राज्य की भारतीय अवधारणा
मानव इतिहास के विकास-क्रम में एकाकी जीवन से कबीलाई संस्कृति तक की यात्रा, तत्पश्चात् समाज एवं राज्य के रूप में उसका विकास जानने की जिज्ञासा सदैव ही मानव मस्तिष्क को कचोटती रही है। समाजशास्त्रियों एवं मानवविज्ञानियों ने विश्व के अलग-अलग भागों में समाज एवं राज्य की विकास प्रक्रिया को जानने की लगातार कोशिश की है।
भारत में राज्य की अवधारणा, राज्य की उत्पत्ति एवं उसका विकास के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय साहित्य में सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध वर्णन उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसके सम्बन्ध में यत्र-तत्र विवरणों का जो उल्लेख मिलता है, उनके आधार पर हम भारत के राज्य की अवधारणा की रूपरेखा प्रस्तुत कर सकते हैं।
यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन क्रम में राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित अनेक मत प्रचलित है इसी प्रकार भारतीय चिन्तन क्रम में भी अनेक मत उपलब्ध है जैसे-
- (1) राज्य संस्था का क्रमिक विकास (विकासवादी सिद्धान्त),
- (2) समझौते का सिद्धान्त,
- (3) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त, तथा
- (4) युद्ध मूलक अर्थात शान्ति सिद्धान्त, आदि।
यद्यपि प्राचीन भारतीय स्रोतों से निकाले गए ये सिद्धान्त पाश्चात्य चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य सम्बन्धी सिद्धान्तों के बहुत निकट हैं परन्तु ये भारतीय चिन्तकों द्वारा उतनी स्पष्टता, उतने व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत नहीं किए गए क्योंकि यह प्रायः प्राचीन ग्रंथों में वृहद सांस्कृतिक चिन्तन के एक अंग के रूप में ही प्रस्तुत किए गए हैं।
प्रायः राजशास्त्र के सभी प्रेणताओं ने राज्य के सात अंग बतलाए हैं - स्वामी, अमात्य, जनपद अथवा राष्ट्र, दुर्ग, कोष, दण्ड (सेना) एवं मित्र। ये सात अंग राज्य की प्रकृति भी कहलाते हैं। विभिन्न राजशास्त्र प्रणेताओं की सप्ताङ्ग सम्बन्धी मान्यता इस प्रकार है -
- (क) स्वाम्यमात्यदुर्गकोशदण्डराष्ट्रमित्राणि प्रकृतयः॥ ( विष्णुधर्मसूत्र - 3/33 )
- (ख) स्वाम्यमात्यसुहृद् दुर्ग कोशदण्ड जनाः ॥' (गौतमधर्मसूत्र, पृ. सं. 45)
- (ग) स्वाम्त्यमात्यौ पुरे राष्ट्र कोशदण्डौ सुहृत्तथा। सप्तप्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ (मनुस्मृति - 9/294 )
- (घ) स्वाम्यमात्यौ जनो दुर्ग कोशो दण्डस्तथैव च । मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति - 1/353 , 253)
- (ङ) स्वाम्यमात्यजनदुर्गकोशदण्डमित्राणि प्रकृतयः। (कौटिलीय अर्थशास्त्र - 6/1/1)
- (च) राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्याश्च कोशाश्व दण्डो मित्राणि चैव हि॥
- तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः ॥ (महाभारत, शान्तिपर्व - 69/64-65)
- (छ) स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्तथैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तामुच्यते ॥ (अग्निपुराण - 233/12)
- (ज) स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रं च दुर्ग कोशो बलं सुहृत्। एतावदुच्यते राज्य सत्वबुद्धिब्यपाश्रयम् ।परस्परोपकारीदं सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ (कामन्दकीय नीतिसार - 1/18/4/1)
कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में सप्ताङ्ग अर्थात सात अनिवार्य अवयवों (तत्वों)- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र की बात करता है। कौटिल्य के अनुसार सातों तत्वों की मौजूदगी में ही किसी राज्य को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जा सकता है।
समाज की 'राज्यविहीन' स्थिति
राज्य की उत्पत्ति से पूर्व मानव राज्यविहीन अवस्था में था। इस अवस्था को मोरगन 'सैवेजरी' (Savagery) का नाम देता है जबकि पुराणों में इसे 'कृत युग' के नाम से जाना जाता है।
यद्यपि राज्यपूर्व प्राकृतिक अवस्था की तस्वीरें ब्यौरों में एक-दूसरे से भिन्न हैं, फिर भी इस अवस्था की चार मूलभूत विशेषताएँ स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। एक तो यह कि सबसे प्रारंभिक काल में जीवन निर्वाह का साधन वृक्षों से प्राप्त फल-फूल थे। ब्राह्मण और जैन अनुश्रुतियों में जीवन-यापन के मुख्य स्रोत के रूप में कल्पवृक्ष का वर्णन अनेक प्रसंगों में देखने को मिलता है। बौद्ध अनुश्रुतियों में जीवननिर्वाह के आदिकालीन स्रोतों में वनलता और भूतिपर्पटक के नाम आए हैं। स्वाभाविक ही है कि मानव जीवन की आदिम अवस्था में, जो पुराणों और महाकाव्यों में वर्णित कृतयुग के साथ सामान्यतः मेल खाती है, मनुष्य खाद्य-उत्पादक के रूप में नहीं, बल्कि खाद्य-संग्राहक के रूप में जीवन यापन करता होगा। इस बात का समर्थन मानव विज्ञान से होता है, और यही बात पुरापाषाण (पैलियोलिथिक) कालीन मानव के साथ भी लागू होती है। मारगन के शब्दों में, ‘सीमित क्षेत्र में पैदा होने वाले फल-फूलों के प्राकृतिक आहार पर निर्वाह करना’, यही मनुष्य के जीविका का प्रथम साधन था। उस समय कोई भी ऐसा नहीं सोच सकता था कि फल और वृक्ष एकमात्र उसी के हैं। यह प्रकृतावस्था थी, जब इसे (संपत्ति को) कब्जे में रखने का लोभ उन (मनुष्यों) में शायद ही पैदा हुआ था, क्योंकि तब यह चीज (संपत्ति) प्रायः थी ही नहीं। परिग्रह की जो प्रवृत्ति आज मानवमन में सर्वोपरि शक्ति के रूप में छाई हुई है उसे पूरे ओज के साथ विकसित करने का काम तब सभ्यता के सुदूर अनागत चरण के लिए छोड़ दिया गया था।
दूसरी बात यह कि संभवतः तब स्त्री पर पुरुष के आधिपत्य पर आधारित परिवार जैसी कोई संस्था नहीं थी। प्राकृतिक अवस्था के बारे में जितनी भी अनुश्रुतियां है उनमें महाभारत को छोड़कर और किसी में उस एक विवाही परिवार (मोनोगेमस फैमिली) की उत्पत्ति का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता जिसमें पिता का स्थान सर्वोपरि हो और सारे घरेलू कार्यकलाप का केंद्र पत्नी हो। शांतिपर्व में कहा गया है कि ‘पुत्र-पौत्रों, पुत्रवधुओं और सेवकों से भरा पूरा गृहस्थ का परिवार गृष्हिणी के अभाव में शून्य है। घर तब तक घर नहीं होता है जब तक उसमें पत्नी नहीं आती हैं।' लेकिन इस प्रकार का परिवार कैसे उद्भूत हुआ? महाकाव्यों और पुराणों की अनुश्रुतियों में कहा गया है कि पहले स्वच्छन्द यौनाचार की स्थिति विद्यमान थी और बच्चे संकल्प यानी संभोगेच्छा मात्र से उत्पन्न किए जा सकते थे। कृतयुग में न तो मैथुन था और न स्वीकृत एक-विवाही प्रथा (द्वंद्व) थी। शांतिपर्व में उल्लेख है कि उत्तरकुरुओं के देश में विवाह जैसी कोई संस्था नहीं थी। कुरु देश के बारे में दीर्घनिकाय के ‘अटानिय-सुत्त’ में कहा गया है : ‘यहाँ ऐसे लोग रहते हैं जो न तो किसी भी वस्तु को अपना कहते हैं और न किसी स्त्री को अपनी संपत्ति।
तीसरी बात यह है कि पुराणों में स्पष्ट कहा गया है कि कृतयुग में कोई वर्ण नहीं था। मानव जाति की सबसे प्रारंभिक जीवनावस्था का वर्णन करते हुए बौद्ध स्रोतों में भी ऐसा उल्लेख कहीं नहीं किया गया है कि लोग सामाजिक श्रेणियों में विभक्त थे। चौथी बात यह है कि ‘शांतिपर्व’ के कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृतिक अवस्था के प्रारंभिक चराचर में राज्य नामक संस्था नहीं थी। कौटिल्य के अनुसार वैराज्य कहे जाने वाले कुछ देशों में राजपद नहीं था और इसके लोग अपना पराया नहीं जानते थे। इससे यह अर्थ निकलता है कि जब निजी संपत्ति नहीं थी तब राजा भी नहीं था।
हाल तक मौजूद आदिम समाजों को देखने से पता चलता है कि मानव जीवन की सबसे पुराकालीन अवस्था में संपत्ति, परिवार और वर्ग (या वर्ण) जैसी संस्थाओं का अस्तित्व शायद ही मिले। यह कोई संयोग की बात नहीं थी कि प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, उपर्युक्त संस्थाओं का अभाव था। यद्यपि इन संस्थाओं के बिना रहने वाले लोगों को सभ्य नहीं कहा जाएगा, फिर भी ये चिंता और लोभ से मुक्त रहकर एक प्रकार का सहज सुंदर जीवन व्यतीत करते थे।