लस्सी ते चा
लस्सी ते चा (अर्थ: लस्सी और चाय) अनवर मसूद द्वारा रचित पंजाबी भाषा की एक प्रसिद्ध व्यंग्य कविता है जो भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब दोनों में लोकप्रिय है। इस कविता में उत्तर भारत और पाकिस्तान के दोनों लोकप्रिय पेय, लस्सी और चाय का एक काल्पनिक विवाद व्यंग्यपूर्ण अंदाज़ में दर्शाया है।
कविता के कुछ अंश
कविता के आरम्भ में लस्सी अपनी स्वयं बढ़ाई करती है और चाय को बुरा-भला कहती है -
पंजाबी (देवनागरी लिप्यन्तरण) | हिंदी अनुवाद |
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रंग मेरा वी मक्खन वर्गा, रूप वी मेरा सुच्चा, | मेरा रंग भी मक्खन जैसा गोरा है और मेरा रूप भी सच्चा है, |
यहां लस्सी कह रही है के जब कोई उसे एक बड़े बर्तन में मधानी के साथ मंथन करता है तो वह उस पर वारी जाती है - यानी उसके छींटे ख़ुशी से उड़-उड़ कर मंथने वाले पर पड़ते हैं। चाय ग़ुस्से से उत्तर देती है और अपनी तुलना लैला से करती है, जो रंग की काली थी पर बेहद सुन्दर मानी जाती थी और जिसका मजनू दीवाना था। वह लस्सी को ताना भी मारती है कि लस्सी तो किसी भी बर्तन में पड़ी रहती है जबकि चाय हमेशा सुन्दर बर्तनों में अदब के साथ मेज़ पर रखी जाती है -
मेरा हुसन प्छाने जेह्ड़े, दिल मैं ओनादे ठग्गां | मेरा हुस्न पहचानने वाले मेरे कायल होते हैं |
इन दोनों की तू-तू मैं-मैं काफी देर तक चलती रहती है और फिर लस्सी कहती है की क्यों न दूध को बुलाकर उस से फ़ैसला करवाया जाए -
मैं की जाणाँ तेरियां बड़कां, मैं की जाणाँ तइनु | मै न तो तेरी किसी गुण से परिचित हूँ और न ही तुझसे |
परन्तु जब दूध आता है तो वो असमंजस में पड़ जाता है, क्योंकि दोनों लस्सी और चाय में दूध डलता है और वो दोनों को ही अपनी बेटियाँ मानता है। दूध अपने आप को कोसता है, कि अगर वो स्वयं अच्छा माता/पिता होता तो उसके बच्चे आपस में न लड़ रहे होते और फ़ैसला करने से इनकार कर देता है -
किन्नू अज्ज सियानी आक्खां, किन्नू आक्खां जल्ली? | किसे आज सियानी बोलूं और किसे आज मूर्ख कहूँ? |
बहस फिर जारी हो जाती है। अंत में लस्सी चाय को दो टूक शब्दों में कह देती है के यह देश (भारत/पाकिस्तान) लस्सी का है और वो यहाँ की रानी है जबकि चाय परदेसी है और ठीक जिस तरह परदेसी अंग्रेज़ों को खदेड़ के निकाल दिया गया था, उसी तरह एक दिन चाय को भी खदेड़ दिया जाएगा -
मेरी चौधर चार-चफेरे, तेरी मन्नता थोड़ी | मेरी चौधरी (राज) चारों तरफ़ है, तेरी मान्यता मुझसे कहीं कम है |