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रामनरेश त्रिपाठी

पं० रामनरेश त्रिपाठी
चित्र:टठडढण
जन्म४ मार्च, १८८१। [1]
कोइरीपुर नगर पंचायत, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
मौत१६ जनवरी, १९६२
इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
पेशाअध्यापक, लेखक, स्वतन्त्रता सेनानी
राष्ट्रीयताभारतीय
कालपूर्व छायावादी युग
विधागद्य और पद्य
विषयकविता, उपन्यास, नाटक, बाल साहित्य
आंदोलनछायावाद
मानवतावाद
उल्लेखनीय कामsपथिक १९२० ई., कविता कौमुदी, मिलन १९१७ ई., स्वपनों के चित्र १९३० ई.

रामनरेश त्रिपाठी (4 मार्च, 1889 - 16 जनवरी, 1962) हिन्दी भाषा के 'पूर्व छायावाद युग' के कवि थे। कविता, कहानी, उपन्यास, जीवनी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी पर उन्होंने कलम चलाई। अपने 72 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने लगभग सौ पुस्तकें लिखीं। ग्राम गीतों का संकलन करने वाले वह हिंदी के प्रथम कवि थे जिसे 'कविता कौमुदी' के नाम से जाना जाता है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए उन्होंने गांव-गांव जाकर, रात-रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को सुना और चुना। वह गांधी के जीवन और कार्यो से अत्यन्त प्रभावित थे। उनका कहना था कि मेरे साथ गांधी जी का प्रेम 'लरिकाई को प्रेम' है और मेरी पूरी मनोभूमिका को सत्याग्रह युग ने निर्मित किया है। 'बा और बापू' उनके द्वारा लिखा गया हिंदी का पहला एकांकी नाटक है।

‘स्वप्न’ पर इन्हें हिंदुस्तानी अकादमी का पुरस्कार मिला।[2]

जीवनी

जन्म एवं प्रारम्भिक शिक्षा

उत्तर प्रदेश के 'सुल्तानपुर (कुशभवनपुर) जिले के ग्राम कोइरीपुर में 4 मार्च, 1889 ई.[3] को एक कृषक परिवार में जन्मे रामनरेेश त्रिपाठी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अत्यन्त प्रेरणादायी था। उनके पिता पं॰ रामदत्त त्रिपाठी धार्मिक व सदाचार परायण ब्राह्मण थे। भारतीय सेना में सूबेदार के पद पर रह चुके पंडित रामदत्त त्रिपाठी का रक्त पंडित रामनरेश त्रिपाठी की रगों में धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा व राष्ट्रभक्ति की भावना के रूप में बहता था। दृढ़ता, निर्भीकता और आत्मविश्वास के गुण उन्हें अपने परिवार से ही मिले थे।

पं. त्रिपाठी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। कनिष्ठ कक्षा उत्तीर्ण कर हाईस्कूल वह निकटवर्ती जौनपुर जिले में पढ़ने गए मगर वह दसवीं की शिक्षा पूरी नहीं कर सके। अट्ठारह वर्ष की आयु में पिता से अनबन होने पर वह कलकत्ता चले गए।

युवा काल

पंडित त्रिपाठी में कविता के प्रति रुचि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय जाग्रत हुई थी। संक्रामक रोग हो जाने की वजह से वह कलकत्ता में भी अधिक समय तक नहीं रह सके। सौभाग्य से एक व्यक्ति की सलाह मानकर वह स्वास्थ्य सुधार के लिए जयपुर राज्य के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम में सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पास चले गए।

यह एक संयोग ही था कि मरणासन्न स्थिति में वह अपने घर परिवार में न जाकर सुदूर अपरिचित स्थान राजपुताना के एक अजनबी परिवार में जा पहुंचे जहां शीघ्र ही इलाज व स्वास्थ्यप्रद जलवायु पाकर रोगमुक्त हो गए।

पंडित त्रिपाठी ने सेठ रामवल्लभ के पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक निभाया। इस दौरान उनकी लेखनी पर मां सरस्वती की मेहरबानी हुई और उन्होंने “हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिये” जैसी बेजोड़ रचना कर डाली जो आज भी अनेक विद्दालयों में प्रार्थना के रूप में गाई जाती है।

साहित्य कृतित्व

पं॰ त्रिपाठी की साहित्य साधना की शुरुआत फतेहपुर में हुई। आरंभिक दौर में उन्होंने छोटे-बडे बालोपयोगी काव्य संग्रह, सामाजिक उपन्यास और हिन्दी में महाभारत लिखे। उन्होंने हिन्दी तथा संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया। त्रिपाठी जी पर तुलसीदास व उनकी अमर रचना रामचरित मानस का गहरा प्रभाव था, वह मानस को घर घर तक पहुँचाना चाहते थे। बेढब बनारसी ने उनके बारे में कहा था[4]..

तुम तोप और मैं लाठी
तुम रामचरित मानस निर्मल, मैं रामनरेश त्रिपाठी।

वर्ष 1915 में पं॰ त्रिपाठी ज्ञान एवं अनुभव की संचित पूंजी लेकर पुण्यतीर्थ एवं ज्ञानतीर्थ प्रयाग गए और उसी क्षेत्र को उन्होंने अपनी कर्मस्थली बनाया। थोडी पूंजी से उन्होंने प्रकाशन का व्यवसाय भी आरम्भ किया। पंडित त्रिपाठी ने गद्य और पद्य का कोई कोना अछूता नहीं छोडा तथा मौलिकता के नियम को ध्यान में रखकर रचनाओं को अंजाम दिया। हिन्दी जगत में वह मार्गदर्शी साहित्यकार के रूप में अवरित हुए और सारे देश में लोकप्रिय हो गए।

उन्होंने वर्ष 1920 में 21 दिनों में हिन्दी के प्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय खण्डकाव्य “पथिक” की रचना की। इसके अतिरिक्त “मिलन” और “स्वप्न” भी उनके प्रसिद्ध मौलिक खण्डकाव्यों में शामिल हैं। स्वपनों के चित्र उनका पहला कहानी संग्रह है। [4]

कविता कौमुदी के सात विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों का भी उन्होंने बडे परिश्रम से सम्पादन एवं प्रकाशन किया।

पं. त्रिपाठी कलम के धनी ही नहीं बल्कि कर्मशूर भी थे। महात्मा गांधी के निर्देश पर वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रचार मंत्री के रूप में हिन्दी जगत के दूत बनकर दक्षिण भारत गए थे। वह पक्के गांधीवादी देशभक्त और राष्ट्र सेवक थे। स्वाधीनता संग्राम और किसान आन्दोलनों में भाग लेकर वह जेल भी गए।

पं. त्रिपाठी को अपने जीवन काल में कोई राजकीय सम्मान तो नही मिला पर उससे भी कही ज्यादा गौरवप्रद लोक सम्मान तथा अक्षय यश उन पर अवश्य बरसा। उन्होंने 16 जनवरी 1962 को अपने कर्मक्षेत्र प्रयाग में ही अंतिम सांस ली।

पंडित त्रिपाठी के निधन के बाद आज उनके गृह जनपद सुल्तानपुर जिले में एक मात्र सभागार "पंडित राम नरेश त्रिपाठी सभागार" स्थापित है जो उनकी स्मृतियों को ताजा करता है।

उन्होने गाँव–गाँव, घर–घर घूमकर रात–रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को चुन–चुनकर लगभग १६ वर्षों के अथक परिश्रम से ‘कविता कौमुदी’ संकलन तैयार किया। जिसके ६ भाग उन्होंने १९१७ से लेकर १९३३ तक प्रकाशित किए।[4]


कृतियाँ

प्रबंध काव्य
  1. मिलन (1918) १३ दिनों में रचित
  2. पथिक (1920) २१ दिनों में रचित
  3. मानसी (1927)
  4. स्वप्न (1929) १५ दिनों में रचित * इसके लिए उन्हें हिन्दुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला[2]
मुक्तक
  1. मारवाड़ी मनोरंजन
  2. आर्य संगीत शतक
  3. कविता-विनोद
  4. क्या होम रूल लोगे
  5. मानसी

कहानी

  1. तरकस
  2. आखों देखी कहानियां
  3. स्वपनों के चित्र
  4. नखशिख
  5. उन बच्चों का क्या हुआ..?
  6. २१ अन्य कहानियाँ
उपन्यास
  1. वीरांगना
  2. वीरबाला
  3. मारवाड़ी और पिशाचनी
  4. सुभद्रा और लक्ष्मी
नाटक :
  1. जयंत
  2. प्रेमलोक
  3. वफ़ाती चाचा
  4. अजनबी
  5. पैसा परमेश्वर
  6. बा और बापू
  7. कन्या का तपोवन
व्यंग्य :
  1. दिमाग़ी ऐयाशी
  2. स्वप्नों के चित्र
अनुवाद :
  1. इतना तो जानो (अटलु तो जाग्जो - गुजराती से)
  2. कौन जागता है (गुजराती नाटक)।
संपादित पुस्तकें :
  1. रामचरितमानस
  2. कविता कौमुदी’ (६ खंडों में )

प्रसिद्ध कृतियाँ

हे प्रभो आनंददाता!

हे प्रभो आनंददाता ! ज्ञान हमको दीजिए, 
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें, 
ब्रह्‌मचारी, धर्मरक्षक, वीरव्रत धारी बनें। --
गत हमारी आयु हो प्रभु! लोक के उपकार में 

हाथ डालें हम कभी क्यों भूलकर अपकार में ।

                 रामनरेश त्रिपाठी

हमारे पूर्वज[3]

पता नहीं है जीवन का रथ किस मंजिल तक जाये।
मन तो कहता ही रहता है, नियराये-नियराये॥
कर बोला जिह्वा भी बोली, पांव पेट भर धाये।
जीवन की अनन्त धारा में सत्तर तक बह आये॥
चले कहां से कहां आ गये, क्या-क्या किये कराये।
यह चलचित्र देखने ही को अब तो खाट-बिछाये॥
जग देखा, पहचान लिए सब अपने और पराये।
मित्रों का उपकृत हूँ जिनसे नेह निछावर पाये॥
प्रिय निर्मल जी! पितरों पर अब कविता कौन बनाये?
मैं तो स्वयं पितर बनने को बैठा हूँ मुँह बाये।
--- ८ अप्रैल, १९५८, कोइरीपुर (सुल्तानपुर), रामनरेश त्रिपाठी

सन्दर्भ

  1. "Literary Personalities". नैशनल इन्फ़ोर्मेटिक्स सेन्टर। सुलतानपुर. मूल से 5 सितंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2015-06-26.
  2. नया इंडिया टीम (१६ जनवरी २०१४). "रामनरेश त्रिपाठी". nayaindia.com. मूल से 26 जून 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २६ जून २०१५.
  3. अवध वैरागी (१७ फरवरी २०१४). "रचनाधर्मिता के बृहस्पति- रामनरेश त्रिपाठी". abhivyakti-hindi.org. मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २६ जून २०१५.
  4. नायर, के. गोपालन (१९९३). "प्रथम अध्याय" (हिंदी में). श्री रामनरेश त्रिपाठी का व्यक्तित्व और कृतित्व (पी. एच डी). एले़डम, एन आर द्वारा मार्गदर्शन. कोट्टायम: महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय. p. ९. Archived from the original on 26 जून 2015. https://web.archive.org/web/20150626174413/http://www.mgutheses.in/page/about_book.php?q=T%20836. अभिगमन तिथि: 26 जून 2015. 

बाहरी कड़ियाँ