महिम भट्ट
महिम भट्ट "वक्रोक्तिजीवित" के रचयिता "कुंतक" के अनंतर ध्वनि सिद्धांत के प्रबल विरोधी के रूप में आचार्य महिम भट्ट का नाम संस्कृत साहित्य मे प्रथित है। इनका ग्रंथ "व्यक्तिविवेक" तीन विमर्शों में लिखा गया है। सभी प्रकार की ध्वनियों का अनुमान में अंतर्भाव करने के उद्देश्य से ही इस ग्रंथ की रचना की गई है। मंगलाचरण में ही महिम भट्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है। इसके प्रथम विमर्श में ध्वनि का लक्षण तथा उसका अनुमान में अंतर्भाव, द्वितीय में शब्द और अर्थसंबंधी अनौचित्य का विवेचन और तृतीय विमर्श में "ध्वन्यालोक" में दिखाए गए ध्वनि के चालीस उदाहरणों को अनुमान में ही गतार्थ किया गया है। ध्वनिकार ने जिस प्रतीयमान अर्थ को अर्थात् व्यंग्य को व्यंजनावृत्ति का व्यापार और काव्य में सर्वप्रधान चमत्कारकारक तत्व बताया है, महिम भट्ट उसे अनुमान का विषय बताते हैं। वे शब्द की व्यंजनावृत्ति को भी अस्वीकार करते हैं और केवल अभिधावृत्ति ही मानते हैं। ध्वनिकार ने शब्द के तीन अर्थ कहे हैं -- अभिधेय, लक्ष्य और व्यंग्य। किंतु महिम दो ही अर्थ मानते हैं, एक अभिधेय और दूसरा अनुमेय; यथा--
- "अर्थोऽपि द्विविधो वाच्योऽनुमेयश्च"।
महिम भट्ट उल्लेखनीय तार्किक तथा प्रखर मेधावी आलोचक थे। ध्वनि का खंडन करते हुए इन्होंने रस को अनुमेय सिद्ध किया है और इस प्रकार आचार्य शंकुक के अनुमितिवाद को और आगे बढ़ाया है। काव्य में "रस" को ये प्राणभूत मानते हैं और रस, भाव तथा प्रकृति के औचित्य को भी स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार काव्य का सर्वातिशायी दोष है अनौचित्य। इसमें काव्य के समस्त दोषों का अंतर्भाव हो जाता है। रस की अप्रतीति ही इस अनौचित्य का सामान्य रूप है जो काव्य की मुख्य भावनाओं से और रस से संबद्ध होने के कारण "अंतरंग" तथा शब्दगत होने से "बहिरंग" रूपों में व्यक्त होता है। अनौचित्य की इस प्रकार व्याख्या करते हुए महिम भट्ट, काव्यगत दोषों का आलोचनात्मक दृष्टि से सूक्ष्म और प्रांजल विवेचन करनेवालों में पूर्ववर्ती ठहरते हैं। इन्होंने पाँच प्रकार के दोषों का प्रतिपादन किया है, जिन्हें मम्मट ने भी स्वीकार कर लिया है।
महिम भट्ट कश्मीरी थे। इनकी उपाधि "राजानक" थी। इनके पिता का नाम श्रीधैर्य था और ये महाकवि श्यामल के शिष्य थे। "व्यक्तिविवेक" के अंत में महिम ने अपना यह परिचय दिया है। क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "औचित्य-विचार-चर्चा" और "सुवृत्ततिलक" में श्यामल के पद्य उद्धृत किए हैं। राजानक रुय्यक ने "व्यक्तिविवेक व्याख्या" नाम से महिम के ग्रंथ की टीका की है और आचार्य मम्मट ने "काव्यप्रकाश" के पाँचवे उल्लास में "व्यक्तिविवेक" के विचारों का खंडन किया है। अत: महिम भट्ट क्षेमेंद्र, मम्मट और रुय्यक के पूर्ववर्ती तथा आनंदवर्धन और अभिनव गुप्त के परवर्ती ठहरते हैं। इस प्रकार "व्यक्तिविवेक" और उसके निर्माता महिम भट्ट का काल ईसा की 11वीं शताब्दी का प्रारंभ निश्चित होता है।