सामग्री पर जाएँ

मन्दिर

मन्दिर

भारतीय धर्मों (सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म आदि) हिन्दुओं के उपासनास्थल को मन्दिर कहते हैं। यह अराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित की हुई जगह या देवस्थान है। यानी जिस जगह किसी आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिन्तन किया जाए या वहां मूर्ति इत्यादि रखकर पूजा-अर्चना की जाए उसे मन्दिर कहते हैं। मन्दिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है। वस्तुतः सही शब्द 'देवमन्दिर', 'शिवमन्दिर', 'कालीमन्दिर' आदि हैं।

और मठ वह स्थान है, जहां किसी सम्प्रदाय, धर्म या परम्परा विशेष में आस्था रखने वाले शिष्य आचार्य या धर्मगुरु अपने सम्प्रदाय के संरक्षण और संवर्द्धन के उद्देश्य से धर्म ग्रन्थों पर विचार विमर्श करते हैं या उनकी व्याख्या करते हैं, जिससे उस सम्प्रदाय के मानने वालों का हित हो और उन्हें पता चल सके कि, उनके धर्म में क्या है। उदाहरण के लिए बौद्ध विहारों की तुलना हिन्दू मठों या ईसाई मोनेस्ट्रीज़ से की जा सकती है। लेकिन 'मठ' शब्द का प्रयोग शंकराचार्य के काल यानी सातवीं या आठवीं शताब्दी से शुरु हुआ माना जाता है।

[ Hindi]] में मन्दिर को कोईल या कोविल (கோவில்) कहते हैं।

मन्दिर निर्माण का इतिहास

गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टि गोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और ईंट से मन्दिर बनने लगे। 7वीं शताब्दी तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से बने मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा- कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे हैं,जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चारों ओर बरामदे से युक्त है। गुप्तकालीन आरम्भिक मन्दिर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मन्दिरों की छत सपाट है; तथापि मन्दिरों की उत्तर भारतीय शिखर शैली भी इस काल में ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस शिखर की ऊंचाई बढती रही। 7वीं शताब्दी में बोध गया में निर्मित बौद्ध मन्दिर की बनावट और ऊंचा शिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। भारत के प्रसिद्ध मन्दिर एवम मठ जैसे-उज्जैन का महाकालेश्वर,ओमकारेश्वर,जगन्नाथ पुरी एवम महाभारत काल से जुड़ी मान्यताओं में खाटू श्याम जी का मन्दिर आज ख्याति प्राप्त मन्दिर हैं

khatu shyam ji temple rajsthan
khatu shyam ji temple rajsthan

बौद्ध और जैन पन्थियों द्वारा धार्मिक उद्देश्यों के निमित्त कृत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था और हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था। फिर भी हिन्दुओं द्वारा गुफाओं में निर्मित मन्दिर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोई भी साक्ष्य(प्रमाण) इस सम्बन्ध में नहीं पाया जाता है। गुफा मन्दिरों और शिलाओं को काटकर बनाये गये मन्दिरों के सम्बन्ध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हैं हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है। मद्रास (वर्तमान 'चेन्नई') के दक्षिण में पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम् में, 7वीं शताब्दी में निर्मित अनेक छोटे मन्दिर हैं, जो चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं और जो तमिल क्षेत्र में तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मन्दिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मन्दिरों का महत्त्व और उनके आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत में हिन्दू मन्दिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेश्वर में सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि, 13वीं शताब्दी में निर्मित कोणार्क का सूर्य मन्दिर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विश्वविख्यात मन्दिर है। इसका शिखर इसके आरम्भिक दिनों में ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही शेष बचा है। काल और वास्तु के दृष्टिकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर 11वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान में भी वास्तु के स्वतन्त्र शैली वाले अच्छे मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दशाब्दी के अन्त में वास्तु की दक्षिण भारतीय शैली तंजौर (प्राचीन नाम तंजावुर) के राजराजेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी।

हर मन्दिर मे के प्रारम्भ मे कछुआ क्यो होता है ?

प्रत्येक देवता के ध्वज पर उनको सूचित करने वाला चिह्न (वाहन) होता है।

  1. विष्णु —विष्णुजी की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पीले रंग का होता है। उस पर गरुड़ का चिह्न अंकित होता है।
  2. शिवशिवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है। उस पर वृषभ का चिह्न अंकित होता है।
  3. ब्रह्माजी —ब्रह्माजी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज पद्मवर्ण का होता है । उस पर कमल (पद्म) का चिह्न अंकित होता है।
  4. गणपति —गणपति की ध्वजा का दण्ड तांबे या हाथीदांत का व ध्वज सफेद रंग का होता है । उस पर मूषक का चिह्न अंकित होता है।
  5. सूर्यनारायण —सूर्यनारायण की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पचरंगी होता है। उस पर व्योम का चिह्न अंकित होता है।
  6. गौरी —गौरी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज बीरबहूटी के समान अत्यन्त रक्त वर्ण का होता है । उस पर गोधा का चिह्न होता है ।
  7. भगवती—देवी की ध्वजा का दण्ड सर्वधातु का व ध्वज लाल रंग का होता है। उस पर सिंह का चिह्न अंकित होता है।
  8. चामुण्डा —चामुण्डा की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज नीले रंग का होता है । उस पर मुण्डमाला का चिह्न अंकित होता है।
  9. कार्तिकेय —कार्तिकेय की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का व ध्वज चित्रवर्ण का होता है। उस पर मयूर का चिह्न अंकित होता है।
  10. बलदेवजी —बलदेवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है। उस पर हल का चिह्न अंकित होता है।
  11. कामदेव —कामदेव की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का (सोना, चांदी, तांबा मिश्रित) व ध्वज लाल रंग का होता है। उस पर मकर का चिह्न अंकित होता है।
  12. यमयमराज की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज कृष्ण वर्ण का होता है। उस पर महिष (भैंसे) का चिह्न अंकित होता है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ