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माधुरीदास

माधुरीदास गौड़ीय सम्प्रदाय के अंतर्गत ब्रजभाषा के अच्छे कवियों में गणना है।[1]

जीवन परिचय

माधुरीदास गौड़ीय सम्प्रदाय के अंतर्गत ब्रजभाषा के अच्छे कवि हैं। अभी तक हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों से इनका कोई परिचय नहीं है। इनकी वाणी के प्रकाशक बाबा कृष्णदास ने इनके विषय में कुछ लिखा है।

  • माधुरीदास ने केलि-माधुरी का रचना काल अपने इस दोहे में दिया है :
सम्वत सोलह सो असी सात अधिक हियधार।
केलि माधुरी छवि लिखी श्रावण बदि बुधवार।।
  • ये रूपगोस्वामी के शिष्य थे। इस बात की पुष्टि माधुरीदास की वाणी के निम्न दोहे से होती है:
रूप मंजरी प्रेम सों कहत वचन सुखरास।
श्री वंशीवट माधुरी होहु सनातन दास।।[1]
  • यहाँ 'रूप मंजरी 'शब्द श्री रूपगोस्वामी के लिए स्वीकर किया गया है। निम्न दोहे से भी ये रूपगोस्वामी के शिष्य होने की पुष्टि होती है ~`
विपिन सिंधु रस माधुरी कृपा करी निज रूप।
मुक्ता मधुर विलास के निज कर दिए अनूप।।

बाबा कृष्णदास के अनुसार माधुरीदास ब्रज में माधुरी कुंड पर रहा करते थे। यह स्थान मथुरा-गोबर्धन मार्ग पर अड़ींग नामक ग्राम से ढाई कोस ( ८ किलोमीटर ) दक्षिण दिशा में है।[1] अपने इस मत की पुष्टि के लिए कृष्णदास जी ने श्रीनारायण भट्ट के 'ब्रजभक्ति विलास' का उल्लेख किया है।

रचनाएँ

  • माधुरी वाणी

माधुरी वाणी में सात माधुरियाँ हैं:

  1. उत्कण्ठा
  2. वंशीवट
  3. केलि
  4. वृन्दावन
  5. दान
  6. मान
  7. होरी

माधुर्य भक्ति का वर्णन

माधुरीदास ने अपने उपास्य का परिचय निम्न दोहे में दिया है :

हो निकुंज नागरि कुँवरि ,नवनेही घनश्याम।
नैंनन में निस दिन रहो ,अहो नैन अभिराम।।[1]

कृष्ण वर्ण से साँवले परन्तु सुन्दर हैं। उनका मोहन रूप सबको मोहित करने में समर्थ है। इस प्रकार मनहरण करके भी वे सबको सुखी करने वाले हैं। वे गुणों में रतिनिधि ,रसनिधि ,रूपनिधि और प्रेम तथा उल्लास की निधि हैं। वृन्दाविपिनेश्वरी राधा नवल किशोरी ,गौरवर्णा,भोली,मोहिनी,माधुर्य पूर्ण ,मृगनयनी आमोददा ,आनंद राशि आदि विभिन्न गुणों से संयुक्त हैं। सर्वगुण सम्पन्न होने के साथ-साथ रसरूपा हैं। आधा नाम लेने से भी साधक के सब सुख सिद्ध हो जाते हैं ~`

गुणनि अगाधा राधिका, श्री राधा रस धाम।
सब सुख साधा पाइये , आधा जाको नाम।।

राधा-कृष्ण के सम्बन्ध में इनके भी वही विचार हैं जो गौड़ीय संप्रदाय के अन्य ब्रजभाषा कवियों के हैं। अतः माधुरीदास ने अपने उपास्य-युगल को दूल्हा-दुल्हिन के रूप में चित्रित किया है:

माधुरी लता में अति मधुर विलासन की
मधुकर आनि लपटानी सब सखियाँ।
दुलहिन दूलहू के फूल विलास कछु
वास ले ले जीवति हैं जैसे मधुमखियाँ।।[2]

उपास्य-युगल की मधुर -लीलाओं का ध्यान तथा भावना मधुरदास की उपासना है। अतः उन्होंने राधा -कृष्ण की प्रेम -लीलाओं की माधुरी को ही अपनी रचना में गया है।। इस विहार का आधार प्रेम है। इसीलिये राधा -कृष्ण के विलास का ध्यान कर भक्त को अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है :

परी सुरत जिय आय ,रोम रोम भई सरसता।
देखहु सुधा सुभाय ,मोहन को मोहन कियो।।[1]

इस प्रेम की गति अगम्य है और इसका स्वरुप कठिन से कठिन है। इस प्रेम का अनुभव कभी मिलन , वियोग और कभी संयोग-वियोग मिश्रित रूप में होता है। किन्तु इसे वही जान सकता है जिसे इसका कभी अनुभव हुआ हो :

प्रेम अटपटी बात कछु ,कहत बने नहीं बैन।
कै जाने मन की दशा , कै नेही के नैन।।[1]

राधा-कृष्ण की मधुर लीलाएं विविध हैं। कभी कृष्ण प्रिया के साथ हास करने के लिए उसके आभूषणों को उतारते हैं और फिर उन्हें पहना देते हैं ,कभी उनके कपोलों को मृगमद से चित्रित करते हैं और फिर मिटा देते हैं। दूसरी ओर राधा को प्रियतम के इस स्पर्श से अत्यधिक सुख मिलता है। इस अवसर पर राधा में जिन सात्विक भावों का उदय होता है उसका कवि ने बहुत सुंदर वर्णन निम्न कवित्त में किया है ~~

प्यारे के परस होत उपज्यो सरस् रस
स्वरभंग वैपथ प्रस्वेद अंग ढरक्यो।
हरष सों फूल्यौ तन तरकी कंचुकी तनि
चखन चलत सों सिंगार हार सरक्यो।।
कंकन किंकिणी कटि नीवी हूँ सिथिल भये
लोचन कपोल भुज वाम उर फरक्यो।
चिबुक उठाय के जु ऊँचे तव कीन्हों मुख
धीरज न रह धर धर हीयो धरक्यो।। [1]

इसके अतिरिक्त राधा-कृष्ण की संयोग-परक लीलाओं में जल- केलि ,नौका-विहार ,रास,दान-लीला,होली आदि का भी सुन्दर वर्णन है। दान-लीला का वर्णन अपनी संवादात्मक शैली के कारण अत्यधिक मनोरम हो गया है। कृष्ण की छेड़छाड़ का उत्तर देती हुई गोपियों की यह उक्ति वाक् चातुर्य का सुन्दर उदाहरण :

घर में न कोऊ जाको वसन उधार देखो,
जो पै कछु अब ही ते मन ललचायो है।
भली कीनी आज ही जगातिन को रूप धरयो,
कालि ही तो नंदगाँव बाँह दे बसायो है।
नाम लेत वन को न लाज कछु आवति है,
वृन्दावन राधाजू को वेदन में गायो है।
फूल फूल रुखन की जाय रखवारी करो,
कोऊ बाग़ बाबा जी ने विसाले लगायो है।।

बाह्य स्रोत

  • ब्रजभाषा के कृष्ण-काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७

सन्दर्भ