सामग्री पर जाएँ

मानव संसाधन प्रबंधन

मानव संसाधन प्रबंधन (HRM) किसी प्रतिष्ठान की सबसे मूल्यवान उन आस्तियों के प्रबंधन का कौशलगत और सुसंगत दृष्टिकोण है- जो वहां काम कर रहे हैं तथा व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से व्यापार के उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान दे रहे हैं।[1] "मानव संसाधन प्रबंधन" और "मानव संसाधन" (HR) शब्दों का स्थान मुख्यतः "कार्मिक प्रबंधन" शब्द ने ले लिया है, जो प्रतिष्ठान में लोगों के प्रबंधन में शामिल प्रक्रियाओं की व्याख्या करता है।[1] सामान्य अर्थ में HRM का मतलब लोगों को रोजगार देना, उनके संसाधनों का विकास करना, उपयोग करना, उनकी सेवाओं को काम और प्रतिष्टान की आवश्यकता के अनुरूप बनाये रखना और बदले में (भरण-पोषण) मुआवजा देते रहना है।

विशेषताएं

इसकी विशेषताओं में शामिल हैं:

  • प्रतिष्ठानात्मक प्रबंधन
  • कार्मिक प्रशासन (personnel administration)
  • मानव शक्ति प्रबंधन
  • औद्योगिक प्रबंधन[2][3]

लेकिन ये पारंपरिक अभिव्यक्तियां सैद्धांतिक नियमबद्धता में बहुत कम देखने को मिलती हैं। कई बार कर्मचारी और औद्योगिक संबंध भी संदेहास्पद रूप से समानार्थक शब्द के रूप में सूचीबद्ध हो गये हैं,[4] हालांकि इन्हें आम तौर पर प्रबंधन और कर्मचारियों के सम्बंधों और कर्मचारियों के कंपनी में व्यवहार के लिए संदर्भित किये जाते हैं।

सैद्धांतिक अनुशासन मुख्य रूप से इस धारणा पर आधारित है कि कर्मचारी वे व्यक्ति हैं जिनके अलग-अलग लक्ष्य और जरूरतें हैं और उनके बारे में ट्रकों और फाइलिंग कैबिनेट जैसे बुनियादी व्यापार संसाधनों की तरह नहीं सोचा जाना चाहिए। इस क्षेत्र में कर्मचारियों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है, यह मानते हुए कि लगभग सभी कर्मचारी उद्यम में उत्पादकता के योगदान की इच्छा रखते हैं और उनके प्रयासों में मुख्य बाधा ज्ञान का अभाव, अपर्याप्त प्रशिक्षण और प्रक्रिया की विफलताएं हैं।

मानव संसाधन प्रबंधन (HRM) क्षेत्र में कार्य करने वाले नौसिखिये पेशेवरों को प्रबंधन के परंपरागत दृष्टिकोण की तुलना में अधिक नवोन्मेषी दृष्टिकोण के रूप में देखा जाता है। इसकी तकनीकें एक उद्यम के प्रबंधकों को अपने लक्ष्यों को विशिष्टता के साथ इस प्रकार व्यक्त करने के लिए बाध्य करती हैं। वह इस प्रकार किया जाये, जिसे कर्मचारियों द्वारा समझा और अपनाया जा सके और नियत कार्यों के सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए उन्हें आवश्यक संसाधनों को उपलब्ध कराया जा सके। इस तरह HRM तकनीकें जब ठीक से लागू की जाती हैं तो वे उद्यम के लक्ष्य और समग्र परिचालन कार्य प्रणालियों के प्रभावी होने की सूचक हैं। HRM में भी कई लोग प्रतिष्ठानों में जोखिम कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।[5]

कार्मिक प्रबंधन जैसे समानार्थक शब्द का अक्सर एक बहुत सीमित अर्थ में प्रयोग किया जाता है, जो कर्मचारियों की भर्ती, सदस्यों के वेतन तथा लाभों और उनके कार्य-जीवन की ज़रूरत की व्यवस्था उपलब्ध कराने जैसी गतिविधियों के लिए आवश्यक है। अतएव अगर हम वास्तविक परिभाषा की बात करें, टोरिंगटन और हॉल (1987) के अनुसार कार्मिक प्रबंधन की परिभाषा इस प्रकार है:

"ऐसी गतिविधियों की एक श्रृंखला जो: प्रथमतः काम करने वालों और उनके नियोक्ता प्रतिष्ठानों के उद्देश्यों और कार्य-सम्बंध की प्रकृति तथा द्वितीयतः यह सुनिश्चित करना कि समझौते का पूरा निर्वाह हुआ है।  49).

जबकि मिलर (1987) का सुझाव है कि HRM का संबंध:

"....... उन फैसलों और कार्रवाई से है जो व्यापार में सभी स्तरों पर कर्मचारियों के प्रबंधन की चिन्ता करते हैं जो प्रतिस्पर्धी लाभ बनाने की दिशा में कौशलगत नीतियों के कार्यान्वयन रणनीति के कार्यान्वयन से संबंधित हैं।"(पृ.  352).

शैक्षणिक सिद्धांत

मानव संसाधन प्रबंधन का लक्ष्य किसी प्रतिष्ठान के प्रति कर्मचारियों को आकर्षित करने, उन्हें बरकरार रखने और उनके प्रभावी ढंग से प्रबंधन के कौशलगत लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करना है। यहां उपयुक्त शब्द शायद "नियोजन" है, उदा. एक HRM के दृष्टिकोण की तलाश किसी प्रतिष्ठान के कर्मचारियों के प्रबंधन और कंपनी की समग्र कूटनीतिक दिशा के बीच नियोजन सुनिश्चित करना है। (मिलर, 1989)।

HRM के शैक्षणिक सिद्धांत का मूल आधार यह है कि मनुष्य मशीन नहीं है इसलिए हमें कार्यस्थल पर लोगों के आतंरिक अनुशासन की जांच की आवश्यकता है। मनोविज्ञान, औद्योगिक अभियांत्रिकी, औद्योगिक, न्यायिक/अर्धन्यायिक अध्ययन और संस्थागत मनोविज्ञान, औद्योगिक संबंध, समाजशास्त्र और महत्वपूर्ण सिद्धांत: उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-संरचनावाद जैसे क्षेत्र प्रमुख भूमिका निभाते हैं। कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने मानव संसाधन प्रबंधन में स्नातक और परा-स्नातक की डिग्रियों के पाठ्यक्रम रखे हैं।

HRM की भूमिका के व्यापक तौर पर इस्तेमाल की योजना डेव एलरिच द्वारा विकसित की गयी है, जिसमें HRM के कार्यों को 4 क्षेत्रों में परिभाषित किया है:[6]

हालांकि, प्रशासन और कर्मचारी हिमायती की भूमिका से परे कई और मानव संसाधन कार्य इन दिनों संघर्ष कर रहे हैं और कर्मचारी हिमायती को शीर्ष प्रबंधन के लिए रणनीतिक रूप से प्रतिक्रियाशील नहीं बल्कि सक्रिय भागीदार के रूप में देखा गया है। इसके अतिरिक्त HR प्रतिष्ठान को भी यह साबित करने में परेशानी होती है कि कैसे उनकी गतिविधियों और प्रक्रियाओं से कंपनी को किस प्रकार फायदा होता है। केवल हाल के वर्षों में ही HR विद्वानों और HR पेशेवरों ने वह मॉडल विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित किया है जो यह निर्धारित कर सकता है कि HR से फायदा होता है।[7]

व्यापार कार्य प्रणाली

मानव संसाधन प्रबंधन कई प्रक्रियाओं में शामिल हैं। साथ ही उनसे उपर्युक्त लक्ष्य को प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती है। इन प्रक्रियाओं को एक HR विभाग कार्यान्वित कर सकता है, लेकिन कुछ काम आउटसोर्स के जरिये भी किये जा सकते हैं अथवा लाइन-मैनेजर या अन्य विभागों द्वारा किया जा सकता है। जब प्रभावी ढंग से एकीकृत होते हैं तो वे कंपनी को महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं।[8]

कॅरियर और शिक्षा

कार्नेल यूनिवर्सिटी का स्कूल ऑफ़ लेबर रिलेशंस विश्व का पहला HRM के महाविद्यालय-स्तर के अध्ययन का स्कूल है।

HRM में उपलब्ध कॅरियर के विभिन्न प्रकार हैं। HRM में अनेक विषयों की जानकारी से सम्बद्ध नौकरियां हैं जैसे मानव संसाधन सहायक की। वहां कॅरियर में रोजगार, भर्ती और स्थान नियोजन जुड़े हैं, जो आम तौर पर साक्षात्कारकर्ताओं, EEO (समान रोजगार के अवसर) विशेषज्ञों अथवा कॉलेज के नियोक्ताओं द्वारा आयोजित किये जाते हैं। प्रशिक्षण और विकास विशेषज्ञता का संचालन अक्सर प्रशिक्षकों और अभिविन्यास विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। क्षतिपूर्ति और हितों के कार्यों को मुआवजा विश्लेषक, वेतन प्रशासक और लाभ प्रशासक संभालते हैं।

कई विश्वविद्यालय HRM और व्यापक क्षेत्रों से संबंधित अध्ययन के कार्यक्रम उपलब्ध कराते हैं। कार्नेल विश्वविद्यालय ने विश्व का पहला महाविद्यालय-स्तरीय अध्ययन HRM (ILR School) में शुरू किया।[9] अर्बाना-कैम्पेन में यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलिनोइस में भी अब एक HRM के अध्ययन को समर्पित स्कूल है, जबकि कई बिजनेस स्कूलों में भी एक केंद्र या ऐसे अध्ययनों के लिए समर्पित विभाग हैं, उदा. यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा, मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी और पर्ड्यू यूनिवर्सिटी.

व्यावसायिक संस्थान

HRM में व्यावसायिक संस्थानों में सोसाइटी फॉर ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट, ऑस्ट्रेलियन ह्यूमन रिसोर्स इंस्टीट्यूट (AHRI), चार्टर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ़ पर्सनल एंड डेवलपमेंट (CIPD), इंटरनेशनल पब्लिक मैनेजमेंट एसोसिएशन फॉर HR (IPMA-HR), मैनेजमेंट एसोसिएशन ऑफ़ नेपाल (MAN) और इंटरनेशनल पर्सनल मैनेजमेंट एसोसिएशन ऑफ़ कनाडा (IPMA-कनाडा), ह्यूमन कैपिटल इंस्टीट्यूट (HCI) शामिल हैं।

कार्य

मानव संसाधन प्रबंधन (HRM) के कार्यों में विभिन्न गतिविधियां, जिनमें मुख्य रूप से यह महत्वपूर्ण फैसला है कि आपको कितने स्टाफ की जरूरत है और क्या उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वतंत्र ठेकेदारों या भाड़े पर कर्मचारियों की सेवा लेने की जरूरत है, भर्ती और बेहतरीन कर्मचारी प्रशिक्षण, उच्च कार्य प्रदर्शन को सुनिश्चित करना, प्रदर्शन के मुद्दों से निपटना और अपने कर्मचारियों और प्रबंधन के तरीकों को नियमों के अनुरूप सुनिश्चित करना शामिल हैं। गतिविधियों में कर्मचारी के हित और मुआवजे, कर्मचारी के रिकार्ड्स और कार्मिक नीतियों तक आपकी पहुंच का प्रबंधन भी शामिल है। आम तौर पर छोटे व्यवसायों (लाभदायक या गैर-लाभकारी) को यह गतिविधियां स्वयं करनी पड़ती हैं क्योंकि वे फिलहाल पूर्णकालिक या अल्प-कालिक सहायता का खर्च वहन नहीं कर पाते. हालांकि उन्हें हमेशा यह सुनिश्चित होना चाहिए कि कर्मचारी मौजूदा नियमों के अनुरूप कार्मिक नीतियों के प्रति जागरुक रहते थे-और रहते हैं। यह नीतियां अक्सर कर्मचारी मैनुअल के रूप में रहती हैं जो सभी कर्मचारियों के पास होती हैं।

यह ध्यान देने योग्य है कि कुछ लोग HRM (एक प्रमुख प्रबंधन गतिविधि) और HRD (मानव संसाधन विकास, एक पेशा) के बीच अंतर देखते हैं। ऐसे लोग HRM को HRD में यह कहकर शामिल करते हैं कि HRD में प्रतिष्ठान के अन्दर कर्मियों के विकास, जैसे कॅरियर विकास, प्रशिक्षण, प्रतिष्ठान का विकास आदि गतिविधियों का व्यापक दायरा शामिल है।

एक लम्बे समय से यह तर्क दिया जाता रहा है कि HR के कार्य बड़े प्रतिष्ठानों में संयोजित किये जाने चाहिए, उदा."प्रतिष्ठान विकास विभाग में HR रहना चाहिए या उसके आस-पास कोई दूसरा रास्ता होना चाहिए?"

HRM के क्रिया-कलापों और HRD पेशे में पिछले 20-30 वर्षों में जबरदस्त परिवर्तन आया है। कई साल पहले बड़े प्रतिष्ठानों में "कार्मिक विभाग" ज्यादातर लोगों को काम पर रखने और भुगतान करने से सम्बंधित कागजी कार्रवाई के प्रबंधन का काम देखते थे। एकदम हाल ही में प्रतिष्ठानों ने "HR विभाग" की प्रमुख भूमिका पर विचार किया जो प्रतिष्ठान के लिए उच्च तरीके से अधिकतम क्षमता के साथ कार्य का प्रदर्शन कर सकने में कर्मचारियों को काम पर रखने, प्रशिक्षण और लोगों के प्रबंधन में सहायता प्रदान करती है।

कार्मिक प्रबंध प्रक्रिया

भर्ती

किसी उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा उसके कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए उपयुक्त एवं योग्य कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। ऐसे कर्मचारी तभी प्राप्त हो सकते हैं जबकि इनका वैज्ञानिक ढंग से चुनाव किया जाय। ‘भर्ती’ भावी कर्मचारियों को खोजने तथा उन्हें संगठन में रिक्त स्थानों के लिए आवेदन करने के लिए प्रेरित करने की प्रक्रिया है।’’ [10] कर्मचारियों की भर्ती करना सेविवर्गीय प्रबन्ध विभाग का कार्य है। उपक्रम की आवश्यकतानुसार कर्मचारियों को उपलब्ध कराने के लिए इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए कि आवश्यकता पड़ते ही पर्याप्त संख्या में उपयुक्त कर्मचारी उपलब्ध हो जांय। कर्मचारियों की भर्ती सुनियोजित नीति के अन्तर्गत ही की जानी चाहिए।

भर्ती की प्रक्रिया का आरम्भ कर्मचारियों की माँग निर्धारण से आरम्भ होता है। बड़े उद्योगों में जहाँ कई कार्य किये जाते हैं, कर्मचारियों की आवश्यकता सम्बन्धी माँग विभागानुसार पर्यवेक्षक द्वारा तैयार की जानी चाहिए, क्योंकि वह कर्मचारियों की उत्पादन क्षमता से भली-भाँति परिचित होता है, एवं उसके अनुसार आवश्यक श्रम की माँग निर्धारित करने में सक्षम होता है। अनेक बार उसे व्यवसाय के की सहायता भी लेनी पड़ती है। श्रम की वांछित संख्या स्पष्ट एवं सुनिश्चित होनी चाहिए। इस प्रकार विभिन्न कार्यों के लिए पृथक-पृथक माँग पत्र तैयार किये जाते हैं।

भर्ती के स्रोत

जब उद्योगों का अधिक विकास नहीं हुआ था तब श्रमिकों की भर्ती की समस्या जटिल नहीं थी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय तथा उसके उपरान्त जब तीव्रगति से औद्योगीकरण आरम्भ हुआ तब अनेक भर्ती की प्रणालियों का विकास हुआ तथा भर्ती के कई नई स्रोत ढू़ंढे गये। पहले श्रमिक की भर्ती के लिए केवल मध्यस्थों का प्रयोग किया जाता था। किन्तु अब कई विधियों जैसे नियोजन कार्यालय, विज्ञापन, क्षेत्रीय यात्रा, व्यावसायिक मीटिगें, विशिष्ट खोज, विभिन्न स्रोत तथा कम्पनी के भीतर ही उपयुक्त व्यक्ति की खोज आदि का प्रयोग किया जाता है।

यह आवश्यक है कि सेवीवर्गीय प्रबन्ध इन स्रोतों के निकट सम्पर्क में रहे। एक अच्छी प्रबन्धकीय नीति वह है जिसमें कार्यरत कर्मचारी को प्राथमिकता दी जाती है अर्थात् आन्तिरिक स्रोत का यथासम्भव पहले उपयोग किया जाता है। यदि आन्तरिक स्रोत से व्यक्ति प्राप्त नहीं होते हैं, तो उसके उपरान्त वाह्य, रोजगार कार्यालय, समाचार पत्रों में विज्ञापन आदि स्रोत का उपयोग किया जाना चाहिए।

भर्ती से पूर्व भर्ती के उद्देश्य निश्चित कर लिये जाने चाहिए तथा उद्देश्यों के अनुरूप भर्ती की नीति निर्धारित की जानी चाहिए। यदि इन पूर्व-निश्चित नीतियों को विशिष्ट प्रविधियों द्वारा क्रियान्वित किया जाय तो अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है। निष्पक्ष भर्ती नीति में निम्न तथ्यों का समावेश होना चाहिए-

  • (१) प्रत्येक कार्य के लिए योग्य व्यक्ति की खोज तथा उसकी नियुक्ति करना,
  • (२) सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का चयन करना,
  • (३) उन्हें दीर्घकाल के लिए उचित अवसर प्रदान करना, और
  • (४) कार्यरत रहते हुए उन्हें उन्नति के पूर्ण अवसर प्रदान करना।

सामान्यतः भर्ती नीति में कर्मचारियों की संख्या तथा उनके गुणों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।

भारत में सरकारी प्रतिष्ठानों में भर्ती

भारत में सरकारी प्रतिष्ठानों में भर्ती प्रबन्धकों द्वारा ही की जाती है। यह माना गया है कि इसमें तनिक भी सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। सन् 1955 में भारतीय संसद ने सरकारी प्रतिष्ठानों में भर्ती हेतु एक औद्योगिक सेवा आयोग के बारे में सुक्षाव दिया था कि जिससे कार्य-प्रणाली में अधिक दक्षता लायी जा सके। इन प्रतिष्ठानों के अधिक दक्षतापूर्वक चलाये जाने के प्रश्न पर अनुमान समिति द्वारा भी विचार किया गया।

सरकारी प्रतिष्ठानों में विभिन्न पदों के लिए अलग-अलग प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। प्रबन्धक तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती के लिए राष्ट्रीय रजिस्टरों एवं नियोजन कार्यालयों से सूची प्राप्त करते हैं तथा समाचार-पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित करवाते हैं। कई बार केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार तथा निजी प्रतिष्ठानों से भी उपयुक्त व्यक्ति सुझाने हेतु आग्रह किया जाता है। इन पदों के लिए प्रत्याशियों को लिखित परीक्षा अथवा साक्षात्कार देना पड़ता है।

सार्वजनिक उपक्रमों में भर्ती / नियोजन हेतु निम्न नीतियाँ सुझाई गईं हैं : -

  • (१) कम्पनी स्तर के सरकारी औद्योगिक संस्थानों में भर्ती व्यावसायिक पद्धति पर की जाय तथा सरकारी हस्तक्षेप कम से कम हो। यदि सम्भव हो तो इन्हीं संस्थानों में से भर्ती के लिए बोर्ड बना दिये जाने चाहिए जो महत्वपूर्ण नीतियों से सम्बन्धित निर्णय ले सकें ।
  • (२) समाज में भर्ती के प्रति कोई दूषित भावना जाग्रत न हो तथा संस्था के कार्य में गतिरोध उत्पन्न न हो, इस दृष्टि से एक प्रमाणित विधि अपनायी जानी चाहिए। यह प्रमाणित विधि पर्याप्त लोचशील होना चाहिए।
  • (३) लोक-सेवा आयोग के माध्यम से की जाने वाली नियुक्तियाँ वांछनीय नहीं हैं क्योंकि इसमें काफी समय लगता है और प्रतिष्ठान की स्वायत्ता को भी ठेस पहुँचती है।
  • (३) समान पदों के लिए समान वेतन दर होनी चाहिए जिससे अन्तः-प्रतिष्ठान-प्रतियोगिता की बढ़ावा न मिले।

चयन

चयन-प्रक्रिया में निम्नांकित चरणों का समावेश किया जाता है-

(1) प्रारम्भिक साक्षात्कार (2) आवेदन-पत्र एवं उनकी जाँच (3) मनोवैज्ञानिक परीक्षण (4) साक्षात्कार (5) जीवन सम्बन्धी अन्वेषण (6) शारीरिक परीक्षा (7) नियुक्ति-पत्र जारी करना।

प्रारम्भिक साक्षात्कार

यदि चयन-प्रक्रिया के अन्तर्गत अभ्यर्थियों को काम करने पर बल देना है तो प्रारम्भिक साक्षात्कार की आवश्यकता होगी। ऐसा साक्षात्कार अत्यन्त संक्षिप्त होगा तथा इसका मुख्य उद्देश्य अभ्यर्थियों के प्रकट दोषों एवं अयोग्यताओं का पता लगाकर उनका निरसन करना होता है। बोलते समय हकलाना, चलते समय लँगड़ाना, हाथ या पैर का टूटा होना, आँखों में दोष होना आदि दोषों का पता लगाने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं होती। दूसरे इस प्रकार के साक्षात्कार में अभ्यर्थियों द्वारा अपेक्षित वेतन, शैक्षणिक योग्यता तथा अनुभव के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है। केवल उन्हीं अभ्यर्थियों को चयन के प्रक्रिया में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए जिनके चयन की कुछ सम्भावनाएँ हों।

आवेदन-पत्र और उसकी जाँच

कुछ बड़ी कम्पनियों विभिन्न श्रेणी के पदों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रार्थना-पत्र छाप लेती है, जैसे - क्रय विभाग, विक्रय विभाग, निर्माणी विभाग, कार्यालय आदि में खाली होने वाले स्थानों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रार्थना-पत्रों में प्रार्थी द्वारा भरे जाने के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रार्थना-पत्रों में प्रार्थी द्वारा भरे जाने के लिए निम्नांकित सूचनाओं हेतु स्थान खाली रहता है-

  • (१) प्रार्थी का नाम, उसका पता, टेलीफोन नम्बर इत्यादि
  • (२) व्यक्तिगत विवरण जैसे - आयु, लिंग, विवाहित या अविवाहित, कुल बच्चों की संख्या, आश्रितों की संख्या, माता-पिता का नाम तथा उनका व्यवसाय और जन्म-स्थान
  • (३) शिक्षा, विशेष शिक्षा या प्रशिक्षण
  • (४) शारीरिक विशेषताएँ जैसे - स्वास्थ्य, कद, वजन, दृष्टि-शक्ति आदि
  • (५) विशेष अभिरूचियाँ एवं रूचियाँ,
  • (६) संघों की सदस्यता
  • (७) वित्तीय स्थिति
  • (८) सन्दर्भ - वैयक्तिक एवं व्यावसायिक
  • (९) इच्छित वेतन या पुरस्कार
  • (१०) पिछला अनुभव, यदि कोई हो, पिछला औसत वेतन, पिछला जाँब छोड़ने के कारण
  • (११) अन्य विवरण।

आवेदन-पत्र प्राप्त करने के बाद उनकी जाँच की जाती है जिन अभ्यर्थियों में न्यूनतम अपेक्षित योग्यता से कम योग्यता हो उन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण

मनोवैज्ञानिक परीक्षण एक ऐसा विधिवत् कार्यक्रम है जिसके द्वारा दो या अधिक व्यक्तियों के व्यवहार की तुलना की जाती है। ब्लूम के मतानुसार मनोवैज्ञानिक परीक्षण व्यक्ति के व्यवहार निष्पादन एवं अभिरूचि के पक्ष का एक नमूना है। यह एक ऐसा विधिवत् कार्यक्रम है जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यवहार का नमूना प्राप्त किया जाता है। साक्षात्कार से पहले कभी-कभी व्यावसायिक परीक्षाएँ लेना आवश्यक हो जाता है। जिससे कि प्रार्थियों की तकनीकी और सैद्धान्तिक क्षमता का अनुमान लग सके। प्रमुख परीक्षण (टेस्ट) ये हैं-

  • (१) बुद्धि परीक्षाएँ- बुद्धि या विद्वता की जाँच के लिए है
  • (२) रूचि परीक्षाएँ- विभिन्न व्यवसाय के प्रति प्रार्थियों की पसन्दगी या नापसंदगी को जाँचने के लिए होती है।
  • (३) रूझान परीक्षाएँ- किसी व्यक्ति की सुप्त क्षमता या सम्भाव्य योग्यता की जानकारी प्राप्त करने के लिए है।
  • (४) व्यक्तित्व परीक्षाएँ- प्रार्थी की सामाजिक जीवन, पारिवारिक सम्बन्ध, आदि के विषय में होती है।

इन सब परीक्षाओं की ‘मानसिक परीक्षाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। मानसिक परीक्षाएँ ले लेने के बाद कर्मचारियों की व्यावसायिक परीक्षाएँ ली जानी चाहिए।

साक्षात्कार

किसी भी चयन प्रक्रिया में सबसे अधिक व्यापक प्रयोग वाला उपकरण ‘साक्षात्कार’ ही है। बिना इसके चयन प्रक्रिया को पूर्ण नहीं समझा जाता है। प्रबन्ध शृंखला में पद जितना ऊँचा होगा चयन प्रक्रिया में साक्षात्कार का महत्व भी पद की गुरूता के अनुसार बढ़ता जाता है। साक्षात्कार का अर्थ वार्तालाप अथवा उनसे परस्पर मौलिक क्रिया से है जो सामान्यतः दो व्यक्तियों के बीच किसी विशेष उद्देश्य से की जाती है। इसके माध्यम से व्यक्ति की आकृति, व्यवहार कुशलता, भावात्मक स्थिरता, प्रकृति, अभिप्रेरण तथा अभिरूचि आदि के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।’’ [11]

साक्षात्कार के उद्देश्य तीन हैं : -

  • (१) साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना,
  • (२) उसको इस बात का पर्याप्त अवसर प्रदान करना कि वह कम्पनी उसके संगठन, उसमें कार्यरत व्यक्तियों, उत्पादों, नीतियों आदि के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकें जिससे उसे नौकरी करने सम्बन्धी निर्णय में सहायता मिल सके, तथा
  • (३) साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति पर कम्पनी उसके प्रबन्ध की एक अच्छी छाप छोड़ी जा सके।’’[12]

साक्षात्कार का प्राथमिक उद्देश्य कार्य के लिए प्रार्थी की और प्रार्थी के लिए कार्य की उपयुक्तता का पता लगाना है। साक्षात्कार लेना एक कला है और सफल साक्षात्कार व्यक्ति की योग्यताओं और कार्य-आवश्यकताओं में तुलना के लिए कुछ स्थापित या मान्य सिद्धान्तों का अनुसरण करते हैं। साक्षात्कार के प्रमुख बातें ये हैं-[13]

  • (१) साक्षात्कार के पूर्व जितना अधिक सम्भव हो सके साक्षात्कार के बारे में जानकारी प्राप्त कर लीजिए।
  • (२) जाँब-विनिर्देशों पर आधारित प्रश्नों की एक सूची बनाकर साक्षात्कार लेने की तैयारी कीजिए।
  • (३) साक्षात्कार के लिए पर्याप्त समय एवं एकान्त स्थान की व्यवस्था कीजिए।
  • (४) समालापी के दृष्टिकोण पर ध्यान दीजिए, अपने वैयक्तिक पूर्वाग्रहों की परीक्षा करिए और इस बात का ध्यान रखिए कि वे सर्वोत्तम व्यक्ति का चयन करने में बाधक न बनें।
  • (५) समालापी को ‘सहज’ अनुभव करने दीजिए ताकि वह स्वयं के विषय में आपको सूचना देने के लिए तत्पर हो जाय।
  • (६) स्पष्टवादी और साफ बनिए। चालाक और चतुर मत बनिए।
  • (७) भुलावे में डालने वाले प्रश्न मत पूछिए।
  • (८) तर्क मत करिए अथवा विषय को सहसा ही मत बदलिए।
  • (९) ऐसी भाषा में प्रश्न पूछिए जो कि प्रार्थी सहज ही समझ सके।
  • (१०) प्रार्थी के हितों का सम्मान करिए।
  • (११) कम्पनी के निष्कर्ष तक पहुँचिए’’।

निकास साक्षात्कार

इस प्रकार के साक्षात्कार का मुख्य उद्देश्य आवेदकों की प्रारम्भिक छानबीन अथवा उनकी छँटनी करना होता है। इस विधि से अयोग्य अभ्यर्थियों का निरसन करने का प्रयास किया जाता है जिससे कि शेष आवेदन-पत्रों की जाँच गहराई से की जा सके एवं साक्षात्कार के समय अनावश्यक समय नष्ट न हो। इस प्रकार का साक्षात्कार अधिक से अधिक पाँच मिनट में सम्पन्न हो जाता है। इसमें अधिक कुशल साक्षात्कारियों की आवश्यकता नही होती। इस पद्धति का दोष यह है कि इसमें कभी-कभी योग्य आवेदकों का निरसन हो जाता है क्योंकि यह साक्षात्कार जल्दी-जल्दी में किया जाता है और साक्षत्कार लेने वाले व्यक्ति अधिक कुशल नहीं होते हैं। यदि उद्देश्य स्पष्ट रूप से अयोग्य आवेदनकर्ताओ की छँटनी करनी ही है, तो अच्छा यह होगा कि प्रारम्भिक साक्षात्कार के स्थान पर सबसे पहले तो आवेदन-पत्रों की जाँच की जाये और फिर यदि आवश्यक है कि उनकी एक संक्षिप्त-लिखित परीक्षा ले ली जाय । यह सब उसी दशा में करना चाहिए जबकि आवेदनकर्ताओं की संख्या उपलब्ध कृत्यों की तुलना में बहुत अधिक हो।

जीवन सम्बन्धी अन्वेषण

‘‘इस प्रकार के अन्वेषण में सामान्यतः निम्न बातों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जाती है-

(१) दाम्पत्य स्थिति, (२) आदतें एवं अभिवृत्तियाँ, (३) स्वास्थ्य, (४) मानवीय सम्बन्ध, (५) पैतृक घर, बचपन किशोर अवस्था, (६) वैयक्तिक ऋण, (७) वर्तमान घर, पति-पत्नि एवं बच्चे, (८) आत्मधारणा, (९) मनोरंजन, शौक, रूचि, (१०) मान्यताएँ विचारधाराएँ तथा प्राथमिकताएँ और (११) कार्य।

शारीरिक परीक्षा

चयन प्रक्रिया में आगामी कदम प्रार्थी को विस्तृत शारीरिक जाँच के लिए संस्था के डाक्टर के पास भेजना है। इस परीक्षा का उद्देश् य व्यक्ति के उन शारीरिक गुणों को प्रकट करना है जो कि विचाराधीन कृत्य के कुशल निष्पादन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसा होने पर प्रार्थी को उस जाँच पर रखना सम्भव होगा जिसे वह भँलि प्रकार सम्पन्न कर सकता है और भविष्य में पदोन्नतियाँ प्राप्त कर सकता है।

नियुक्ति-पत्र जारी करना

साक्षात्कार एवं परीक्षणों के आधार पर प्रार्थी की नियुक्ति करने अथवा न करने के विषय में निर्णय लिया जाता है। किन्तु नियुक्ति पत्र देने के पूर्व उसके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भो की सहायता से जाँच की जाती है। चयनकर्ता सन्दर्भ के जितने अधिक निकट पहुँचकर प्रार्थी के विषय में जानकारी प्राप्त करेगा, जानकारी की प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता उतनी ही अधिक होगी। अनुकूल सन्दर्भ प्राप्त होने की दशा में प्रार्थी को नियुक्ति-पत्र दिया जा सकता है।

कार्य पर नियुक्ति-

चयन प्रक्रिया द्वारा जब प्रार्थी का अन्तिम रूप से चयन कर लिया जाता है और उसे नियुक्ति-पत्र भी दे दिया जाता है, तो आगामी चरण आता है ‘‘कार्य पर नियुक्ति’’। किसी भी कर्मचारी को सही कृत्य पर लगाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उसका चयन करना। कर्मचारी की यथाविधि कार्य पर नियुक्ति होने से कर्मचारी का निष्पादन बढ़ता है एवं अनुपस्थिति, दुर्घटना दशा आदि में कमी आती है। यही नहीं कर्मचारी के मनोबल एवं कार्य क्षमता में वृद्धि होती है।

‘र्य पर नियुक्ति से आशय है चयन किये गये प्रार्थी को सौंपे जाने वाले कृत्य का निर्धारण तथा उस कृत्य का प्रार्थी को सौंपना। चयन के बाद सामान्यतः प्रार्थी की नियुक्ति छः माह अथवा एक वर्ष की परिवीक्षा पर की जाती है। इस अवधि सन्तोषप्रद कार्य निष्पादन की दशा में नियुक्ति को स्थायी कर दिया जाता है। यदि इस अवधि में कार्य सन्तोषप्रद नहीं होता है तो कर्मचारी को कार्य से हटाया भी जा सकता है।’’[14]

आगमन

कार्य पर नियुक्ति के बाद नव-नियुक्ति कर्मचारी का आगमन अथवा उसका प्रतिष्ठान, कार्य एवं सहयोगियों से परिचय कराने की आवश्यकता होती है। परिचय वह क्रिया है जिसके माध्यम से नव-नियुक्ति कर्मचारी को रोजगार प्रदान करने वाले संगठन के विषय में विस्तृत जानकारी दी जाती है। ‘परिचायक कार्यक्रम’ के द्वारा कर्मचारी को सामान्यतः निम्न विषयों की जानकारी प्रदान की जाती है-

(१) संगठन एवं उसके उत्पादन (२) संयन्त्र की स्थिति (३) संगठन के विभिन्न विभाग तथा उनके कार्य (४) सेवा सम्बन्धी शर्ते, सुविधायें एवं कार्य स्थिति (५) कल्याण कार्यों की व्यवस्था (६) स्थायी आदेश (७) परविदेन क्रिया विधि (८) दुर्घटनाओं से सुरक्षा (९) संगठन की नीतियाँ एवं उद्देश्य।

इसके उपरान्त समय समय पर यह देखते रहना भी आवश्यक है कि जिस उद्देश्य से कर्मचारी की नियुक्ति की गई थी वह पूरा हो रहा है अथवा नहीं। इसे प्रबन्ध की भाषा में ‘‘आगमन कहते हैं।’’ [15]

भारत में सामान्यतः उपयोग में लाये गये भर्ती के साधन

२०वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक उद्योग-धन्धों में काम करना कर्मचारियों को अधिक पसंद नहीं था क्यों क ग्रामीण जीवन ही उनको अधिक रूचिकर था। गाँव छोड़ना श्रमिकों को पसन्द नहीं था। किन्तु शनैः-शनैः कृषि पर जनसंख्या का भार बढ़ने एवं औद्योगीकरण के विकास से स्थिति में परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में काम की कमी होने लगी तथा उद्योगों की ओर श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए मध्यस्थों का सहारा लेना पड़ा। संगठित व असंगठित दोनों प्रकार के उद्योगों में मध्यस्थों द्वारा भरती की पद्धति आज भी प्रचलित हैं। इन मध्यस्थों को देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे- जाँबर, सरदार चौधरी, मुकद्दम, फोरमैन, मिस्त्री, कंगानी आदि। बड़े कारखानों में स्त्री जाँबर भी हुआ करते है जिन्हें नायकिन या मुकद्दमिन कहते है। श्रमिकों को नियुक्त करना, निकालना व रखाना पदोन्नति करना, छुट्टी दिलाना, आदि इन्ही मध्यस्थों का काम होता है। ववाइटले आयोग ने भी लिखा है कि कर्मचारियों की नियुक्ति निकटवर्ती गाँवों से की जाती थी। केवल कुशल श्रमिकों को ही बाहर से प्राप्त किया जाता था। किन्तु स्वतन्त्रता के बाद श्रमिकों की भरती की पद्धति में अनेक परिवर्तन हुए। श्रमिकों की प्रवासी प्रवृति में बदलाव आया है तथा उनकी गतिशीलता भी बढ़ी है। गांवों की अपेक्षा नगरों में रहना अब वे पसन्द करने लगे हैं। इसके अतिरिक्त श्रम के शाही कमीशन, श्रम अनुसन्धान समिति, बाम्बे टैक्सटाइल लेबर जाँच समिति, आदि ने परम्परागत दूषित भरती पद्धतियों को समाप्त करने की अनुशंसा की तथा वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रचलन पर अधिक बल दिया है। फलतः आज भारत में निजी एवं सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में योग्य कर्मचारियों की प्राप्ति के लिए भरती के अनेक नवीन स्रोतों का प्रयोग किया जाता है। राष्टींय श्रम आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की श्रम समस्याओं के अध्ययन के दौरान अपने प्रतिवेदन में सर्वोच्च अधिकारियों से लेकर निम्नस्थ कर्मचारियों तक की नियुक्ति के विषय में वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डाला है। आयोग के अनुसार उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए एक पैनल तैयार किया जाता हैं। जिसमें सरकारी तथा गैर-सरकारी उच्चाधिकारियों के नाम रहते है। इसी पैनल से मन्त्रिमण्डल की नियुक्ति समिति के पास नामों की अनुशंसा की जाती है। पर्यवेक्षकीय स्तर पर कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए सम्पूर्ण भारत से प्रार्थना-पत्र आमन्त्रित किये जाते है एवं उनकी योग्यता व कार्यकुशलता के आधार पर चयन किया जाता है। क्रियात्मक स्तरों पर वांछित कर्मचारियों की नियुक्ति हेतु स्थानीय आवेदकों की प्राथमिकता दी जाती है।

प्रो0 एम0एस0 रूद्राबसवराज द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार हैवी इन्जीनियरिंग के क्षेत्र में एक सार्वजनिक उपक्रम ने गैर-पर्यपेक्षकीय कर्मचारियों की भरती निम्न स्थानों से की है-

(1) रोजगार कार्यालय (2) बावय विज्ञापन (3) आन्तरिक विज्ञापन (4) केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान (5) निगम के सम्पर्क अधिकारी द्वारा दिया गया परिचय (6) कर्मचारियों की प्रतिनियुक्ति तथा (7) अन्य सरकारी उपक्रमों से स्थानान्तरण।

अन्य राजकीय उपक्रम (स्टील) में प्रथम प्राथमिकता विस्थापित व्यक्तियों को दी गई, किन्तु एक परिवार से ही व्यक्ति को नियुक्त किया गया। प्रो0 रूद्राबसवराज के अध्ययन से यह भी विदित होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती के जिन स्रोतों का उपयोग किया गया उनकी प्राथमिकता का क्रम नियमानुसार हैं-

(1) आकस्मिक मिलने वाले (2) समाचार-पत्र विज्ञापन (3) अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति (4) रोजगार कार्यालय, अन्य राजकीय उपक्रम (5) आन्तरिक विज्ञापन (6) विस्थापित व्यक्ति (7) मित्र एवं सग्बन्धी (8) कार्मिक अनुशंसा तथा (9) स्कूल।

उपर्युक्त अध्ययन से सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र में प्रयुक्त किये गये भर्ती के साधनों की जो जानकारी प्राप्त हुई है। वह इस प्रकार हैं-

(1) विज्ञापन (2) रोजगार कार्यालय (3) मित्र एवं सम्बन्धी (4) आकस्मिक मिलने वाले तथा (5) कर्मचारियों की अनुशंसा।

निजी क्षेत्र के छोटे-बड़े उद्योगों द्वारा मानव शक्ति की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाते समय श्रम की माँग-पूर्ति तकनीकी परिवर्तनों, सरकारी नीतियों, आदि अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है. यह सत्य है कि अधिकांश संगठनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली प्रणालियाँ अप्रमाणित है। केवल टाटा, बिडला, डालमिया, बॉगड़, डी0सी0एम0 आदि जैसे बड़े-बड़े संगठनों में पूर्णतया वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण चयन पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। इन संगठनों द्वारा मानवशक्ति का नियोजना किया जाता है, बजट तैयार किया जाता है, भर्ती स्रोतों से पूर्ण सम्पर्क रखा जाता हैं, तथा प्रमापित चयन पद्धतियों द्वारा कर्मचारियों का चयन किया जाता है। प्रबन्ध पदाधिकारियों का चयन सीधे प्रबन्ध संस्थानों से किया जाता है।

शिक्षा एवं प्रशिक्षण

शिक्षा एवं प्रि शक्षण एक अच्छी प्रबन्ध प्रणाली का मूल मंत्र है। यदि कर्मचारियों से कार्य और अधिक उत्पादन, प्राप्त करना चाहते है तो अनके द्वारा बनायी गई वस्तुओं की किस्म अच्छी रखना है तो शिक्षा एवं प्रशिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। इसके द्वारा कर्मचारी को न केवल कार्य के प्रति ज्ञान प्राप्त होता है अपितु उन्हें कार्य में रूचि उत्पन्न होती है।

प्रशिक्षण से कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि ही नहीं होती वरन् उसे अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग करते हुए संगठनात्मक व व्यक्तिगत लक्ष्यों में सामंजस्य स्थापित करने में सहायता मिलती है इसके अतिरिक्त प्रशिक्षण से कर्मचारियों की नेतृत्व क्षमता का विकास होता है और उन्हें विकास के अवसर प्राप्त होते है।[16]
प्रशिक्षण -

प्रशिक्षण किसी कर्मचारी को किसी विशिष्ट कार्य को करने योग्य बनाने की प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति की योग्यता, कार्यक्षमता तथा निपुणता में वृद्धि की जाती है।

प्रशिक्षण प्रवंधकीय नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रशिक्षण द्वारा काम करने की सर्वोत्तम विधियों एवं विशिष्ट समस्याओं के समाधान की श्रेष्ठतम विधियों का अध्ययन किया जाता है नवीन कर्मचारियों को जब तक इन विधियों की जानकारी नहीं दी जाएगी तब तक इनका लाभ प्राप्त करना कठिन है। प्रत्येक उपक्रम का उद्दे श् य कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना एवं अनुकूल आचरण मनोबल तथा प्रेरणा का विकास करना होता है इन उद्देश्यों की प्राप्ति ही प्रशिक्षण का लक्ष्य होता है। [17]

शिक्षा और प्रशिक्षण में अन्तर है। शिक्षा का संबन्ध सम्पूर्ण वातावरण एवं परिस्थितियों के ज्ञान एवं जानकारी से होता है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के सामान्य विकास से होता है जबकि प्रशिक्षण साभिप्राय शिक्षा हैं जिसका लक्ष्य किसी विशिष्ट प्रकार की ज्ञान की प्राप्ति से होता है यह भी सत्य है कि बिना सामान्य शिक्षा के विशिष्ट प्रशिक्षण की ओर बढ़ना कठिन है। शिक्षा यथोचित बोध का सामान्य आधार और प्रशिक्षण कार्यान्वयन का विशिष्ट कौशल माना जा सकता है जो दोनों ही कर्मचारी की योग्यता, कार्यक्षमता एवं निपुणता के लिए आवश्यक है ‘‘वास्तव में शिक्षा एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता के तीन मुख्य आधार है-

  • 1- कर्मचारी की कार्य सम्बन्धी आदतों में सुधार करना,
  • 2- लक्ष्य-निर्धारण करना, तथा
  • 3- कार्य का समायोजन करना।

प्रशिक्षण के द्वारा कर्मचारी असन्तोष दूर हो सकता है, अनुपस्थिति की दर कम हो सकती है, कर्मचारियों का वैयक्तिक विकास सही दिशा में किया जा सकता है। तथा संगठनात्मक स्थिरता एवं लोच शीलता में वृद्वि होती है।’’[18] शिक्षा एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता के पक्ष में निम्न घटक स्मरणीय हैं-

  • (१) नवीन कर्मचारियों को उस काम का प्रशिक्षण देना आवश्यक है जो उनके लिए नया है तथा जिनका उन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं है।
  • (२) विश्वविद्यालय शिक्षा सैद्वान्तिक ज्ञान की ठोस नींव तो डाल सकती है। किन्तु विभिन्न कार्यों के निष्पादन हेतु व्यावहारिक ज्ञान व विशियट योग्यता की आवश्यकता होती है जो प्रशिक्षण द्वारा ही पूरी की जा सकती है।
  • (३) सामान्यतः कारखानों में काम बदलते रहते हैं तथा कर्मचारी भी एक कार्य से दूसरे कार्य पर जाते हैं, अतः नवीन दायित्व के कुशल निष्पादन हेतु शिक्षा एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
  • (४) उत्पादन के नवीन विधियों व तकनीक का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी शिक्षा एवं प्रशिक्षण एक अनिवार्यता है।
  • (५) ‘कल’ की प्रबन्धकीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी शिक्षा एवं प्रशिक्षण जरूरी है।
  • (६) देश में व्यावसायिक गतिशीलता बढ़ गयी है, क्योंकि स्थान-स्थान पर रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो रही है। अतः विभिन्न स्तरो पर प्रशिक्षण की माँग बढ़ती जा रही है।

स्वास्थ्य, सुरक्षा, श्रम-कल्याण

स्वास्थ्य

वर्तमान युग में कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं कल्याण की आवश्यकता तीव्र रूप से अनुभव की गई है। श्रमिकों के स्वास्थ्य की रक्षा कर उनकी कुशलता में वृद्धि की जा सकती है तथा उनसे अधिक उत्पादन की आशा की जा सकती है। कारखाना अधिनियम 1948 में श्रमिकों / कर्मचारियों के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु निम्नलिखित प्रावधान किए गए है-

(1) सफाई सम्बंधी प्रावधान (धारा 11)

(2) कूडा-करकट तथा गंदे पदार्थ हटाने की व्यवस्था (धारा 21)

(3) वायु संचालन एवं सामान्य तापमान बनाये रखना। (धारा 13)

(4) धूल एवं धुँआ दूर करने की व्यवस्था (धारा 14)

(5) कृत्रिमनमी एवं आर्द्रता बनाना (धारा 15)

(6) अत्यधिक भीड़ पर रोक एवं न्यूनतम स्थान की व्यवस्था (धारा 16)

(7) पर्याप्त एवं उपयुक्त प्रकाश की व्यवस्था (धारा 17)

(8) पेयजल की व्यवस्था (धारा 18)

(9) शौचालय एवं मूत्रालय का प्रबंध (धारा 19)

(10) पीकदान की व्यवस्था (धारा 20)

कारखाना अधिनियम की उक्त सभी व्यवस्थाओं की सार्वजनिक एवं नीजी क्षेत्र के उपक्रमों में लागू करना आवश्यक है।कारखाना अधिनियम सीमा में आने वाले उपक्रमों में श्रमकों एवं कर्मचारियों के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु प्रावधानों को लागू किया गया है। निजी क्षेत्र में इन व्यवस्थाओं को लागू किया जाता है लेकिन अधिकांश सार्वजनिक उपक्रमों में धन की कमी के चलते इन व्यवस्थाओं को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।

सुरक्षा

कारखाना अधिनियम 1948 में कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गए है जो निम्नलिखित हैं-[19]

1. यंत्रों की घेराबंदी (धारा 21)

2. चलते हुए यंत्र के निकट कार्य में विशेष सावधानियाँ (धारा 122)

3. खतरनाक यंत्रों पर नवयुवकों की नियुक्ति पर प्रतिबन्ध (धारा 23)

4. शक्ति से संबंध विच्छेद करने वाले कुशल पुर्जे एवं साधन (धारा 24)

5. विस्फोटक या प्र ज्वलनशील धूल, गैस, आदि के सम्बंध में सावधानियाँ (धारा 37)

6. आग लगने की दशा में सावधानियाँ (धारा 38)

7. सुरक्षा अधिकारी की नियुक्ति (धारा 40 ठ )

8. गढ्ढ़े , हौज, फर्श के सुराग को ढ़कने की व्यवस्था (धारा 33)

9. अत्यधिक बोझ पर रोक(धारा 34)

10. आँखों की सुरक्षा (धारा 35)

11. खतरनाक धुए के निवारण के उपाय (धारा 36)

12. विद्युत प्रकाश के उपयोग के सम्बंध में सावधानियाँ (धारा 36 )

13. घूमने वाले मशीनों के प्रयोग में सावधानियाँ (धारा 30)

14. फर्श, सिढ़ियाँ तथा पहुँचने के सुरक्षित साधन (धारा 32)

15. वजन उठाने वाली मशीने जंजीरे तथा भारी वजन उठाने वाली मशीने अच्छी होनी चाहिए।

कारखाना अधिनियम की उपरोक्त सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधानों को सभी नीजी एवं सार्वजनिक उपक्रमों में लागू की जानी चाहिए इन प्रावधानों का सभी बड़ी निजी एवं सार्वजनिक उपक्रमों में पालन हो रहा है। लेकिन सार्वजनिक उपक्रमों में पूर्णरूप से व्यवस्थाओं को लागू करने में वितीय कठिनाइयाँ सामने आ रही हैं अतः इस हेतु पर्याप्त धन उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।

श्रम-कल्याण

सामान्यतयाः श्रम कल्याण से हमारा आशय श्रमिकों की नियोक्ताओं द्वारा प्रदान की जाने वाली सुविधाओं से है। किन्तु वर्तमान औद्योगिक जगत में इसे व्यापक सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है। श्रम कल्याण के अर्न्तगत कारखाने के भीतर तथा बाहर प्रदान की जाने वाली सभी सुविधाएँ आती है जो श्रमिकों की शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक उन्नति में सहायक होती है। ये सुविधाएँ कारखानों के स्वामियों, सरकार, श्रम संघों या अन्य समाज सेवी संस्थाओं द्वारा प्रदान करने का प्रमुख प्रयोजन स्वस्थ एवं सुखद औद्योगिक वातावरण का निर्माण करना तथा उन्हें निजी एवं पारिवारिक चिन्ताओं से मुक्ति दिलाना है। कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 42 से 50 तक इन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है जो अग्र प्रकार है।

नहाने धोने की सुविधाएँ

पुरूष तथा स्त्री श्रमिकों के उपयोग के लिए पृथक-पृथक तथा पर्याप्त परदेदार नहाने-धोने की सुविधाओं की व्यवस्था प्रत्येक कारखाने में की जायेगी और उनकी उचित देख-रेख भी की जायेगी। ये सुविधाएँ स्वच्छ एवं स्वास्थ्यप्रद दशा में रखी जायेगी और ऐसे स्थान पर होगी जहाँ श्रमिक आसानी से पहुँच सकें । वस्त्र रखने और सुखाने की सुविधाएँ - कारखाने में श्रमिकों के द्वारा काम के समय न पहने जाने वाले वस्त्रों को रखने एवं गीले वस्त्रों को सुखाने के लिए उपयुक्त स्थानों की व्यवस्था की जायगी।

बैठने की सुविधाएँ

प्रत्येक कारखाने में उन समस्त श्रमिकों के लिए जिन्हें खड़े रहकर कार्य करना पड़ता है। बैठने के लिए उचित व्यवस्थाएँ की जाये गीं तथा बनी रहे गीं ताकि काम के दौरान जब भी उन्हें विश्राम का अवसर मिले, वे उसका लाभ उठा सकें।

यदि मुख्य निरीक्षक के मत में किसी कारखाने में नियुक्त श्रमिक किसी विशेष निर्माण प्रक्रिया अथवा किसी विशेष कार्यक्रम में बैठकर कुशलतापूर्वक काम कर सकते हैं तो वह कारखाने के परिभोगी को ऐसा लिखित आदेश देकर ऐसे श्रमिकों के बैठने की सुविधाओं का प्रबन्ध करने के लिए निर्देष दे सकता है तथा यह माँग कर सकता है कि एक निष्चित तिथि के पूर्व वहाँ बैठने की सुविधाओं का प्रबन्ध किया जाय।

प्राथमिक उपचार के उपकरण

प्रत्येक कारखाने में समस्त कार्य के घण्टों में प्राथमिक उपचार की सन्दूकों अथवा अलमारियों की व्यवस्था की जायेगी जो निर्धारित वस्तुओं से सुसज्जित होंगी। ये ऐसे स्थानों पर रखी जायेगीं। जहाँ तत्काल पहुँचा जा सकें । जिस कारखाने में किसी भी समय 150 या उससे अधिक श्रमिक साधारणतया नियुक्त हैं वहाँ प्राथमिक उपचार की कम से कम एक सन्दूक या अलमारी अवश्य रखी जायेगी।

इनमें निर्धारित वस्तुओं के अलावा अन्य कोई भी वस्तु नहीं रखी जायेगी। ये सन्दूकें या अलमारी राज्य सरकार द्वारा प्राथमिक चिकित्सा में मान्यता प्राप्त प्रमाणपत्रधारी अधिकारी के ही अधिकार में रहेंगी जो काम के घण्टों के दौरान हमेशा कारखाने में उपलब्ध रहेगा। जिस कारखाने में 500 से अधिक श्रमिक नियुक्त हों वहाँ एक निर्धारित आकार तथा निर्धारित वस्तुओं से सज्जित उपचार कक्ष होगा। यह निर्धारित चिकित्सा अधिकारी और नर्सो के अधिकार में रहेगा। ये सुविधाएँकारखाने में काम के घण्टों के दौरान हमेशा उपलब्ध रहेंगी।

जलपान गृह

जिस कारखाने में साधारणतया 250 या अधिक श्रमिक नियुक्त हों वहाँ परिभोगी श्रमिकों के उपयोग के लिए जलपान गृह की व्यवस्था अपनी देख-रेख में करेगा। जलपान गृह के संचालन व्यय नियोक्ता वहन करेगा और खाद्य सामग्री की कीमत निर्धारित करते समय इन्हें ध्यान में नहीं रखा जायेगा।

आश्रयस्थल, विश्रामकक्ष एवं भोजनकक्ष

जिस कारखाने में साधारणतया 150 से अधिक श्रमिक कार्यरत हों वहाँ पर्याप्त तथा उपयुक्त आश्रम-स्थलों , विश्राम-कक्षों व एक भोजन- कक्ष की व्यवस्था की जायेगी तथा उनकी देखरेख की जायेगी। इन स्थानों में पेय जल का प्रबन्ध भी रहेगा। यहाँ श्रमिक अपने द्वारा लाया गया भोजन करेंगे । ये पर्याप्त रूप से प्रकाश युक्त तथा वायु-संचालित होंगे। इन्हें साफ तथा ठण्डी अवस्था में रखा जायेगा।

शिशु गृह

जिस कारखाने में तीस से अधिक स्त्री श्रमिक नियुक्त हों वहाँ उनके 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के उपयोग हेतु एक उपयुक्त कक्ष या कक्षों की व्यवस्था की जायेगी। ये शिशु गृह हवादार तथा प्रकाशयुक्त रहे गें और इन्हें साफ व स्वास्थ्यप्रद दशा में रखा जायेगा। शिशु गृह की देखरेख ऐसी महिलाएँ करेगीं जो बच्चों व शिशुओं के पालन-पोषण में प्रशिक्षित हों ।

श्रम कल्याण अधिकारी

जिस कारखाने में साधारणतया 500 या अधिक श्रमिक नियुक्त हों वहाँ निर्धारित संख्या में श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति कारखाने के परिभोगी द्वारा की जायेगी। इन अधिकारियों की योग्यता, सेवा की शर्तों एवं अधिकार-कर्तव्य राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किये जायेगें।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. Armstrong, Michael (2006). A Handbook of Human Resource Management Practice (10th संस्करण). London: Kogan Page. OCLC 62282248. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-7494-4631-5.
  2. "personnel management". The Columbia Encyclopedia (Sixth Edition)। (2005)। Columbia University Press। अभिगमन तिथि: 2007-10-17 “personnel management - see industrial management” "संग्रहीत प्रति". मूल से पुरालेखित 27 फ़रवरी 2009. अभिगमन तिथि 17 जून 2010.सीएस1 रखरखाव: BOT: original-url status unknown (link)
  3. Encyclopædia Britannica (kl)। “Personnel administration is also frequently called personnel management, industrial relations, employee relations”
  4. Encyclopædia Britannica
  5. Towers, David. "Human Resource Management essays". मूल से 20 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-10-17.
  6. Ulrich, Dave (1996). Human Resource Champions. The next agenda for adding value and delivering results. Boston, Mass.: Harvard Business School Press. OCLC 34704904. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-87584-719-6.
  7. Smit, Martin E.J.H.. "HR, Show me the money; Presenting an exploratory model that can measure if HR adds value".
  8. "सामरिक उच्च निष्पादन कार्य प्रणाली का प्रभाव" (PDF). मूल (PDF) से 10 जुलाई 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 जून 2010.
  9. "About Cornell ILR". Cornell University School of Industrial and Labor Relations. मूल से 21 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 अगस्त 2009.
  10. ई. बी0 फिलिप्पो : प्रिसिपल्स आफ परेशनेल मैनेजमेन्ट - पेज, १३३.
  11. डेल योडर : परसोनेल मैनेजमेंट एण्ड इन्डंस्टीयल रिलेशनस, पेज 305
  12. मामोरिया : सेवीवर्गीय प्रबंध एवं औद्योगिक सम्बंध, पेज 173
  13. विंघम एवं मरे : सेविवर्गीय प्रशासन पेज 107-108
  14. पिगर्स एवं मेयर्स : परसोनेल एडमीनिस्टेंशन, पेज 202
  15. डॉ0 एसी. सी. सक्सेना : सेविवर्गीय प्रबंध, पेज 81-82
  16. मामोरिया एवं दशोराः सेविवर्गीय प्रबंध एवं औद्योगिक संबन्ध पेज 220
  17. कीथ एवं गुबेलिनीः परसोनेल मैनेजमेंट
  18. डॉ0 एसी. सी. सक्सेना : सेविवर्गीय प्रबंध, पेज 12 3
  19. कारखाना अधिनियम 1948