मैत्रायणी उपनिषद्
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मैत्रायणी उपनिषद् सामवेदीय शाखा की एक संन्यासमार्गी उपनिषद् है। इसे 'मैत्रायणीय उपनिषद्' और 'मैत्री उपनिषद्' भी कहते हैं। मुक्तिका उपनिषद् में १०८ उपनिषदों की जो सूची दी गयी है, उसमें यह उपनिषद २४वें स्थान पर है।
ऐक्ष्वाकु बृहद्रथ ने विरक्त हो अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर वन में घोर तपस्या करने के पश्चात् परम तेजस्वी शाकायन्य से आत्मान की जिज्ञासा की, जिसपर उन्होंने बतलाया कि ब्रह्मविद्या उन्हें भगवान मैत्रेय से मिली थी और ऊर्ध्वरेता बालखिल्यों को प्रदान कर प्रजापति ने इसे सर्वप्रथम प्रवर्तित किया।
इतिहासकार श्री भगतद्त्त ने अपने प्रमाणों और उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि मैत्रायणी संहिता का समय विक्रम संवत 3200 ईसापूर्व होना चाहिये। डाॅ कीथ मैत्रयाणी संहिता का समय काल 600 ई0 पू0 का मानते हैं। वे मैत्रायणी संहिता का प्रारम्भिक रुप तैत्तिरीय संहिता को मानते है। मण्डन मिश्र के अनुसार मैत्रायणाी संहिता तैत्तिरीय संहिता का प्राचीन रुप है।
परिचय
इस उपनिषद् में शाकायन्य ने कई प्रकार से ब्रह्म का निरूपण करके अंतिम रूप से स्थिर किया है कि उसके सभी वर्णन "द्वैधी भाव विज्ञान" के अंतर्गत हैं। उसका सच्चा स्वरूप "अद्वैतीभाव विज्ञान" है जो अद्वैत कार्य कारण निर्मुक्त, निर्वचन, अनौपम्य और निरूपाख्य है। संसार में सबसे बढ़कर जानने और खोजने का तत्त्व यही है और संन्यास लेकर वन में मन को निर्विषय कर उसे यहीं प्राप्त कर सकते है।
मनुष्य शरीर शकट की तरह अचेतन है। अनंत, अक्षय, स्थिर, शाश्वत और अतीद्रिय ब्रह्म अपनी महिमा से उसे चेतनामय करके प्रेरित करता है। प्रत्येक पुरूष में वर्तमान चिद्रूपी, आत्मा उसी का अंश है। अपनी अनंत महिमा में ब्रह्म को अकेलेपन की अनुभूति होने से उसने अनेक प्रकार की प्रजा बनाकर उनमें पंचधा प्राण रूपी वायु और वैश्वानर अग्नि के रूप में प्रवेश किया। यह देहरथ, कर्मेद्रियाँ अश्व, ज्ञानेंद्रियाँ रश्मियाँ और मन नियंता है। प्रकृति रूपी प्रतोद ही इस देह रूपी रथचक्र को निरंतर घुमा रहा है।
पाँच तन्मात्राओं और पाँच महाभूतों के संयोग से निर्मित देह की आत्मा भूतात्मा कहलाती है। अग्नि से अभिभूत अय: पिंड को कर्त्रिक जिस तरह नाना रूप दे देता है उसी तरह सित असित कर्मों से अभिभूत एवं रागद्वेषादि राजस तामस गुणों से विमोहित भूतात्मा चौरासी लाख योनियों की सद् असद्, ऊँची नीची गतियों में नाना प्रकार के चक्कर काटती है। उसका सच्चा स्वरूप अकर्ता, अद्दश्य और अग्राह्य है परंतु आत्मस्थ होते हुए भी इस भगवान को प्रकृति के गुणों का पर्दा पड़े रहने के कारण भूतात्मा देख नहीं पाती।
आत्मा शरीर का एक अतिथि है जो इसे छोड़कर यहीं सायुज्यलाभ कर सकती है। मनुष्य का प्राक्तन क्रम नदी की ऊर्मियों की तरह शरीर आत्मा का प्रवर्तक और समुद्रवेला की तरह मृत्यु का पुनरागमन दुर्निवार्य है। इद्रियों के शब्द स्पर्शादि विषय अनर्थकारी है और उनमें आसक्ति के कारण मनुष्य परम पद को भूल जाता है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। आश्रमविहित तपस्या से सत्वशुद्धि करके मन की वृत्तियों का क्षय करने, उसे विषयों से खींचकर और समस्त कामनाओं तथा तंकल्पों का परित्याग कर आत्मा में लय कर देने से जो "अमनीभाव" अर्थात् निर्विषयत्व की विलक्षण अवस्था होती है। वह मोक्ष स्वरूप है। इससे शुभाशुभ कर्म क्षीण हो जाते है और वर्णातीत बुद्धिग्राह्य सुख प्राप्त होता है।
प्राणरूप से अंतरात्मा और आदित्य रूप से बाह्यात्मा को पोषण करनेवाली आत्मा के मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं। मूर्त असत्य और अमूर्त सत्य है। यही तद्ब्रह्म है और ऊँ की मात्राओं में त्रिधा व्याकृत है। उसमें समस्त सृष्टि ओतप्रोत है। अस्तु, आदित्य रूप से ऊँ की अथवा प्रणवरूपी उद्गोथ ब्रह्म के "मर्ग" की घ्यानोपासना, प्रणवपूर्वक गायत्री मंत्र के साथ आत्मसिद्धि का साधन है।
संगठन
मैत्रायणी उपनिषद में ७ प्रपाठक हैं।
मैत्रायणी संहिता में 14 यज्ञों का व्याख्यान पूर्वक प्रतिपादन किया गया है। अध्यनकर्ताओं द्वारा बताया जाता है कि इस संहिता में अश्वमेघ,सौत्रामणी,और प्रवण्यर्य यज्ञों के सिर्फ मंत्र ही है ब्राह्मण भाग का आभाव है। जिसके परिणामस्वरुप याचकों को तैत्तिरीय संहिता , शतपथ-ब्राह्मण एवं मानवश्रीत सूत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके साथ हि दुसरी अधिक जटिल समस्या यज्ञ-विधियों के वर्णन के समय आती है। इसके नवीन संस्करण को पाठकों को समझने के लिए सबसे बड़ा श्रेय डाॅ0 सुधीर कुमार को एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्ताकालय विभाग के अधिकारियों को जाता है।. इनके अनुसार मैत्रायणी संहिता के कुल 8 भाग है। जिनमें से चार का वर्णन उपर किया जा चुका है और चार का वर्णन इस प्रकार है 5.यज्ञों कि विधियां 6. यज्ञों कि तुलनात्मक स्थिती 7. यज्ञों के मंत्र विनियोग के स्वरुप 8. पर्याप्त -विवेचन।.
खण्ड 1 संहिता का परिचय
बताया जाता है कि यजुर्वेद की कुल 101 शाखांए है जिनमें से 86 ब्रह्मसम्प्रदाय के अन्तर्गत कृष्णयजुर्वेद की है। 15 आदित्य सम्प्रदाय के अन्तर्गत शुक्ल यजुर्वेद की है। मैत्रयणी संहिता को कृष्ण यजुर्वेद का हिस्सा माना गया है।. बताया गया है कि कृष्ण यजुर्वेद कि समस्त 86 शाखाओं का उदगम महार्षि वेदव्यास के शिष्य एवं आचार्य वैश्याम्पन के पर शिष्य परम्परा से निकली है। इन सबकों ही चरक कहां गया है। चरक शिष्यों चरक क्यों कहा जाता है - इस में आख्यान देते हुए वायु,विष्णु,ब्राह्मण और भागवत पुराण कहते है कि जिन शिष्यों ने गुरु वैशाम्पयान के ब्रह्म-हत्या के पाप का प्रायश्चित करने के लिए व्रत का आचरण किया था वे चरक कहलाते है।. एक अन्य उदाहरण में यह परिभाषित किया गया है कि गुरु वैशाम्पयन को सब चरक भी कहते थे अतः उनके शिष्यों का नाम भी चरक पड़ गया।. बताते चले कि चरक कहलाने वाले इन शिष्यों कि संख्या 9 थी।. इनके नामों का उल्लेख ब्राह्मण पुराण में मिलता है।
खण्ड 2. यज्ञों कि सामान्य पृष्ठ भूमि
भारतीय हिंन्दू संस्कृति में यज्ञों का एक महत्वपुर्ण स्थान रहा है।. इन्हे सहिंता साक्षात् ऐश्वर्यरुप, पापों,रोगों,आदि का शोधक-नाशक माना जाता है तथा यज्ञों को परलोक में स्वर्गप्राप्ती का साधन या अमरत्व का प्रापक माना गया है। अतः यह एक श्रेष्ठतम कर्म है।. अन्य प्रमाणों से पता चलता है कि यज्ञों का स्वरुप ऋग्वैदिक काल में ही पर्याप्त विकसीत हो गया था।. यज्ञों का वर्गीकरण दो मूल रुपों मे किया गया है।
- (१) प्राकृतिक यज्ञ - इसमें यज्ञ हमेशा प्रकृतिक मूल रुप में वर्णित होता है।
- (२) विकृति यज्ञ- इनमें विकार अर्थात अन्य यज्ञों के विशिष्ट परिवर्तित रुप ही निर्दिष्ट किये जाते है।.
स्वतंत्र मुख्य यज्ञों की दृष्टि
यह कुल संख्या में 16 है
ये सभि हर्वयज्ञ के अन्तरगत आते है 1. अग्निहोत्र यज्ञ 2. शुनासीरीय 3.दर्श 4. पूर्णमास 5. चतुर्मास्यों के वैश्वदेव, 6.वरुपप्रवास, 7. साकमेघ, 8.शुनासिरीय, सौमयंग के अन्तरगत 9. अग्निष्टोम 10. राजसूय 11 वाजपेय 12. अश्वमेघ य इष्टरायाग अग्निचिति 13. पितृयज्ञ 14. पशुयज्ञ 15. प्रवग्र्य 16 सौत्रामणी यज्ञ आदि।.
भाग 3 यज्ञ प्रक्रिया का कर्म निर्धारण
मैत्रायणी संहिता की यज्ञ प्रक्रिया को जानने के मुख्य 2 स्त्रोत है। पहला ब्राह्मण संहिता दूसरा मानव श्रौत सूत्र है। मुख्यतः इन्ही के आधार पर विवरण प्रस्तुत किया गया है।.
मंत्र
यज्ञ का सर्वतत्व मंत्र माना गया है मंत्रों के आधार पर ही प्रत्येक क्रिया का ताना-बाना बुना गया है। मंत्रों के प्रयोंग से ही मानवीय क्रिया को भी याज्ञिकअत देवताओं के अनुरुप बनाया जाता है। किन्तु केवल मन्त्र संकलन के आधार पर यज्ञ के कर्म-काण्डिक स्वरुप को जान पाना असम्भव है। मन्त्रों की याज्ञिक विधि ब्राह्मण और सूत्र ग्रंथो से स्पष्ट होती है। ब्राह्मण सूत्र रहित मंत्रो का याज्ञिक स्वरुप बुद्धिकर्म से नियुक्त आत्मा के सदृश अव्यक्त ही रहता है। अतः ब्राह्मण और सूत्र का आश्रय अनिवार्य बताया गया है। संहिता के अनुसार बताया जाता है कि मंत्रो के अनुसार यज्ञविधि विवाद का विषय हो सकता है। मगर यह बात निर्विवाद है कि ब्राह्मणों का जन्म मन्त्रों के विनियोग की सार्थकता, यज्ञों की पृष्ठभूमि और यज्ञविधियों के औचित्य को समझने के लिए हुआ है। सुनिशिचित स्वरुप का व्याख्यान मात्र है। किन्तु ब्राह्मण अपने इस ध्येय की पूर्ति एक ही प्रकार से नही करता है। एक पूर्वनिश्चित स्वरुप का व्याख्यान करते हुए ब्राह्मण प्रायः अनेक बातों को सामान्य और सर्वज्ञात होने के कारण छोड़ देता है, अथवा सकेंतमात्र ही देता है। इससे बहुधा यज्ञ व्याख्यान का स्वरुप नष्ट हो जाता है।
पाठकों को हम बताते चले कि ब्राह्मण द्वारा मंत्र का गलत उच्चारण करने अथवा अधूरा मंत्र पढ़ने से यज्ञ के आहवाहन का सही फल याचक को नही प्राप्त होता है। अतः यज्ञ के दौरान एक उच्चतम कोटी के ब्राह्मण का चयन करें य यज्ञ के मंत्रों को एक बार स्वयं पढ़ ले और ब्राह्मण को उन मंत्रो के ज्ञान होना सुनिश्चित कर लें। मैत्रायणी संहिता में यह भी वर्णन किया गया है कि एक समान क्रिया के मंत्रों को एक स्थान पर रखते हुये भी इसके अंशो का अलग-अलग विनियोग किया जाना सम्भव है। मैत्रायणी संहिता को पढ़ते हुए यह भी ज्ञात होता है कि यज्ञविधि में ब्राह्मण की अपेक्षा मंत्र को अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए।
संहिता और सूत्र
यह स्पष्ट है कि यज्ञ-स्वरुप के ज्ञान के लिए सूत्र अनिवार्य तत्व है। पर यह आवश्य विचारणिय है कि सूत्र की अनिवार्यता किस सिमा तक ग्राहय होनी चाहिए। संहिताओं का तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि सभी सम्प्रदायों मे सभी यज्ञ विधियां मान्य नही है। स्थिती और विकास के सतत् साहचर्य के कारण समय के साथ कुछ विधियां छोड़ दी जाती है और कुछ नयीं विधियां चालू हो जाती है।