योद्धा जातियाँ
योद्धा जातियाँ, 1857 की क्रांति के बाद, ब्रिटिश कालीन भारत के सैन्य अधिकारियों बनाई गयी उपाधि थी। उन्होने समस्त जतियों को "योद्धा" व "गैर-योद्धा" जतियों के रूप मे वर्गीकृत किया था। उनके अनुसार, सुगठित शरीर व बहादुर "योदधा वर्ण" लड़ाई के लिए अधिक उपयुक्त था,[1] जबकि आराम पसंद जीवन शैली वाले "गैर-लड़ाकू वर्ण" के लोगों को ब्रिटिश सरकार लड़ाई हेतु अनुपयुक्त समझती थी।[2] हालांकि, योद्धा जातियाँ को राजनीतिक रूप से उप-प्रधान, बौद्धिक रूप से हीन माना जाता था, जिसमें बड़े सैन्य कमान के लिए पहल या नेतृत्व के गुणों का अभाव था। अंग्रेजों के पास उन भारतीयों को भर्ती करने की नीति थी, जिनकी शिक्षा तक कम पहुंच है क्योंकि उन्हें नियंत्रित करना आसान था।[3]
सैन्य इतिहास पर आधुनिक इतिहासकार जेफरी ग्रीनहंट के अनुसार, "योद्धा जाति सिद्धांत में एक सुरुचिपूर्ण समरूपता थी। जो भारतीय बुद्धिमान और शिक्षित थे, उन्हें कायर के रूप में परिभाषित किया गया था, जबकि बहादुर के रूप में परिभाषित किए गए लोग अशिक्षित और पिछड़े थे"। अमिय सामंत के अनुसार, योद्धा जाति को भावात्मक भावना से चुना गया था, क्योंकि इन समूहों में एक विशेषता के रूप में राष्ट्रवाद का अभाव था।[4] ब्रिटिश प्रशिक्षित भारतीय सैनिक उन लोगों में से थे जिन्होंने 1857 में विद्रोह किया था और उसके बाद, बंगाल सेना के कैचमेंट क्षेत्र से आए सैनिकों की अपनी भर्ती में लेना छोड़ दिया या कम कर दिया और एक नई भर्ती नीति बनाई, जिसमें उन जातियों का पक्ष लिया गया जिनके सदस्य ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार थे।[2]
मानदण्ड
भारत पर अधिकार स्थापित करने की प्रक्रिया में अँग्रेजी हुकूमत को जहाँ कई क्षेत्रों में घोर विरोध का सामना करना पड़ा था वहीं अन्य कुछ क्षेत्रों को उन्होने आसानी से काबू मे कर लिया था। ऐसे मे ब्रिटिश अधिकारियों ने " योद्धा जतियों" की तलाश की जो या तो शिकारी थे, या कृषक संस्कृति से थे जिनका लड़ाइयाँ लड़ने का इतिहास रहा था। अन्य जातियों को उनकी आराम पसंद जीवन शैली या राजद्रोही होने के कारणो से "योद्धा जाति" नही माना गया। [5] "योद्धा जाति" का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित था कि उपयुक्त सैनिक बनने हेतु कुछ वंशानुगत गुणो की आवश्यकता होती है तथा भारत की कुछ विशेष जातियों के अलावा योद्धा बनने के गुण अन्य जातियों मे नहीं पाये जाते।[6]
ब्रिटिश सेनानायक व विद्वान लेफ्टिनेंट जनरल सर मकमुन(1869–1952) ने अपने उद्धरणों नें लिखा है कि " (भारतीयों के लिए) ब्रिटिश सेना मे काम करना अधर्म और शर्मनाक समझा जाता था अतः ऐसा कदम जरूरी था अन्यथा समूची ब्रिटिश सेना को बिना म्यान से तलवार निकाले या बिना एक भी गोली चलाये ही परास्त हो जाती।"[7] अतः मात्र योद्धा जतियों के सदस्यों की ही सेना में भर्ती ब्रिटिश पॉलिसी बन गयी तथा ब्रिटिश राज के भर्ती नियामकों का अभिन्न हिस्सा बनी रही। जेफेरी ग्रीनहट के अनुसार, "योद्धा जाति के सिद्धान्त की रोचक विशेषता यह थी कि, इसमे विद्वान व शिक्षित भारतीयों को कायर माना गया था तथा पिछड़े व अशिक्षित वर्गों को बहादुर जाति के रूप मे परिभाषित किया गया था।"[8]
ब्रिटिश लोग लड़ाकू जतियों को बहादुर व शक्तिशाली मानते थे परंतु उन्हे कम मेधावी व बड़ी सैनिक टुकड़ियों के नेत्रत्व आदि के अयोग्य समझा जाता था।[9] इन्हें राजनैतिक रूप से अधीन व अधिकारियों के प्रति नरम रुख वाला भी माना जाता था।[10] इन कारणों से लड़ाकू जाती के सिद्धान्त को सैन्य अधिकारियों की भर्ती से पृथक रखा गया व भर्ती सामाजिक स्तर तथा ब्रिटिश राज के प्रति बफादारी पर आधारित होती थी।[11] स्रोत विशिष्ट इसे द्वारा रचित "छद्म-आचार संरचना" की संज्ञा देते हैं जिसे Frederick Sleigh Roberts ने प्रचारित किया जिसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध के समय सैनिकों की संख्या मे भारी कमी हो ज्ञी थी व ब्रिटिश सरकार को गैर लड़ाकू जतियों कि सेना मे भर्ती के लिए बाध्य होना पड़ा था।[12] इस सिद्धान्त के विघटन पर विंस्टन चर्चिल ने युद्धह के समय भारतीय कमांडर इन चीफ़ को लिखा कि उन्हे अधिक से अधिक लड़ाकू जातियों पर भरोसा करना चाहिए।[13]
इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि ब्रिटिश हुकूमत के इस सिद्धान्त मे विश्वास को बल देने का कारण 1857 की क्रांति रही थी। क्रांति मे सिपाही मंगल पांडे के नेत्रत्व मे बंगाल नेटिव इंफेंटरी ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध बगावत कर दी थी। बंगाल सैनिक बिहार व उत्तर प्रदेश के राजपूत, भूमिहार आदि लड़ाकू जतियों से भर्ती होते थे। जबकि ब्रिटिश बफादार पस्तून, पंजाबी, कुमायूनी, गोरखा व गढ़वाली सैनिकों ने विद्रोह में भागीदारी नहीं की थी व ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से लड़े थे। तब से लड़ाकू जाति की भर्ती में इन लोगों को प्राथमिकता दी जाने लगी व क्रांतिकारियों का समर्थन करने वाली विद्रोही उच्च वर्गी जतियों कि भर्ती प्रतिबंधित की गयी।[14]
हीथर स्ट्रीट्स सरीखे अन्य लेखक यह तर्क देते हैं कि सैन्य अधिकारियों ने रेजीमेंट्स के इतिहास लिखकर व चित्रकारी में वेशभूषाओं तथा हथियारों का गुणगान करके लड़ाकू सैनिकों की छवि को प्रकाशित किया[15] एक अमेरिकन यहूदी लेखक, रिचर्ड स्कल्ज़ ने लड़ाकू जाति अवधारणा को ब्रिटिश सरकार द्वारा राजनैतिक लाभ हेतु भारतीयों में "फूट डालो और राज करो" की दिशा में किया गया प्रयास बताया।[16]
योद्धा जाति के रूप में उपाधित जन-जातियाँ व जन-समूह
ब्रिटिश शासन काल
ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय उप महाद्वीप के कुछ जाति समूहों को "लड़ाकू जातियाँ" घोषित कर दिया जो कि पूर्व में "पंजाब भूमि अधिगृहण अधिनियम 1925" के तहत आधिकारिक रूप से " कृषक जाति" के रूप मे वर्गीकृत थीं। प्रशासन ने इन्हे सूचीवद्ध करते समय दोनों शब्दों को समानार्थी माना। निम्न जतियों को लड़ाकू जाति की श्रेणी मे सूचीवद्ध किया गया था:
- अहीर
- त्यागी
- बलोच
- गुर्जर (हिन्दू व मुस्लिम दोनों)
- कुर्मी
- जाट (हिन्दू, सिख और मुस्लिम तीनों)
- सिक्ख
- खोखर
- क़ुरैशी
- पठान
- राजपूत (हिन्दू व मुस्लिम दोनों, डोगरा को छोडकर अन्य)
- सैनी
अन्य जन समुदाय जो भिन्न भिन्न समय पर योद्धा जाति मे जोड़े जाते रहे-
- कोडावा[17]
- गोरखा[18]
- मराठा[19]
- नायर[20][21] (विद्रोह के बाद हटा दिया गया था)
- त्यागी
- रेड्डी[22]
- सिक्ख[23]
- तनोली[24][25]
- मोहयाल[26]
पाकिस्तानी सेना द्वारा वर्गीकरण
कहा जाता है कि प्रचलन में न होने के बावजूद भी पाकिस्तान ने खासकर 1965 के भारत पाक युद्ध के पूर्व "योद्धा जाति सिद्धान्त" पर भरोसा यह सोच कर दिखाया कि वह आसानी से भारत को पराजित कर सकेंगे।[27][28][29] इस सिद्धान्त के बलबूते पर यह भी कहा गया कि एक पाक सैनिक चार से दस हिन्दू या भारतीय सैनिकों के बराबर है,[30][31][32] अतः बहुसंख्यक शत्रु सेना को भी जीता जा सकेगा।[33]
पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने भी सेना पर आरोप लगाया कि इस सिद्धान्त के मद्देनजर उन्हे पूर्वी पाकिस्तान का निवासी होने के बावजूद पंजाबी या पस्तूनों से कमतर योद्धा माना जाता है।[34] पाकिस्तानी लेखक हसन असकारी रिजवी के अनुसार पाकिस्तानी सेना मे बंगालियों की कम भर्ती होने का कारण यह था कि पश्चिम पाकिस्तानी "योद्धा जाति सिद्धान्त" के मद से उबर नही सके थे।[35]
पाकिस्तानी सैनी लेखक यह भी मानते हैं कि 1971 की पराजय में आंशिक रूप से त्रुटिपूर्ण "लड़ाकू जाती" नीति भी जिम्मेदार थी जिसके चलते यह मान लिया गया था कि भारतीय सेना को पराजित कर दिया जायेगा।[36] लेखक स्टीफन पी॰ कोहेन मानते हैं कि पाकिस्तान के स्थानीय माहौल के असर से योद्धा जाति नीति को सच्चाई से भी ऊपर मान्यता देकर सुरक्षा संबंधी अन्य पहलुओ को अनदेखा किया गया।[33] इसके बाद यह नीति पाकिस्तान में शायद ही कभी मानी गयी हो।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
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- ↑ End-game? By Ardeshir Cowasjee - 18 July 1999, Dawn (newspaper).
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