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राजस्थानी भाषा

राजस्थानी
Rājasthānī

राजस्थानी के प्रयोग के आधार पर नक़्शा
बोलने का  स्थानराजस्थान और भारत में इसके आस-पास के क्षेत्र, पाकिस्तान के सिंध और पंजाब के कुछ हिस्सों में
समुदाय राजस्थानी
मातृभाषी वक्ता ९,००,००,०००
भाषा परिवार
उपभाषा
लिपिदेवनागरी
भाषा कोड
आइएसओ 639-2raj
आइएसओ 639-3raj


राजस्थानी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है, जिसका वास्तविक क्षेत्र वर्तमान राजस्थान प्रान्त तक ही सीमित न होकर मध्यप्रदेश के कतिपय पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में और पाकिस्तान के वहावलपुर जिले तथा दूसरे पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी सीमा प्रदेशों में भी है। यह हरियाणा, पंजाब, गुजरात और मध्य प्रदेश[3] के निकटवर्ती क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों का समूह है। पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रांतों में भी इसके वक्ता हैं। राजस्थानी पश्चिमी इंडो-आर्यन भाषा होने के कारण पड़ोसी, संबंधित हिंदी भाषाओं से अलग भाषा है। यह भाषा भारत में लगभग नौ करोड़ लोगों के द्वारा बोली, लिखी एवं पढ़ी जाती है।

राजस्थानी नागरी लिपि में लिखी जाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ के पुराने लोगों में अब भी एक भिन्न लिपि प्रचलित है, जिसे "बाण्याँ वाटी" कहा जाता है। इस लिपि में प्रायः मात्रा-चिह्र नहीं दिए जाते। राजस्थानी बनिये आज भी बहीखातों में इस लिपि का प्रयोग करते हैं।

राजस्थानी की बोलियाँ

राजस्थानी भाषा की मुख्यतः आठ बोलियां है जिनका कुछ अन्य उपबोलियों में भी विभाजन किया जाता है। भारत की जनगणना 1991 व 2011 के अनुसार निम्न बोलियाँ आधुनिक राजस्थानी भाषा के प्राथमिक वर्गीकरण के अंतर्गत आती है: मारवाड़ी बोली, हाड़ौती बोली, मेवाड़ी बोली, ढूंढाड़ी बोली, शेखावाटी बोली, बागड़ी बोली, वागड़ी बोली, मेवाती बोली, जालोरी बोली, मालवी, निमाड़ी[4]

भारत की जनगणना 1961 में राजस्थानी भाषा के वक्ताओं द्वारा इस भाषा की 73 बोलियां लिखवाई गई किंतु इनमें से 46 बोलियों के वक्ताओं की संख्या 1 हजार से भी कम थी, साथ ही अन्य 13 बोलियों के वक्ताओं की संख्या 50 हजार से भी कम थी। इनमें से मुख्यतः 4 बोलियों के ही वक्ताओं की संख्या 10 लाख से ज्यादा थी। भाषाविदों के अनुसार राजस्थानी की मुख्यतः 8 बोलियां ही है।

राजस्थानी भाषा की बोलियों का वर्गीकरण

राजस्थानी भाषा पश्चिमी इंडो-आर्यन भाषा परिवार से संबंधित हैं।[5]

डॉ॰ ग्रियर्सन ने राजस्थानी की पाँच बोलियाँ मानी हैं-

(1) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी),

(2) उत्तर पूर्वी राजस्थानी (मेवाती अहीरवाटी),

(3) मध्यपूर्वी (या पूर्वी) राजस्थानी (ढूँढाडी हाड़ौती),

(4) दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी (मालवी),

(5) दक्षिणी राजस्थानी (

)।

ग्रियर्सन ने भीली और खानदेशी को स्वतंत्र भाषा वर्ग में माना है, किन्तु डॉ॰ चाटुर्ज्या इन्हें "राजस्थानी वर्ग" के ही अंतर्गत रखना चाहेंगे, जो अधिक समीचीन जान पड़ता है। डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ तथा आसपास की भीली बोलियों और खानदेशी की व्याकरणिक संघटना राजस्थानी से विशेष भिन्न नहीं है। वस्तुत: ये राजस्थानी के वे रूप हैं जो क्रमश: गुजराती और मराठी तत्वों से मिश्रित हैं। राजस्थानी वर्ग के अंतर्गत पाकिस्तान तथा कश्मीर के सीमांत प्रदेश की गूजरी बोली और तमिल-नाड की सौराष्ट्र बोली भी आती है, जो पूर्वी राजस्थानी से विशेष संबद्ध जान पड़ती है। डॉ॰ चाटुर्ज्या ने ग्रियर्सन के राजस्थानी के पाँच बोली-भेदों को नहीं माना हे। वे मारवाड़ी और ढूँढाडी हाड़ौती को ही "राजस्थानी" संज्ञा देना ठीक समझते हैं। उनके अनुसार राजस्थानी के दो ही वर्ग हैं :-

(1) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी),
(2) पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी हाड़ौती)।

मेवाती, मालवी और निमाड़ी मेवाड़ी का वे पश्चिमी हिंदी की ही विभाषा मानने के पक्ष में हैं, यद्यपि इस संबंध में व अंतिम निर्णय नहीं देते।

प्रमुख बोलियाँ

राजस्थानी भाषा की निम्न किस्में (मुख्य लिखित रूप व बोलियां) है:[6]

  • मानक राजस्थानी: राजस्थानी लोगों की सामान्य भाषा है और यह राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में 1 करोड़ 80 लाख (2001) से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है।[7]
  • मारवाड़ी बोली: लगभग 4.5 से 5 करोड़ बोलने वालों के साथ सबसे अधिक बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की मुख्य बोली जो मारवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है। यह भाषा मेवाड़ी भाषा से मिलती जुलती है।
  • मेवाड़ी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 50 लाख के करीब है जो राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है। यह भाषा मारवाड़ी भाषा से मिलती जुलती है।
  • ढूंढाड़ी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 80 लाख के करीब है जो राजस्थान के ढूंढाड़ क्षेत्र में बोली जाती है।
  • हाड़ौती बोली: इसके लगभग 50 लाख वक्ता है जो राजस्थान के ढूंढाड़ क्षेत्र में बोलते है।
  • अहीरवाटी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 30 लाख के करीब है जो राजस्थान, दिल्ली व हरियाणा के कुछ क्षेत्र में बोली जाती है।
  • शेखावाटी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 35 लाख के करीब है जो राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में बोली जाती है।
  • वागड़ी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 2 करोड़ 20 लाख है जो राजस्थान के डूंगरपुर व बांसवाड़ा जिसे वागड़ क्षेत्र कहा जाता है, में बोली जाती है।
  • बागड़ी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 1 करोड़ 40 लाख के करीब है जो उतरी राजस्थान, उतरी पश्चिमी हरयाणा व दक्षिणी पंजाब (भारत) के क्षेत्र में बोली जाती है।
  • निमाड़ी बोली: इसके वक्ताओं की संख्या 22 लाख के करीब है जो निमाड़ क्षेत्र (मध्यप्रदेश) में बोली जाती है।
  • जालोरी बोली इसके वक्ताओं की संख्या 17 लाख के करीब है जो जालौर क्षेत्र में बोली जाती है
  • इसकी अन्य बोलियों को मिलाकर कुल 73 बोलियां है।

विकास का इतिहास

अधिकांश विद्वानों के मतानुसार राजस्थानी का विकास मध्यदेशीय प्राकृत या शौरसेनी से हुआ है, किन्तु डॉ॰ चाटुर्ज्या इसका विकास अशोककालीन सौराष्ट्री प्राकृत से मानते हैं, जो "शौरसेनी या मध्यदेशीय प्राकृत से कुछ विभिन्न थी"। इसी प्राकृत का क्षेत्र गुजरात प्रांत तथा मारवाड़ प्रांत था और यह बोली यहाँ मध्यप्रदेश से न आकर "उत्तर-भारत के किसी और प्रांत या जनपद से आई थी। इसी आधार पर डॉ॰ चाटुर्ज्यां गुजराती मारवाड़ी को पश्चिमी पंजाब की लँहदा तथा सिंध की सिंधी से विशेष संबद्ध मानते हैं। वैसे इस प्रदेश की बोलियों को मध्ययुग में शौरसेनी ने काफी प्रभावित किया है। ईसा की तीसरी-चौथी सदियों में स्वात प्रदेश के गुर्जर गुजरात, राजस्थान तथा मालवा में आ बसे थे। पिछले दिनों इन लोगों ने यहाँ कई राज्य स्थापित किए और ये लोग ही वर्तमान अग्निवंशी राजपूतों में बदल गए। गुर्जर जाति की मूल बोलियों ने इस प्रदेश की प्राकृत को पर्याप्त प्रभावित किया है तथा अपभ्रंश के विकास में, खास तौर पर उसके शब्दकोश के विकास में, इस जाति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दंडी ने तो "अपभ्रंश" भाषा को आभीरादि की ही बोलियाँ माना है। नागर अपभ्रंश के ही परवर्ती रूप से, जिसे माकोबी जैसे विद्वान् गुर्जर अपभ्रंश या श्वेतांबर अपभ्रंश कहना अधिक ठीक समझते हैं, गुजराती-राजस्थानी का विकास हुआ है। गुजराती मूलत: राजस्थानी (पश्चिमी राजस्थानी) का ही एक विभाषा थी, जो सोलहवीं सदी तक अविभक्त थी, किंतु बाद में चलकर सांस्कृतिक, प्रांतीय तथा साहित्यिक कारणों से स्वतंत्र भाषा बन बैठी। पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी जहाँ गुजराती और सिंधी के अधिक निकट है वहाँ पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी हाड़ौती) ब्रजभाषा (पश्चिमी हिंदी) से पर्याप्त रूप में प्रभावित है। फिर भी पूर्वी राजस्थानी में भी स्पष्ट भेदक तत्त्व मौजूद हैं जो इसे हिंदी की विभाषा मानने से इंकार करते हैं। राजस्थानी भाषा की भाषाशास्त्रीय स्थिति रिहारी तथा पहाड़ी की तरह उन भाषाओं में है, जिन्हें हिंदी की विभाषा नहीं माना जा सकता, किंतु हिंदी के सांस्कृतिक तथा साहित्यिक इतिहास के साथ इसका गठबंधन इतना दृढ़ हो गया है कि साहित्यिक दृष्टि से राजस्थानी भाषा की स्वतंत्र सत्ता न रह पाई और यह उसकी विभाषासी बन गई।

राजस्थानी भाषा की सामान्य विशेषताएँ

राजस्थानी भाषा की सामान्य विशेषताएँ निम्न हैं-

(1) राजस्थानी में "ण", "ड़" और (मराठी) "ळ " तीन विशिष्ट ध्वनियाँ (Phonemes) पाई जाती हैं।

(2) राजस्थानी तद्भव शब्दों में मूल संस्कृत "अ" ध्वनि कई स्थानों पर "इ" तथा "इ" "उ" के रूप में परिवर्तित होती देखी जाती हैं-"मिनक" (मनुष्य), हरण (हरिण), क"मार (कुंभकार,कुम्हार)।

(3) मेवाडी और मालवी में "च, छ, ज, झ" का उच्चारण भीली और मराठी की तरह क्रमश: "त्स, स, द्ज, ज़" की तरह पाया जात है।

(4) संस्कृत हिंदी पदादि "स-ध्वनि" पूर्वी राजस्थानी में तो सुरक्षित है, किंतु मेवाड़ी-मालवी-मारवाड़ी में अघोष "ह्ठ" हो जाती है। हि. सास, जैपुरी-हाडौती "सासू", मेवाड़ी-मारवाड़ी "ह्ठाऊ"

(5) पदमध्यगत हिंदी शुद्ध प्राणध्वनि या महाप्राण ध्वनि की प्राणता राजस्थानी में प्राय: पदादि व्यंजन में अंतर्भुक्त हो जाती है-हिं. कंधा, रा. खाँदो; हि. पढना, रा. फढ-बो।

(6) राजस्थानी के सबल पुलिंग शब्द हिंदी की तरह आकारांत न होकर ओकारांत है :-हि. घोड़ा, रा. घोड़ी, हिं. गधा, रा. ग"द्दो, हिं. मोटा, रा. मोटो।

(7) पश्चिमी राजस्थानी में संबंध कारक के परसर्ग "रो-रा-री" हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में ये हिंदी की तरह "को-का-की" हैं।

(8) जैपुरी-हाड़ौती में "नै" परसर्ग का प्रयोग कर्मवाच्य भूतकालिक कर्ता के अतिरिक्त चेतन कर्म तथा संप्रदान के रूप में भी पाया जाता है-"छोरा नै छोरी मारी" (लड़के ने लड़की मारी); "म्हूँ छोरा नै मारस्यँू" (मैं लड़के को पीटूँगा;-चेतन कर्म); "यो लाडू छोरा नै दे दो" (यह लड्डू लड़के को दे दो-संप्रदान)।

(9) राजस्थानी में उत्तम पुरुष के श्रोतृ-सापेक्ष "आपाँ-आपण" ओर श्रोतृ निरपेक्ष "महे-म्हें-मे" दुहरे रूप पाए जाते हैं।

(10) हिंदी की तरह राजस्थानी के वर्तमानकालिक क्रिया रूप सहायक क्रियायुक्त शतृप्रत्ययांत विकसित रूप न होकर शुद्ध तद्भव रूप हैं। "मूँ जाऊँ छूँ" (मैं जाता हूँ)।

(11) सहायक क्रिया के रूप पश्चिमी राजस्थानी में "हूं-हाँ-हो-है" (वर्तमान) और "थो-थी-था" (भूतकाल) हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में "छूँ-छाँ-छो-छै" (वर्तमान) और "छो-छी-छा" (भूतकाल) हैं।

(12) राजस्थानी में तीन प्रकार के भविष्यत्कालिक रूप पाए जाते हैं :-जावैगो, जासी, जावैलो। इनमें द्वितीय रूप संस्कृत के भविष्यत्कालिक तिङंत रूपों का विकास हैं-"जासी" (यास्यति), जास्यूँ (यास्यामि)।

(13) राजस्थानी की अन्य पदरचनात्मक विशेषता पूर्वकालिक क्रिया के लिए "-र" प्रत्यय का प्रयोग है : -"ऊ-पढ़-र रोटी खासी" (वह पढ़कर रोटी खाएगा)।

(14) राजस्थानी की वाक्यरचनागत विशेषताओं में प्रमुख उक्तिवाचक क्रिया के कर्म के साथ संप्रदान कारक का प्रयोग है, जबकि हिंदी में यहाँ "करण या अपादान" का प्रयोग देखा जाता है1"या बात ऊँनै कह दो" (यह बात उससे कह दो)। पूर्वी राजस्थानी में हिंदी के ही प्रभाव से संप्रदानगत प्रयोगके अतिरिक्त विकल्प से कारण-अपादानगत प्रयोग भी सुनाई पड़ता है-"या बात ऊँ सूँ कह दो"।

राजस्थानी भाषा पर शोध कार्य

भारत की अन्य प्रांतीय भाषाओं की तरह राजस्थानी की भी अपनी कुछ विशिष्ट विशेषतायें हैं। ग्रियर्सन ने Linguistic Survey of India[8] की 9वीं पुस्तक के भाग-2 के पृष्ठ संख्या 2-3 पर राजस्थानी भाषा की बोलियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है[9]

1. पश्चिमी राजस्थानी - इसमें मारवाड़ी, थली, बीकानेरी, बागड़ी, शेखावाटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, गोडवाड़ी और देवड़ावाटी सम्मिलित हैं।

2. उत्तर पूर्वी राजस्थानी - अहीरवाटी और मेवाती।

3. ढूंढाड़ी - इसे मध्यपूर्वी राजस्थानी भी कहा जाता है, जिसमें तोंरावाटी, जयपुरी, कठैड़ी, राजावाटी, अजमेरी, किशनगढ़ी, शाहपुरी एवं हाडौती सम्मिलित हैं।

4. मालवी या दक्षिण-पूर्वी-राजस्थानी - इसमें रांगड़ी और सोडवाडी हैं।

5. दक्षिणी राजस्थानी - निमाड़ी। मेवाड़ी

प्राचीन काल में इसका नाम मरुभाषा ही था। कालान्तर में यह डिंगळ कहलाने लगी।[10] इसी नामकरण के समय राजस्थानी में समृद्धतम साहित्य की रचना हुई। आधुनिक समय में मोटे तौर से इसे राजस्थानी ही कहा जाता है। अतः राजस्थानी से हमारा अभिप्राय उसी परंपरागत मरु एवं डिंगळ भाषा से है। कविराजा सूर्यमल्ल ने वंशभास्कर में स्थान-स्थान पर इस नाम का प्रयोग किया है।

भाषा-वैज्ञानिकों का राजस्थानी भाषा का आंकलन: राजस्थानी भाषा का शब्द सामर्थ्य, राजस्थानी व्याकरण[11] व राजस्थानी साहित्य के आधार पर इसे विश्व की 16वीं व भारत की 7वीं समृद्धतम भाषा माना जाता है।

लिखित रूप

राजस्थानी भाषा को पहले मोड़ी[12] या महाजनी[13] लिपि तथा मरुगुर्जरी लिपी में लिखा जाता था। वर्तमान में इसे आधुनिक देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। पाकिस्तान में इस भाषा को लिखने के लिए सिंधी लिपि का प्रयोग किया जाता है।

विश्व का सबसे बड़ा शब्दकोश: राजस्थानी वृहत शब्दकोश

विश्व का सबसे बड़ा शब्दकोश डॉ. सीताराम लालस द्वारा रचित राजस्थानी भाषा (राजस्थानी हिंदी वृहद कोश) वृहद शब्दकोश[14][15] है। इसमें 2 लाख से अधिक शब्द है।[16]

मान्यता स्थिति

भारत की साहित्य अकादमी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने राजस्थानी को एक अलग भाषा के रूप में मान्यता दी है, इसे जोधपुर के जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालयबीकानेर के महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है। राज्य माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान ने राजस्थानी भाषा साहित्य को विद्यालयी शिक्षा में शामिल किया है[17] और यह 1973 से एक वैकल्पिक विषय रहा है। हालांकि यह भाषा भारतीय संविधान की 8वी अनुसूची में शामिल नहीं है।

भौगोलिक वितरण

राजस्थानी भाषा मुख्य रूप से राजस्थान राज्य में बोली जाती हैं, लेकिन गुजरात, हरियाणा और पंजाब में भी बोली जाती हैं। राजस्थानी भाषा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर और मुल्तान क्षेत्रों और सिंध के थारपारकर जिले में भी बोली जाती हैं। यह क्रमशः बहावलपुर और मुल्तान क्षेत्रों में रियासी और सरायकी में विलीन हो जाती है। यह सुकुर और उमरकोट के माध्यम से डेरा रहीम यार खान से सिंधी के संपर्क में आता है। यह भाषा लाहौर, पंजाब, पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में आम है। जॉर्ज ए ग्रियर्सन द्वारा राजस्थानी भाषा भौगोलिक क्षेत्र का एक वितरण 'भारतीय भाषाई सर्वेक्षण' में पाया जाता है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. Ernst Kausen, 2006. Die Klassifikation der indogermanischen Sprachen
  2. A Descriptive Grammar of Bagri By Lakhan Gusain, Chapter 1: Rajasthani: Dialects and Classification
  3. Census of India, 2001. Rajasthan. New Delhi: Government Press
  4. A Descriptive Grammar of Bagri By Lakhan Gusain, Chapter 1: Rajasthani: Dialects and Classification
  5. "Rajasthani Language". web.archive.org. 2009-03-27. मूल से पुरालेखित 27 मार्च 2009. अभिगमन तिथि 2020-12-31.सीएस1 रखरखाव: BOT: original-url status unknown (link)
  6. Ethnologue.com: Ethnologue report for Rajasthani
  7. "Rajasthan language Census Data – 2011" (PDF). the original. मूल से 9 January 2024 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2015-09-27.
  8. Pandit, Prabodh B. (1975), "The linguistic survey of India - perspectives on language use" (PDF), Language surveys in developing nations: papers and reports on sociolinguistic surveys, Center for Applied Linguistics, पपृ॰ 71–85, अभिगमन तिथि 2020-12-31
  9. "सबदकोस – राजस्थांनी भाषा". राजस्थानी सबदकोस (अंग्रेज़ी में). मूल से 16 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  10. "सबदकोस – राजस्थांनी भाषा". राजस्थानी सबदकोस (अंग्रेज़ी में). मूल से 16 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  11. "सबदकोस – राजस्थांनी व्याकरण (भाग-1)". राजस्थानी सबदकोस (अंग्रेज़ी में). मूल से 16 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  12. "Language" (अंग्रेज़ी में). मूल से 22 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  13. "आपाणो राजस्थान". www.aapanorajasthan.org. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  14. "Home". राजस्थानी सबदकोस (अंग्रेज़ी में). मूल से 16 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-30.
  15. Charans.org. "पद्मश्री डा. सीताराम जी लालस". Charans.org (चारण समागम) (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2020-12-31.
  16. admin (2018-11-23). "पद्मश्री डा. सीताराम जी लालस". चारण शक्ति (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2020-12-31.[मृत कड़ियाँ]
  17. "Rajasthani literature - Google Search". www.google.com. अभिगमन तिथि 2020-12-30.

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