वाक्यपदीय
वाक्यपदीय, संस्कृत व्याकरण का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसे त्रिकाण्डी भी कहते हैं। वाक्यपदीय, व्याकरण शृंखला का मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नीतिशतक के रचयिता महावैयाकरण तथा योगिराज भर्तृहरि हैं। इनके गुरु का नाम वसुरात था। भर्तृहरि को किसी ने तीसरी, किसी ने चौथी तथा छठी या सातवी सदी में रखा है। वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने भाषा (वाच्) की प्रकृति और उसका वाह्य जगत से सम्बन्ध पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। यह ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है जिन्हें "कांड" कहते हैं। यह समस्त ग्रंथ पद्य में लिखा गया है। प्रथम "ब्रह्मकांड" है जिसमें 157 कारिकाएँ हैं, दूसरा "वाक्यकांड है जिसमें 493 कारिकाएँ हैं और तीसरा "पदकांड" के नाम से प्रसिद्ध है।
इसका प्रथम काण्ड ब्रह्मकाण्ड है जिसमें शब्द की प्रकृति की व्याख्या की गयी है। इसमें शब्द को ब्रह्म माना गया है और ब्रह्म की प्राप्ति के लिये शब्द को प्रमुख साधन बताया गया है।
दूसरे काण्ड में वाक्य के विषय में भर्तृहरि ने विभिन्न मत रखे हैं।
तीसरे काण्ड में अन्य दार्शनिक रीतियों के विषयों, जैसे - जाति, द्रव्य, काल आदि की चर्चा की गयी है। इसमें भर्तृहरि यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि विविध मत, एक ही वस्तु के अलग-अलग आयामों को प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार वे सभी दर्शनों को अपने व्याकरण आधारित दर्शन द्वारा एकीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं।
प्रथम काण्ड (ब्रह्मकाण्ड)
मूल में व्याकरण शास्त्र एक प्रकार से आगम शास्त्र है। इसकी अभिव्यक्ति महेश्वर से है। आगम के अनुसार शब्द के चार स्वरूप हैं - "परा", "पश्यंती", "मध्यमा" तथा "वैखरी"। इनमें "परा" ही ब्रह्म है। इसीलिए वाक्यपदीय की प्रथम कारिका में ही शब्दतत्व को अनादि और अनंत तथा अक्षर ब्रह्म कहा है। इसी परारूप ब्रह्म से संसार के पदार्थों की उत्पत्ति तथा व्यवहार विवर्तरूप में माना गया है। प्रथम कांड में, शब्दतत्व के दार्शनिक रूप का विचार है, अतएव इसे "ब्रह्मकांड" नाम दिया गया है और साधारण रूप में इसका वाचकत्व सिद्ध किया गया है। वस्तुत: यह आगमिक कांड है। आगम की दृष्टि से लिखा गया है।
इस कांड की कुछ उपयोगी तथा जानने योग्य बातें ये हैं-
उस ब्रह्म की प्राप्ति के उपाय तथा स्वरूप को महर्षियों ने "वेद" कहा है। यह एक होता हुआ भी अनेक मालूम होता है। इसीलिए ऋक् यजुष्, साम तथा अथर्वन् नाम से चार वेद कहे जाते हैं। ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 100, सामवेद की 1000 तथा अथर्ववेद की 9 मिलाकर 1130 शाखाएँ वेद की हुई। ऐसा होने पर भी सभी वेदों तथा उनकी शाखाओं का एकमात्र प्रतिपाद्य विषय "कर्म" है। यह स्मरण रखना है कि जो शब्द या मंत्र जिस स्वर में जिस शाखा में पढ़ा गया है वह शब्द उसी तरह उच्चारण किए जाने पर फल देनेवाला होता है। वही शब्द उसी रूप में दूसरी शाखा में पढ़े जाने से इस शब्दोच्चारण का फल होगा अन्यथा नहीं, अथवा अन्य कोई फल देगा।
आगम के बिना कर्तव्य एवं अकर्तव्य का निश्चय नहीं हो सकता। ऋषियों में जो अतींद्रिय वस्तु को देखने का ज्ञान है वह भी आगम ही के द्वारा प्राप्त है (वाक्य. 1.37)। तर्क के द्वारा कोई यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता, वह परिवर्तनशील है। ऊँचे स्तर के ऋषियों के लिए भूत और भविष्य सभी प्रत्यक्ष हैं। ज्ञान के स्वप्रकाश होने के कारण उसमें आत्मा का स्वरूप तथा घट आदि ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप दोनों भासित होते हैं। उसी प्रकार शब्द में अर्थ का स्वरूप और उसका अपना स्वरूप, दोनों की प्रतीति होती है।
जिस प्रकार जयापुष्प के के लाल रूप से संबद्ध ही स्फटिक का ग्रहण होता है उसी प्रकार स्फोट से मिली हुई ध्वनि का ही ग्रहण होता है। किसी का मत है कि जिस प्रकार इंद्रियों का गुण असंवेद्य होकर भी विषयों के ज्ञान का कारण है, उसी प्रकार ध्वनि असंवेद्य होती हुई भी शब्द के ज्ञान का कारण होती है। दूसरा मत है कि "दूरत्व" दोष के कारण स्फोट के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता, केवल ध्वनि का ही भान होता है। तीसरा मत है कि स्फोट का भान तो होता है परंतु दूरत्व दोष के कारण अस्फुट रहता है, जैसे दूर होने के कारण किसी वस्तु का "परिमाण" स्पष्ट रूप में भासित नहीं होता।
अणुओं में सभी प्रकार की शक्तियाँ हैं, इसीलिए भेद और संसर्ग (वियोग तथा संयोग) रूप में अणुओं से (संसार के सभी) कार्य होते हैं। ये अणु छाया, आतप, तमस् तथा शब्द के रूप में परिणत होते रहते हैं। ये शक्तियाँ अभिव्यक्त होने के समय में बड़े प्रयत्न से प्रेरित की जाती हैं। और जिस प्रकार (जल के परमाणुओं के क्रमश: इकट्ठे होने से) बादल बनते हैं उसी प्रकार शब्द के परमाणु क्रमश: इकट्ठे होकर सभी कार्य करते हैं। इन परमाणुओं का नाम "शब्द" या "शब्दपरमाणु" है।
इस प्रकार शब्द के आगमिक स्वरूप का विवेचन तथा शब्द ही से समस्त जगत् की सृष्टि का निरूपण ब्रह्मकांड में है।
द्वितीय काण्ड
द्वितीय कांड में "पद" वाचक है या "वाक्य" इसका विशद विचार है। भिन्न-भिन्न मतों का आलोचन है। इसी कांड में भर्तृहरि ने कहा है - शब्द और अर्थ एक ही परमतत्व के दो भेद हैं जो पृथक् नहीं रहते (2.31)। ऋषियों को तत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है किंतु उससे व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए व्यवहार के समय उन अनिर्वचनीय तत्वों का जिस प्रकार लोग व्यवहार करते हों उसी तरह सभी को करना चाहिए (2.143)। "प्रतिभा" को सभी प्रामाणिक मानते हैं और इसी के बल से पक्षियों के भी व्यवहार का ज्ञान लोगों को होता है (2। 149)। बीज बोने के साथ साथ "लाह" का रस आदि पदार्थ के मिला देने से उस बीज के फलों के रंग में तथा उसके फलों में भेद हो जाता है। "शास्त्रार्थ" की प्रक्रिया केवल अज्ञ लोगों को समझाने के लिए है, न कि तत्त्व के प्रतिपादन के लिए। शास्त्रों में प्रक्रियाओं के द्वारा अविद्या का ही विचार है। "अविद्या" के उपमर्दन के पश्चात् आगम के विकल्पों से रहित शास्त्रप्रक्रिया प्रपंचशून्य होने पर "विद्या" के रूप में प्रकट होती है। इसीलिए कहा है कि असत्य के मार्ग के द्वारा ही सत्य की प्राप्ति होती है, जैसे बालकों को पढ़ाते समय उन्हें पहले शास्त्रों का प्रतिपादन केवल प्रतारणमात्र होता है। इत्यादि दार्शनिक रूप से व्याकरण के तत्वों का विचार 493 कारिकाओं में दूसरे कांड में है।
तृतीय काण्ड
तीसरे कांड में "पदविचार" का प्रक्रम किया गया है। अर्थ द्वारा पदों की परीक्षा होती है। न्याय-वैशेषिक के मत में आकाश में सामान्य (जाति) नहीं है किंतु वाक्यपदीय के अनुसार मुख्य या औपाधिक देशभेद के कारण आकाश में भी जाति है (3.15-16)। "ज्ञान" स्वप्रकाश है। विषयज्ञान तथा उसका परामर्शज्ञान, ये दोनों भिन्न हैं। इस कांड में 13 खंड हैं जिनमें 450 से अधिक कारिकाओं में दार्शनिक रूप से व्याकरण के पदार्थों का विशद विचार किया गया है। यह कांड खंडित ही है।
टीकाएँ
वाक्यपदीय पर भूतिराज के पुत्र हेलाराज ने बहुत सुंदर तथा विस्तृत टीका लिखी है। आधुनिक समय में भी कुछ विद्वानों ने टीका लिखी है किंतु इन सबकी दृष्टि आगमिक न होने के कारण वाक्यपदीय का वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त होता। इसकी बहुत सी कारिकाएँ नष्ट हुई मालूम होती हैं। युधिष्ठिर मीमांसक तथा साधूराम ने लुप्त कारिकाओं पर कुछ विचार किए हैं। व्याकरण के आगमिक रूप के विचार में इस ग्रंथ के समान अन्य ग्रंथ बहुत नहीं हैं।