रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि)
रसिक गोविन्द रीतिकाल के कवि थे। वे निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यास जी की शिष्य परम्परा में 'सर्वेश्वरशरण देव' जी बड़े भक्त हुए हैं। रसिक गोविन्द उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम 'शालिग्राम', माता का 'गुमाना' और बड़े भाई का नाम 'बालमुकुन्द' था। इनका कविता काल संवत 1850 से 1890 तक अर्थात विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक प्रतीत होता है। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है - रामायण सूचनिका, रसिक गोविंदानन्दघन, लछिमन चंद्रिका, अष्टदेशभाषा, पिंगल, समयप्रबन्ध, कलियुगरासो, रसिकगोविन्द और युगलरस माधुरी।
इनका असली नाम 'गोविन्द' था और ये जयपुर के रहनेवाले नटाणी जाति के वैश्य थे। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनका काव्यकाल संवत्. १८५१ से संवत्. १८९१ विक्रमी तक था। कृष्णभक्त हो जाने के बाद इन्हें 'रसिक' उपाधि मिली थी। पिता का नाम सालिग्राम और माता का नाम गुमाना था। मोतीराम इनके चाचा और बालमुकुंद इनके बड़े भाई थे। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'रसिकगोविंदानंदघन' की रचना इन्होंने बालमुकुंद के पुत्र नारायण के लिए की थी। आर्थिक वैषम्य के कारण ही ये विरक्त हो वृन्दावन चले गए थे। इन्होंने निम्वार्क संप्रदायी आचार्य सर्वेश्वरशरण देव जी से दीक्षा ग्रहण की थी।
कृतियाँ
अब तक इनके नौ ग्रंथों का पता लगा है- 'अष्टदेश भाषा', 'पिंगल', 'समय प्रबंध', 'रामायण सूचानिका' या 'ककहरा रामायण', 'युगल-रस-माधुरी', 'रसिक-गोविंदानंदघन', 'लछिमनचंद्रिका', 'कलिजुगरासो' और 'रसिकगोविंद'।
'अष्टदेश भाषा' में खड़ीबोली, पंजाबी, पुरबी, आदि आठ भाषाओं के माध्यम से कृष्णलीला वर्णित की गई है। इससे कवि के बहुभाषा ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। 'पिंगल' रीतिपद्धति की रचना है जिसमें छन्दों का निरूपण किया गया है। 'समयप्रबंध' में राधा कृष्ण की शृंगारलीलाओं को अनेक ऋतुओं के संदर्भ में वर्णित किया गया है। ककारादि क्रम से सारी राम-कथा को ३३ दोहों में 'रामायणसूचनिका' के अंतर्गत रखा गया है। इसके अनेक छंद 'रसिकगोविन्दानन्दघन' में भी पाए जाते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इसकी रचना सं. १८५९ वि. के पूर्व ही हो चुकी होगी। 'रसिक-गोविन्दानन्दघन' कवि की सर्वप्रसिद्ध और काव्यशास्त्रीय रचना है जिसका निर्माणकाल संवत् १८५९ विक्रमी है। राधा-कृष्ण की वृंदावन लीला का वर्णन 'युगल-रस-माधुरी' में बड़ी ही भावात्मक शैली में किया गया है। इसका प्रकाशन संवत १९७३ वि. में नानपारा (जिला बहराइच) के पं. माधवदास ब्रह्मचारी ने किया था। 'कलिजुगरासो' में कुल १६ कवित्त हैं जिनमें कलि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना की गई है। इसका निर्माणकाल संवत् १८६६ विक्रमी है। 'लछिमनचंद्रिका' की रचना काशीवासी जगन्नाथ कान्यकुब्ज के बेटे लक्ष्मण के लिए संवत् १८८७ वि. में की गई थी। इसका निर्माण 'रसिक-गोविंदानंदधन' के वर्ण्यविषय को समझाने के लिए किया गया था। 'रसिकगोविन्द' अलंकारनिरूपक ग्रंथ है जिसमें अलंकार-लक्षण-उदाहरण छंदबद्ध रूप में दिए गए हैं। इसका रचनाकाल संवत १८९१ वि. है।