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रीति संप्रदाय

रीति सम्प्रदाय आचार्य वामन (९वीं शती) द्वारा प्रवर्तित एक काव्य-सम्प्रदाय है जो रीति को काव्य की आत्मा मानता है।[1] यद्यपि संस्कृत काव्यशास्त्र में 'रीति' एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है। लक्षणग्रंथों में प्रयुक्त 'रीति' शब्द का अर्थ ढंग, शैली, प्रकार, मार्ग तथा प्रणाली है। 'काव्य रीति' से अभिप्राय मोटे तौर पर काव्य रचना की शैली से है। रीतितत्व काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। ‘रीति’ शब्द ‘रीड’ धातु से ‘क्ति’ प्रत्यय मिला देने पर बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ प्रगति, पद्धति, प्रणाली या मार्ग है। परन्तु वर्तमान समय में ‘शैली’ (स्टाइल) के समानार्थी के रूप में यह अधिक समादृत है।

आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में 'रीति' को काव्य की आत्मा घोषित किया है। उनके अनुसार 'पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है' (विशिष्टपदरचना रीतिः)। वामन के मत में रीति काव्य की आत्मा है (रीतिरात्मा काव्यस्य)। उनके अनुसार विशिष्ट पद-रचना, रीति है और गुण उसके विशिष्ट आत्मरूप धर्म है।

विशिष्ट पदरचना रितिः।

विशिष्ट शब्द को स्पष्ट करते हुये वे कहते हैं -

विशेषो गुणात्मा।

वामन ने गुण को विशेष महत्व दिया है। रीति काव्य की आत्मा है और गुण रीति के कारणभूत वैशिष्ट्य की आत्मा है।

डॉ नगेन्द्र अपनी पुस्तक ’रीति काव्य की भूमिका’ में लिखते हैं कि-

रीति शब्द और अर्थ के आश्रित रचना चमत्कार का नाम है जो माधुर,य ओज और प्रसाद गुणों के द्वारा चित्र को द्रवित, दीप्त और परिव्याप्त करती हुयी रस दशा तक पहुँचाती है।

काव्य में रीति का विशेष महत्त्व है। रीति के अन्य परिभाषाकार कहते है कि काव्य में रीति पदों के संगठन से रस को प्रकाशित करने में सहायक होती है। इस प्रकार रीति का काव्य में वही स्थान है जो शरीर में आंगिक संगठन का है। जिस प्रकार अवयवो का उचित सन्निवेश शरीर के सौन्दर्य को बढाता है, शरीर को उपकृत करता है उसी प्रकार वर्णों का यथास्थान प्रयोग शब्द रूपी शरीर और अर्थ रूपी आत्मा के लिए विशेष उपकारक है।

आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद तय किये हैं– वैदर्भी रीति, गौडी रीति, पाञ्चाली रीति। आचार्य दण्डी केवल दो ही भेद मानते हैं, वे पाञ्चाली का समर्थन नहीं करते। दण्डी, 'रीति' के स्थान पर 'मार्ग' शब्द का प्रयोग करते हैं। परवर्ती आचार्यो ने रीति के तीन से भी अधिक भेद स्थापित किये हैं। लाट देश में प्रयुक्त होने वाली एक ‘लाटी’ रीति का प्रादुर्भाव हुआ। बाद में भोज ने ‘मालवी’ और ‘अवन्तिका’ नामक दो अन्य रीतियों का अविष्कार किया। आचार्य विश्वनाथ रीति को काव्य का उपकारक मानते हैं। 'वक्रोक्तिजीवित' के लेखक कुन्तक ने रीति का खुलकर विरोध किया, आचार्य मम्मट उनके समर्थन में आये और रीति को वृत्तियों से जोड़ने की बात की। राजशेखर ने रीति को काव्य का 'बाह्य तत्व' बताया। उनके अनुसार, – ‘वाक्यविन्यासक्रमो रीतिः’। किन्तु यह सब विरोध विद्वानों की आम सहमति नहीं पा सका और वामन के रीति सम्बन्धी विचारों को मान्यता मिली।

वैदर्भी रीति

इसका प्रयोग विदर्भ देश के कवियों ने अधिक किया है, इसी से इसका नाम वैदर्भी पड़ा। इसका एक अन्य नाम ‘ललिता ‘ भी है। मम्मट ने इसे ‘उपनागरिका’ कहा है। वैदर्भी रीति के सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ का कथन है –

माधुर्य व्यंजक वर्णे:रचना ललितात्मका ।
आवृत्तिरल्यवृत्तिर्या वैदर्भी रीति रिष्यते ॥
अर्थात माधुर्य व्यञ्जक वर्णों से युक्त, समासरहित ललित प रचना को ‘वैदर्भी’ रीति कहते हैं। यह रीति श्रृंगार रस, करुण रस एवं शान्त रस के लिए अधिक अनुकूल होती है।

रुद्रट के अनुसार यह समासरहित श्लेषादि दस गुणों और अधिकांशतः चवर्ग से युक्त, अल्प प्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति है। इसमें सानुनासिक शब्द (जिन पर चन्द्र बिंदु लगा होता है या जिनका उच्चारण नाक सा होता है ) अधिकांशतः प्रयुक्त होते हैं। कालिदास इस रीति के प्रयोग में अत्यन्त प्रवीण थे। हिन्दी के रीतिकालीन कवियों ने इस रीति का भरपूर प्रयोग किया है। बिहारी के निम्नांकित दोहे में इस ‘रीति’ की छटा देखिये -

रस सिंगार मंजनु किये कंजनु भंजनु दै न ।
अंजनु रंजनु ही बिना खंजनु गंजनु नैन॥ (बिहारी सतसई )
( यहाँ पर अनुस्वार का भरपूर प्रयोग हुआ है, सामासिक पदावली नही है, चवर्ग छाया हुआ है, पद मे माधुर्य है।)

गौडी रीति

गौडी रीति को 'परुषा' भी कहते हैं। इसमें दीर्घ-समास-युक्त पदावली का प्रयोग उचित माना जाता है। मधुरता और सुकुमारिता का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। इस दृष्टि से वीर रस, रौद्र रस, भयानक रस और वीभत्स रस की निष्पत्ति में गौडी रीति का भरपूर परिपाक होता है। युद्ध आदि वर्णन इस रीति के प्राण हैं। इसमें ललकार, चुनौती और उद्दीपन का बाहुल्य होता है। कर्ण-कटु शब्दावली और महाप्राण जैसे- ट ,ठ ,ड ,ढ ,ण तथा ह आदि का प्रयोग इसमें अधिक होता है। गौडी या परुषा रीति का काव्य कठिन माना जाता है।

आचार्य मम्मट इसे परिभाषित करते हुए कहते है है -

ओजः प्रकाशकैस्तुपरूषा (अर्थात जहाँ ओज गुण का प्रकाश होता है, वहां ‘परुषा’ रीति होती है।)

हिन्दी में गौडी रीति का एक उदाहरण देखिए-

देखि ज्वाल-जालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
कह्यो धरो-धरो, धाए बीर बलवान हैं।
लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड
भोजन सनीर, धीर धरें धनु-बान है।
‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है।
स्रुवा सो लँगूल, बलमूल प्रतिकूल हबि,
स्वाहा महा हाँकि-हाँकि हुनैं हनुमान हैं। (कवितावली)

पाञ्चाली रीति

पाञ्चाली रीति न तो वैदर्भी की भांति समासरहित होती है और न गौडी की भांति समास-जटित। यह मध्यममार्ग है जिसमें छोटे-छोटे समास अवश्य मिलते हैं। इस रीति से काव्य भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनता है। अनुस्वार का प्रयोग न होने से यह वैदर्भी की तुलना में अधिक माधुर्य युक्त होती है।

‘पाञ्चाली’ रीति के सम्बन्ध मे कहा गया है – ‘माधुर्य सौकुमार्यो प्रपन्ना पांचाली’ । अर्थात, पांचाली में मधुरता और सुकुमारता होती है।

उदाहरण
मानव जीवन-वेदी पर, परिणय हो विरह-मिलन का।
सुख-दुःख दोनों नाचेंगे, है खेल, आँख का मन का।

इस उदाहरण में अनुनासिक शब्द का अभाव है। जीवन-वेदी, विरह-मिलन और सुख-दुःख में समास है। कर्ण-कटु या महाप्राण का प्रयोग लगभग नहीं किया गया है। शान्त-रस का निर्वेद इसमें मुखर है। अतः यहाँ पर पांचाली रीति का सुन्दर निर्वाह हुआ है।

सन्दर्भ

  1. गणपतिचन्द्र गुप्त. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त. राजकमल प्रकाशन. पृ॰ १०९. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788180311123. मूल से 12 मार्च 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 मार्च 2017.

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