मृदा संरक्षण
मृदा संरक्षण (Soil conservation)
जैविक खाद
जैविक खेती में बहुत सी खादों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु जैविक खाद के प्रयोग से भूमि अवस्था में सुधार होता है, जिससे भूमि में वायु संचार में वृद्धि होती है, जीवांश पदार्थ का निर्माण होता है। वायुमंडल की नाइट्रोजन का पौधों में स्थितिकरण बढ़ जाता है और इसके फलस्वरूप उत्पाद में वृद्धि होती है।
वन संरक्षण
वनों के वृक्षों की अंधाधुंध कटाई मृदा अपरदन का प्रमुख कारण है। वृक्षों की जड़ें मृदा पदार्थों को बांधे रखती हैं। यही कारण है कि सरकारों ने वनों को ‘सुरक्षित’ घोषित कर दिया है तथा इन वनों में वृक्षों की कटाई पर रोक लगा दी हैं। मृदा संरक्षण की यह विधि सभी प्रकार के भू-भागों के लिए उपयुक्त है। वनों को वर्षा लाने वाले ‘दूत’ कहा जाता है। इनसे मृदा निर्माण की प्रक्रिया तेज हो जाती है।
वृक्षारोपण
नदी घाटियों, बंजर भूमियों तथा पहाड़ी ढालों पर वृक्ष लगाना मृदा संरक्षण की दूसरी विधि है। इससे इन प्रदेशों में मृदा का अपरदन कम हो जाता हैं। मरूस्थलीय सीमान्त क्षेत्रों में पवन-अपरदन को नियंत्रित करने के लिए वृक्षारोपण एक प्रभावी उपाय है। मरूस्थलीय क्षेत्रों के सीमावर्ती भागों में वृक्ष लगाकर रेगिस्तानी रेत को खेतों में जमने से रोका जा सकता है। इस तरह मरूस्थलीय क्षेत्रों की वृद्धि पर अंकुश लगता है। भारत में, थार मरूस्थल के विस्तार को रोकने के लिए राजस्थान, हरियाणा, गुजरात तथा पंजाब में बड़े पैमाने पर वृक्ष लगाए जा रहे हैं। .
Neeraj Yadav के अनुसार :-
बाढ़ नियंत्रण
वर्षा ऋतु में नदियों में जल की मात्रा बढ़ जाती है। इससे मृदा के अपरदन में वृद्धि होती है। बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों पर बांध बनाए गए हैं। इनसे मृदा का अपरदन रोकने में मदद मिलती है। नदियों के जल को नहरों द्वारा सूखाग्रस्त क्षेत्रों की ओर मोड़़कर तथा जल संरक्षण की अन्य सुनियोजित विधियों द्वारा भी बाढ़ों को रोका जा सकता है।
नियोजित चराई
अत्यधिक चराई से पहाड़ी ढालों की मृदा ढीली हो जाती है और जल इन ढीली मृदा को आसानी से बहा ले जाता है। इन क्षेत्रों में नियोजित चराई से वनस्पति के आवरण को बचाया जा सकता है। इस प्रकार इन क्षेत्रों के मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है।
बंध बनाना
अवनालिका अपरदन से प्रभावित भूमि में बंध या अवरोध बनाकर मृदा अपरदन को रोका जा रहा हैं। यह विधि न केवल मृदा का अपरदन रोकती हे, अपितु इससे मृदा की उवर्रता बनाए रखने, जल संसाधनों के संरक्षण तथा भूमि को समतल करने में भी सहायता मिलती है।
सीढ़ीदार खेत बनाना
पर्वतीय ढालों पर मृदा के संरक्षण के लिए सीढ़ीदार खेत बनाना एक अन्य विधि है। सीढ़ीदार खेत बनाने से तात्पर्य पर्वतीय प्रदेशों में ढलान के आर-पार समतल चबूतरे बनाने से है। इस विधि से इन क्षेत्रों में मृदा का अपरदन रूक जाता है। साथ ही जल संसाधनों का समुचित उपयोग भी होता है। इस प्रकार इन खेतों में फसलें उगाई जा सकती है। यह खेती उत्तराखंड में की जाती हैं
समोच्चरेखीय जुताई (कण्टूर जुताई)
मृदा संरक्षण की यह विधि तरंगित भूमि वाले प्रदेशों के लिए सबसे अधिकघुजीउपयुक्त है। भूमि को समान ऊँचाइयों पर जोतने से हल के कूंड या नालियां ढाल के आर-पार बन जाती हैं। इससे मृदा के अपरदन की गति में कमी आ जाती है। यह विधि मृदा उर्वरता और आर्द्रता बनाए रखने के लिए भी प्रयोग में लाई जाती है।
कृषि की पट्टीदार विधि अपनाना
मृदा संरक्षण की यह विधि मरूस्थलीय और अर्द्धमरूस्थलीय प्रदेशों के तरंगित मैदानों के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। इस विधि में खेतों को पट्टियों में बांट दिया जाता है। एक पट्टी में एक साल खेती की जाती है जबकि दूसरी पट्टी बिना जोते बोए खाली पड़ी रहती है। छोड़ी गई पट्टी की वनस्पति का आवरण मृदा अपरदन को रोकता है तथा उर्वरता को बनाए रखता है। अगले वर्ष इस प्रक्रिया को उलट दिया जाता है।
शस्यावर्तन
शस्यावर्तन से तात्पर्य मृदा की उर्वरता को बनाए रखने के लिए चुने हुए खेत में विभिन्न फसलों को बारी-बारी बोने से है। इस प्रकार शस्यावर्तन के द्वारा ऐसे खेतों की उर्वरता भी बनी रहती है, जिनमें लगातार कोई न कोई फसल खड़ी रहती है। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपर्युक्त है, जहाँ जनसंख्या के दबाव के कारण खेती के लिए भूमि कम रह गई है। यह विधि संसार के अधिकतर देशों में अपनाई जाती है।
भूमि उद्धार
जल द्वारा बनी उत्खात भूमियों को समतल करके भी मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। मृदा संरक्षण की यह विधि नदी घाटियों और पहाड़ी प्रदेशों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
सन्दर्भ
मृदा संरक्षण से तात्पर्य मृदा को छरण से बचाना है ।