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यशस्तिलक

यशस्तिलक (=यशः + तिलक)  
लेखकसोमदेव
देश वेमुलवाड के चालुक्य राजा (present-day India)
भाषासंस्कृत
विषय राजा यशोधर की कथा
प्रकारचम्पू
प्रकाशन तिथि 959 ई०

यशस्तिलक (यशस् + तिलक) 10वीं शताब्दी का एक चम्पू संस्कृत ग्रन्थ है जिसमें उज्जयिनी के राजा यशोधर की कथा का आश्रय लेकर जैन सिद्धांतों को समझाया गया है। यह जैन लेखक सोमदेव द्वारा रचित है जो भारत के वेमुलावाड़ा चालुक्य राज्य के निवासी थे। यह ग्रन्थ समकालीन साहित्यिक और सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं के साथ-साथ जैन और गैर-जैन दार्शनिक और धार्मिक सिद्धांतों के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

इस ग्रन्थ के अन्य नाम ये हैं- यशस्तिलकम्पू और यशोधरमहाराजचरित (राजा यशोधर का जीवनचरित)।

'सोमदेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' की रचना ९५९ ईसवी में की। 'यशस्तिक' का दूसरा नाम 'यशोधरमहाराजचरित' भी है, क्योंकि इसमें उज्जयिनी के सम्राट् यशोधर का चरित्र कहा गया है। अर्थात्- 'यशोधर' नामक राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार, राजनीति, धर्म, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की सामग्री प्रस्तुत की गई है। 'सोमदेव' का लिखा हुआ दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नीतिवाक्यामृत' है, उसमें 'कौटिल्य' के अर्थशास्त्र को आधार मानकर 'सोमदेव' ने राजशास्त्र विषय को सूत्रों में निवद्ध किया है । संस्कृत वाङ्मय में 'नीतिवाषयामृत' का भी विशिष्ट स्थान है और जीवन को व्यवहारिक निपुणता से ओतप्रोत होने के कारण वह ग्रन्थ भी सर्वथा प्रशंसनीय है । उस पर भी सुन्दरलाल जी शास्त्री ने हिन्दी टीका लिखी है। इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि 'सोमदेव' की प्रज्ञा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की थी और संस्कृत भाषा पर उनका असामान्य अधिकार था।

'सोमदेव' ने अपने विषय में जो कुछ उल्लेख किया है, उसके अनुसार वे देवसंघ के साधु 'नेमिदेव' के शिष्य थे। वे राष्ट्रकूट सम्राट् 'कृष्ण' तृतीय ( ९२९ - ९६८ ई० ) के राज्यकाल में हुए । सोमदेव के संरक्षक 'अरिकेसरी' नामक चालुक्य राजा के पुत्र 'वाद्यराज' या 'वहिग' नामक राजकुमार थे। वह वंश राष्ट्रकूटों के अधीन सामन्त पदवीधारी था । 'सोमदेव' ने अपना ग्रन्थ 'गङ्गधारा' नामक स्थान में रहते हुए लिखा । धारवाड़ कर्नाटक महाराज और वर्तमान तेलंगण प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का अखण्ड राज्य था। लगभग आठवीं शती के मध्य से लेकर दशम शती के अन्त तक महाप्रतापी राष्ट्रकूट सम्राट् न केवल भारतवर्ष में बल्कि पश्चिम के अरब साम्राज्य में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे । अरबों के साथ उन्होंने विशेष मैत्री का व्यवहार रक्खा और उन्हें अपने यहां व्यापार की सुविधाएं दीं। इस वंश के राजाओं का विरुद 'बल्लभराज' प्रसिद्ध था जिसका रूप अरब लेखकों में 'बल्हरा' पाया जाता है । राष्ट्रकूटों के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन की चौमुखी उन्नति हुई। उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर दो चम्मू ग्रन्थों की रचना हुई। पहला महाकवि त्रिविकमकृत 'नलचम्पू' है। 'त्रिविक्रम' राष्ट्रकूट सम्राट् इन्द्र तृतीय ( ९१४-९१६ ई० ) के राजपण्डित थे। इस चम्पू ग्रन्थ की संस्कृत शैली श्लेष प्रधान शब्दों से भरी हुई है और उससे राष्ट्रकूट संस्कृति का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है।

त्रिविक्रम के पचास वर्ष वाद 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' की रचना की। उनका भरसक प्रयत्न यह था कि अपने युग का सच्चा चित्र अपने गद्यपद्यमय ग्रन्थ में उतार दें। निःसन्देह इस उद्देश्य में उनको पूरी सफलता मिली। सोमदेव जैन साधु थे और उन्होंने 'यशस्तिलक' में जैन धर्म की व्याख्या और प्रभावना को ही सबसे ऊँचा स्थान दिया है। उस समय कापालिक, कालामुख, शैव, चार्वाक आदि जो विभिन्न सम्प्रदाय लोक में प्रचलित थे, उनको शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतार कर तुलनात्मक दृष्टि से 'सोमदेव' ने उनका अच्छा परिचय दिया है। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ भारत के मध्यकालीन सांस्कृतिक इतिहास का उमड़ता हुआ स्रोत है, जिसकी बहुमूल्य सामग्री का उपयोग भविष्य के इतिहास ग्रन्थों में किया जाना चाहिए।

कथा

'यशस्तिलक' की कथा कुछ उलझी हुई है । 'बाण' की कादम्बरी के पात्रों की तरह इसके पात्र भी कई जन्मों में हमारे सामने जाते हैं। बीच-बीच में वर्णन बहुत लम्बे हैं, जिनमें कथा का सूत्र खो जाता है।

प्राचीन समय में 'यौधेय' नाम का जनपद था। वहाँ का राजा 'मारिदत्त' था । उसने 'जादुई तलवार' पाने के लिये 'वीरभैरव' नामक अपने तान्त्रिक पुरोहित को सलाह से अपनी कुलदेवी चण्डमारी को प्रयत्न करने के लिये एक सुन्दर पुरुष और स्त्री की बलि देने का विचार किया और चाण्डालों को ऐसा जोड़ा लाने की आज्ञा दी । उसी समय 'सुदत्त' नाम के एक महात्मा राजधानी के बाहर ठहरे हुए थे। उनके साथ दो शिष्य थे - एक 'अभयरुचि' नाम का राजकुमार और दूसरी उसकी बहिन 'अभयमति' । दोनों ने छोटी आयु में ही दीक्षा ले ली थी। वे दोनों दोपहर की भिक्षा के लिये निकले हुए थे कि चाण्डाल पकड़कर देवी के मन्दिर में राजा के पास ले गया । राजा ने पहले तो उनकी बलि के लिये तलवार निकाली पर उनके तपः प्रभाव से उसके विचार सौम्य हो गए और उसने उनका परिचय पूछा। इस पर राजकुमार ने कहना शुरू किया । | इसी 'भरतक्षेत्र' में 'अवन्ति' नाम का जनपद है। उसकी राजधानी 'उज्जयिनी' शिप्रा नदी के तट पर स्थित है। वहीं 'यशोर्घ' नाम का राजा राज्य करता था । उसको रानी 'चन्द्रमति' थी। उनके 'यशोधर' नामक पुत्र हुआ। एक बार अपने शिर पर सफेद बाल देखकर राजा को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने पुत्र यशोधर को राज्य सौंपकर संन्यास ले लिया । मन्त्रियों ने यशोवर का राज्याभिषेक किया। उसके लिए शिप्रा के तट पर एक विशाल मण्डप बनवाया गया। नये राजा के लिये 'उदयगिरि' नामक एक सुन्दर तरुण हाथी और 'विजयवैनतेय' नामक अश्व लाया गया । यशोधर का विवाह 'अमृतमति' नाम की रानी से हुआ। राजा ने रानी, अश्वव और हाथी का पट्टबन्ध धूमधाम से किया।

अपने नये राज्य में राजा का समय अनेक आमोद-प्रमोदों व दिग्विजयादि के द्वारा सुख से बीतने लगा। पर एक दिन राजकार्य शीघ्र समाप्त करके वह रानी अमृतमति के महल में गया। यहाँ उसके साथ विलास करने के बाद जब वह लेटा हुआ था तब रानी उसे सोया जानकर धीरे से पलंग से उतरी और वहाँ गई, जहाँ गजशाला में एक महावत सो रहा था। राजा भी चुपके से पीछे गया। रानी ने सोते हुए महाबत को जगाया और उसके साथ विलास किया। राजा यह देखकर क्रोध से उन्मत्त हो गया। उसने चाहा कि वहीं तलवार से दोनों का काम तमाम कर दें, पर कुछ सोचकर रुक गया और उलटे पैर लौट आया। उसका हृदय सुना हो गया और उसके मन में संसार की असारता के विचार आने लगे । नियमानुसार वह राजसभा में गया । वहीं उसकी माता चन्द्रमति ने उसके उदास होने का कारण पूछा तो उसने कहा कि 'मैंने स्वप्न देखा है कि राजपाट अपने राजकुमार 'अशोमति' को देकर मैं वन में चला गया हूँ ; तो जैसा मेरे पिता ने किया मैं भी इसी कुलरीति को पूरा करना चाहता हूँ। यह सुनकर उसकी माँ चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी को बलि चढ़ाकर स्वप्न को शान्ति करने का उपाय बताया। मां का यह प्रस्ताव सुनकर राजा ने कहा कि मैं पशुहिंसा नहीं करूँगा। तब माँ ने कहा कि हम आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि चढ़ायेंगे और उसी का प्रसाद ग्रहण करेंगे। राजा में यह बात मान ली और साथ ही अपने पुत्र 'यशोमति' के राज्याभिषेक की आज्ञा दी । यह समाचार जब रानी ने सुना तो वह भीतर से प्रसन्न हुई पर ऊपरी दिखावा करती हुई बोली- 'महाराज ! मुझ पर कृपा करके मुझे भी अपने साथ वन में ले चलें ।' कुलटा रानी की इस ढिठाई से राजा के मन को गहरी चोट लगी, पर उसने मन्दिर में जाकर आटे के मुर्गे की बलि चढ़ाई । इससे उसकी मां प्रसन्न हुई, किन्तु उसकी रानी को भय हुआ कि कहीं राजा का वैराग्य क्षणिक न हो । अतएव उसने आटे के मुर्गे में विष मिला दिया। उसके खाने से चन्द्रमति और यशोधर दोनों तुरन्त मर गये ।

राजमाता चन्द्रमति और राजा यशोधर ने आटे के मुर्गे की बलि का संकल्प करके जो पाप किया, उसके फलस्वप तीन जन्मों तक उन्हें पशु योनि में उत्पन्न होना पड़ा। पहली योनि में यशोधर मोर की योनि में पैदा हुआ और चन्द्रमति कुत्ता बनी। दूसरे जन्म में दोनों उज्जयिनी की शिप्रा नदी में मछली के रूप में उत्पन्न हुए। तीसरे जन्म में वे दो मुर्गे हुए, जिन्हें पकड़ कर एक जल्लाद उज्जयिनी के कामदेव के मन्दिर के उद्यान में होने वाले वसन्तोत्सव में कुक्कुट युद्ध का तमाशा दिखाने के लिये ले गया। वहीं उसे आचार्य 'सुदत्त' के दर्शन हुए। ये पहले कलिङ्ग देश के राजा थे, पर अपना विशाल राज्य छोड़कर मुनित में दीक्षित हुए । उनका उपदेश सुनकर दोनों मुर्गों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। अगले जन्म में वे दोनों यशोमति राजा की रानी कुसुमवती के उदर से भाई-बहिन के रूप में उत्पन्न हुए और उनका नाम क्रमशः 'अभयरुचि' और 'अभयमति' रखा गया। एक बार राजा यशोमति आचार्य सुदत्त के दर्शन करने गया और अपने पूर्वजों की परलोक-गति के बारे में प्रश्न किया ।

आचार्य ने कहा- तुम्हारे पितामह यशोर्घ स्वर्ग में इन्द्रपद भोग रहे हैं । तुम्हारी माता अमृतमति नरक में है और यशोधर और चन्द्रमति ने इस प्रकार तीन बार संसार का भ्रमण किया है। इसके बाद उन्होंने यशोधर और चन्द्रमति के संसार भ्रमण को कहानी भी सुनाई। उस वृत्तान्त को सुनकर संसार के स्वरूप का ज्ञान हो गया और यह डर हुआ कि कहीं हम बड़े होकर फिर इस भवचक्र में न फंस जाँय । अतएव वाल्यावस्था में ही दोनों ने आचार्य सुदत्त के संघ में दीक्षा ले ली ।

इतना कहकर 'अभयरुचि' ने राजा मारिदत्त से कहा- हे राजन् ! हम वे ही भाई-बहिन हैं। हमारे आचार्य सुदत्त भी नगर से बाहर ठहरे हैं। उनके आदेश से हम भिक्षा के लिये निकले थे कि तुम्हारे चाण्डाल हमें यहाँ पकड़ लाए।

वस्तुतः 'यशस्तिलकचम्पू' का कथाभाग यहीं समाप्त हो जाता है ।

आश्वास छह, सात, आठ इन तीनों का नाम 'उपासकाध्ययन' हैं, जिनमें उपासक या गृहस्थों के लिये छोटे-बड़े छियालिस कल्प या अध्यायों में गृहस्थोपयोगी धर्मो का उपदेश आचार्य सुदत्त के मुख से कराया गया है। इनमें जैनधर्म का बहुत ही विशद निरूपण हुआ है। छठें आश्वास में भिन्न-भिन्न नाम के २१ कल्प हैं। सातवें आश्वास में २२वें कल्प से २३वें कल्प तक मद्यप्रवृत्तिदोष, मद्यनिवृत्तिगुण, स्तेय, हिंसा, लोभ आदि के दुष्परिणामों को बताने के लिये छोटे-छोटे उपाख्यान हैं । ऐसे ही आठवें आश्वास में ३४वें कल्प से ४६वें कल्प तक उपाख्यानों का सिलसिला है । अन्त में इस सूचना के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है कि आचार्य सुदत्त का उपदेश सुनकर राजा सारिदत्त और उसकी प्रजाएँ प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रद्धा से धर्म का पालन किया, जिसके फलस्वरूप सारा यौधेय देश सुख एवं शान्ति से भर गया ।

इस प्रकार सोमदेव का रचा हुआ यह विशिष्ट ग्रन्थ जैनधर्माविलम्बियों के लिये हैं । अन्य पाठक भो जहाँ एक ओर इससे जैनधर्म और दर्शन का परिचय प्राप्त कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर कल्पवृक्ष के समान भारतीय संस्कृति के विविध अङ्गों का भी सविशेष परिचय प्राप्त कर सकते हैं । प्रायः प्रत्येक आश्वास में इस प्रकार की सामग्री विद्यमान है। उदाहरण के लिए तीसरे आश्वास में प्राचीन भारतीय राजाओं के आमोद-प्रमोद का एवं अनोखी वेजोड़ राजनीति का सविस्तर उल्लेख है । बाण ने जैसे 'कादम्बरी' में हिमगृह का ब्योरेवार वर्णन किया है वैसा ही वर्णन 'यशस्तिलक' में भी है । सोमदेव के मन पर कादम्बरी की गहरी छाप पड़ी थी।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ