रूपक अलंकार
रूपक साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार है जिसमें बहुत अधिक साम्य के आधार पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोप करके अर्थात् उपमेय या उपमान के साधर्म्य का आरोप करके और दोंनों भेदों का अभाव दिखाते हुए उपमेय या उपमान के रूप में ही वर्णन किया जाता है। इसके सांग रूपक, अभेद रुपक, तद्रूप रूपक, न्यून रूपक, परम्परित रूपक आदि अनेक भेद हैं। उदाहरण-1- चरन कमल बन्दउँ हरिराई
2- संतौ भाई आई ज्ञान की आंधी रे।
- अन्य अर्थ
व्युत्पत्ति : [सं०√रूप्+णिच्+ण्वुल्-अक] जिसका कोई रूप हो। रूप से युक्त। रूपी।
- १. किसी रूप की बनाई हुई प्रतिकृति या मूर्ति।
- २. किसी प्रकार का चिह्न या लक्षण।
- ३. प्रकार। भेद।
- ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राचीन परिमाण।
- ५. चाँदी।
- ६. रुपया नाम का सिक्का जो चाँदी का होता है।
- ७. चाँदी का बना हुआ गहना।
- ८. ऐसा काव्य या और कोई साहित्यिक रचना, जिसका अभिनय होता हो, या हो सकता हो। नाटक। विशेष—पहले नाटक के लिए 'रूपक' शब्द ही प्रचलित था और रूपक के दस भेदों में नाटक भी एक भेद मात्र था। पर अब इसकी जगह नाटक ही विशेष प्रचलित हो गया है। रूपक के दस भेद ये हैं—नाटक प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी और प्रहसन।
- ९. बोल-चाल में कोई ऐसी बनावटी बात, जो किसी को डरा धमकाकर अपने अनुकूल बनाने के लिए कही जाय। जैसे—तुम जरो मत, यह सब उनका रूपक भर है। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना।
- १०. संगीत में सात मात्राओं का एक दो ताला ताल, जिसमें दो आघात और एक खाली होता है।
रूपक और उपमा के सादृश्य का मूलभूत अंतर
रूपक के सादृश्य और साधर्म्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक गंभीरता और निकटता है। अपनी बात कहने के लिए, अपना अभिप्रेत पूर्णत: संप्रेषित करने के लिए, कवि-मानस में किसी दूसरे पदार्थ का 'आरोपण होता है। मुख की सुंदरता का ध्यान करते ही पहले सुंदरता के चरम निदर्शन चंद्रमा का आरोपण कवि-चेतना करती है और किस रूप में करती है, यही उसकी विविध वचन-भंगिमाएँ या अलंकार है। रूपक में एक पदार्थ में दूसरे का आरोपण, अभेद-स्थापन होता है या एक रूपता की स्थापना होती है। अभेद का अर्थ 'तादात्म्य प्रतीति है, उपमा का विधान या संधान करते समय भी कवि-मानस में पहले यह 'तादात्म्य प्रतीति ही होगी और पूर्णत: अभेद-स्थापन मूलत: उपमा की नहीं रूपक की प्रवृत्ति है। इसलिए कहा जा सकता है कि कवि की रचना-प्रक्रिया में प्रथमत: रूपक का ही प्रस्फुटन होता है। इसीलिए रूपक को 'सादृश्यगर्भ अभेदप्रधान, आरोपमूलक अलंकार माना गया है। इससे भी आगे बढ़कर यह अलंकार मात्र नहीं अपितु काव्य-चेतना का नितांत आवश्यक उपादान लगता है। बिना अलंकार के भी श्रेष्ठ कविता की रचना हो सकती है, किंतु बिना रूपक-चेतना के श्रेष्ठ कवि-कर्म संभव नहीं है।
उपमा पर विचार करते हुए, आचार्य रुय्यक ने तीन प्रकार के साम्य का उल्लेख किया है- भेदप्रधान (व्यतिरेक में), अभेदप्रधान (रूपक में) तथा भेदाभेदप्रधान (उपमा में)-
- उपमानोपमेययो: साधर्म्ये भेदाभेद तुल्यत्वे उपमा/साधर्म्ये त्रय:प्रकारा: भेद प्राधान्यं व्यत्रिेकवत्/अभेदप्राधान्यं रूपकवत्।
आचार्य मम्मट आदि ने भी इसी रूप में रूपक के सादृश्य में 'अति साम्य को स्वीकारा है-
- तद्रूपकम भेदोपमानोपमेययो!
इसी को और स्पष्ट करते हुए आगे वृत्ति में कहा गया है-
- अति साम्यदनपह्नुत भेदयोरभेद:।
रूपक की 'अति साम्य की इस प्रवृत्ति से यही निष्कर्ष निकलता है कि कवि-चेतना में कोई भी उपमान पहले रूपक की मानसिकता में ही उदित होता है, उपमा का सादृश्य तो बाद में कथन की भंगिमा के रूप में प्रकट होता है। इसीलिए उपमा के सादृश्य को 'भेदाभेदप्रधान रूप में स्वीकारा गया है। उपमान की सहायता से किया गया सादृश्य विधान अधिकांशत: आकृतिमूलक और कभी-कभी गुणों के आधार पर भी होता है। किंतु फिर भी वह इतना प्रभावी नहीं हो पाता, जितना रूपक के द्वारा रचितबिंब। रूपक दो असमान तथा स्वतंत्र इकाइयों में अंतर्मूत साम्य को प्रत्यक्षीकृत करता है। एक प्रकार की गद्यात्मक या नीरस समानता, तुलना से आगे बढ़कर रूपक एक ऐसा तादात्म्य उपस्थित करता है, जिससे दो भिन्न पदार्थों या कार्य-व्यापारों में एक समेकन (फ्यूज़न) उपस्थित होकर एक नयी छवि उभरती है, जिसमें दोनों ही पदार्थों या कार्य-व्यापारों की विशिष्टताएँ समाहित होती हैं। दोनों के बीच की यह तुलना तर्कातीत होती है, जिसमें बौद्धिकता से उठाये गये प्रश्र उसके सौंदर्य को समाप्त कर देंगे। वह तो एक सुंदर बिम्ब सृजित कर कवि का अभिप्रेत पाठक/श्रोता तक पहुँचाता है। इस प्रकार रूपक अपने चतुर्दिक एक प्रकाश-वृत्त उत्पन्न करता है, जिसके प्रकाश में कवि का मंतव्य पूर्णत: भाषित हो उठता है। यह उसकी दीपकधर्मी प्रवृत्ति है। इसलिए 'रूपकत्व (अलंकार रूप में मात्र 'रूपक नहीं) कवि कर्म का मूलाधार कहा जा सकता है। यह कवि की 'रूपक चेतना ('मेटाफिरिकल कांशयसनेस) ही है, जो अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों में, विभिन्न अलंकारों के द्वारा, प्रकाशित हो उठती है। उपमान चयन के आधार पर उपमा का औपम्य का प्रयोग तो कोई साधारण कवि भी कर सकता है, किंतु 'रूपकत्व का सुंदर और प्रभावी प्रयोग कोई निष्णात कवि ही कर सकता है। तुलसीदास की लोकप्रियता और महानता का बहुत बड़ा रहस्य उनकी अभिव्यक्ति में इसी श्रेष्ठ रूपक-चेतना का है।
रूपक-चेतना से निष्पन्न अन्य अलंकार
साधर्म्य और सादृश्य से विद्यमान 'अति साम्य मूलत: रूपक रूप में कवि-मानस में उदित होता है, किंतु अभिव्यक्ति की शैली से वह विभिन्न अलंकारों का रूप धारण कर लेता है। इसलिए रूपक, सांगरूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, निदर्शना, उदाहरण, प्रतीप, व्यतिरेक, अपह्नुति, संदेह, भ्रांतिमान आदि अलंकार कवि की रूपक-चेतना से ही उद्भूत होते हैं। मूल बात रूपकत्व पर ही आधारित होती है, मात्र शब्दों का हेर-फेर, कथन की प्रस्तुति, उसे किसी दूसरे अलंकार के रूप में प्रस्थापित कर देती है। कालिदास की उपमाओं पर विचार करते हुए डॉ॰ शशिभूषण दास गुप्त कहते हैं -
- जब हम कालिदास की उपमा की बात करते हैं, तब हम लोग केवल उनके उपमा-अलंकार के प्रयोग-नैपुण्य की ही बात नहीं करते हैं, उसकी एक विशेष प्रकार की अननुकरणीय सालंकार प्रकाश-भंगिमा की ही बात करते हैं। इसलिए कालिदास के संबंध में उपमा शब्द का वाच्चार्य सब प्रकार के अलंकार हैं। इसी दृष्टि से जब हम यह मान लेते हैं कि रूपकत्व काव्य चेतना का मूल है तो, अन्य अलंकार जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, इस रूपक-चेतना से ही निष्पन्न हैं।
तुलसी के संदर्भ में कहा जा सकता है कि, रूपक, सांगरूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, प्रतीप, व्यतिरेक, आदि के रूप में उनकी रूपक-चेतना प्रबल और मौलिक रूप में प्रकट होकर हृदय को अभिभूत करती है। इसलिए इस महाकवि की रूपक-चेतना के श्रेष्ठ से परिचित होने के लिए उनके काव्य में प्रयुक्त इन अलंकारों के मौलिक, मार्मिक एवं प्रभावी रूप से परिचित होना आवश्यक है।