लोहस धातुकर्म
लोहस धातुकर्म (Ferrous metallurgy) में प्रथम स्थान लोह उत्पादन का आता है। भारत अति प्राचीन काल में लोह उत्पादन में अग्रणी रहा है। दिल्ली का लोहस्तंभ इस बात प्रत्यक्ष प्रमाण है। भारत की लोह अयस्क की खदानें विश्व की श्रेष्ठतम एवं विशालतम खदानों में से हैं। अनुमान लगाया गया है कि भारत के भूगर्भ में लगभग 10 अरब टन लोह अयस्क विद्यमान है।
लोह उत्पादन
लोह उत्पादन के लिए मुख्यत: चार कच्चे पदार्थों की आवश्यकता पड़ती हैं :
(1) लोह अयस्क, (2) ईधंन, (3) गालक फ्लक्स (flux) तथा (4) ऊष्मसह पदार्थ (refractory materials)
लोह अयस्कों वर्गीकरण उनके रासायनिक संगठन के आधार पर किया गया है। हेमैटाइट (hematite), मैग्नेटाइट (magnetite), लिमोनाइट (Iimonite) तथा सिडेराइट (siderite) लोहे के प्रमुख अयस्क हैं। प्रथम तीन अयस्कों में लोह अपने ऑक्साइड के रूप में तथा चौथे में कार्बोनेट के रूप में विद्यमान रहता है। विश्व का अधिकांश लोहउत्पादन हेमैटाइट लोह अयस्क द्वारा ही होता है।
आधुनिक लोह-उत्पादन-विधि में ईधंन के रूप में कोक का ही अधिक उपयोग किया जाता है। एक विशेष प्रकार के कोयले को लगभग 1,000° सें. ताप पर कार्बनीकृत करके कोक तैयार किया जाता है। कुछ विशेष प्रकार के भट्टों में काठ कोयले का भी उपयोग किया जाता है। गालकों का उपयोग लोह अयस्क तथा ईधंन में विद्यमान विजातीय पदार्थों को दूर करने में किया जाता है। लोह उत्पादन में जिन गालकों का उपयोग किया जाता है उनमें चूना पत्थर तथा डोलोमाइट प्रमुख हैं। ऊष्मसह पदार्था लोह अयस्क को द्रवित करनेवाली भट्ठियों में अस्तर देने के उपयोग में आते हैं, जिससे अत्यधिक ताप के कारण भट्ठियों को कोई हानि न पहुँचे। लोह उत्पादन में अधिकतर अग्निसह ईटों का ही उपयोग होता है, परंतु आजकल कहीं कहीं कार्बन की ईटों का भी उपयोग किया जाने लगा है।
लौह-अयस्क में सामान्यत: लोह की मात्रा 30 से 65 प्रति शत तक होती है। इसमें अधिकतर सिलिका तथा ऐल्यूमिना विजातीय पदार्थ के रूप में विद्यमान रहते हैं। कभी कभी इसके साथ ही चूना भी पर्याप्त मात्रा में मिश्रित रहता है। अयस्क में विजातीय पदार्थों की उपस्थिति से न केवल लोहे की मात्रा घटती है वरन् उन पदार्थों को निष्कासित करने के लिए अधिक मात्रा में ईधंन तथा गालक की आवश्यकता पड़ती है। इससे लोह द्रवित करनेवाली भट्ठियों की उत्पादनक्षमता में कमी तो हो ही जाती है, साथ ही साथ उत्पादनव्यय में भी वृद्धि हो जाती है। कभी कभी विजातीय पदार्थों में सिलिका, ऐल्यूमिना तथा चूने का अनुपात इस प्रकार होता है कि अयस्क न्यूनाधिक आत्मगालक (self-fluxing) बन जाता है और तब बाह्य गालक की आवश्यकता बहुत कम हो जाती है।
वात्याभट्टी
लोह अयस्क को द्रवित करके लोह धातु बनाने का कार्य जिन भट्ठियों में किया जाता है उन्हें वात्या भट्ठी (Blast Furnace) कहते हैं। आधुनिक वात्याभट्ठी, 100 फुट या इससे भी अधिक ऊँची होती है और इसका आकार वृत्ताकार होता है। विशाल वात्याभट्ठी के ज्वलन क्षेत्र (bosh) का व्यास 30 फुट तक होता है। वात्याभट्ठी को चार मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है। भट्ठी का शीर्ष भाग 'प्रभार विन्यास' (Charging Arrangement) कहलाता है। इस विन्यास के द्वारा भट्ठी में लोह अयस्क, ईधंन तथा गालक का प्रभार उचित रूप से किया जाता है। इस विन्यास में 'दोहरे षकशंकु' (double cup and cone) की व्यवस्था रहती है, जिससे दूषित गैसें प्रभार के समय भट्ठी से बाहर नहीं निकलने पातीं। प्रभार विन्यास की कुल ऊँचाई संपूर्ण भट्ठी की लगभग 20 प्रतिशत होती है।
प्रभार विन्यास के नीचे के हिस्से को 'स्टैक' (Stack) कहते हैं। यह भाग ऊपर से नीचे की ओर क्रमश: चौड़ा होता जाता है और इसकी कुल ऊँचाई संपूर्ण भट्ठी की लगभग 60 प्रतिशत होती है। इसका निचला भाग ढलवाँ लोहे के बने 12 या 16 दृढ़ स्तंभों पर आधारित होता है, जिससे भट्ठी के निम्न भाग की आवश्यकता पड़ने पर खोलकर मरम्मत की जा सके। आधुनिक भट्ठी में स्टैक के निचले पाँच फुट तथा शीर्ष के 10 फुट बिल्कुल ऊर्ध्वाधर होते हैं। स्टैक के नीचे भट्ठी का जो भाग पड़ता है उसे ज्वलनक्षेत्र कहते हैं। ज्वलनक्षेत्र ऊपर से नीचे की ओर पतला होता जाता है। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि भट्ठी का सर्वाधिक व्यास उस स्थान पर होता है जहाँ स्टैक और ज्वलनक्षेत्र आपस में मिलते हैं। ज्वलनक्षेत्र की ऊँचाई भट्ठी की कुल ऊँचाई की लगभग 10 प्रति शत होती है। भट्ठी के सबसे निचले खंड को चुल्लीतल या चूल्हा (Hearth) कहते हैं। यह भाग ज्वलनक्षेत्र (उदर) के नीचे अवस्थित होता है और द्रवित धातु तथा धातुमल (slag) के आधानपात्र (container) का कार्य करता है। इसकी ऊँचाई भी भट्ठी की ऊँचाई का लगभग 10 प्रति शत होती है।
चूल्हे का ऊपरी भाग जहाँ ज्वलनक्षेत्र से मिलता है वहाँ भट्ठी के चारों ओर छिद्र बने होते हैं, जिनमें हवा टोंटियाँ (Tuyeres) लगाई जाती हैं। इन टोटियों के द्वारा भट्ठी के अंदर उच्च दबाव पर वायु का झोंका (blast) भेजा जाता है। इसीलिए इन भट्ठियों को वात्याभट्ठी की संज्ञा दी गई है। भट्ठी की बाह्य आकृति इस्पात की मोटी चद्दरों से बनी होती है, जिसके अंदर विभिन्न प्रकार की अग्निसह ईटों का अस्तर दिया जाता है, जिससे उच्च ताप के कारण भट्ठी के ढाँचे को कोई हानि न पहुँचे। भट्ठी के निम्न भाग में जहाँ ताप अत्यधिक होता है, दीवारों को शीतल रखने के लिए अग्निसह ईटों के स्तर में 'शीतलन' पट्ट (cooling plates) लगा दिए जाते हैं, जिनमें सदा शीतल जल प्रवाहित होता रहता है। द्रवित धातु तथा मल को निकालने के लिए चूल्हे में टोटी-छिद्र (tap hole) तथा मलछिद्र (slage hole) बने होते हैं।
वात्याभट्ठी के 'भरण' (charge) में अधिकांश लोह अयस्क, ईधंन तथा गालक (चून-पत्थर) ही रहते हैं। इन तीनों पदार्थों की मात्रा उनके रासायनिक तथा भौतिक गुणों के आधार पर निर्धारित की जाती है। संपूर्ण भट्ठी को प्रभार-विन्यास द्वारा प्रभार से भारित कर दिया जाता है। चूल्हे के चारों लगी हुई हवाटोंटी से उच्च दाब (25-30 पाउंड प्रति वर्ग इंच) पर वायु का झोंका भट्ठी के अंदर भेजा जाता है। आधुनिक भट्ठियों में वायु के झोंके को अंदर भेजने के पूर्व 700° -800° सें. तक गरम कर लिया जाता है। जैसे ही यह वायु का झोंका प्रभर के कोक के संपर्क में आता है वह जलने लगता है और इस तरह भट्ठी में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस प्रकार वात्याभट्ठी का कार्यारंभ होता है। जैसे जैसे ठोस प्रभार नीचे की ओर अग्रसर होता है वैसे वैसे क्रमश: ताप में वृद्धि होती है। भट्ठी के शीर्ष भाग का ताप 200° -250° सें. होता है और धीरे धीरे यह बढ़ता हुआ हवा टोंटी के धरातल के निकट 1,850° सें. तक हो जाता है। शीर्ष भाग से हवाटोंटी के धरातल तक प्रभार को पहुँचने में लगभग 12-14 घंटे लग जाते हैं, जबकि नीचे से उठती हुई गैस को शीर्ष तक पहुँचने में एक सेंकड से भी कम समय लगता है
जैसे जैसे प्रभार नीचे सरकता है वह अधिकाधिक उच्च ताप क्षेत्र में पहुँचता है और उसकी आर्द्रता लुप्त हो जाती है। यह क्रिया स्टैक के शीर्ष से 10 फुट नीचे तक होती है, जहाँ का ताप लगभग 400° सें. होता है। जब प्रभार और नीचे उतरता है तब वह और अधिक उच्च ताप के संपर्क में आता है। इस क्षेत्र में कार्बन मोनोक्साइड (CO) द्वारा लोह ऑक्साइड के अवकरण की तीव्रता बढ़ जाती है। 50 फुट नीचे पहुँचते पहुँचते लगभग संपूर्ण लोह ऑक्साइड अवकृत हो जाता है और वह स्पंज के रूप में हो जाता है। तत्पश्चात् चूना पत्थर का विघटन होकर चूना (CaO) तथा कार्बन डाइऑक्साइड मिलते हैं। यह चूना विजातीय पदार्थों से मिलकर घातुमल बनाता है। अब प्रभार नीचे उतर कर प्रगलन क्षेत्र (smelting zone) में आ जाता है। यहाँ स्पंज लोहा तेज दहकते हुए कोक के संपर्क में आता है, अत: उसमें कार्बन का प्रवेश होता है। लगभग 1,350° सें. ताप पर लोह द्रवित होने लगता है। इस ताप पर चूना पत्थर की गालक क्रिया भी अति तीव्र हो जाती है। भट्ठी के ज्वलनक्षेत्र में अत्यधिक ताप होने से कुछ मैंगनीज, फॉस्फोरस तथा सिलिकन के ऑक्साइड भी अवकृत होकर धातु में मिल जाते हैं। इसी क्षेत्र में लोह कार्बन से संतृप्त हो जाता है और तब उसका ताप द्रवणांक से काफी ऊँचा पहुँच जाता है। इस प्रकार द्रवित घातु तथा मल भट्ठी के तल में एकत्रित होते रहते हैं और इन्हें समय समय पर टोंटी तथा मल छिद्रों से बाहर निकाला जाता है।
काठ कोयले का उपयोग
आधुनिक वात्या भट्ठी में ईधंन के रूप में धातुकर्मीय कोयले (metallurgical coal) का उपयोग किया जाता है, परंतु कहीं-कहीं धातुकर्मीय कोयले के स्थान पर काठ कोयले का व्यवहार भी होता है। काठ कोयले का दलन सामर्थ्य (crushing strength) धातुकर्मीय कोयले की तुलना में पर्याप्त कम होता है। इसलिए काठ कोयले से चलनेवाली भट्ठियाँ भी पर्याप्त छोटी होती है। काठ कोयले की भट्ठियों से कच्चे लोहे के उत्पादन की विधियाँ तथा उनका सिद्धांत वात्याभट्ठियों के समान ही है। अंतर इतना ही है कि इनसे जो लोहा निकलता है उसमें अपद्रव्यों की मात्रा कम होती है और लोहे की किस्म अच्छी होती है, परंतु इन भट्ठियों की उत्पादनक्षमता आधुनिक वायाभट्ठियों की अपेक्षा बहुत कम होती है। इसलिए आजकल इनका उपयोग कम हो गया है।
विद्युत्-लोह-भट्ठी
आधुनिक काल में विद्युत् भट्ठियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। ये भट्ठियाँ ऐसे प्रदेशों में अधिक लाभकारी सिद्ध हुई हैं जहाँ धातुकर्मीय कोयले की कमी अथवा अभाव है। वात्याभट्ठियों में ईधंन का उपयोग लोह अयस्क को तप्त करने तथा उसे अवकृत करने में किया जाता है। विद्युद्विधि में प्रभार को गरम करने का कार्य विद्युत् से होता है और केवल अवकरण के लिए कार्बनीय पदार्थों का उपयोग होता है। इस विधि का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि इसमें कोयला, कोक अथवा काठ कोयले में से किसी भी अवकारक का उपयोग किया जा सकता है। वात्यभट्ठियों की तुलना में इसमें केवल 40-45 प्रति शत ही अवकारक लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि उत्पादित लोहे में अवकारक से प्राप्त होनेवाले अपद्रव्य कम होते हैं और इन अपद्रव्यों के निष्कासन के लिए कम गालक की आवश्यकता पड़ती है।
निम्न कूपक भट्ठी
निम्न कूपक भट्ठी (Low Shaft Furnace) को वात्याभट्ठी का छोट रूप कहना चाहिए। इन भट्ठियों की रचना तथा कार्यविधि वात्याभट्ठियों के समान ही होती है। इन भट्ठियों का लाभ यह है कि इनमें बहुत ही निम्न प्रकार के ऐसे कच्चे पदार्थ उपयोग में लाए जा सकते हैं जिनका उपयोग सामान्य वात्याभट्ठियों में नहीं किया जा सकता। इसमें धातुकर्मीय कोयले को ही उपयोग में लाना आवश्यक नहीं है। इन भट्ठियों के निर्माण में आरंभिक पूँजी भी कम लगती है। इसलिए जिन स्थानों पर थोड़ी मात्रा में ही लोह अयस्क इत्यादि कच्चे पदार्थ प्राप्त हैं वहाँ इनके द्वारा लोह उत्पादन किया जा सकता है।
इस्पात उत्पादन
आधुनिक जगत् में इंजीनियरी कार्यों के लिए जितने प्रकार के सामानों की आवश्यकता पड़ती है उन सबको कच्चे लोहे से पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए कच्चे लोहे को उपचारित करके उसे 'इस्पात' का रूप दिया जाता है। इस्पात को मूलत: लोह और कार्बन की मिश्रधातु कहना चाहिए। इसमें गंधक तथा फॉस्फोरस इत्यादि अवांछनीय अपद्रव्य भी रहते हैं, जिन्हें एक निश्चित मात्रा से कम नहीं किया जा सकता। सिलिकन तथा मैगनीज़ जैसे अपद्रव्य इस्पात को कुछ विशिष्ट गुण प्रदान करते हैं। इसलिए आवश्यकतानुसार इनकी मात्रा घटाई-बढ़ाई जाती है।
शुद्ध लोहे का व्यावसायिक रूप पिटवाँ लोहा (wrought iron) है। इसमें अपद्रव्यों के रूप में धातुमल ही मिले होते हैं। यह बहुत मृदु तथा तन्य होता है, इसलिए इससे औजार इत्यादि बहुत सी वस्तुएँ नहीं बनाई जा सकतीं। शुद्ध लोहे को दृढ़ तथा कठोर बनाने के लिए उसमें एक निश्चित मात्रा में कार्बन मिलाया जाता है। इस लोह-कार्बन के मेल से बने पदार्थ को इस्पात कहते हैं।
इन्हें भी देखें
- अलोह धातुकर्म (non-ferrous metallurgy)
- लौह धातुकर्म का इतिहास
- भारतीय धातुकर्म का इतिहास