मध्य युग

मध्ययुगीन जर्मन विधि में किसी व्यक्ति विशेष को विधिकार नहीं कहा गया। इस काल में जिन अधिनियमों की रचना हुई उनमें उनके बनानेवाले का उल्लेख नहीं है। इस युग में न्यायाधीशों को विधिकारा की संज्ञा दी जाती थी। इस संबंध में कुछ अपवाद भी हैं। गोथा नरेश अलारिक द्वितीय ने (Alaric II, 484-507 ई.), थियोडारिक ने (500 ई.) गोथा के निवासियों के अतिरिक्त वहाँ रहनेवालों के लिए विधिसंहिता की रचना की। पश्चिमी सैक्सन नरेश अल्फ्रेड ने (Alfred, 878-901 ई.) और चार्ल्स पंचम ने (1519-58) "कांस्टीट्यूशियो किम्रिनलिस करोलिना" की रचना की।

इस्लाम धर्म में मुहम्मद (570-632 ई.) को विधिकर माना जाता है। उन्होंने "कुरान" का संकलन किया। मुहम्मद के बाद इस्लाम में चार प्रमुख संप्रदाय हो गए जिनके अपने अपने विधिकार हैं। अबु हनीफा (699-767 ई.), मलिक (715-95 ई.) अल शफई (767-820 ई.) और इबु हनबाल (780-855 ई.) के नाम पर क्रमश: हनफी, मलिकी, शफई और हनबाली नाम के संप्रदाय चल रहे हैं। भारत के अधिकांश सुन्नी मुसलमान हनफी विधि को मानते हैं। शिया संप्रदाय के मुसलमान हजरत मुहम्मद और हजरत अली को ही अपना विधिकार मानते हैं।

ईसाई धर्म की धार्मिक विधि बनानेवालों की भी यदि विधिकार माना जाए तो इनोसेंट तृतीय ने (Innocent 111, 1198-1216) "कारपस जूरिस कैननिसी" नामक संहिता की रचना की और ग्रिगरी नवम ने (Gregori IX, 1227-41 में) अनेक विधि संबंधी व्यवस्थाएँ दीं, अत: दोनों को विधिकार की श्रेणी में रखा जा सकता है।

आधुनिक युग

मध्ययुग के बाद तो प्राय: प्रत्येक देश में विधिकार हुए हैं। नेपोलियन संसार का मुख्य विधिकार माना जाता है क्योंकि फ्रांस में नेपोलियन ने जिस विधिसंहिता की रचना करवाई उसका प्रभाव संसार के विधिविकास पर पड़ा है।

आंग्ल-अमरीकी विधिव्यवस्था का विकास जिस ढंग से परंपरा, विधानमंडलों द्वारा विधिरचना और न्यायाधीशों की व्यवस्था के माध्यम से हुआ है उसमें यह कहना कठिन है कि कौन कौन व्यक्ति विधिकारों की श्रेणी में आते हैं। ब्रिटेन में ब्रैक्टन, न्यायाधीश कोक, ब्लैकस्टीन, बैथम, आस्टिन आदि विधि दार्शनिकों का विधिक्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है।

इन्हें भी देखें