लहरों के राजहंस
मोहन राकेश का नाटक - लहरों के राजहंस।
कथानक
लहरों के राजहंस में एक ऐसे कथा का नाटकीय पुनराख्यान है जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। यह नाटक बुद्ध के भ्राता नंद पर आधारित है। इसमें भी भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का द्वन्द्व है। इन दोनों किनारों के मध्य खड़े मनुष्य को उचित समन्वय से ही सही दिशा मिल सकती है। इसमें 'सुन्दरी' प्रवृत्ति पक्ष की प्रतीक है तो 'बुद्ध' भरी नाट निवृत्ति पक्ष के; और नंद दोनों के बीच द्वन्द्वग्रस्त मानव चेतना का। प्रतीकों की बहुलता से कहीं-कहीं यह नाटक बोझिल प्रतीत होता है लेकिन चारित्रिक अन्तर्द्वन्द्व, मनोवैज्ञानिकता के स्तर पर यह नाटक उल्लेखनीय बन पड़ा है।इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है। जीवन के प्रेय और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मन वाले नंद की यही चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म- भायुक से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का इस कृति में नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है। प्रमुख नाट्य निर्देशको ओम शिवपुरी, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़ ने इसका मन्चन किया।
प्रकाशन
प्रथम प्रकाशन 1963, संशोधित प्रकाशन -1968 1968 में लहरों के राजहंस का एक संशोधित परिवर्तित नया रूप प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका के अन्त में राकेश ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस नाटक के 1963 में छपे प्रथम रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं होना चाहिए।