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योगतत्त्व उपनिषद

योगतत्त्वोपनिषद्, कृष्ण यजुर्वेद से सम्बंधित उपनिषद् माना जाता है। इस उपनिषद् में योग विषयक विविध उपादानों का विस्तार से वर्णन किया गया है। भगवान् विष्णु के द्वारा पितामह ब्रह्मा के लिए योग विषयक गूढ़ तत्त्वों के निरूपण के साथ योगतत्त्वोपनिषद् का शुभारम्भ हुआ है। इस उपनिषद् में कैवल्य रूपी परमपद की प्राप्ति के लिए योग मार्ग ही श्रेष्ठ साधन बताया गया है।

योग तत्वोपनिषद् में मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग एवं राजयोग के क्रम में इनकी चार अवस्थाओं (आरम्भावस्था, घटावस्था, परिचयावस्था एवं निष्पत्यावस्था) का वर्णन हुआ है। आगे चलकर योगी के आहार-विहार एवं दिनचर्या का भी उल्लेख किया गया है। आगे इसी क्रम में योगसिद्धि के प्रारम्भिक लक्षणों का वर्णन तथा उससे सावधान रहने का निर्देश भी इस उपनिषद् में दिया गया है।

परमपिता ब्रह्मा जी को योग का तत्व समझाते हुए भगवान श्री हरि विष्णु कह रहे हैं - हे ब्रह्मन् ! व्यवहार की दृष्टि से योग के अनेकानेक भेद होते हैं , जैसे मंत्र योग, लय योग, हठ योग एवं राज योग आदि। योग की चार अवस्थाएं सर्वत्र वर्णित की गई है ।ये अवस्थाएं आरम्भ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति हैं। भगवान श्री हरि विष्णु ब्रह्मा जी को योग का तत्व समझाते हुए योग के विभिन्न भेदों के संबंध में बताते है-- हे ब्रह्म देव ! आत्मा का परमात्मा से एकाकार करने की विधियों को योग पद्धतियों के नाम से जाना जाता है । मंत्र योग- जो साधक मात्रका आदि से युक्त मंत्र को 12 वर्ष तक जप करता है। वह मंत्र की सिद्धि स्वरूप क्रमशः अणिमा-महिमा आदि सिद्धियों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। लययोग- चित्त का लय ही लय योग है। यह योग अनेकों प्रकार का होता है, जिस किसी भी प्रकार से चित्त का लय हो जाए। वही विधि लययोग है, उठते-बैठते ,चलते-रुकते, शयन करते, भोजन करते ,कला रहित परमात्मा का निरन्तर चिंतन करता रहे। उसके ध्यान में मन को डुबोए रखें , यही लय योग का ज्ञान है। हठ योग - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार , मुद्रा ,षटकर्म, धारणा , ध्यान तथा समाधि । यही हठयोग है। यह समस्त प्रकार के योग में सर्वश्रेष्ठ योग पद्धति है। यदि वास्तविक रूप में हठयोग की परिभाषा जानी जाये तो ह - सूर्य एवं ठ - चंद्रमा इन दोनों का जो योग , जो ऐक्य है-- वही हठयोग है अर्थात सूर्य चंद्रमा रूप जो अपान एवं प्राण है। उनकी एकता से जो प्राण का नवीन आयाम निर्मित होता है , वही हठयोग है ।

उपनिषद् के अनुसार पूर्ण मनोयोग से की गयी योगसाधना निःसन्देह सफल होती है, जो योगी साधक को सभी सिद्धियों (अणिमा, गरिमा, महिमा आदि) अष्टसिद्धियों से सम्पन्न कर देती है, साथ ही वह साधक ईश्वरीय शक्तियों का अधिकारी बन जाता है और अन्ततः वह आत्मतत्त्व का निर्वात दीपशिखा की तरह अन्तःकरण में साक्षात्कार करके संसार के आवागमन चक्र से मुक्त हो जाता है। इसी फलश्रुति के साथ योगतत्त्व उपनिषद् का समापन हुआ है।

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