विट्ठल
विठोबा विठ्ठल | |
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पंढरपुर के विठ्ठल मन्दिर की मुख्य मूर्ति | |
संबंध | कृष्ण के रूप |
निवासस्थान | पंढरपुर |
जीवनसाथी | रुक्मिणी, सत्यभामा, राही |
सवारी | गरुड़ |
विठ्ठल, विठोबा अर्थात पाण्डुरंग एक हिन्दू देवता हैं जिनकी पूजा मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, तेलंगाना, तथा आन्ध्र प्रदेश में होती हैं। उन्हें आम तौर पर भगवान विष्णु अथवा उनके अवतार, कृष्ण की अभिव्यक्ति माना जाता हैं। विठ्ठल अक्सर एक सावले युवा लड़के के रूप में चित्रित किए जाते है, एक ईंट पर खडे और दोनो हाथ कमर पर रखे; कभी-कभी उनकी पत्नी रखुमाई (ऋक्षमणी) भी साथ होती हैं। विट्ठलस्वामी मन्दिर दक्षिण भारत के प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। यह मन्दिर कर्नाटक राज्य के हम्पी में स्थित है। हम्पी के समस्त मन्दिरों में यह सबसे ऊँचा है। माना जाता है कि राजा कृष्णदेव राय ने 'हज़ार राम' एवं 'विट्ठलस्वामी' नामक मंदिरों का निर्माण करवाया था।
हम्पी बाज़ार से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित 16 शताब्दी में निर्मित विट्ठलस्वामी मंदिर 'विश्व विरासत स्थल' की सूची में शामिल प्रमुख स्मारक है। मंदिर की नक्काशी 'विजयनगर साम्राज्य' के वास्तुकारों की तकनीकी जादूगरी को दर्शाती है। मन्दिर विजयनगर शैली का एक सुन्दर नमूना है। इसके विषय में फ़र्ग्यूसन का विचार है कि "यह फूलों से अलंकृत वैभव की पराकाष्ठा का द्योतक है, जहाँ तक शैली पहुँच चुकी थी"। हम्पी में विट्ठलस्वामी का मन्दिर सबसे ऊँचा है। यह विजयनगर के ऐश्वर्य तथा कलावैभव के चरमोत्कर्ष का द्योतक है। मंदिर के कल्याण मंडप की नक़्क़ाशी इतनी सूक्ष्म और सघन है कि यह देखते ही बनता है। विट्ठलस्वामी मंदिर का भीतरी भाग 55 फुट लम्बा है और इसके मध्य में ऊंची वेदिका बनी है। भगवान का रथ केवल एक ही पत्थर में से काटकर बनाया गया है, जो देखने में सुंदर है। मंदिर के निचले भाग में सर्वत्र नक़्क़ाशी की हुई है, जिससे मंदिर की ख़ूबसूरती और बढ़ती है। लांगहर्स्ट के कथनानुसार- "यद्यपि मंडप की छत कभी पूरी नहीं बनाई जा सकी थी और इसके स्तंभों में से अनेक को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया, तो भी यह मन्दिर दक्षिण भारत का सर्वोत्कृष्ट मंदिर कहा जा सकता है। फ़र्ग्युसन ने भी इस मंदिर में हुई नक़्क़ाशी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कहा जाता है कि पंढरपुर के विट्ठल भगवान इस मंदिर की विशालता देखकर यहाँ आकर फिर पंढरपुर चले गए थे।
पूजा
श्री हरि विठ्ठल पूजा मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, तेलंगाना, तथा आन्ध्र प्रदेश में होती है और साथही तमिल नाडु, केरल और गुजरात मे भी होती हैं।[1] श्री हरि विट्ठल की पूजा अधिकतर मराठी लोग करते है, किन्तु वह कुलदेवता के रूप में लोकप्रिय नहीं हैं।[2] पंढरपुर में श्री हरि विट्ठल भगवान का मुख्य मंदिर हैं, जिसमें उनकी पत्नी रखुमाई (ऋक्षमणी) के लिए एक अलग, अतिरिक्त मंदिर भी उपस्थित हैं। इस संदर्भ में, पंढरपुर को प्रेम से भक्तों द्वारा "भु-वैकुंठ" (भु-वैकुंठ अर्थात पृथ्वी पर श्री हरि विष्णु भगवान के निवास का स्थान) कहा जाता हैं।[3] महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना के भक्त, पंढरपुर में श्री विट्ठल मन्दिर मे ज्ञानेश्वरजी (१३वीं शताब्दी) के समय से आते हैं।[4]
पंढरपुर के मुख्य मंदिर में बड़वा परिवार के ब्राह्मण पुजारी पूजा-विधी करते हैं। इस पूजा में पांच दैनिक संस्कार होते हैं। प्रथम संस्कार : सुबह लगभग ३ बजे, भगवान को जागृत करने के लिए एक अरती है, जिसे काकडआरती कहा जाता है। द्वितीय संस्कार :पंचामृतपुजा होती हैं, जिसमें पंचामृत के साथ स्नान भी कराया जाता हैं और मुर्ती का सुबह के भक्तों के दर्शन लिए शृंगार किया जाता हैं। तृतीय संस्कार : एक और पूजा है जिसमें दोपहर का भोजन और मूर्ति का शृंगार किया हैं। इसे माध्यान्यपूजा के रूप में जाना जाता हैं।
चतुर्थ संस्कार : दोपहर की भक्ती के पश्चात सूर्यास्त पर रात का भोजन होते है जिसे अपराह्णपूजा कहते हैं। पंचम संस्कार :सेजार्ती होती है जो रात १० के पश्चात भगवान को सुलाने के लिये की जाती हैं।[5]
मंदिर
- हम्पी
मंदिर की विशेषता यह है कि यहां पर कुछ स्थान ऐसे हैं जिसे खटखटाया जाए तो उसमें से संगीत के सातों स्वरों की ध्वनि निकलती है। विजय विठला मंदिर हंपी बाजार से 2 किलोमीटर की दूरी पर है। इस मंदिर में जाकर आप विष्णु भगवान से मन्नत भी मांग सकते हैं और वहां के स्तंभ पे आप स्वर बजा के भी देख सकते है।
पत्थर का रथ
यह भारत में तीन प्रसिद्ध पत्थर रथों में से है,अन्य दो कोणार्क (ओडिशा) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में हैं। 16वीं शताब्दी में इसका निर्माण विजयनगर शासक राजा कृष्णदेवराय के आदेश पर किया गया था। यह मंदिर भगवान विष्णु के आधिकारिक वाहन गरुड़ को समर्पित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने सुरक्षा के लिए हम्पी में विजया विटाला मंदिर परिसर में प्रसिद्ध पत्थर के रथ के चारों ओर लकड़ी के बैरिकेड् लगा दिए हैं। यह यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर स्थल भी है। ऐसा विट्ठल मंदिर परिसर में पत्थर के रथ की सुरक्षा के लिये कदम उठाए गए हैं।
डिज़ाइन
द्रविड़ शैली में निर्मित, रथ पर नक्काशी की गई है जिसमें पौराणिक युद्ध के दृश्य दिखाए गए हैं। दो विशालकाय पहियों पर खड़े होकर दो हाथी रथ को खींचते हुए दिखाई देते हैं। यह पत्थर का रथ इकट्ठे किए गए कई छोटे पत्थरों से बना हुआ है। विजयनगर साम्राज्य के अंत में सेना के आक्रमण से पत्थर का रथ आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था।[6]
- पंढरपुर
महाराष्ट्र का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। भीमा नदी के तट पर बसा यह गांव शोलापुर जिले में अवस्थित है। इस गांव में भगवान कृष्ण और उनकी पत्नी रुक्मिणी का विट्ठल रुक्मिणी मंदिर नाम का एक मंदिर है। इस मंदिर में भगवान कृष्ण और देवी रुक्मिणी के काले रंग की सुंदर मूर्तियां हैं। यह मंदिर भक्तों के लिए गहरी आस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस मंदिर में विठोबा के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की जाती है।
पौराणिक कथा
छठीं शताब्दी में पुंडलिक नामक एक भक्त पंढरपुर, महाराष्ट्र में जन्मे. पुंडलिक जी का अपने माता-पिता एवं अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण में अनन्य भाव था | भक्त पुंडलिक अत्यंत सरल, मीठे, एवं सहज व्यक्ति थे और श्रीकृष्ण को उनका यह स्वभाव बहुत पसंद था | एक दिन श्रीकृष्ण तैयार होकर कहीं जाने लगे, उन्हें जाता देख रुक्मणि जी ने उनसे पूछा तो प्रभु ने उत्तर दिया कि वे एक भक्त के दर्शन हेतु पृथ्वी पर जा रहे हैं |
यह सुनकर उनका भी मन साथ जाने का हुआ| अतः उन्होंने भगवान से अपनी इच्छा व्यक्त की और दोनों उस भक्त के द्वार पर प्रकट हुए और बोले, “पुंडलिक!, देखो बालक हम रुक्मिणी जी के साथ तुम्हें दर्शन देने आए हैं ”| उस वक़्त पुंडलिक अपने पिता के पैर दबा रहे थे तथा वे भगवान से बोले, “हे नाथ! मैं अभी अपने पिताजी की सेवा में लगा हूं तो आपको थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, तब तक आप इस ईंट पर खड़े होकर थोड़ी प्रतीक्षा करें ”| यह बातें कहकर वे पुनः पिताजी की सेवा में लीन हो गए | यह वार्ता सुन रुक्मिणी जी भी चकित हो गईं |[7]
तब नाम पड़ा विट्ठल
भगवान ने वैसा ही किया जैसा भक्त पुंडलिक ने कहा. भगवान कमर पर दोनों हाथ रखकर, एक ईंट पर खड़े हो गए और साथ ही रुक्मिणी जी भी ईंट पर ही खड़े होकर प्रतीक्षा करनी लगीं. पिताजी की सेवा से निवृत्त होकर उसने पीछे की ओर देखा तो तब तक प्रभु मूर्ति रूप ले चुके थे |
विट्ठल जी को दूध पिलाना
एक दिन माता-पिता को किसी कार्यवश दूर अन्य गाँव जाना पड़ा। अपने पुत्र नामदेव से कहा कि पुत्र! हम एक स प्ताह के लिए अन्य गाँव में जा रहे हैं। आप घर पर रहना। पहले बिठ्ठल जी को दूध का भोग लगाना, फिर बाद में भोजन खाना। ऐसा नहीं किया तो भगवान बिठ्ठल नाराज हो जाऐंगे और अपने को श्राप दे देंगे। अपना अहित हो जाएगा। यह बात माता-पिता ने नामदेव से जोर देकर और कई बार दोहराई और यात्रा पर चले गए।
नामदेव जी ने सुबह उठकर स्नान करके, स्वच्छ वस्त्र पहनकर दूध का कटोरा भरकर भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया और दूध पीने की प्रार्थना की, परंतु मूर्ति ने दूध नहीं पीया। भक्त ने भी भोजन तक नहीं खाया। तीन दिन बीत गए। प्रतिदिन इसी प्रकार दूध मूर्ति के आगे रखते और विनय करते कि हे बिठ्ठल भगवान! दूध पी लो। आज आपका सेवादार मर जाएगा क्योंकि और अधिक भूख सहन करना मेरे वश में नहीं है। माता-पिता नाराज होंगे। भगवान मेरी गलती क्षमा करो। मुझसे अवश्य कोई गलती हुई है। जिस कारण से आप दूध नहीं पी रहे। माता-पिता जी से तो आप प्रतिदिन भोग लगाते थे।
संत नामदेव जी को ज्ञान नहीं था कि माता-पिता कुछ देर दूध रखकर भरा कटोरा उठाकर अन्य दूध में डालते थे। वह तो यही मानता था कि बिठ्ठल जी प्रतिदिन दूध पीते थे। चौथे दिन बेहाल बालक ने दूध गर्म किया और दूध मूर्ति के सामने रखा और कमजोरी के कारण चक्कर खाकर गिर गया। फिर बैठे-बैठे अर्जी लगाने लगा तो उसी समय मूर्ति के हाथ आगे बढ़े और कटोरा उठाया। सब दूध पी लिया। नामदेव जी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। फिर स्वयं भी खाना खाया, दूध पीया। फिर तो प्रतिदिन बिठ्ठल भगवान जी दूध पीने लगे।
सात-आठ दिन पश्चात् नामदेव के माता-पिता लौटे तो सर्वप्रथम पूछा कि क्या बिठ्ठल जी को दूध का भोग लगाया? नामदेव ने कहा कि माता-पिता जी! भगवान ने तीन दिन तो दूध नहीं पीया। मुझ से पता नहीं क्या गलती हुई। मैंने भी खाना नहीं खाया। चौथे दिन भगवान ने मेरी गलती क्षमा की, तब सुबह दूध पीया। तब मैंने भी खाना खाया, दूध पीया। माता-पिता को लगा कि बालक झूठ बोल रहा है इसीलिए कह रहा है कि चौथे दिन दूध पीया। मूर्ति दूध कैसे पी सकती है? माता पिता हैरान हुए और कहा सच-सच बता बेटा, नहीं तो तुझे पाप लगेगा। बिठ्ठल भगवान जी ने वास्तव में दूध पीया है। नामदेव जी ने कहा, माता-पिता वास्तव में सत्य कह रहा हूँ। पिताजी ने कहा कि कल सुबह हमारे सामने दूध पिलाना।[8]
कर्म न यारी देत है, भसमागीर भस्मन्त। कर्म व्यर्थ है तास का, जे रीझै नहीं भगवन्त।।
जो खेत में बीज नहीं बोता है। फिर वर्षा हो जाती है। यदि वह मूर्ख फसल पाने की आशा लगाता है तो भी व्यर्थ है। भावार्थ है कि भक्ति कर्म भी करे और परमेश्वर का कृपा पात्र भी बना रहे तो जीव को लाभ होगा। परमात्मा में भाव बनाए रखने के लिए मूर्ति स्थापित की जाती थी। जिस जीव का जिस भी अराध्य देव में भाव होता है वह उसे उसी रूप में दर्शन भी दे देता है ताकि जीव का भक्ति और भगवान में भाव बना रहे।।।
प्रसिद्धि
- विट्ठल मंदिर एक 15वीं सदी की संरचना है जो भगवान विट्ठल या भगवान विष्णु को समर्पित है।
- तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह मंदिर मूल दक्षिण भारतीय द्रविड़ मंदिरों की स्थापत्य शैली का प्रतिनिधित्व करता है।
- विट्ठल मंदिर का निर्माण राजा देवराय द्वितीय के शासनकाल (1422 से 1446 ईसवी) के दौरान किया गया था और यह मंदिर विजयनगर साम्राज्य द्वारा अपनाई गई शैली का प्रतीक है।
- रंग मंडप और 56 संगीतमय स्तंभ जिन्हें थपथपाने से संगीत सुनाई देता है, विट्ठल मंदिर की उत्कृष्ट आकृतियां हैं।
वारकरी सम्प्रदाय
वारकरी सम्प्रदाय अथवा वारकरी पंथ भारत में एक महत्वपूर्ण वैष्णव सम्प्रदाय है जो एकेश्वरवाद मे मानते और विठ्ठल की पूजा पर ध्यान केंद्रित करते है।[9][10] वारकरीयों के अनुसार इस सम्प्रदाय का आरंभ पुंडलिक ने किया जो कि उनके मराठी घोष "पुंडलिकवरदे हरि विठ्ठल" (अर्थ: हरि विठ्ठल, जिसने पुंडलिक को वरदान दिया है) को पुरावा मानत है।[11] कुछ मानते हैं कि पंथ ज्ञानेश्वर जी द्वारा बनाया गया है जो उन्हे श्रेय देते मराठी में कहते है "ज्ञानदेवे राचीला पाया" (अर्थ: ज्ञानेश्वर ने नींव रखी)।[12][13]
नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, जनाबाई, विसोबा खेचर, सेना न्हावी, नरहरी सोनार, सावता माळी, गोरा कुंभार, कान्होपात्रा, चोखामेला, शेख मोहम्मद जैसे कई सन्तोंने वारकरी सम्प्रदाय अपनाया और उसे बढावा दिया।[14] लिंग, जाति, आर्थिक पृष्ठभूमि, शूद्र के सभी पूर्वाग्रहों के बिना, जो सभी विट्ठल को माता-पिता और पंढरपुर को माइके के रूप में मानते है, उन सभी का संप्रदाय में स्वीकार होता हैं। वारकरी अक्सर विठ्ठल का जाप करते हैं और हर महीने की एकादशी पर उपवास करते हैं। [11][15]
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