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यकृत और पित्ताशय के रोग

यकृत शरीर में स्थित, सबसे बड़ी ग्रंथि है। इसका अधिकांश उदरीय कोटर के ऊपरी दाएँ भाग में स्थित है। इसका भार 1.2 से 1.4 किलोग्राम के लगभग होता है। यकृत दो प्रमुख पालियों (lobes), दाहिने और बाएँ, में विभक्त है। ये पालियाँ अनेक पालियों में बँटी हुई हैं। योजी ऊतक (connective tissue) से समूचा यकृत घिरा हुआ है।

पित्ताशय नाशापाती के आकार की, 3-4 इंच लंबी और एक इंच, या इससे कुछ चोडी, थैली होती है। यह यकृत की सतह के नीचे होती है और उससे ऐरियोला (areola) ऊतकों द्वारा जुड़ी होती है।

शरीररचना विज्ञान (फिजिऑलोजी)

यकृत-पालिकाएँ (lobules), जो यकृत की शारीरीय (anatomical) इकाइयाँ हैं, यकृत-कोशिकाओं के बाहृा विकिरणकारी स्तंभों से बनी होती हैं। इसमें छोटी नलिकाओं (यकृती वाहिकाओं, निर्वाहिका शिरा और यकृतधमनी) के तीन पृथक् समूह होते हैं, जो केंद्रीय शिरा के चारों ओर व्यवस्थित होते हैं।

कार्य

यकृत शरीर के अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों में से है। यकृत की कोशिकाएँ आकार में सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकने योग्य हैं, परंतु ये बहुत कार्य करती हैं। एक कोशिका इतना कार्य करती हैं कि इसकी तुलना एक कारखाने से (क्योंकि यह अनेक रासायनिक यौगिक बनाती है), एक गोदाम से (ग्लाइकोजन, लोहा और बिटैमिन को संचित रखने के कारण), अपशिष्ट निपटान संयंत्र से (पिपततवर्णक, यूरिया और विविध विषहरण उत्पादों को उत्सर्जित करने के कारण) और शक्ति संयंत्र से (क्योंकि इसके अपचय से पर्याप्त ऊष्मा उत्पन्न होती है) की जा सकती है।

पित्ताशय उस पित्त को सांद्र और संचित करता है, जो उसमें यकृतवाहिनी और पित्ताशय वाहिनी द्वारा प्रविष्ट होता है। जब उदर और आँतों में पाचन होता रहता है, तब पिताशय संकुचित होता है, जिससे सांद्रित पित्तग्रहणी (duodenum) में निष्कासित हो जाता है।

पीलिया (jaundice)

रक्त में पित्तारूण (bilirubin) के आधिक्य से यह रोग होता है, जो नेत्र श्लेष्मला (conjuncttiva) और त्वचा के पीलेपन से प्रकट होता है। पीलिया सर्वप्रथम नेत्रश्लेष्मला में और फिर क्रमश: चेहरे, गर्दन, शरीर और अंगों में प्रकट होता है। मोटे तौर पर तीन शीर्षकों में इसका वर्गीकरण किया जा सकता है:

(1) अवरोधक (obstructive),

(2) विषाक्त (toxic) और संक्रामक (जिसे अब यकृत-कोशिकीय (hepato-cellular) कहते हैं) तथा

(3) हीमोलिटिक (haemolytic)।

खुजली बहुधा होती है, जो त्वचा की संवेदी तंत्रिकाओं (sesitive nerves) में पित्त के घटकों से होनेवाली उत्तेजना (irritation) से होती है। पित्त लवण धारण (retention) के कारण रोग की प्रारंभिक अवस्था में नाड़ी मंद पड़ जाती है। भोजन में अनिच्छा, भार में कमी, पेशियों में दुर्बलता की शिकायत हाती है। पित्त के कारण बृहदांत्र की पीड़ा के आक्रमण अनेक अनेक रूप में होते हैं। उदाहरणार्थ, ऊपरी चतुर्तांश में दाईं ओर दबाव या, भराव का विकीर्ण (diffuse) संवेदन, या, लाक्षणिक (typical) उदर पीड़ा हो सकती है, या पेट में मरोड़ और उदरीय भिक्ति में स्पर्शासहायता (tenderness) हो सकती है। हल्का, या तेज ज्वर हो सकता है, जिसका कारण होता है यकृत कोशिकाओं को परिगलन (necrosis), या स्वत:लयन (autolysis) और सारणियों में आनुषंगिक संक्रमण। यकृत में संश्लिष्ट होनेवाले विटामिन 'के' (k) की कमी से कभी से कभी श्लेष्मझिल्लियों (mucusmembreanes) से, खासतौर से नाक और मसूड़ों से, रक्तस्राव (haemorrhage) हो सकता thenहै और उनमें परप्यूरा की दशा उत्पन्न हो सकती है।

यकृत परिगलन (Necrosis)

इस रोग के प्रधान लक्षण, यकृत कोशिकाओं का तीव्र परिगलन और यकृत की कोशिकाओं के स्वत:लयन, के कारण यकृत की आकृति का सिकुडना तथा पीलिया, ज्वर और संमूर्च्छा से प्राय: जीवन का अंत होता है। तीव्र और उपतीव्र यकृतपरिगलन यकृत की कोशिकाओं के तीव्र विषाक्तन से होते हैं। यकृत की कोशिकाओं के कोशिकांतर किण्व (intercellular ferments) मुक्त होते हैं और स्वत:लयन उत्पन्न करते हैं। पीलिया की पहली अवस्था में ज्वर की बेचैनी, वमन, कब्जियत और पेशियों में पीड़ा होती है। दूसरी अवस्था में यकृत की खराबी के कारण आकस्मिक तंद्रालुता, शिरोवेदना, दीप्तिभीति (photophobia), बेचैनी, संज्ञाहीनता (delirium) और उन्मादजन्य लाक्षणिक रोना चीखना प्रारंभ होता है। पेशियों के स्फुरण (twitching) और ऐंठन से रोगी उग्र हो उठता है। अंतत: सम्मुर्छा और उद्दीप्त श्वसन होता है तथा मलमूत्र का संयम छूट जाता है।

यकृत का सूत्रण रोग (Cirrhosis)

यकृत का सूत्रण रोग यकृत की वह अवस्था है जिसमें नये रेशेदार ऊतकों के विकास से यकृत कठोर होने लगता है। इसके दो प्रधान कारण हो सकते हैं, जिनसे अधिकांश, या सभी यकृत सूत्रणरोग की व्याख्या हो जाती है:

(1) वाइरस, रोगाणु संक्रमण या विषाक्त पदार्थों से यकृत कोशिकाओं का सीधे क्षतिग्रस्त (direct damage) होना तथा

(2) आहार दोष, जैसे प्रोटीन की कमी और ऐल्कोहॉल के आधिक्य से अपभ्रष्ट (degenerate) होकर मर जाती हैं। बढ़े हुए कठोर यकृत, प्लीहा की अपवृद्धि, या अल्प पीलिया से रोग का निदान करना अब संभव हो गया है।

यकृत का केंसर

इसकी वृद्धि निम्नलिखित क्रम से होती है:

प्राथमिक वृद्धि

यकृत के कैंसर की प्राथमिक वृद्धि यकृत कोशिकाओं, ओर कभी कभी पित्तवाहिनी कोशिकाओं, में होती है। यकृत् कोशिकाओं में होनेवाले कैंसर को हेपैटोमा ओर पित्तवाहिनी कोशिका में होनेवाले कैंसन को कोलैंगिऔम कहते हैं। ये दोनों प्राय: सूत्रणरोगग्रस्त यकृत में होते हैं। सूत्रण रोग से ग्रस्त रोगियों के लगभग 7 प्रतिशत में प्राथमिक केंसर पाया जाता है।

द्वितीयक वृद्धि

कैंसर के कारण यकृत कोशिकाएँ यकृत से दूर अंत:संचरित (infiltrated) हो जाती हैं। और इनसे वक्ष, उदर, बृहदांत्र और गर्भाशय का कैंसर हो सकता है। यकृत् असामान्य रूप से बढ़कर कठोर हो जाता है। 50 प्रतिशत रोगियों में पीड़ा, प्रगामी तथा स्थायी पीलिया और जलोदर (ascites) विद्यमान रहता है। शरीर क्षीणता और भार की कमी होने लगती है। रोगी की मृत्यु अवश्य होती है।

यकृत का प्रदाह (Inflammation)

यकृतशोथ लागू हो सकता है, जो यकृत क कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने से होते हों। क्षतिग्रस्त होने के कारण रासायनिक, भौतिक, तथा जैवाणुक और प्रोटोजाआ, या विषाणु हो सकते हैं। यकृत शोथ में केवल यकृत के अपकर्षी परिवर्तन ही नहीं आते, जो उपर्युक्त कारकों के कारण होते हैं, अपितु उसमें अभिक्रियात्कत (reaction) और क्षतिपूर्ति वाले प्रतिकार्य भी आते हैं। सब रोगियों में ज्वर और पीलिया सामान्य रूप से पाया जाता है।

आजकल यह मान लिया जाता है कि यकृत शोथ का परिवर्तित लक्षण पीलिया है। यकृत शोथ के अंतर्गत जो अनेक विक्षोभ (upsets) आते हैं, उनमें संक्रामी यकृत शोथ का उल्लेख करना आवश्यक है। यकृत् शोथ के अधिकांश रोगियों को पीलिया (icterus) नहीं होता। लाक्षणिक रूपरेखा प्राय: तीन शीर्षकों में प्रस्तुत की जाती है: (1) प्राथमिक अवस्था, (2) स्पष्ट अवस्था, या पीलिया का काल तथा (3) उपशमन (convalescence) काल। यह रोग ज्वर और अन्य लक्षणों के साथ अचानक आक्रांत कर देता हे।

पिताशय का प्रदाह

यह स्ट्रेप्टोकॉकस (Streptococcus) ई. कोली (E. coli), या बी. टाइफोसस (B. Typhhosus) जीवों की संक्रमण क्रिया के फलस्वरूप होता है। लगभग 40 वर्ष की अवस्थावाली मोटी स्त्रियाँ ही अधिकांश इस रोग का शिकार होती हैं। पर सभी उम्र के पुरूषों में यह रोग हो सकता है। साधारणत: रोगी नाभिप्रदेश (umblicus) में पीड़ा की शिकायत करता है, जो फैलकर दक्षिण अधेपास्मिक प्रदेश (ypochondriac region) तक चली जाती है। मतली, वमन और ज्वर की अनुभूति होती है। नाड़ीस्पंद सामान्यत: बढ़ जाता है। यदि उपर्युक्त प्रदेश में हल्का दबाब डाला जाय और रोगी से लंबी साँस खिंचवाई जाय, तो पित्ताशय स्पर्शपरीक्षक उँगलियों तक उतर आएगा और प्रदाह होने पर रोगी को इतना दर्द होगा कि वह साँस तोड़ देगा।

अश्मरी या पथरी (Gall-stones)

अधेड़ स्त्रियों के पित्ताशय और पित्तीय मार्ग में अश्मरी हो जाती है। यह उनेक प्रकार की हाती है। रोग क्रमश: अग्निमांद्य (dyspepsia) और उदरवायु (flatulence) की शिकायत करने लगता है। वह कुछ विशेष खाद्य, खासकर विशेष खाद्य, खासकर वसीय पदार्थों, को खाने में असमर्थता प्रकट करता है, इसे खाने पर उसे मतली, भारीपन और अधिजठर (epigastrium) में पीड़ा होती है। प्राय: अधापर्शुक वेदना (subcostal pain) का नियतकालिक आक्रमण होता है, जो कंधें तक फैल सकता है। पित्तीय बृहदांत्र में पत्थर को बाहर निकालने के प्रयास में होनेवाली पीड़ा सबसे कष्टप्रद होती है। यह अतिशय यंत्रणादायक पीड़ा प्राय: आधी रात को अकस्मात् प्रारंभ होती है ओर कुछ समय रहकर एकाएक बंद भी हो जाती है।

पित्ताशय और पित्तवाहिनी का कैंसर- यह रोग बहुत विरल होता है। पुरूषों की अपेक्षा 50 वर्ष की अधेड़ स्त्रियों में इसकी संभावना तिगुनी रहती है। 75 प्रतिशत रोगियों में कमी पर रक्तक्षीणता के अभाव के साथ पित्ताशय के रोग की बारंबारता के उदाहरण मिलते हैं। उदर के ऊपरी, दाएँ, अर्धभाग में स्थायी पीड़ा, जो दहिने अंसफलक क्षेत्र (scapular regtion) की ओर बहुधा फैलती जाती है, बनी रहती है। उदरवायु, मतली, वमन, आदि वामान्य लक्षण हैं। रोगी की मृत्यु प्राय: हो जाती है।

रोकथाम एवं उपचार

यकृत और पित्ताशय के रोगों की रोकथाम और उपचार निम्नलिखित है:

रोकथाम

रोकथाम का प्रधान साधन वैयक्तिक वृत (personol hygiene) पर ध्यान और सामान्य सफाई है। जठरांत्र शोथ (gastroenteritis) तथा अनिदानित (undiagonsed) ज्वर रोगियों के संपर्क में आनेवालों, तथा महामारी काल में सभी के लिये, आहार और सफाई के सावधानियों का पालन परमावश्यक है। गामाग्लोबिन (gamma globin) का उपयोग कुछ सुरक्षा प्रदान करता है। पहने से ही प्रोटीन और पोषाहारों का पर्याप्त मात्रा में ग्रहण रोग की भयंकरता को कम करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।

रूग्णावस्था में रोगी को सदा लिटाए रखना चाहिए। कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीनयुक्त आहार रोगी को आरंभ से ही स्वच्छंदता से खिलाना चाहिए। आहार में वसा कम रहनी चाहिए। यकृत रोगों के उपचार में ऐमिनो अम्ल तथा विटामिनों का मौखिक, या पेशी आभ्यंतर द्वारा, सेवन रोग को कम करता है।

उपचार

चिकित्सा

यकृत रोगों में रक्तस्राव प्रवृति के लिये विटामिन सी और के, पित्तीय प्रतिरोधि (antiseptic) के रूप में हेक्सामिन, तथा पित्तीय पथ के संप्रवाह के लिये मैग सल्फ और सोडा सल्फ प्रयुक्त करते हैं। प्रतिश्रोध शक्ति के कम हो जाने के कारण यकृत को सुधारने के लिये ऐंटिवायोटिक औषधियों का व्यवहार करते हैं।

शल्यचिकित्सा

यकृत के रोगों में उपर्युक्त चिकित्सा का महत्व नगण्य है। पित्ताशय के रोगों में उपर्युक्त चिकित्सा के असफल रहने पर, या औषधि के प्रभावहीन सिद्ध होने पर, शल्य चिकित्सा का उपयोग करते हैं जैसे पथरी में होता है।