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विजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य
ವಿಜಯನಗರ ಸಾಮ್ರಾಜ್ಯ
విజయనగర సామ్రాజ్యము
साम्राज्य
1336–1646

ध्वज

राजधानीविजयनगर
शासनराजतन्त्र
महाराज और सम्राट
 -  15वीं शताब्दी सम्राट
सम्राट कृष्णदेवराय
इतिहास
 - स्थापित 1336
 - अंत 1646
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विजयनगर साम्राज्य - 15वीं सदी में

विजयनगर साम्राज्य (संस्कृत: विजयनगरसाम्राज्यम् ) (जिसे कर्णट साम्राज्य[1] और पुर्तगालियों द्वारा बिसनेगर साम्राज्य भी कहा जाता था) भारत के डेक्कन(दक्खन) क्षेत्र में स्थित था। यह 1336 में संगमा राजवंश के दो भाई हरिहर राय और बुक्का राय,[2][3][4] द्वारा स्थापित किया गया था।[5][6][7]

विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने 310 वर्ष तक राज किया। इसका वास्तविक नाम कर्नाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। पुर्तगाली इस साम्राज्य को बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे।

लगभग सवा दो सौ वर्ष के उत्कर्ष के बाद सन 1565 में इस राज्य की भारी पराजय हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण रूप में यह 70 वर्ष और चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है।

परिचय

दक्षिण भारत के नरेश मुगल सल्तनत के दक्षिण प्रवाह को रोकने में बहुत सीमा तक असफल रहे। मुग़ल उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में समर्थ रहे। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है।

दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर उसकी गोद में पला। और विजयनगर को साम्राज्य में बदलने में योगदान है भारत के देशभक्त रक्षक कृष्ण देव राय का। उन्होंने नदी के किनारे प्रधान नगरी हंपी पर महज 300 सैनिकों के साथ हमला किया और बेहतरीन रणनीति के साथ सफल हुए । विजयनगर के पूर्वी दिशा के पड़ोसी राज्य के होयसल नरेशों का प्रधान स्थान था हंपी । इस हमले के बाद वह किसी भी हाल में विजयनगर का उदय नहीं देखना चाह रहे थे। क्योंकि विजयनगर के पूर्वगामी पड़ोसी राज्य होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यहीं था। लेकिन होयसल यह सोचकर निश्चिंत थे की विजयनगर से होयसल राज्यों का मार्ग दुर्गम है इसलिए उत्तर के महान सम्राट् धनानंद भी दक्षिण में विजय करने का संकल्प पूरा न कर सके।

द्वारसमुद्र के शासक वीर वल्लाल तृतीय ने दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कम्पिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ऐसी परिस्थिति में दिल्ली के सुल्तान ने मलिक मुहम्मद की सहायता के लिए दो (हिन्दू) कर्मचारियों को नियुक्त किया जिनके नाम हरिहर तथा बुक्क थे उस समय कृष्णदेव राया ने वीर वल्लाल को समझाने की कोशिश की मगर सफल नहीं हुए। बाद में वे दिल्ली सुल्तान से मिल कर अपने दोनों भाइयों को शामिल करते हुए कृष्ण देव राय के स्वतंत्र विजयनगर राज्य पर हमला किया मगर तीनों सेनाओं को पराजय का मुख देखना पड़ा । सन् 1336 ई. में कृष्ण देव राय के आचार्य हरिहर ने वैदिक रीति से शंकर प्रथम का राज्याभिषेक संपन्न किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर नामक नगर का निर्माण किया।

युद्ध में उपयोग के लिए पाली गयी हाथियों की गजशाला

विजयनगर राज्य में विभिन्न तरह के मन्त्रालय बनाए गये जिसमें शासन मन्त्रालय भी था जिसका इस्तेमाल तब होता था जब राजा सही फैसला न ले पाए। विजयनगर में प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेशों की कमी न थी। युद्धप्रिय होने के अतिरिक्त, सभी हिन्दू संस्कृति के रक्षक थे। स्वयं कवि तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। कृष्ण देव राय संगम नामक चरवाहे के पुत्र थे उनको उनके राज्य से निकाल दिया गया था । अतएव उन्होने संगम सम्राट् के नाम से शासन किया। विजयनगर राज्य के संस्थापक शंकर प्रथभ ने थोड़े समय के पश्चात् अपने वरिष्ठ तथा योग्य बन्धु महादेव राय को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। संगम वंश के तीसरे प्रतापी नरेश संगम महावीर द्वितीय ने विजयनगर राज्य को दक्षिण का एक विस्तृत, शक्तिशाली तथा सुदृढ़ साम्राज्य बना दिया। हरिहर द्वितीय के समय में सायण तथा माधव ने वेद तथा धर्मशास्त्र पर निबन्धरचना की। उनके वंशजों में द्वितीय देवराय का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् संगम राज्य को उन्नति का चरम सीमा पर पहुँचा दिया। मुग़ल रियासतों से युद्ध करते हुए, देबराय प्रजापालन में संलग्न रहा। राज्य की सुरक्षा के निमित्त तुर्की घुड़सवार नियुक्त कर सेना की वृद्धि की। उसके समय में अनेक नवीन मन्दिर तथा भवन बने।

दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने 1485 से 1490 ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने 1490 से 1503 ई. तक शासन किया और दक्षिण में कावेरी के सुदूर भाग पर भी विजयदुन्दुभी बजाई। तुलुब वंश में हंगामा तब हुआ जब कृष्णदेव राय का नाम राजा बनने में सबसे आगे था। उन्होंने 1509 से 1539 ई. तक शासन किया और विजयनगर को भारत का उस समय का सबसे बड़ा साम्राज्य बना दिया बस दिल्ली एकमात्र स्वतन्त्र राज्य था। कृष्ण देव राय के शासन में आने के बाद उन्होंने अपनी सेना को इस स्तर तक पहुँचाया। 1.50 लाख घुड़सवार सैनिक 88,000 पैदल सैनिक 20,000 रथ 64,000 हाथी और 1.50 लाख घोड़े 15,000 तोप इत्यादि। वे महान प्रतापी, शक्तिशाली, शान्तिस्थापक, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक थे। उन्होंने विद्रोहियों को दबाया, ओडिशा पर आक्रमण किया और पुरे भारत के भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक सन्धि करने की विनती की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हो सकती थी लेकिन कृष्ण देव राय ने मना कर दिया और पुर्तगालीयों सहित 42 विदेशी शक्तियों को भारत से खदेड़ कर बाहर किया। तुलुव वंश का अन्तिम राजा सदाशिव परम्परा को कायम न रख सका। सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया।

हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं।

हम्पी के विरुपक्ष मन्दिर के अलंकृत स्तम्भ

विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है।

विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था।

भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं।

बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। विजयनगर की कला धार्मिक प्रवृत्तियों के कारण जटिल हो गई। मन्दिरों के विशाल गोपुरम् तथा सुन्दर, खचित स्तम्भयुक्त मण्डप इस युग की विशेषता हैं। विजयनगर शैली की वास्तुकला के नमूने उसके मन्दिरों में आज भी शासकों की कीर्ति का गान कर रहे हैं।

स्थापत्य कला

इस साम्राज्य के विरासत के तौर पर हमें संपूर्ण दक्षिण भारत में स्मारक मिलते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध हम्पी के हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित मंदिर निर्माण की अनेक शैलियाँ इस साम्राज्य ने संकलित कीं और विजयनगरीय स्थापत्य कला प्रदान की। दक्षिण भारत के विभिन्न सम्प्रदाय तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण इस नई प्रकार की मंदिर निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। स्थानीय कणाश्म पत्थर का प्रयोग करके पहले दक्कन तथा उसके पश्चात् द्रविड़ स्थापत्य शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। धर्मनिर्पेक्ष शाही स्मारकों में उत्तरी दक्कन सल्तनत की स्थापत्य कला की झलक देखने को मिलती है।

उत्पत्ति

इस साम्राज्य की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं। इनमें से सबसे अधिक विश्वसनीय यही है कि संगम के पुत्र हरिहर तथा बुक्का ने हम्पी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली और विजयनगर को राजधानी बनाकर अपने राज्य का नाम अपने गुरु के नाम पर विजयनगर रखा[8]

दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रवेश अलाउद्दीन खिल्जी के समय हुआ था। लेकिन अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो राज्य मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है कि अपने इस उद्येश्य में असफलता के कारण वे दक्षिण में ही रह गए और विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म को पुनः अपना लिया। इस तरह मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की गई।

साम्राज्य विस्तार

विजयनगर की स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने कई कठिनाईयां थीं। वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे। देवगिरि का सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था। हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी। होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी बाग पर अधिकार कर लिया। बाद में वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया। बल्लाल के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे। इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

हरिहर के बाद बुक्का सम्राट बना हंलाँकि उसने ऐसी कोई उपाधि धारण नहीं की। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा मान ली गई। बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ। हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

शासकों की सूची

हम्पी स्थित प्राचीन बाजार

संगम वंश

सलुव वंश

तुलुव वंश

अरविदु वंश

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. Stein 1989, पृ॰ 1.
  2. Longworth, James Mansel (1921), p.204, The Book of Duarte Barbose, Asian Educational Services, New Delhi, ISBN 81-206-0451-2
  3. J C Morris (1882), p.261, The Madras Journal Of Literature and Science, Madras Literary Society, Madras, Graves Cookson & Co.
  4. Sen, Sailendra (2013). A Textbook of Medieval Indian History. Primus Books. पपृ॰ 103–106. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-80607-34-4.
  5. Dhere, Ramchandra (2011). Rise of a Folk God: Vitthal of Pandharpur South Asia Research. Oxford University Press, 2011. पृ॰ 243. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780199777648.
  6. Lewis, Rice B (1897). Mysore: A gazetteer compiled for government, vol 1. Mysore: Archibald Constable & Co. पृ॰ 345.
  7. Sastri, Nilakanta (1935). K. A. Nilakanta Sastri Books: Further Source of Vijayanagara History Volume 1. पृ॰ 23.
  8. citebook | title=प्रान्तीय राज्य | page=171|

बाहरी कड़ियाँ