यदुनंदन प्रसाद मेहता
बिहार के राजनीतिक आंदोलन में त्रिवेणी संघ आंदोलन का खासा महत्व है। सन 1930 के दशक में बिहार के तत्कालीन शाहाबाद ‘आज का भोजपुर’ से उठा यह आंदोलन मुख्यत: किसानों, मजदूरों और व्यवसायियों का अस्मितामूलक आंदोलन था, जिसने दो दशकों तक बिहार के सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर अपना प्रभाव जमाये रखा। यदुनंदन प्रसाद मेहता इस आंदोलन के सिद्धांतकार और संयोजक थे। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की किताब ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के विविध आयाम’ और कल्याण मुखर्जी व राजेंद्र सिंह यादव की किताब ‘भोजपुर बिहार में नक्सलवादी आंदोलन’ में इस ‘त्रिवेणी संघ’ आंदोलन का विस्तृत अध्ययन मिलता है।[1] [2]
आरंभिक जीवन
1911 में तत्कालीन शाहाबाद और वर्तमान भोजपुर जिला के एक छोटे से गांव लाखन टोला (जगदीशपुर) में कोइरी('कुशवाहा') [3][4] समुदाय के परिवार मे जन्मे श्री मेहता ने अपनी कुल तीन बीघा जमीन बेच दी और बर्मा के प्रवासी किसानों की दुर्दशा सुनकर उनके लिए संघर्ष करने बर्मा पहुंच गए। गांधी ने जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन चलाया, श्री मेहता ने बर्मा के पेगू जिला में किसानों को संगठित किया। शायद वहीं उनके मन में त्रिवेणी संघ के गठन की बात उभरी। जगदीशपुर लौटकर उन्होने एक आश्रम स्थापित किया और फिर कुछ साथियों यथा सरदार जगदेव सिंह, नंदकिशोर सिंह, शिवपूजन सिंह आदि के साथ मिलकर त्रिवेणी संघ की स्थापना की। [5]ओमप्रकाश कश्यप के अनुसार जगदीशपुर में ही उन्होंने एक प्रेस की भी स्थापना की और कालांतर में ‘शोषित पुकार’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया। उस समय बिहार के राजनैतिक जीवन में त्रिवेणी संघ का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे पूरे बिहार में यह आंदोलन फैल गया और किसी न किसी रूप में इसकी धड़कन आज भी महसूस की जा सकती है। आने वाले समय में पिछड़े वंचित, सामाजिक समूहों के लोग जब सांस्कृतिक रूप से जागृत होंगे और अपने नायकों को ढूंढेंगे तब यदुनंदन मेहता प्रमुखता से दिखेंगे। लेकिन शायद ऐतिहासिक पुरुष की तरह नहीं, एक पौराणिक नायक की तरह। उनका कोई स्मारक नहीं है, उनकी कोई तस्वीर नहीं मिल रही है। स्मृतियों के बल पर जब जनता अपने नायक को खड़ा करती है, तब वह पौराणिक पुरुष बन जाता है।[6]
बिहार का यह आंदोलन 19वीं सदी में रूस में चले 'नोरोदनिक' आंदोलन की याद दिलाता है। सतीनाथ भादुड़ी, सहजानंद सरस्वती और राहुल सांकृत्यायन से लेकर अनेक लेखकों ने किसी न किसी रूप में इस आंदोलन पर अपनी टिप्पणी की है। अब जबकि इन उपेक्षित समूहों का तेजी से राजनीतिकरण हुआ और इन्होंने सत्ता हासिल की यह आंदोलन एक बार फिर चर्चित हुआ।[7][8]
आंदोलन
1930 के दशक में भारत का राष्ट्रीय आंदोलन अपने चरमावस्था में था तब त्रिवेणी संघ के लोगों ने गांधीजी के बहुप्रचारित ‘स्वराज’ के एजेंडे में अपनी तस्वीर देखनी चाही थी। उनकी इच्छा थी कि यह स्वराज किसानों और मजदूरों की आकांक्षाओं का वाहक बने। एक समतामूलक समाज का स्वप्न उनकी राजनीति का केंद्र था और उसके लिए ही उन्होंने प्रयास किए थे। हिंदी क्षेत्र में किया गया यह आंदोलन सहजानंद सरस्वती के आंदोलन से कई गुना ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसके सरोकार कहीं ज्यादा व्यापक थे और दृष्टि ज्यादा भविष्णु। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस आंदोलन और इससे जुड़े नेताओं पर उस तरह काम नहीं हो सका है जैसा होना चाहिए था। शायद इसका कारण यह है कि ‘त्रिवेणी संघ’ के नेताओं ने जिन लोगों के लिए संघर्ष किया था वे राजनीतिक रूप से भले ही जागरूक हो गए हैं लेकिन सांस्कृतिक रूप से अभी भी इतने प्रहीन हैं कि उन्हें इतिहास संभालने की बहुत चिंता नहीं है।[9] विख्यात लेखक प्रेम कुमार मणि लिखते है :[10]
"मैं स्वयं को खुशकिस्मत मानता हूं कि मैंने यदुनंदन मेहता को अपने बचपन और फिर युवावस्था में देखा है। बचपन की स्मृतियों में डूबते-उतराते हुए उनकी एक धुंधली-सी तस्वीर स्मृति पटल पर आती है। मैं 7-8 साल का रहा होउंगा। मेरे गांव में एक भव्य यज्ञ का आयोजन हुआ था। इस यज्ञ की भी एक कहानी है। मेरे गांव में पिछड़ी जाति की एक विधवा थीं। वह अपनी युवावस्था के दिनों में ही विधवा हो गई थीं। उसी समय उन्होंने साध्वी बनने का निर्णय लिया और अपने घर को ही मंदिर का रूप दे डाला। भजन और धर्म परायणता से जुड़कर उन्होंने अपनी एक ऐसी तस्वीर बना ली थी कि लोग उन्हें माईजी कहकर पुकारते थे। वह स्त्रियों के बीच धर्म, सदाचार और शिक्षा प्रसार का काम भी करती थीं, लेकिन सबके उपर उनका भजन-कीर्तन था। एक बार उन्होंने एक यज्ञ आयोजन का निश्चय किया और उसकी तैयारी में लग गईं। वह दूर-दूर के गांव में भिक्षाटन के लिए जातीं और अन्न-धन इकठ्ठा करतीं। उंची जाति के दबदबे वाले एक गांव से गुजरते हुए कुछ लंपट नौजवानों को यह लगा कि पिछड़ी जाति की यह महिला साध्वी रूप में क्यों और कैसे है? उन्होंने उनकी धोती खींच दी और माईजी बिल्कुल नंगी हो गईं। अपने नग्न रूप में ही उन्होंने यात्रा शुरू कर दी। इस घटना को लेकर इलाके में खलबली मच गई। गांव की महिलाएं दौड़ी आईं और उन्हें घेरकर आरजू विनती करने लगीं। उन्होंने उन्हें कपड़े पहनाए।"
अपमान और गुस्से से भरी माईजी जब गांव लौटी तब उसके पहले घटना का पूरा हाल गांव पहुंच चुका था। उनके मंदिर पर बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। मेरे पिताजी कांग्रेसी थे और उन्हें धर्म यज्ञ वगैरह से कुछ लेना नहीं था, लेकिन उन्होंने यज्ञ का बीड़ा उठा लिया और धूमधाम से यज्ञ हुआ। पिछड़ी जाति से जुड़े लोगों ने इस यज्ञ को एक आंदोलन का रूप दे दिया और लाख से अधिक लोगों ने इसमें शिरकत की। इस यज्ञ का पौरोहित्य करने के लिए मेरे पिताजी ने यदुनंदन मेहता को चुना था, जो साधु वेश में ही रहते थे। मेरे घर पर वह महीना भर से अधिक रहे होंगे। यज्ञ में वह क्या करते थे इसका मुझे कुछ स्मरण नहीं। हां,तीन चीजों का स्मरण अवश्य है। भीड़, प्रसाद के रूप में बंटने वाले मिष्ठान और गेरुआ वस्त्रधारी एक साधु, जो जे.एन.पी. मेहता थे। यज्ञ के बाद भी वे आसपास के गांवों में जाते और अपनी छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का प्रचार करते। अपने भाषण के बीच-बीच में वे गीत भी गाते। मैं याद कर सकता हूं कि उनके इर्द-गिर्द एक समां-सा बंध जाता। लेकिन सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह होती कि थी कि वह अपने गेरुआ थैले से मुर्गी के अंडे निकालते थे और महिलाओं में बांटते थे। वह आहार पर प्रवचन देते थे और बतलाते थे कि पिछड़े वर्ग, किसान, मजदूर के बच्चों को उचित आहार नहीं मिलता। भात-रोटी से शरीर तो बनता है लेकिन दिमाग के निर्माण के लिए मछली और अंडा जरूरी है। वह झूठ या सच गांधीजी का एक वक्तव्य भी उद्धृत करते कि बंगाल के लोग इसलिए ज्यादा बुद्धिमान हैं क्योंकि वे मछली खाते हैं। मेरी उम्र बहुत कम थी लेकिन एक साधू द्वारा अंडा का इस तरह का प्रचार मुझे अजूबा लगता था और आज भी इसे याद करता हूं तो हैरान रह जाता हूं कि वह किस तरह समाज को व्यापक रूप से बदलने की कोशिश कर रहे थे। भोजन में पोषक तत्वों का अभाव आज भी समस्या है और ऐसे में इसका महत्व सहज ही समझा जा सकता है।[12]
प्रेरणा
बकौल प्रेम कुमार मणि , हिंदुत्व की अवधारणा के पैरोकार बी.डी. सावरकर ने एक समय हिंदुओं के बीच गोमांस खाने का आंदोलन चलाया था। सावकर को प्रतीत होता था कि गोमांस खाने वाली जातियां क्रिश्चन और मुस्लिम दुनिया के अनेक हिस्सों में राज कर रही हैं और हिंदू कमजोर हैं चूंकि वे मांस भक्षण नहीं करते। हिंदू जाति को मजबूत करने के ख्याल से सावरकर का यह आंदोलन था। इस लेख को पढ़ते समय मुझे फिर जे.एन.पी.मेहता याद आए। वह हिंदुओं के लिए नही, पिछड़ी जातियों-किसानों, मजदूरों की आनेवाली पीढिय़ों की चिंता कर रहे थे। उनकी चिंता थी कि हमारे बच्चे मानसिक स्तर पर कुछ कमजोर हैं। वह उन्हें मानसिक स्तर पर, ज्ञान के स्तर पर मजबूत करना चाहते थे। कबीर के शब्दों में वह ज्ञान की आंधी खड़ा करना चाहते थे, जो दरअसल ज्ञान की नई क्रांति थी। फ्रांसिस बेकिन की उक्ति ‘नॉलेज इज पावर’ का महत्व वह जानते थे और उसे पिछड़े वर्गों में स्थापित करना चाहते थे।[13]
आखिरी दिन
प्रेम कुमार मणि लिखते है ; यदुनंदन मेहता को एक बार फिर 1980 के इर्द-गिर्द आरा में देखा। कुछ वकीलों ने उनसे मेरा परिचय कराया। मैं उन्हें तुरंत पहचान गया। गेरुआ वस्त्र और चेहरा तो वही था, जिसे मैंने बचपन में देखा था, लेकिन अब वह बहुत थके और श्रीहीन दिख रहे थे। उनके खान-पान और आवास की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी। आरा कचहरी में काम करने वाले पिछड़े वर्ग के कुछ थोड़े से वकील थे, जो नियमित-अनियमित चंदा-चाटी कर उनका खर्च चलाते थे। इसी अवस्था में जीते हुए सन 1986 में उनका निधन हो गया। तब बिहार में पिछड़े वर्गों की राजनीति एक मजबूत आकार ग्रहण कर चुकी थी। लेकिन जैसा कि मैंने उपर कहा अपने उद्धारक, अपने विचारक और नेता को पहचान सकने का संस्कार उसके पास नहीं था।[14]
सन्दर्भ
"The article is derived from the essays of famous writer Prem kumar mani". 2020-05-29. मूल से 5 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.
- ↑ "Bihar eection: Triveni Sangh on revival path". 2015-11-03.
- ↑ Ramesh, P. R. (15 October 2015). "The Liberation Struggle of Bihar". Open Magazine. मूल से 9 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-04-30.
- ↑ (om prakash kashyap)note^गंगा, यमुना, सरस्वती की त्रिवेणी के आधार पर उसे नाम दिया गया—‘त्रिवेणी संघ।’ उसके लिए आदर्श वाक्य चुना गया—‘संघे शक्ति कलयुगे।’ इस तरह 30 मई 1933 को बिहार के शाहाबाद जिले की तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों यादव, कोयरी और कुर्मी के नेताओं क्रमशः सरदार जगदेव सिंह, यदुनंदन प्रसाद मेहता और शिवपूजन सिंह ने ‘त्रिवेणी संघ’ की नींव रखी। "त्रिवेणी संघ : संगठन की ताकत का पहला एहसास". 2020-05-30. मूल से 23 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 मई 2020.
- ↑ "सम्राट अशोक के बहाने भाजपा की नजर कुशवाहा समाज पर, पिछड़ों में आधार बढ़ाने की कोशिश / सम्राट अशोक के बहाने भाजपा की नजर कुशवाहा समाज पर, पिछड़ों में आधार बढ़ाने की कोशिश". bhaskar.com. 2020-05-30. मूल से 23 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 मई 2020.
- ↑ Jaffrelot, Christophe (2003). India's silent revolution: the rise of the lower castes in North India. London: C. Hurst & Co. पृ॰ 196,197 &198. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-85065-670-8. मूल से 31 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.
- ↑ "Triveni Sangh -the first hint of power of organization". 2016-10-11. मूल से 23 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.
- ↑ Kumar, Ashwani (2008). Community Warriors: State, Peasants and Caste Armies in Bihar. Anthem Press. पपृ॰ 43–44. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84331-709-8.
- ↑ pinch, William (1996). Peasants and Monks in British India. London: University of California Press limited. पृ॰ 135-136. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-520-20060-8.
- ↑ Prasanna, chaudhary (2001). Bihar men samajik parivartan ke kuchh ayam. New Delhi: vani publishers. पृ॰ 118. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7055-755-0.
- ↑ "The article is derived from the essays of famous writer Prem kumar mani". 2020-05-29. मूल से 5 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.
- ↑ "Triveni Sangh and J.N.P. Mehta". 2016-08-04. मूल से 31 अक्तूबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.
- ↑ R,Ankit (2013). [https://repository.lboro.ac.uk/articles/Caste_politics_in_Bihar_In_historical_continuum/9468515/files/17092673.pdf "Rise of lower castes in Bihar"],3-5. ISSN (online).
- ↑ "युगपुरुष वीर सावरकर" (PDF). 2020-05-29.[मृत कड़ियाँ]
- ↑ "Triveni Sangh and J.N.P. Mehta". 2016-08-04. मूल से 31 अक्तूबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 मई 2020.