वाराणसी के पर्यटन स्थल
वाराणसी संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे ‘बनारस’ और ‘काशी’ भी कहते हैं। हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध की संस्कृति का गंगा नदी, श्री काशी विश्वनाथ मन्दिर एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है।[1]
शेख तकी सभी मुसलमानों का प्रमुख था अर्थात वह मुख्य पीर था जो पहले से ही कबीर जी से ईर्ष्या करता था। सभी ब्राह्मणों, मुल्लाओं और काजियों और शेख तकी ने एक बैठक की और साजिश रची कि कबीर एक गरीब आदमी है। उनके नाम से पत्र भेज दो कि कबीर जी काशी के बड़े व्यापारी हैं। उनका पूरा पता कबीर पुत्र नूर अली अंसारी, बुनकरों की बस्ती, काशी सिटी है। कबीर जी तीन दिवसीय धार्मिक सामूहिक भोज का आयोजन करेंगे। सभी साधु-संतों काजी-मौलवियों को आमंत्रित किया जाता है। वह प्रतिदिन एक दोहर (उस समय का सबसे महंगा कंबल) और एक मोहर (सोने से बना एक गोलाकार 10 ग्राम मोहर) का उपहार हर उस व्यक्ति को देगा जो भोजन करेगा। एक व्यक्ति एक दिन में चाहे कितनी ही बार भोजन करे, कबीर उस व्यक्ति को हर बार एक दोहर और एक मोहर प्रतिदिन देगा। लड्डू, जलेबी, हलवा, खीर, दही बड़े, माल पूंए, खाने में रसगुल्ले आदि सभी मिठाइयां मिलेंगी। यहां तक कि सूखी सामग्री (आटा, चावल, दाल आदि कच्चा सूखा पदार्थ, घी और शक्कर) भी दिया जाएगा। शेखतकी ने एक पत्र अपने और बादशाह सिकंदर लोधी के नाम भी भिजवा दिया। निर्धारित दिन से पूर्व की रात साधु-संत जुटने लगे। सांप्रदायिक भोजन अगले दिन होना था।संत रविदासपरमेश्वर ने कबीर जी को बताया कि - 'करीब 18 लाख साधु, संत और भक्त आपके नाम का पत्र लेकर काशी पहुंचे हैं। उन सभी को सामूहिक भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया है। कबीर जी, अब हमें काशी छोड़ कर कहीं और जाना होगा।' कबीर जी सब कुछ जानते थे, फिर भी अभिनय कर रहे थे। उन्होंने कहा, "रविदास जी, झोंपड़ी के अंदर बैठिए और डोर-चेन लगाइए और दरवाज़ा बंद कर लीजिए। वे खुद ही अपना समय बर्बाद कर लौट आएंगे। हम बाहर बिल्कुल नहीं जाएंगे। परमेश्वर कबीर जी अपनी राजधानी सत्यलोक पहुंचे। नौ लाख बैलों पर गधों की भाँति थैलियाँ लादकर, सभी पकाई हुई सामग्री और सूखी सामग्री (चावल, आटा, शक्कर, खांड = अपरिष्कृत चीनी, दाल, घी आदि) को लादकर वह वहाँ से पृथ्वी पर उतरा। परिचारक भी सत्यलोक से ही आए थे। परमेश्वर कबीर जी ने स्वयं 'बंजारा' का रूप धारण किया और अपना नाम केशव बताया।दिल्ली के सिकंदर बादशाह और उनके धार्मिक पीर शेख तकी भी आए। काशी में सामूहिक भोज चल रहा था। सभी को एक दोहर और एक सोना मोहर (10 ग्राम) दान के रूप में दिया जा रहा था। कुछ बेईमान संत और काजी (मौलवी)दिन में चार बार भोजन करके चारों समय दोहर और मोहर ले रहे थे। कुछ कच्चा सूखा पदार्थ (चावल, शक्कर, घी, दाल, आटा आदि) भी ले रहे थे।
भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा करीब 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर गोमुख से गंगासागर तक जाती है। इस पूरे रास्ते में गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। केवल वाराणसी में ही गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। यहां लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 4 मील लम्बे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सीघाट, दश्वमेद्यघाट, आदिकेशवघाट, पंचगंगाघाट तथा मणिकर्णिकघाट। अस्सीघाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशवघाट सबसे उत्तर में स्थित हैं।
हर घाट की अपनी अलग-अलग कहानी है। तुलसीघाट प्रसिद्ध कवि तुलसीदास से संबंधित है। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की थी। कहा जाता है कि तुलसीदास ने अपना आखिरी समय यहीं व्यतीत किया था। इसी के समीप बच्चाराजा घाट है। यहीं पर जैनों के सातवें तीर्थंकर सुपर्श्वनाथ का जन्म हुआ था। अब यह जैनघाट के नाम से जाना जाता है। चेत सिंह घाट एक किला की तरह लगता है। चेत सिंह बनारस के एक साहसी राजा थे जिन्होंने 1781 ई. में वॉरेन हेस्टिंगस की सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। महानिर्वाणी घाट में महात्मा बुद्ध ने स्नान किया था। हरिश्चंद्र घाट का संबंध राजा हरिश्चंद्र से है। मणिकर्णिघाट पर स्थित भवनों का निर्माण पेशवा बाजीराव तथा अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। 'दूध का कर्ज' मंदिर को जरुर देखना चाहिए। लोक कथाओं के अनुसार एक अमीर घमण्डी पुत्र ने इस मंदिर को बनवाया और इसे अपनी मां को समर्पित कर दिया। उसने अपनी मां से कहा मैंने तेरे लिए मंदिर बनवाकर तेरा कर्ज चुका दिया। तब उसकी मां ने कहा कि दूध का कर्ज कभी चुकाया नहीं जा सकता। तभी से इस मंदिर का नाम दूध का कर्ज मंदिर पड़ गया। पंचगंगा घाट भी काशी के ऐतिहासिक गंगा घाटों में एक है। ये विष्णु काशी क्षेत्र में आता है। यहां कार्तिक माह में स्नान का बड़ा पुण्य माना गया है। कार्तिक में आकाशी द्वीप जलाने की सदियों पुरानी परम्परा है। यहीं पर ऐतिहासिक विन्दु माधव भगवान का मंदिर, रामानंदाचार्य पीठ के नाम से विख्यात श्रीमठ और तैलंग स्वामी का समाधी स्थल भी है। पंचगंगा घाट की सीढियों पर हीं कभी कबीर दास को स्वामी रामानंद ने तारक राममंत्र की दीक्षा दी थी और उन्हें अपना शिष्य बनाया था। देव दीपावली के दिन यहां मेला सजता है। श्रीमठ के पास हीं रानी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित हजारा द्वीप स्तम्भ भी दर्शनीय है। गांगा घाटों की सैर करने वाले हजारो तीर्थयात्री प्रतिदिन वहां रूके वगैर आगे नहीं बढ़ते.
यूं तो गंगा नदी बनारस के लोगों की जीवनरेखा है। यहां सुबह से ही घाट पर लोगों का आनाजाना शुरु हो जाता है। दश्वमेद्यघाट पर होने वाली आरती को जरुर देखना चाहिए। यह आरती सुबह और शाम 6:30 बजे होती है। वाराणसी भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में गंगा नदी के किनारे स्थित एक शहर है यह एक पर्यटक स्थल भी है। यहां आने वाला कोई भी इंसान इस जगह पर आकर बहुत ही हल्का महसूस करता है वाराणसी अपने कई विशाल मंदिरों के अलावा घाटों और अन्य कई लोकप्रिय स्थानों से हर साल यहां आने वाले लाखों पर्यटकों को बेहद आकर्षित करता है। यह स्थल केवल भारतीय यात्रियों के लिए ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटकों द्वारा भी काफी पसंद किया जाता है। एक महत्वपूर्ण धार्मिक शहर होने के साथ-साथ, वाराणसी शिक्षा और संस्कृति का भी मुख्य केंद्र है। शहर का बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी(बी.एच.यू) एशिया का सबसे बड़ा यूनिवर्सिटी है।
मूल काशी विश्वनाथ मंदिर बहुत छोटा था। 18वीं शताब्दी में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने इसे भव्य रूप प्रदान किया। सिख राजा रंजीत सिंह ने 1835 ई. में इस मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था। इस कारण इस मंदिर का एक अन्य नाम गोल्डेन टेम्पल भी पड़ा।
यह मंदिर कई बार ध्वस्त हुआ। वर्तमान में जो मंदिर है उसका निर्माण चौथी बार में हुआ है। कुतुबुद्दीन ऐबक ने सर्वप्रथम इसे 1194 ई. में ध्वस्त किया था। रजिया सुल्तान (1236-1240) ने इसके ध्वंसावशेष पर रजिया मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का निर्माण अविमुक्तेश्वर मंदिर के नजदीक बनवाया गया। बाद में इस मंदिर को जौनपुर के शर्की राजाओं ने तोड़वा दिया। 1490 ई. में इस मंदिर को सिंकदर लोदी ने ध्वंस करवाया था। 1585 ई. में बनारस के एक प्रसिद्ध व्यापारी टोडरमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। 1669 ई. में इस मंदिर को औरंगजेब ने पुन: तोड़वा दिया। औरंगजेब ने भी इस मंदिर के ध्वंसावशेष पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।[2]
मूल मंदिर में स्थित नंदी बैल की मूर्त्ति का एक टुकड़ा अभी भी ज्ञानवापी मस्जिद में दिखता है। इसी मस्जिद के समीप एक ज्ञानवापी कुंआ भी है। विश्वास किया जाता है कि प्राचीन काल में इसे कुएं से अविमुक्तेश्वर मंदिर में पानी की आपूर्ति होती थी। 1669 ई. में जब काशी विश्वनाथ के मंदिर को औरंगजेब द्वारा तोड़ा जा रहा था तब इस मंदिर में स्थापित विश्वनाथ की मूर्त्ति को इसी कुएं में छिपा दिया गया था। जब वर्तमान काशी विश्वनाथ का निर्माण हुआ तब इस कुंए से मूर्त्ति को निकाल कर पुन: मंदिर में स्थापित किया गया। इस मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। ये मंदिर विष्णु, अविमुक्ता विनायक,ढुण्ढीराज गणेश,पञ्चमुखी गणेश, अन्नपूर्णा मंदिर,दण्डपाणिश्वर, काल भैरव तथा विरुपक्ष गौरी का मंदिर है।
इस मंदिर से संबद्ध अन्य सांस्कृतिक उत्सव: फागुन (फरवरी-मार्च) में शिवरात्रि के उत्सव के दौरान यहां जरुर आना चाहिए। इस दौरान मंदिर के देवता का श्रृंगार किया जाता है। रंगभरी एकादशी भी यहां बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दौरान शिवभक्त भगवान शिव की मूर्त्ति को लाल रंग के चूर्ण से रंग देते है। पंचकरोशी यात्रा प्रत्येक साल अप्रैल के महीने में होती है। दुर्गा पूजा (सितम्बर-अक्टूबर) के दौरान मनाया जाता है। भरत मिलाप उत्सव विजयादशमी को मनाया जाता है। इस दिन संस्कृत विश्वविद्यालय के समीप मेला लगता है। दीपावली के समय का यहां का गंगा स्नान भी काफी प्रसिद्ध है। दीपावली के अगले दिन यहां अन्नाकूता उत्सव मनाया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दौरान यहां सभी घाटों को मृत्यु के देवता यमराज के सम्मान में दीयों से सजाया जाता है।
बदास जी महाराज ने अपनी अमृतवाणी में कहा है-
मुक्तिखेत को छाड़ि चले है, तज काशी अस्थाना हो।
कबीर जी कहते थे कि जैसी काशी है वैसा ही मगहर है, केवल हृदय में सच्चा राम होना चाहिए, यदि आप सतभक्ति करते हो तो आप कहीं भी प्राण त्यागो, आप मोक्ष के अधिकारी हो।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बसे मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा।।
अर्थ- जिसके हृदय में भगवान का वास है, उसके लिए काशी और मगहर दोनों एक ही समान हैं। यदि काशी में रहकर कोई प्राण का त्याग करें तो इसमें भगवान का कौन सा उपकार होगा? भाव है की भले ही काशी हो या फिर मगहर यदि हृदय में भगवान का वास है तो कहीं भी प्राणों का त्याग किया जाये तो भगवान सदा उसके साथ हैं।
इसके आसपास के अन्य मंदिर
काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर माता अन्नपूर्णा का मंदिर है। इन्हें तीनों लोकों की माता माना जाता है। कहा जाता है कि इन्होंने स्वयं भगवान शिव को खाना खिलाया था। इस मंदिर की दीवाल पर चित्र बने हुए हैं। एक चित्र में देवी कलछी पकड़ी हुई हैं।
पंचक्रोशी यात्रा को पूरा कर तीर्थयात्री साक्षी गणेश मंदिर को देखने जरुर आते हैं। इस मंदिर के दर्शन के बाद ही वे अपनी यात्रा को पूर्ण मानते हैं।
विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर काशी विशालाक्षी मंदिर है। यह पवित्र 51 शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि यहां शिव की पत्नी सती का आंख गिरा था।
अन्य मंदिर
इस शहर में अनगिनत मंदिर हैं। जगन्नाथ मंदिर अस्सीघाट के निकट स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में पुरी के प्रसिद्ध मंदिर के अनुकृति के रूप में किया गया था। आषाढ़ महीने (जून-जुलाई) में यहां भी रथ यात्रा आयोजित की जाती है। लक्ष्मीनारायण पंचरत्न मंदिर भी अस्सीघाट के निकट है। अस्सी संगमेश्वर मंदिर भी यहीं पर है।
तुलसीघाट से पैदल दूरी पर पवित्र लोलार्क कुंड है। महाभारत में भी इस कुण्ड का उल्लेख मिलता है। रानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस कुण्ड के चारों तरफ कीमती पत्थर से सजावट करवाई थी। यहां पर लोलाकेश्वर का मंदिर है। भादो महीने (अगस्त-सितम्बर) में यहां मेला लगता है।
अस्सी रोड से कुछ ही दूरी पर आनन्द बाग के पास दुर्गा कुण्ड है। यहां संत भास्करानंद की समाधि है। यहां पर एक दुर्गा मंदिर भी है। मंगलवार और शनिवार को इस मंदिर में भक्तों की काफी भीड़ रहती है। इसी के पास हनुमान जी का संकटमोचन मंदिर है। महत्ता की दृष्टि से इस मंदिर का स्थान काशी विश्वनाथ और अन्नपूर्णा मंदिर के बाद आता है।
केदार घाट के पास केदारेश्वर मंदिर है। यह मंदिर 17वीं शताब्दी में औरंगजेब के कहर से बच गया था। इसी के समीप गौरी कुण्ड है। इसी को आदि मणिकर्णिका या मूल मणिकर्णिका कहा जाता है।
मणिकर्णिका घाट के समीप विष्णु चरणपादुका है। इसे मार्बल से चिन्हित किया गया है। इसे काशी का पवित्रतम स्थान कहा जाता है। अनुश्रुति है कि भगवान विष्णु ने यहां ध्यान लगाया था। इसी के समीप मणिकर्णिका कुण्ड है। माना जाता है कि भगवान शिव का मणि तथा देवी पार्वती का कर्णफूल इस कुण्ड में गिरा था। चक्रपुष्कर्णी एक चौकोर कुण्ड है। इसके चारो ओर लोहे की रेलिंग बनी हूई है। इसे विश्व का पहला कुण्ड माना जाता है।
यहां का काली भैरव मंदिर भी प्रसिद्ध है। यह मंदिर गोदौलिया चौक से 2 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में टाउन हॉल के पास स्थित है। इसमें भगवान शिव की रौद्र मूर्त्ति स्थापित है। इसी के नजदीक बिंदू महावीर मंदिर है। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।
कबीर जी 120 वर्ष तक इस पृथ्वीलोक में रहे और तत्वज्ञान का प्रचार किया। उस समय दिल्ली का बादशाह बहलोल लोदी का पुत्र सिकन्दर लोदी था जिसका पीर गुरु शेख तकी था। कबीर जी के तत्वज्ञान एवं चमत्कार के कारण अन्य मौलवी और ब्राह्मण जिनकी नकली दुकानें भोली जनता को गुमराह करके ठगने की बंद हो रही थीं वे कबीर जी से ईर्ष्या करने लगे। शेख तकी भी कबीर जी से ईर्ष्या करता था। इस कारण अनेकों बार कबीर जी को नीचा दिखाने व मार डालने की असफल योजनाएं बनाई गईं परन्तु असफल रही।
यह विश्वविद्यालय गोदौलिया चौक से 3.8 किलोमीटर दक्षिण में है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना पंडित मदन मोहन मालवीय ने की थी। यहां का भारत कला भवन संग्रहालय (समय: 10:30 बजे सुबह से शाम 4:30 बजे तक, जुलाई से अप्रैल महीने तक, 7:30 बजे सुबह से 12:30 दोपहर तक शनिवर, रविवार तथा विश्वविद्यालय में छुट्टी के दिन बंद रहता है) काफी समृद्ध है। इस संग्रहालय में लगभग 1,00,000 वस्तुएं हैं जो नौ गैलरियों में रखी गई हैं। इसी परिसर में प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर भी है। मानसिंह वेधशाला भी इसी परिसर में स्थित है। पत्थरों की बनी यह वेधशाला के अब ध्वंशावशेष ही शेष बचे हैं। यह वेधशाला पर्यटकों के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुली रहती है। शुक्रवार तथा सार्वजनिक अवकाश के दिन यह बंद रहता है। मान मंदिर घाट के पास एक स्मारक भी है। नदी के दूसरी ओर रामनगर किला तथा संग्रहालय (समय: सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक) है।
निकटवर्ती स्थल
(75 किलोमीटर) यहां देवी सीता का दोमंजिला मंदिर है। यह मंदिर मानसून के मौसम में चारों तरफ से पानी से घिर जाता है। माना जाता है कि देवी सीता यहीं पर धरती में समा गई थीं। इस मंदिर में देवी सीता की एक मूर्त्ति स्थापित है।
(78 किलोमीटर) यह इलाहाबाद से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक प्रसिद्ध शक्ितपीठ है। यहां विंध्यवासिनी देवी तथा अष्टभुजी देवी का मंदिर है। यहां सीता कुण्ड तथा कालीखोह मंदिर है। यह मंदिर देवी काली को समर्पित है।
- ↑ Sumit, Shakya (30 अक्टूबर 2023). "Varanasi Me Ghumne Ki Jagah | वाराणसी में घूमने की जगह". Ghoomte Raho. GhoomteRaho. अभिगमन तिथि 30 October 2023.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 24 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 अप्रैल 2010.