मूत्राशय और प्रॉस्टेट ग्रंथि के रोग
मूत्राशय के रोग
जन्मजात असंगतियाँ
इनके कारण निम्नलिखित दोष रहते हैं :
(क) मूत्राशय की एक्सट्रॉफी (extrophy) -इस रोग में मूत्राशय तथा उग्र उदरीय भित्ति के कुछ भाग ठीक से नहीं बनते, जिससे मूत्राशय की पृष्ठभूमि दिखाई देती है और उसमें से मूत्र निकलता रहता है। यह संपूर्ण तथा अपूर्ण दो प्रकार का होता है। संपूर्ण प्रकार में जघन अस्थियाँ संधि में न होकर एक दूसरे से दूर होती हैं, तथा एपिस्पेडियस (epispadius) भी होता है। इसकी चिकित्सा के प्रथम चरण में मूत्रवाहिनी को आंत्र से जोड़ना, दूसरे चरण में मूत्राशय की श्लेष्मकला को निकालना, तथा तीसरे चरण में उग्र उदरीय भित्ति की हानि तथा एपिस्पेडियस आदि को ठीक करना होता है।
(ख) यूरैकस पुटी और
(ग) खुला हुआ यूरैकस,
ये अपरापोषिका (allantois) के पूरी तरह न बंद होने के कारण होते हैं। शल्य द्वारा इनकी चिकित्सा की जाती है।
(घ) जन्मजात मूत्राशय विनाल (diverticulum) तथा
(च) त्रिकोणात्मक पुट भी कभी कभी देखे जाते हैं।
मूत्राशय के उपघात
ये खुले तथा बंद उपघातों से हो सकते हैं। मूत्राशय का फटन पर्युदर्या के बाहर (extrapertoneal, 80%) अथवा पर्युदर्या के अंदर (intrapertoneal, 20%) हो सकता है।
पर्युदर्या के बाहर मूत्राशय की फटन के साथ प्राय: श्रोणि का विभंग भी होता है। स्तब्धता, विभंग इत्यादि की प्रारंभिक चिकित्सा के पश्चात, बिना देर किए हुए, दोनों ही प्रकार के मूत्राशय फटनों में लैपैरोटोमी (lapartomy) करके मूत्र चूषण करना, मूत्राशय फटन को सीना, तथा अधिजघन (suprapubic) का सिस्टोस्टोमी (cystostomy) करना होता है। पर्युदर्या के बाहर की फटन में केवल अधिजघन का सिस्टोस्टोमी (cystostomy) करके पूर्व मूत्राशयी (prevesical) स्थान का अप्रवाह (drain) श्करना होता है, इसमें मूत्राशय फटन को सीने की कोई आवश्यकता नहीं होती हैं।
मूत्राशय के नालब्रण (fistula)
ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:
(क) मूत्राशय बृहदांत (Vesico colic) तथा मलाशय मूत्राशय (Recto vesical) नासब्रण- यह जन्मजात, अस्त्र अथवा शस्त्र के उपघात से, आंत्र विपुटी के प्रदाह, प्रादेशिक आंत्र प्रदाह आदि रोगों से, अथवा मूत्राशय या आंत्र के अर्बुदों से हो सकता है। जिस कारण भी नाल्व्राण हो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
मूत्राशय योनिन नाल्व्राण-यह प्रसूति अथवा योनि के उपघातों, श्रोणि के शल्यकर्म अथवा गर्भाशय के अर्बुदों के कारण हो सकता है। इसमें रोगिणी की योनि से सदा मूत्र निकलता रहता है और इसे शल्य द्वारा बंद करना चाहिए।
(ग) अधिजघन नाल्व्राण- यह शल्य अथवा उपघात के पश्चात् हो सकता है। यदि किसी प्रकार का मूत्र अवरोध हो, तो उसे नाल्व्राण बंद करने से पहले हटाना चाहिए।
मूत्राशय के संक्रमण
तीव्र तथा दीर्घकालिक दोनों ही प्रकार के मूत्राशय प्रदाह दोनों लिंगों में प्रत्येक आयु में रहते हैं, पर स्त्रियों में यह अधिक होते हैं। किसी प्रकार का मूत्र अवरोध, जैसे बढ़ी हुई प्रॉस्टेट ग्रंथि, मूत्रमार्ग का संकोच आदि, गर्भ के उपघात तथा रोग, मूत्राशय में अश्मरी अथवा अर्बुद आदि का होना, तथा किसी अन्य रोग से सामान्य प्रतिरोध का कम हो जाना, इसके पुर:प्रवर्तक कारण होते हैं। अधिकांश व्यक्तियों में ई० कोलाई (E. Coli) ही संक्रमण करनेवाला जीवाणु होता है। बारंबारता, पीड़ा, रक्तमेह, पूयमेह आदि इसके लक्षण होते हैं। मूत्र परीक्षा, विशेष करके मूत्र संवर्धन, से इसका निदान हो जाता है। जीवाणुओं की संवेदनशीलता के अनुसार उपयुक्त, प्रतिजैविकी तरल तथा मूत्र अवरोध के कारण आदि के हटाने से इसकी चिकित्सा होती है।
तीव्र अजीवाणु, दीर्घकाल त्रिकोणात्मक, अंतरालिय बिलहार्जिया (Bilharzial) आदि विशेष प्रकार के मूत्राशय प्रदाह होते हैं।
अश्मरी रोग (Calculous disease)
प्राथमिक मूत्राशय अश्मरी विसंक्रमित मूत्र में बनती है और प्राय: वृक्क से मूत्रवाहिनी के द्वारा मूत्राशय में आती है। द्वितीयक मूत्राशय की अश्मरियाँ आक्सैलेट, यूरिकाम्ल तथा यूरेट सिस्टीन तथा फॉस्फेटी प्रकार की होती हैं। बारंबरता, पीड़ा, शिश्न के अग्रभाग में खुजली, रक्तमेह, थोड़ी देर के लिये मूत्र का रुक जाना आदि, इसके लक्षण हैं। विकिरण द्वारा इसका निदान होता है। लिथोलैपेक्सी (Litholapaxy) अथवा सिस्टोलिथोटोमी (Cystolithotomy) द्वारा इसे निकाल लेना चाहिए।
मूत्राशय की ग्रीवा पर मध्यम दंड अवरोध- यह दो प्रकार का होता है: जन्मजात पेशीय दंड अवरोध, अथवा उपार्जित तंतुमय दंड अवरोध। इसके लक्षण तथा चिहृ प्रॉस्टेट ग्रंथीय अवरोध के समान होते हैं। दंड को मूत्रमार्ग अथवा सिस्टोस्टोमी (cystostomy) द्वारा निकाल लेना चाहिए।
मेरुरज्जु के क्षत स्थलों में मूत्राशय
मूत्राशय का तंत्रिका नियंत्रण मेरुरज्जु से होने के कारण मेरुरज्जु के उपघात के पश्चात् कुछ समय तक मूत्राशय सर्वथा काम नहीं करता। उसके पश्चात् या तो यह स्वचालित (automatic) हो जाता है, अथवा आत्मग (autonomous) इस अवस्था में मूत्राशय को स्वचालित बनाने का सारा प्रयत्न करना चाहिए।
मूत्राशय के अर्बुद (Naoplasms)
मूत्राशय के सुदम्य अर्बुदों में पैपिलोमा उपकला ऊतक से तथा फाइब्रोमा (fibroma), लाइपोम (lipoma), एंजियोमा (angioma) और एंडोमेट्रिओमा (endometrioma) मध्यकला ऊतक से होते हैं। दुर्दम्य अर्बुद कई प्रकार के होते हैं। श्रोणि वृहदांत्र के एडिनोकारसिनोमा (edenocarcinoma) सेकंडेरीज (secndaries) भी मूत्राशय में हो सकते हैं। मूत्राशय कर्कट के कारणों में मूत्र अवरोधन, संक्रमण, विपुटी अश्मरी तथा ऐनिलीन, बेंजीडीन आदि रासायनिक रंजकों का आहार में प्रयोग भी होता है। पीड़ा रहित, अधिक मात्रा में, बारंबार, समय समय पर रक्तमेह तथा रक्तक्षीणता, मूत्रकृच्छ और अकृष्य मूत्राशय प्रदाह इसके मुख्य लक्षण हैं। इसके निदान के लिये क्रमश: मूत्रसंवर्धन, अंत:शिरा पाइलोग्रैफी (pyelography), मूत्राशय दर्शन (cystoscopy), मूत्राशय दर्शक जीवोतिपरीक्षा (cystoscopy biopsy) तथा उभयहस्त (bimanual) परीक्षा करनी चाहिए। थोड़े दिनों के अधिकांश पैपिलोमों (papillomas) को सिस्टोडाइथर्मी (cystodiathermy) द्वारा जला दिया जाता है। गुबंद (vault, dome, funds) श्के कार्सिनोमा (carcinoma) को जो मूत्रवाहिनी रंध्रों (orifices) से दूर हों (partial) सिस्टैक्टोमी (cystectomy) द्वारा निकाला जाता है। बढ़े हुए रोगवाले रोगियों (advanced cases) श्तथा मूत्राशय के आधार के कर्कटों के लिये मूत्र विशाखन (urinary diversion) के साथ पूर्ण सिस्टेक्टोमी (cystectomy) है, अथवा रैडिकल सिस्टेक्टोमी (radical cystectomy) करना पड़ता है। रोग बहुत बढ़ जाने पर केवल मूत्र विशाखन या पैलिएटिव (Palliative) शल्य से संतोष करना पड़ता है। कुछ लोग मूत्राशय के कर्कट की चिकित्सा सुपरस्टेज एक्सरे थेरैपी (superstage X-ray therapy), रेडियोऐक्टिव गोल्ड ग्रेन (radio active gold grain), रैडनसीड (radon seeds) तथा टैंटलम तार (tantalum wire) आदि से भी करने का प्रयत्न करते हैं।
प्रॉस्टेट ग्रंथि के रोग
प्रॉस्टेट ग्रंथि का सुदम्य बढ़ना
यह राग पुरुषों में प्राय: ५० वर्ष की अवस्था के पश्चात् होता है। इसका कारण हॉरमोनों का असंतुलन अथवा सुदम्य अर्बुद होता है। मध्यम तथा पार्श्व खंड ही अधिकांश बढ़ते हैं तथा मूत्रमार्ग, मूत्राशय, मूत्रवाहिनी तथा वृक्क में पश्च संपीडन प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इसके लक्षण मूत्र त्यागने की बारंबरता, विशेष कर रात में, मूत्र कृच्छ तथा रक्तमेह होते हैं। कुछ रोगी मूत्र के तीव्र अवरोधन (acute retention) तथा कुछ वृक्क की अपर्याप्तता के कारण भी देखे जाते हैं। मूत्र करने में प्रक्षेपी शक्ति की कमी हो जाती है। मलाशय परीक्षा से बढ़ी हुई प्रॉस्टेट ग्रंथि का स्पर्श हो जाता है। प्रत्येक रोगी में रक्त यूरिया तथा हीमोग्लोविन (haemoglobin) की जाँच और पाइलोग्रैफी (pyelography) तथा मूत्राशय दर्शन (cystoscopy) होना चाहिए। यदि मलाशय परीक्षा से प्रॉस्टेट ग्रंथि बहुत बढ़ा हुआ लगे, मूत्र त्यागने की बारंबारता इतनी बढ़ गई हो कि रात्रि बिताना कठिन हो गया हो, अथवा १०० मिलि० से अधिक अवशेष मूत्र अवरोधन के कारण भी शल्य कर्म करना पड़ता है। संक्रमण, सामान्य स्वास्थ्य का ठीक न होना, हृदय के राग आदि से शल्यकर्म दो चरण में, प्रथम चरण में सिस्टोस्टोमी (cystostomy) तथा दूसरे में प्रोस्टेटेक्टोमी (prostatectomy) कर देना चाहिए
प्रॉस्टेट ग्रंथि का कर्कट (Carcinoma)
६५ वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों में यह सामान्य दुर्दम्य रोग होता है। पांच में से एक प्रॉस्टेट ग्रंथीय अवरोधन कर्कट के कारण होता है। पांच में ५ सुदम्य बढ़ी हुई प्रॉस्टेट ग्रंथि में शल्य से निकाले जाने के पश्चात् सूक्ष्मदर्शीय जाँच करने पर कर्कट मिलता है। प्रॉस्टेट ग्रंथीय अवरोधन के लक्षणों के साथ साथ कभी कभी मूत्रधार अथवा अधिजघन क्षेत्र में दर्द भी होता है। मलाशय परीक्षा में गुटिकाएँ, मलाशय श्लेष्मकला की स्थिरता आदि चिहृ मिलते हैं। शुक्राशय आदि में, रक्त के द्वारा अस्थियों, (विशेष करके कटिशिरा कशेरुक, श्रोणि, पसलियों आदि) में, लसीका तंत्रियों द्वारा आंतरिक तथा बाह्य श्रोणिक लसीका ग्रंथि समूहों मेें स्थानीय प्रसार होता है। विकिरण चित्रों के द्वारा हड्डियों का स्थानांतरण देखा जाता है। सेरम ऐसिड फॉस्फेटेस, (serum acid phosphatase) एक्ट फोलिएटिव साइटॉलोजी (exfoliative cytology) तथास जीवोतिपरीक्षा से भी निदान में सहायता मिलती है। बहुत ही आरंभ के कुछ रोगियों को छोड़ अधिकांश रोगियों में प्रोस्टैटेक्टोमी संभव नहीं होता, परंतु ऐंटि-ऐंड्रोजेनिक चिकित्सा (anti-androgenic treatment) से बहुत रोगी ठीक हो जाते हैं। आजकल बाइलैटरल सब कैप्सुलर ऑर्किडेक्टोमीव (Subcapsular orchidectomy) करते हैं तथा साथ ही स्टिल्बोएस्टेरॉल अथवा डाइएनोएस्ट्राल (dienoestrol) मुँह से खाने को देते हैं। हारमोनों की बहुमात्रा [लगभग १०० मिग्रा० (stilboesterol) प्रति दिन ] श्में देते हैं और इसका असर सेरम ऐसिड फ्रास्फेटज (serum acid phosphatase) की बार बार जांच करके देखते हैं, जिसके अनुसार दवा की मात्रा में कमी बेशी करते हैं। बढ़े हुए रोग में, अथवा पुन: रोग (relateral) श्होने पर, कार्टिसोन, बाइलैटरल ऐड्रेनैलेक्टोमी (bilateral adrenalectomy), हाइपोफिसेक्टोमी (hypophysectomy), अथवा केमोथेरैपी (chemotheraphy) से कुछ लाभ हो सकता है।
पुरस्थ ग्रंथि प्रदाह
यह तरुण अथवा दीर्घकालिक हो सकता है और प्राय: पृष्ठ मूत्रमार्ग प्रदाह (posterir urethritis) तथा शुक्राशय प्रदाह (seminal vesiculitis) के साथ होता है। इन्हीं तीनों में से किसी भी रोग के लक्षण प्रधान हो सकते हैं। चिकित्सा के लिये उष्ण सिट्ज स्नान तथा उपयुक्त प्रतिजैविकी देना चाहिए। पुरस्थ ग्रंथीय पूय बनाने पर उसका उत्सारण (drainage) करना चाहिए।
मूत्राशय ग्रीवा संकोच
इसे मध्यम दंड अवरोधन तथा मेरियान (Marion's) रोग भी कहते हैं। यह दोनों लिंगों में और प्रत्येक आयु में हो सकता है। पुरस्थ ग्रंथीय अवरोधन के समान ही इसके लक्षण तथा चिहृ होते हैं। मूत्रमार्ग (transurethral) अथवा अधिजघन मार्ग से अवरोधन दंड को निकाल देना चाहिए।
प्रॉस्टेट ग्रंथि का सारकोमा (sarcoma)
ये बहुत अनुपलब्ध (rare) रोग हैं।
प्रॉस्टेट ग्रंथि के सिस्ट (cyst)
ये बहुत अनुपलब्ध (rare) रोग हैं।
प्रॉस्टेट ग्रंथि की अश्मरियाँ
ये प्रॉस्टेट ग्रंथि में ही बन सकती हैं, अथवा वृक्क मूत्रवाहिनी या मूत्राशय की अश्मरियाँ प्रॉस्टेट ग्रंथीय मूत्रमार्ग में आकर रुक सकती है। मूत्रमार्ग या प्रत्यग्जघन (retropubic) मार्ग से अश्मरियों को निकाल देना चाहिए।