विद्युतशक्ति का प्रेषण
विद्युत्शक्ति को जनित्रस्थल से उपयोगस्थल तक ले जाना प्रेषण (Transmission) कहलाता है। अधिकांश स्थानों में विद्युत्शक्ति का उत्पादन उसके उपयोगस्थलों से दूर होता है। वैसे तो जनित्रस्थल से उपयोगस्थल तक विद्युत्शक्ति को ले जाना ही प्रेषण कहलाता है, परंतु इस शब्द क व्यावहारिक अर्थ बहुधा दूरी तथा उच्च बोल्टता से संबंधित है। प्रेषण लाइनें पोल अथवा मीनारों पर आरोपित, ऊपरी लाइनों के रूप में भी तथा भूमिगत केबिलों के रूप में भी होती हैं। ऊपरी लाइनें साधारणतया ताँबे के तार की होती हैं, परंतु ऐलुमिनियम तथा इस्पात और ऐलुमिनियम के संयुक्त चालक भी विस्तृत रूप से प्रयुक्त किए जाते हैं।
परिचय
अधिकांश स्थानों में विद्युत्शक्ति का उत्पादन उसके उपयोगस्थलों से दूर होता है। जनित्रस्थलों की स्थापना, वस्तुत:, साधनों की उपलब्धि तथा आर्थिक औचित्य के आधार पर की जाती है। जलविद्युत्घरों को किसी विशिष्ट स्थान पर बना देने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योकि उनका स्थान तो प्राकृतिक साधनों पर निर्भर करता है जो साधारणतया घनी आबादीवाले क्षेत्रों से दूर होते हैं। तापीय बिजलीघरों की स्थापना भी भारकेंद्र (load centre) के साथ-साथ कोयले की उपलब्धि तथा इसके परिवहन की समस्या पर निर्भर करती है। अत: बहुधा जनित्रस्थलों की दूरी भार से कई सौ मील भी हो सकती है और ऐसी दशाओं में प्रेषण लाइनों द्वारा शक्ति को भार तक पहुँचाना होता है। अतएव प्रेषण भी विद्युत् उद्योग का उतना ही मुख्य और महत्वपूर्ण अंग है जितना स्वयं विद्युत्शक्ति का उत्पादन।
वैसे तो जनित्रस्थल से उपयोगस्थल तक विद्युत्शक्ति को ले जाना ही प्रेषण कहलाता है, परंतु इस शब्द का व्यावहारिक अर्थ बहुधा दूरी तथा उच्च बोल्टता से संबंधित है। प्रेषण लाइनें पोल अथवा मीनारों पर आरोपित, ऊपरी लाइनों के रूप में भी तथा भूमिगत केबिलों के रूप में भी होती हैं। ऊपरी लाइनें साधारणतया ताँबे के तार की होती हैं, परंतु ऐलुमिनियम तथा इस्पात और ऐलुमिनियम के संयुक्त चालक भी विस्तृत रूप से प्रयुक्त किए जाते हैं। ऊपरी लाइनें भूमिगत से कम से कम 20 फुट की ऊँचाई पर होनी चाहिए और इनका कोई भी भाग इससे कम ऊँचाई पर नहीं होना चाहिए। भूमि से इनकी ऊँचाई, उच्च वोल्टता की दशा में और भी अधिक होती है। अतएव ये लाइनें पोलों पर ले जाई जाती हैं और पॉर्सिलेन के विद्युतरोधियों (insulators) पर आरोपित होती हैं। अधिक शक्ति प्रेषण करनेवाले, मोटे चालकों की लाइनें पोल के स्थान पर बड़ी बड़ी मीनारों पर ले जाई जाती हैं, जो चालक संख्या तथा उनपर लगनेवाले बलों के अनुसार विभिन्न आकृति की बनी होती है। विद्युतरोधी भी विभिन्न प्ररूपों के होते हैं और मुख्यत: अपनी स्थिति तथा वोल्टता के अनुसार विभिन्न वर्गों के होते हैं। इस प्रकार विद्युतरोधी 440 वोल्ट की अल्प वोल्टता से लेकर 11 किलोवोल्ट, 33 किलोवोल्ट, 66 किलोवोल्ट इत्यादि वर्गों के होते हैं और स्थिति के अनुसार विद्युतरोधी शैकल (shackle), पिन (pin), डिस्क (disk) तथा निलंबन (suspension) प्ररूप के होते हैं, जो विभिन्न स्थितियों में प्रयुक्त किए जाते हैं। विद्युतरोधी साधारणतया पोल पर कैंची (cross arm) में लगे होते हैं और इस प्रकार विन्यसित होते हैं कि किसी भी दशा में चालक झूलकर, दूसरे चालक से, अथवा पोल, अथवा उसके किसी भी संरचना अंशक से न छू जाएँ। इनकी आकृति एवं रचना भी इस प्रकार की होती है कि किसी भी परिस्थिति में चालक तथा पोल के किसी संरचना अंशक के बीच चालक का संधारण कर सकें।
केबिल, वस्तुत:, किसी भी विद्युतरोधी चालक को कहा जा सकता है, परंतु विद्युत् के प्रेषण में प्रयुक्त होनेवाले केबिल का उपयोग मुख्यत: भूमि के अंदर होता है। अत: केबिलों की रचना भी ऐसी होती है कि वे भूमि के अंदर पड़नेवाले प्रभावों से सुरक्षित रह सकें। सामान्यत: प्रेषण केबिल त्रिकलीय (triphase) होते हैं। अत: उनमे कम से कम तीन क्रोड (core) हाते हैं, जो अलग-अलग विद्युत-रुद्ध (insulated) हाते हैं और फिर ऊपर से भी उनपर दूसरा विद्युत्रोधी लपेट दिया जाता है। यह विद्युत्रोधी, साधारणतया, व्याप्त कागज (impregnsted paper), अथवा रुई की टेप (cotton tape) का होता है, जो केबिल की कार्यकारी वोल्टता के वर्ग पर निर्भर करता है। विद्युत्रोधी खराब न हो जाए, इसलिए चालक क्रोड तथा अचालक सीसे की नली में, जो नमी को अंदर नहीं जाने देती, समावृत होते हैं। इस नली को यांत्रिक हानि से बचान के लिए जूट का फीता (braid) दिया जाता है और ऊपर से लोहे की पत्ती का कवच चढ़ा दिया जाता। इस कारण इन्हें कवचित केबिल (Armoured Cable) भी कहते हैं।
अति उच्च वोल्टता प्रेषण के केबिल, तेल से भरे केबिल भी होते हैं। तेल, वस्तुत:, उत्तम अचालक माध्यम है। परंतु ऐसे केबिलों की बनावट काफी जटिल होती है और इनकी देखभाल भी कठिन होती है। इसके कारण इनका उपयोग सीमित है।
विद्युत्प्रेषण की मितव्ययिता (economy) बहुत सीमा तक चालक के आकार पर निर्भर करती है। चालक का आकार मुख्यत: वहन की जानेवाली धारा पर निर्भर करता है। किसी निर्धारित शक्ति के लिए वहन की जानेवाली धारा, मुख्यत: वोल्टता पर निर्भर करती है। अत: प्रेषण के लिए उच्चतम वोल्टता प्रयोग करना ही उपयुक्त है, जिससे उस शक्ति के लिए वहन की जनेवाली धारा कम हो सके और छोटे आकार के चालक प्रयुक्त किए जा सकें। परंतु उच्चतम वोल्टता की भी अपनी सीमाएँ हैं। 36 किलोमीटर से अधिक वोल्टताओं पर चालक का आकार धारा के परिमाण पर ही नहीं, वस्तुत:, कोराना (corona) के प्रभाव पर निर्भर करता है। कोरोना उच्च वोल्टताओं पर चालक के आसपास की वायु के अयनित (ionized) होने का प्रभाव होता है। इसके कारण हिम् हिम् की ध्वनि तथा चमक उत्पन्न होती है और यह अंतत: शक्ति हानि के रूप में प्रकट होती है। इस कारण चालक के आकार का अभिकल्प इस शक्ति हानि तथा उसके प्रभावों को दृष्टि में रखते हुए करना होता है।
उच्चतम वोल्टताओं पर प्रेषण लाइनों का संचार लाइनों (communication lines) से व्यतिकरण (interference) दूसरी महत्वपूर्ण समस्या है। उच्च वोल्टता प्रेषण करने वाली लाइनें समीपस्थ संचार लाइनों में एक व्यतिकरण वोल्टता प्रेरित कर देती हैं, जिसके कारण संचार में गड़बड़ी होती है, पर यह व्यतिकरण, संचार लाइनों की विद्युत् लाइनों से दूर रखकर, कम किया जा सकता है तथा दूसरे भी बहुत से उपचार किए जा सकते हैं।
तीसरी कठिनाई उच्च वोल्टता अचालकों तथा मीनारों की उचित संरचना की है, जिससे दोषी स्थितियाँ उत्पन्न न हो सकें। साथ ही साथ उनकी उचित देखभाल भी एक समस्या बन जाती है। इनके अतिरिक्त उच्चतम वोल्टताओं पर शक्ति स्थायित्व (power stability) महत्वपूर्ण समस्या है। अति उच्च वोल्टता की लंबी लाइनों में, शक्तिप्रवाह, वस्तुत:, शक्ति स्थायित्व द्वारा सीमित होता है। इस कारण निर्धारित शक्ति केवल किसी विशिष्ट वोल्टता पर विशिष्ट दूरी तक ही प्रेषित की जा सकती है। साथ ही साथ प्रेषित शक्ति तथा दूरी के अनुसार एक विशिष्ट वोल्टता पर प्रेषण ही सबसे अधिक मितव्ययी हो सकता है। ये समस्याएँ बड़ी बड़ी योजनाओं में बहुत महत्वपूर्ण होती है और प्रेषणतंत्र का अभिकल्प योजना का एक मुख्य अंग होता है।
प्रेषणतंत्र की योजना का आधार भार सर्वेक्षण (load survey) होता है। सबसे पहले विभिन्न स्थानों में प्रस्तावित भार का परिकलन कर लिया जाता है और तब उनके अनुसार उपकेंद्रों (substations) की स्थिति निश्चित की जाती है। भार तथा दूरी के अनुसार प्रेषण की वोल्टता तथा परिपथ की संख्या निश्चित की जाती है और प्रस्तावित लाइनों का पथ निश्चित किया जाता है। लाइन अभिकल्प के प्ररूप एवं अभिकल्प, विद्युतरोधियों का प्ररूप और उनको लगाने का यंत्रविन्यास तथा संरक्षणतंत्र किसी भी योजना के लिए आर्थिक पहलू सबसे महत्वपूर्ण होता है। प्रेषणतंत्र का सफल अभिकल्प भी आर्थिक पहलू सबसे महत्वपूर्ण होता है। प्रेषणतंत्र का सफल अभिकल्प भी आर्थिक कसौटी पर निर्भर करता है। किसी निर्धारित शक्ति के प्रेषण के तीन मुख्य संघटक है : शक्ति, दूरी तथा वोल्टता। किसी भी प्रेषणतंत्र की योजना का सफल अभिकल्प इन तीनों संघटकों के उपयुक्त समन्वय पर निर्भर करता है। लाइन अभिकल्प की दिशा में महत्वपूर्ण शोध हो रहे हैं, जिनके परिणामस्वरूप अब विद्युतरोधों के स्तर को उतना ऊँचा नहीं रखा जाता जितना 10 वर्ष पहले रखा जाता था। इस प्रकार लाइनों के मूल्य में भारी बचत संभव हो सकी है।
अत्युच्च वोल्टता (110 kV से अधिक) का प्रेषण, साधारणतया, 100 मील से अधिक की दूरी के लिए ही किया जाता है। बहुधा प्रेषण के दो क्रमों में करना पड़ता है। अत्युच्च वोल्टता पर प्रेषण साधारणतया बिजलीघर के उपकेंद्र से उपयोगक्षेत्र के भर केंद्र के निकटस्थ उपकेद्रों तक किया जाता है, जहाँ से किसी मध्यम वोल्टता पर (उदाहरणतया 33 किवो. अथवा 11 किवो. पर) उपयोगस्थल के उपकेंद्र तक शक्ति कर प्रेषण किया जाता है। इस प्रकार इसे प्राथमिक एवं द्वितीयक प्रेषण के नाम से पुकारा जाता है। अंतिम उपकेंद्र से भार तक वितरक अथवा संभरण (feeder) लाइनें ले जाई जाती हैं, जहाँ से व्यक्तिगत भारों का संभरण किया जाता है।
साधारणतया जनित वोल्टता को प्रेषण करने के लिए अति उच्च वोल्टताओं में रूपातरित करना होता है। अतएव परिणामित भी प्रेषणतंत्र के महत्वपूर्ण अंग होते हैं। इनके साथ ही बहुत से संरक्षण युक्तियाँ तथा परिपथ त्रोटक (breaker) भी तंत्र का विशिष्ट अंशक हैं। परिणामित्र के दोनों ओर तेल परिपथ त्रोट (oil circuit breakers) की व्यवस्था रहती है, जिससे परिणामित्र के दोनों ओर का परिपथ खोला जा सके। इसी प्रकार किसी लाइन अथवा उसके प्रभाग को निष्क्रिय कर सकने का प्रावधान होता है, जिससे दोष की स्थिति में लाइन की मंरमत की जा सके। वस्तुत: संरक्षण युक्तियाँ दोष की स्थिति में दोषी प्रभाग को अपने आप खोलकर अलग कर देती है। लाइन संरक्षण के लिए उपकेंद्र में बहुत प्रकार के रिले प्रयुक्त किए जाते हैं। बसे सामान्य रिले अतिभार रिले (over current relay) और भूमि क्षारण रिले (earth leakage relay) हैं। अतिभार रिले, अतिभार की अवस्था में, परिपथ त्रोटक का प्रवर्तित कर परिपथ को खोल देते हैं और इस प्रकार लाइन तथा उससे संबंधित साजसज्जा को अतिभार से होनेवाली क्षति अथवा हानिकारक प्रभावों से बचाते हैं। भूमि क्षरण रिले भूमिदोष की अवस्था में कार्य करते हैं और दोषी लाइन को योजित कर देते हैं। और भी बहुत से भिन्न भिन्न प्रकार के रिले प्रयुक्त किए जाते हैं। बहुत से रिले दोष की दूरी का व्यवस्था के आधार पर कार्य करते हैं और बहुत से एक पाइलट तार (pilot wire) का प्रयोग करते हैं, तथापि आधुनिकतम संरक्षण तंत्र कैरियर संरक्षण तंत्र है। कैरियर (carrier), वस्तुत:, एक उच्च आवृत्ति की तरंग को कहते हैं, जो पाइलट तारों पर शक्ति आवृत्ति के साथ ही अध्यारोपित (superimpose) कर दी जाती है। दोष की स्थिति में उससे संयोजित रिले तत्क्षण कार्य कर, लाइन को वियोजित कर देते हैं। कैरियर संरक्षण तंत्र दूसरे तंत्रों की अपेक्षा अधिक द्रुतगामी है और अधिक विश्वसनीय भी है। परंतु यह केवल उच्च वोल्टता लाइनों के लिए ही आर्थिक रूप से उचित हो सकता है।
प्रेषण लाइनों के अभिकल्प में तड़ित् संरक्षण का प्रावधान करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। तड़ित् लाइन पर गिरकर उसे तथा उससे संयोजित सभी साजसज्जा को नष्ट कर सकती है। इससे बचाव के लिए बहुत सी युक्तियाँ प्रयुक्त की जाती है, जिनमें मुख्यत: भूमि तार तथा तड़ितनिरोधक (lightning arrestors) का प्रावधान है। भूमि तार सामान्य रूप से लाइन को तड़ित् के हानिकारक प्रभावों से बचाता है और तड़ित् को लाइन पर यथासंभव गिरने से रोकता है। तड़ितनिरोधक उपकेंद्र अथवा अंत संरचनाओं पर लगाए जाते हैं और तड़ित् के लाइन पर गिर जाने पर उस सीधे ही भूयोजित (earthed) कर देते हैं, जिससे लाइन अथवा साजसज्जा को क्षति नहीं पहुँचने पाती। सभी मीनार (tower) ठीक से भूयोजित (earthed) होते हैं और उनका भूमिरोध विविध प्रकार की व्यवस्थाएँ करके अत्यंत कम रखा जाता है। तड़ित्संरक्षण के दृष्टिकोण से अधिक वर्ग के अचालकों का भी प्रयोग करना पड़ता है, परंतु आजकल तड़ितनिरोधक पर शोध के फलस्वरूप अचालक का स्तर ऊँचा रखने की आवश्यकता नहीं रहती।
प्रेषणतंत्रों को बहुधा ग्रिड के रूप में अन्तर्बंधित कर देते हैं, जिससे ग्रिड के अंदर शक्ति का स्वतंत्रतापूर्वक प्रवाह हो सके। ऐसे ग्रिड अति उच्च वोल्टताओं पर कार्य करते हैं और संपूर्ण तंत्र की वोल्टता तथा आवृत्ति एक ही होती है। इसमें नियंत्रण की कठिनाइयाँ तो अवश्य ही बढ़ जाती हैं, परंतु तंत्र में किसी भी स्थान की फालतू शक्ति दूसरे स्थानों पर, जहाँ उसकी आवश्यकता हो, प्रयुक्त की जा सकती है। इस प्रकार बिजलीघरों में अतिरिक्त स्थापित शक्ति का रखना आवश्यक नहीं रह जाता। वस्तुत:, बड़े ग्रिडों में किसी एक बिजलीघर, अथवा मशीन, की शक्ति संपूर्ण तंत्र की शक्ति की तुलना में नगण्य होती है और संपूर्ण तंत्र के कार्य को विशेष रूप से प्रभावित नहीं कर पाती। भारत में भी ऐसे बहुत से ग्रिड हैं, जैसे भाखड़ा ग्रिड, गंगा जलविद्युत् ग्रिड, शारदा ग्रिड, डी.वी.सी.ग्रिड, हीराकुंड ग्रिड, मद्रास ग्रिड, बंबई ग्रिड आदि। सभी बड़ी बड़ी योजनाएँ ग्रिड के रूप में हैं। अब तो इन सब ग्रिडों को अंतबंधित कर अखिल भारत ग्रिड की रूपरेखा बनाई जा रही है, जो शायद 350 किवो. अथवा इससे भी ऊँची वोल्टता पर कार्य करेगी।
अल्प वोल्टता से उच्च वोल्टता में तथा उच्च से अल्प वोल्टता में परिणामित्रों द्वारा रूपांतरण की सुविधा के कारण लगभग सभी विद्युत् प्रेषण प्रत्यावर्ती धारा पर ही होते हैं। परंतु हाल में ही इस विचारधारा में एक गहन परिवर्तन आ रहा है और अति उच्च वोल्टताओं पर दिष्ट धारा प्रेषण व्यावहारिक तथा प्राविधिक (technical) दोनों रूपों से अधिक उपयुक्त समझा जाने लगा है। ऐसे तंत्र में जनन तथा उपभोग दोनों ही प्र.धा. (AC) में होते हैं और केवल प्रेषण के लिए ही दिष्ट धारा का प्रयोग किया जाता है। जनन की गई प्र.धा. शक्ति को दिष्टकारियों (rectifiers) के द्वारा उच्च वोल्टता दि.धा. (DC) में परिवर्तित किया जाता है और प्रेषण दि.धा. में होता है। लाइन के दूसरी ओर फिर दि.धा. को उपयोग के लिए प्र.धा. कारियों (invertors) द्वारा प्र.धा. में परिणत करना होता है।
दि.धा. प्रेषण के कुछ विशिष्ट लाभ है जैसे इसमें लाइन विद्युतरोधी (line insulator) उसी वोल्टता की प्र.धा. लाइन की अपेक्षा कम वर्ग का प्रयुक्त किया जा सकता है, जिससे लाइन के मूल्य में भारी बचत संभव हो सकती है। दूसरा महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसमें शक्ति स्थायित्व की समस्या नहीं रहती, जो प्र.धा. प्रेषण तंत्रों में मुख्य सीमाकारक है। इसी प्रकार और भी बहुत से लाभ है, परंतु दिष्टकारियों तथा प्र.धा.कारियों का विश्वसनीय कार्य के लिए अभिकल्प, उनकी मुख्य समस्या है। इस दिशा में संतोषजनक प्रगति होने के कारण ही दि.धा. कारियों का विश्वसनीय कार्य के लिए अभिकल्प, उनकी मुख्य समस्या है। इस दिशा में संतोषजनक प्रगति होने के कारण ही दि.धा. प्रेषण को व्यावहारिक रूप देना संभव हो सका है। स्वीडन में, गोटलैंड योजना में, सबसे पहले दि.धा. प्रेषण का प्रयोग किया गया है। वहाँ पर और भी दि.धा. प्रेषण लाइनों की योजनाएँ बनाई जा रही है। रूस में मॉस्कों से कशीरा तक लगभग 75 मील लंबी 200 किवो. की भूमिगत केविल लाइन है तथा 400 किवो. की केबिल लाइन कुइबीशेव तथा मॉस्को के बीच हैं। इसके अतिरिक्त, 750 मेगावाट की लगभग 340 मील लंबी, 800 किवो. दि.धा. प्रेषण लाइन की योजना पर कार्य किया जा रहा। अमरीका में भी इस दिशा में तीव्रता से प्रगति हो रही है। 750 किवो. की एक प्रायोगिक लाइन पिट्सफील्ड के निकट बनाई जा रही है, जिसकी सफलता के आधार पर एक वृहत् ग्रिड की योजना भी बनाई जा रही है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- Transmission and Distribution in India : A report
- Japan: World's First In-Grid High-Temperature Superconducting Power Cable System
- A Power Grid for the Hydrogen Economy: Overview/A Continental SuperGrid
- Global Energy Network Institute (GENI) - The GENI Initiative focuses on linking renewable energy resources around the world using international electricity transmission.
- Union for the Co-ordination of Transmission of Electricity (UCTE), the association of transmission system operators in continental Europe, running one of the two largest power transmission systems in the world
- Non-Ionizing Radiation, Part 1: Static and Extremely Low-Frequency (ELF) Electric and Magnetic Fields (2002) by the IARC -- Link Broken.
- A Simulation of the Power Grid - The Trustworthy Cyber Infrastructure for the Power Grid (TCIP) group at the University of Illinois at Urbana-Champaign has developed lessons and an applet which illustrate the transmission of electricity from generators to energy consumers, and allows the user to manipulate generation, consumption, and power flow.